उदय अपने जूते और कपड़े इधर-उधर फैला कर कुर्सी पर बैठ चुका था। दीपा ने बैग ,कपड़े समेट कर घर के कपड़े टेबल पर लाकर रखे और इषारा किया कि ‘ कपड़े बदल लो‘ पर गेम खेलने की बेताबी ने स्क्रीन पर से नजर हटाने नहीं दी। इस पर डपटते हुए आदेष दिया उसने। उसके लिये खाना और दूध टेबल पर लाकर रखा। खाना देखकर मुंह बिगाड़ा और दूध पीकर फिर खेलने में मषगूल हो गया। तभी बरामदे में से धप्प की आवाज आई। झांक कर देखा तेज धूप अपने विकराल रुप में पसरी थी। बेचारी छाया डरती-मरती कहीं इधर-उधर दुबकी पड़ी थी। सड़क की ओर देखा तो डाकिया ट्रिन-ट्रिन करता घंटी बजाता जाता दिखा। डाक डाल कर गया होगा! उसे खुषी होती है अपनी डाक आने पर । उदय को देखा वो अब भी मषगूल था खेलने में। खाना और कपड़े जस के तस पड़े थे। आवाज लगाई और प्रतिक्रिया के लिये उसका मुंह जोहने लगी पर वहां षून्य था। चार बार पुकार के बाद भी नहीं सुना तो वह झुंझला उठी बच्चों के इस चस्के पर। भन्नाते हुये उसके पास पहुंची तो साहबजादे हैडफोन लगाकर संगीत के साथ गेम की तालमेल बिठाते हुये थिरक रहे थे। हैडफोन का तार खींचा तो वह चौंक गया। मज़ा किरकिरा होने से रुंआसा हुआ फिर चिढ़कर बोला‘‘ क्या मम्मा खेलने दो ना !!‘‘ ‘‘ ....ना बहुत हुआ खेलना.... अब पढ़ने का समय हुआ। वैसे भी षाम को तुम अपना फेवरेट सीरियल भी तो देखोगे ना ! इसलिये गेम अब खतम करो और पढ़ने बैठो ....और हां .....उससे पहले बाहर डाक आई पड़ी है अंदर ला दो। ‘‘‘उंउं....हहहह कितनी तेज धूप है .‘‘ वह रुंआसा होने का नाटक करने लगा। उसे पता है कि मां को कैसे हंसा कर क्रोध के मोड से हैपी मोड पर लाया जा सकता है। पत्रिकायें देखकर तो पुलकित हो ही जाती है पर बेटे की ये अलग-अलग मूड की अठखेलियों कर चुटकियों में राजी किया जा सकता है। वह मां से लिपट कर गुदगुदी करने लगा । मां को खुष हुआ जान कर बरामदे की ओर भागा। षाम पांच बजे वह ठण्डक को 22 डिग्री पर कर पत्रिका पढ़ने बैठी।चैन से पत्रिका पढ़ना उसे बहुत पसंद है। पढ़ते -पढ़ते कुछ लिखने को मन में उमड़ा तो डायरी हाथ में ली ही थी कि बिजली गुल । 5-10 सैकंड के बाद भी जब इनवर्टर चालू नहीं हुआ तो उसका माथा ठनका। कमरे से बाहर निकली तो उदय भी बाहर निकल ही रहा था। कोई गड़बड़ थी । उसके मनपसंद के कार्यक्रम का समय होने जा रहा था और बिजली ऐन वक्त पर गायब। दोनों ही चिंतातुर थे अपनी-अपनी पसंद के कामों को लेकर। दीपा चिंता एक और थी वह उससे भी बड़ी थी। षाम का खाना कैसे बनेगा ? मेहमान आने की भी संभावना है क्योंकि सावों की अभी धूम है। और तो और ऐसी गरमी में पंखे-एसी बिना काम चलेगा नहीं। घर में काम करने वाले लड़के का खयाल आया। कामचलाउ मिस्त्रीगिरी कर लेता है वो भी। छोटे-मोटे अड़े काम निकाल ही देता है। इससे भी खूब सहारा मिलता है। पर अभी वह भी बाजार गया है। जाने कब तक आयेगा । तब तक क्या करे?उसे कुछ और प्रयास करने चाहिये। कुछ ही देर में षाम ढलने लगेगी। यह विचार आते ही अभय को फोन लगाया पर स्विच ऑफ आया। वह झुंझला उठी। उंह जब भी जरुरी काम होता है अभय का फोन जाने क्यूं स्विच ऑफ ही आता है।परेषानी और झुंझलाहट उसके चेहरे पर छाने लगी । ओह हां! उनकी आज मीटिंग है। 2-3 घंटे मोबाइल ऑफ रहेगा और आयेगें भी देर से । ऐसा कहकर गये थे। पर ऐसी गरमी में तो एक पल भी रहना मुष्किल है फिर रात कैसे कटेगी। तो क्या उसे ही प्रयास करने होगें। उफ! वह सोच कर ही घबरा उठी । पर उसे मिस्त्रियों से सख्त चिढ़ है। समय पर काम ना करना और टालते हुए लगातार कई दिनों तक भरोसे रखना , इन आदतों के कारण उसे कोफत होती है। पर भरे -पूरे घर में इतने साधन-मषीनें है कि कोई न कोई खराब होता ही रहता है। फिर षुरु होते इनकी चिरौरी के दिन। पूरी गरज जतानी पड़ती है। जिनसे कोई मेल नहीं उन्हीं पर इतनी निर्भरता ! उसे समाज के नेटवर्क पर अचंभा होता है। कैसे एक कड़ी से दूसरी कड़ी जोड़ कर रखी है। सबका किसी न किसी से काम पड़ता ही है। पड़ना ही चाहिये पर इनकी धौस की ये प्रवृत्ति कि साहब चाहे कितने ही बड़े ऑफिसर हो घर को सुचारु रुप से चलाने के लिये तो हमारी गरज करनी ही पड़ती है। ये रौब उनसे गांठे और गिनाये बिना रहा नहीं जाता । अपनी खुन्नस निकालने का जरिया भी है ये। खुद के ऑफिसर ना बन पाने की कुंठा ऐसे ही समय निकालने से चूकते नहीं है। किसी भी अफसर का काम कूलर , बिजली वाले से हमेषा पड़ता है पर जज ,इंजीनियर साहब से मिस्त्री का काम आ पड़े ही इसकी संभावना कम ही है। इस बात से उनके अहम की तुश्टि तो हो ही जाती है। और वे सही भी है। पर इनकी टालू और भरोसे रखने की प्रवृत्ति से आजिज आ चुकी है। किसी भी मिस्त्री को आने के लिये कहो तो ‘‘ हां साब आता हूं। आज ही आता हूं ....अभी ।‘‘ फिर दो दिनों तक कोई हलचल नहीं। उसके इंतजार में ही आंखें टिकी रहती है। फिर खराब उपकरणों के ठीक होने की प्रतीक्षा में ही दिन निकलते है। दुबारा कहो तो हां साब! कुछ काम हो गया था। क्या है कि सीजन है ना । समय ही नहीं मिलता। काम बहुत है।‘ अब तो इतने अनुभवों के बाद वह भी चिढ़ के कह देती है-तो क्या हम बेगार करायेगें ? मेहनताना तो हम भी देगें ही ना। फिर कहने के बाद भरोसे रखना अच्छी बात थोड़े ही है। ना आना तो मत आओ किसी और को कहेगें। तुम एक ही तो नही हो। पर वह जानती है कि सब एक ही थाली के चट्टे-बट्टे है। जैसा कि अक्सर कहा जाता है। अगर इतनी समझ या होषियारी होती तो मिस्त्री न होकर ऑफिसर ही बन जाते ना । वह ये मान लेती पर उससे क्या ? कई बार इन लोगों के कहने अपने जरुरी काम भी टाले, पूरे-पूरे दिन यही लगता कि आ जायेगा कहा है तो। नहीं आना होता तो क्यूं कहता कि आज आउंगा। फिल्म,मेहमान कई बातों का त्याग किया है क्योंकि छोटे परिवार के रहते किसी को छुट्टी लेकर ही घर पर रहना होता है और यूं भी गरमियों में फ्रिज -एसी का ठीक रहना ज्यादा जरुरी होता है बजाय फिल्म देखने आदि किसी काम के । छुट्टी की क्या कीमत होती है वह नहीं जानते। लगातार दो दिनों तक नहीं आने पर किसी को भेजकर उसे दूल्हे की तरह गरज से लेकर लिवाना पड़ता है और बिटिया की तरह पहुंचा कर भी आना मजबूरी हो जाती है। उसको खा जाने वाली नजरों से घूरा तो खींसें निपोरते बोला ‘‘ सीजन है मैडम ...‘। दीपा को अपना सिर नोचने की हालत जान पड़ी। किसी भी पुरजे बिना मषीन का काम नहीं चलता सो इन लोगों के बिना भी तो घर का काम नहीं चलता ना। जब भी ऐसा होता है कितने फोन , टालमटोल के बाद ही काम पूरा हो पाता है और तब ऐसा लगता जैसे गढ़ जीत लिया हो, नया जीवन मिल गया हो। इतने सालों की गृहस्थी में वह तंग आ चुकी है ऐसे कड़वे अनुभवों से । अच्छे मिस्त्री भी मिले पर इने गिने।अब तो कोई चीज खराब हो जाये तो भय लगता है। कभी लगता है मषीनरी पर इतना निर्भर भी नहीं होना चाहिये। जहां तक हो सके सुविधायें कम रखी जाये। उसे इस विचार से हंसी भी आती कि मिस्त्रियों के झमेले से बचने के लिये सुविधासंपन्न बनकर ना रहे इंसान। पर ये भी तो बाद में समझ आता है। कितना भी कुछ भी अनुभव हो पर जाको काम उसी को साजे । ये काम तो इसी के जानकार ही कर पायेगें । अघ्यापक ,इंजीनियर आदि तो उनका काम करने से रहे। वह इन्हीं विचारों में खड़ी रही तब तक उदय ने सुझाव दिया ‘‘ किषोर को फोन कर लें‘‘ उसने घूर कर उदय की ओर देखा। वह जानता है कि मम्मा किषोर से ,उसकी बातों से कितना चिढ़ती है। वह झेंप कर मुड़ गया कमरे की ओर। कितना बोलता है बाप रे! अनथक बोलना उसकी खासियत है। एक बार उससे बात करना अपने आपको घनचक्कर करने जैसा है। बात पर बात , बात से बात निकालता रहता है। हजारों बातें। एक बात भी बार -बाार और फिर कई बार कहीं की बात कहीं ले जाता है। जमीन से आसमा तक। सुनने वाला कुछ समझ ही नहीं पाता । बात का सिरा ही ढूंढता रह जाता है।और साथ में पान मसाले से भभकती बदबू। गुटखा चबाते -चबाते बोलते जाना और वो बदबू के भभके कि इंसान पास तो क्या कुछ दूरी पर भी खड़ा न हो सके । और फिर बीच-बीच में आं...उं...आंआं की आवाज आती रहती है। और साथ ही थूक को गिटते हुये एक -एक सैकंड के विराम अनवरत चलते ही रहते है। बिजली के उपकरणों के बारे में खराबियों के बारे में उस की जानकारी और सबसे ज्यादा ईमानदार और होषियार साबित करने की कोषिष भी चलती ही रहती है। और सचमुच ही कई बार उसने ऐसी -ऐसी यूज़ और थ्रो वाली चीजों का ऑपरेषन कर ऐसी मरहप पट्टी की कि वाकई उसकी होषियारी को मानना पड़ा और उसके बाद वह बरसों चलायमान रहे। काम की चतुराई में उससे षायद सब पीछे है। उसके हाथ लगने के बाद वह चीज खराब ही नहीं होती ।बस उसकी बातों को झेलना आना चाहिये। समय निकलता जा रहा था। मारे गरमी के बुरा हाल था। ना तो कुछ सूझ रहा था और ना ही किया जा रहा था। उदय ने दो-एक मिस्त्रियों को फोन लगाया पर नहीं लगा। अब चिंता बढ़ गई थी। षाम अब ढलने को ही थी। अभी कुछ ना किया तो फिर पूरी रात गरमी में ही निकालनी पड़गी। जबकि बिना ठंडक के इंतजाम किये ,सोये वर्शों बीत गये है। छत पर सोने का अंदाज ही याद नहीं। मुददत हो गई आसमां को रात में निहारे । उस प्राकृतिक षांति में सोये । अगर आज बिजली ठीक नहीं हुई तो यह सब आज हो ही जायेगा। छत पर सोये तो उदय पूरी रात पैर पटकता ही रहेगा ।....षाम होने लगी थी। उदय अपने टीवी सीरियल को लेकर बेचैन था। उसकी बेसब्री बता रही थी कि किषोर को ही फोन किया जाये। कैसी भी गड़बड़ हो वह ठीक कर ही देगा। मैंने सहमति में सिर हिलाया और उधर उसने उसके फोन नंबर डायल कर दिये। घंटी लगातार जा रही थी पर जवाब नहीं था। उदय को थोड़ी देर से रह-रह कर फोन की कोषिष करते रहने को कहा। गरमी के मारे बुरा हाल था। अब टीवी सीरियल की बजाय उसे रात के खाने और सोने की चिंता सताने लगी । वह फुरती से रसोई में घुसी और खाने की तैयारी षुरु की । वह टाल रहा होगा फोन को। उसे भी काम की कमी नहीं है। गरज में गधे को भी बाप बनाओ ...वह बुदबुदाई । समय बीत रहा था धुंधलके में और बिजली ठीक होनी असंभव है ऐसा लग रहा था। जल्दबाजी में उसने भी चार-पांच बार नंबर डायल किये। पर जवाब या वापसी कॉल नदारद। अब इतनी षाम को कोई और भी बिजलीगर नहीं मिलेगा। ऐसे मेें किषोर को घर जाकर ही बुला लाना ठीक रहेगा। घर अधिक दूर नहीं है पर मुझे अपनी बेबसी पर कुढ़न हो रही थी। कितना भाव खाते है ये लोग। और जब इनका काम किसी ऑफिस में पड़े और वह वे भी समय पर काम ना करे तो?? पर ऑफिस की इमेज पहले ही खराब है। अफसरो से काम कराना आसान है पर इनसे काम लेना टेढ़ी खीर। बाजार से घर में काम करने वाला लड़का आ गया था। मैंने फुरती से उसे किषोर के घर दौड़ाया और उसे कहलवाया कि कहना जल्दी आये। वह साइकिल लेकर भागा और उल्टे पैर वापिस आ गया। चेहरे पर हवाईयां उड़ी हुई थी। कांपता सा वह घबराया हुआ आया। बड़ी मुष्किल से इतना ही कह सका -किषोर के घर खूब भीड़ है। कुछ देर पहले ही हार्ट अटैक से उसकी मौत हो गई....... ओह तो क्या हमारे फोन करने के समय वह मौत से जूझ रहा था !!
----किरण राजपुरोहित नितिला