ओमकार को अंदाज़ा हो गया था कि दिव्या ने कहीं कुछ रुपए छुपाए ज़रूर हैं वरना शेफाली को डॉक्टर के पास कैसे ले गई। डॉक्टर ने कुछ न कुछ फीस तो ज़रूर ली होगी।
ओमकार ने पहले तो नज़रों से घर का मुआयना करना शुरू किया। उसकी तलाशी लेती नज़रों को देख दिव्या का दिल धक-धक करने लगा। कमरों में तो ऐसा कुछ है नहीं, अलमारियाँ खुली पड़ी हैं, न फर्नीचर ज़्यादा हैं न कोई छिपे हुए कोने हैं, जिसमें कुछ छिपाया जा सके। वो अपना सारा समय रसोई में बिताती है, होगा तो ज़रूर रसोई में ही होगा, वहीं डिब्बे-डुब्बी बहुत रखे हैं। और था भी रसोई में ही।
ओमकार रसोई की ओर चला तो दिव्या भी उसके पीछे लपकी। उसे ऐसा लग रहा था कि ओमकार उसका दिमाग़ पढ़कर रसोई में छुपे पैसे निकाल ही लेगा।
वह किचन में जाकर चावल के डिब्बे के आगे खड़ी हो गई। जैसे उसके छिपाने से डिब्बा छिप ही जाएगा।
“क्या ढूँढ रहे हो? यहाँ कुछ नहीं है।”
“कहाँ रखे हैं रुपए? बता।”
“कोई रुपए नहीं हैं मेरे पास। तुम निकलो किचन से। यहाँ उथल-पुथल मचाना बंद करो।”
“रुपए निकाल। देख मुझे सख्त ज़रुरत है।”
“खूब समझती हूँ तुम्हारी ज़रुरत। दूसरों पर लुटाने के लिए तुम्हारे पास रुपए आ जाते हैं, अपनी बेटी के इलाज के लिए नहीं।”
उसने हवा में चूड़ियों से भरे दोनों हाथ खनकाते हुए विलाप किया “शेफाली बुखार में तड़प रही है। उसे डॉक्टर को दिखाना तो दूर तुम बाहर जाकर दूसरों को खिलाने में लगे हो। अरे कुछ तो रहने दो घर में। डॉक्टर ने ढेर सारे टेस्ट और दवाइयाँ लिखी हैं। कहाँ से होगा सब? और एक तुम हो। सारी दुनिया के लिए तुम्हारे पास पैसे हैं लेकिन अपनों के लिए। सारी जमापूँजी, तनख्वाह, सब तो परोपकार की भेंट चढ़ा चुके हो। अब कुछ हम पर भी उपकार करो।”
उसकी बातों पर ध्यान न देकर ओमकार किचन में नज़र घुमा रहा था कि आख़िर कहाँ से शुरू करे। इतने सारे टिन-डिब्बे तो हैं। देखते-देखते ओमकार की नज़र उस अल्मुनियम के डिब्बे पर भी गई जो नीचे रखा था और दिव्या की साड़ी के पीछे से झाँक रहा था।
दिव्या सकपका गई। उसके चेहरे पर साफ़-साफ़ लिखा था कि इसी डिब्बे में है।
“बगल हो जा।”
“नहीं। क्यों?”
“हट जा परे।”
कहते हुए उसने दिव्या को ढकेल कर डिब्बा उठाकर खोल लिया और तीन-चार किलो चावल में से झाँकती नोटों की गड़्डी खींच ली। करीब दस हज़ार तो होंगे। काम तो नहीं हो पाएगा, फिर भी चला लेंगे। थोड़े कम गरीबों को खाना खिलाएंगे और कम पटाखे फोड़ेंगे।
दिव्या हतप्रभ देखती रही। जब वह जाने लगा तो उसे जैसे होश आया हो और उसके हाथ से गड़्डी छीनने के प्रयास में उलझ पड़ी। पर ओमकार पहले से ही तैयार था। उसने उसके पहले ही प्रयास को विफल करते हुए झटका देकर, दूर धकेल दिया। नोट छीनने के लिए जिस हाथ को दिव्या ने आगे बढ़ाया था, उसे इतनी ज़ोर से पकड़कर ओमकार ने पीछे फेंका था कि उसकी हरी चूड़ियाँ चटखकर बिखर गईं और जब तक अपनी खरोंच सहलाती दिव्या ज़मीन से उठ पाती, ओमकार दरवाज़े के बाहर हो, सीढ़ियों पर से नीचे चला जा रहा था।
दिव्या दौड़कर बालकनी में गई तो देखा कि नीचे वाली पड़ोसन ओमकार से उसके हाथ में लगे खून का कारण पूछ रही थी।
“क्या करूँ बहनजी? औरत जैसी भी हो, सँभालना तो पड़ता ही है।”
“कैसे परमात्मा आदमी हैं आप? कैसे झेल लेते हैं उसका पागलपन।”
ओमकार को पार्टी दफ़्तर के लिए देर हो रही थी।
“अच्छा चलता हूँ। ज़रा काम है।”
“ज़रूर कोई परोपकार का काम होगा। तभी इतनी जल्दी मचाए हुए हैं।”
ओमकार का सीना फूलकर इतना बड़ा हो गया कि सारी धरती उसमें समा जाए। वह खीसें निपोरकर उसकी कही बाद को समर्थित करता हुआ निकल गया।
दिव्या तीसरी मंज़िल की बाल्कनी से यह सब तमाशा देख रही थी। वह ओमकार को दूर जाते हुए देख रही थी कि नीचे उस पड़ोसन को एक और पड़ोसन मिल गई। दोनों बाल्कनी में उसकी उपस्थिति से अनजान, मिलकर उसकी बुराई करने लगीं।
“भाई साहब कितने परोपकारी आदमी हैं। जब देखो समाज सेवा में लगे रहते हैं। अपना घर-बार तक लुटा दिया। केवल दूसरों के लिए। दुनिया को ऐसे ही लोगों की ज़रूरत है। इन्हीं से तो दुनिया चल रही है।”
दिव्या ने मन ही मन जवाब दिया कि बिलकुल परोपकारी आदमी हैं, लेकिन केवल दूसरों के लिए। अपनों के लिए क्या हैं? कुछ भी नहीं। नहीं तो यहाँ बेटी बीमारी से लड़ रही है। डॉक्टर ने टेस्ट कराने को कहा है ताकि बीमारी का पता चल सके और इलाज हो सके। मगर इन जनाब को ....उफ्फ। यही कोई और होता या किसी और की बच्ची होती तो दौड़-धूपकर, अच्छे से अच्छे अस्पताल ले जाकर, उसका इलाज कराते। दुनिया तो इनके दम से चल ही जाएगी, मगर घर किसके भरोसे चलेगा? दूसरे की मज़ार पर दीया जलाते हैं, मगर अपना तो घर फूँके डालते हैं न।
“हाँ बिल्कुल। और एक वो चुड़ैल है। जाने कैसे ऐसे देवता इंसान को ऐसी राक्षसी मिल गई। उन्हें कुछ करने ही नहीं देती। हर काम को करने के लिए उन्हें उससे लड़ना पड़ता है। अब उसी दिन की बात है। चिंटू का फैंसी ड्रेस कम्प्टीशन था। मैं घर से निकली तो लगा पैदल पहुँचूँगी तो स्कूल के लिए देर हो जाएगी। सामने भाई साहब को देखकर उनसे स्कूटर पर छोड़ आने को कह दिया तो बड़ी खुशी से मान गए। मगर नज़र उठाकर बालकनी में देखा तो वो चुड़ैल आँखें लाल किए मुझे गुस्से से देख रही थी जैसे बहुत बड़ा पाप....”
बोलते-बोलते ख्याल आया कि चुड़ैल कहीं फिर......। नज़र उठाकर देखा तो वो सच में आज भी बाल्कनी में खड़ी घूर रही थी। दोनों तुरंत तितर-बितर होकर अपने घर में घुस गईं।
मगर दिव्या वहीं खड़ी उनकी बातों का मन ही मन जवाब दे रही थी कि क्यों न गुस्से से तुझे देखती डायन। तेरे बेटे का फैंसी ड्रेस छूट रहा था, मगर उसी वक़्त मेरी बेटी के सालाना इम्तहान छूट रहे थे। ये साधु महाराज तेरे बेटे को तो मज़े से स्कूल छोड़ आए, मगर मेरी बेटी...मेरी बेटी को उस दिन क्या-क्या नहीं सुनाया। आत्मनिर्भरता का इतना लंबा-चौड़ा भाषण तुझे भी सुनाते तो तू भी मेरी तरह आँखें लाल किए घूरती।
दिव्या किसे घूरे इस वक़्त। दोनों जा चुकी थीं तो उसे शेफाली का ख्याल आया। वह अंदर कमरे में गई तो शेफाली बुखार में बेहोश सी थी। कभी आँख खोलने की कोशिश करती, मगर फिर सो जाती। दिव्या का दिल चूड़ियों की तरह चूर-चूर हो रहा था। उसने दिमाग़ पर बहुत ज़ोर डालने की कोशिश की कि कहीं कुछ रुपए हों। जो साठ-सत्तर हज़ार उसने सालों से घर के खर्चे में से बचाए थे, वो तो नोटबंदी के समय निकालने पड़े। यही दस हज़ार रूपए थे जो उसने सौ के नोटों के रूप में रखे थे, सो बच गए थे मगर नहीं बच पाए...कहाँ बच पाए...।
दिव्या से शेफाली की हालत देखी नहीं जा रही थी। वो उठकर दूसरे कमरे में आ गई। अब वो वहाँ नहीं बैठेगी। अब शेफाली को चाहे जिस चीज़ की ज़रूरत हो, वह वहाँ नहीं जाएगी। जब उसकी किसी ज़रूरत को वो पूरा ही नहीं कर सकती तो लाचार हो उसे देखने का क्या फ़ायदा। उसे दवाई की ज़रूरत है, मेडिकल जाँच की ज़रूरत है, वो पूरी कर सकती है? नहीं अब तो उसे पानी की भी ज़रूरत हो तब भी वो वहाँ नहीं जाएगी।
आजकल की दवाईयाँ और टेस्ट तो उफ हैं। कोई भी टेस्ट उठाकर देख लो, लगता है डाग्यनोस्टिक वाले कह रहे हों कि यदि जान प्यारी है तो अपनी ज़ायदाद निकाल के रख दो। उस पर डॉक्टर भी कम नहीं, जब लिखेंगे तो एक गठ्ठर टेस्ट ही लिखेंगे। जब तक डायग्नोस्टिक सेंटर की तिजोरी आप भर के नहीं आते तब तक तो डॉक्टर आपको हाथ भी नहीं लगाएगा।
दिव्या ने एक नज़र घर में दौड़ाई कि कहीं कुछ नज़र आए जो इस समय दिव्या की जान से ज़्यादा कीमती न हो। पूरा घर सूना-सूना खाली-खाली सा लगा। बस दीवार पर एक कैलेंडर दिव्या के हौंसलों की तरह हवा में उठ-उठकर गिर जा रहा था।
दिव्या की निगाह उस कैलेंडर पर टिक गई। किसी गहने की दुकान का विज्ञापन छपा था। कैलेंडर में खूबसूरत मॉडल ने चमकदार बॉर्डर वाली साड़ी के साथ ढेरों गहने पहने थे। उस चित्र में कपड़ों, गहनों और चेहरे से भी ज़्यादा अगर कुछ चमक रहा था तो वो थे उसके दाँत। मनोहारी मुस्कान फेंकती उस मॉडल को देखकर दिव्या आँखें एकदम से बुझ गईं।
इस समय उसे ओमकार से ज़्यादा अपने ऊपर गुस्सा आ रहा है कि अच्छी बीवी बनने के चक्कर में उसने कभी एक गहना तक नहीं बनवाया। अपनी देवरानियों की तरह रो-धोकर, जिद्द करके कई थान गहने बनवाए होते तो शायद आड़े समय में काम आ जाते। मगर नहीं जितने साधु महात्मा ये हैं उतनी ही वो भी हो गई। लो भुगतो नतीजा। लड़की...
दिव्या की नज़र फिर उसी कैलेंडर पर गई। आज 18 तारीख है। पिछले महीने भी 18 तारीख थी, जब इनके बचपन के दोस्त सिंह साहब की बेटी इस शहर में डॉक्टरी का इम्तिहान देने आई थी। कैसे भाग-दौड़कर उसे स्टेशन लेने, एक्ज़ाम दिलाने ले गए थे। उसके खाने-पीने और रहने में कोई कमी न रहे, नहीं तो इनकी मेहमान नवाज़ी में दोष लग जाता। और अपनी बेटी, उसे तो दर-दर की ठोकरें खाने के लिए छोड़ दिया। इनको तो पता भी नहीं होगा कि अपनी बेटी क्या पढ़ रही है, क्या इम्तिहान दे रही है। उफ्फ।
हाँ आज फिर 18 तारीख है। राज्य के चुनावी नतीजों का दिन। जिस पार्टी को ओमकार जिताना चाहते थे, वो जीत गई है। घर-घर जाकर प्रचार किया था उसने। दिव्या कहती रह गई कि शेफाली की तबियत ठीक नहीं है उसे दिखा लाओ। पर उसे लगता था कि यह पार्टी आएगी तो लोगों का भला होगा और सबकुछ एकदम जनता के हित में होने लगेगा। दिव्या उसको कैसे समझाती कि देश की सब पार्टियाँ तो चोर हैं, कोई कम, तो कोई ज़्यादा। मगर कहाँ समझनेवाला था ओमकार ।
वो तो तब भी नहीं समझा था जब दिव्या ने पुश्तैनी घर गिरवी रखने से मना किया था। दिव्या ने सूने घर में नज़र दौड़ाई। छत के एक कोने पर सीलन लगी हुई है। शेफाली के होंठो की तरह पपड़ी बनी पड़ी है। कब तक रहेंगे इस सरकारी क्वार्टर में। एक दिन तो खाली करना पड़ेगा न। तब वही घर सहारा होता। मगर नहीं वह तो बिक गया। किसलिए? इनके भाइयों का बंगला बनवाने के लिए, मजार का दीया जलाने के लिए, और किसलिए। भाई ज़रा रो-गिड़गिड़ा दिए तो बस इनका परम दायित्व हो गया कि उनके सर पर छत खड़ा करें...भले अपनी गिरा दें।
दिव्या वापस बालकनी में आकर खड़ी हो गई। दूर गली के मुहाने से गुज़रती चौड़ी सड़क पर बाइकसवारों का झुंड नारा लगाते तेज़ी से गुज़र रहा था और जीती हुई पार्टी के झंडे फहराता जा रहा था। दिव्या बस पथराई आँखों से उसी ओर देखती रही।
आज भी नहीं माना ओमकार। उसकी इज़्ज़त का सवाल जो बन पड़ा है। उसने ही तो ऐलान किया था न कि पार्टी जीतेगी तो मंदिर में भंडारा करवाएगा। तो लो पार्टी के दफ्तर के बाहर उसके पैसे से पटाखे की लड़ी फूट रही है और मंदिर में वह भंडारा कर रहा है। गरीबों को खिलाकर ही मंदिर में दीया जलाएगा।
जैसे-जैसे गरीब-गुरबों को वो पूड़ियाँ डालता जा रहा है, वैसे-वैसे शेफाली की साँसें तेज़ होती जा रही हैं। लोग दुआएँ देने के लिए हाथ उठा रहे हैं। शेफाली भी हाथ उठा-उठाकर कुछ कह रही है। क्या? पता नहीं? वहाँ मंदिर में भोज पूरा हो रहा है और ओमकार दिया जला रहा है। यहाँ शेफाली की ज़रूरतें खत्म हो रही हैं और....और जलती साँसें बुझ रही हैं।
हाँ मंदिर में दीया जल रहा है। मगर घर में बुझ गया।
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