Meri Janhit Yachika - 3 in Hindi Fiction Stories by Pradeep Shrivastava books and stories PDF | मेरी जनहित याचिका - 3

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मेरी जनहित याचिका - 3

मेरी जनहित याचिका

प्रदीप श्रीवास्तव

भाग 3

पापा के साथ खाना खाते समय मेरी बातें होती रहीं। मैंने देखा कि पापा दोनों भाइयों के बारे में बात करने के इच्छुक नहीं हैं। वही पापा जो पहले बच्चों की बात करते नहीं थकते थे। पापा खाना खाकर लेटे और जल्दी ही सो गए। मैं थका था। लेकिन इन्हीं सब बातों को लेकर मन में चल रही उलझन के कारण नींद नहीं आ रही थी। दोनों भाइयों, भाभी और अनु की बातें घूम रही थीं। उन सारी बातों का मन में एक विश्लेषण सा होने लगा।

अचानक मन में यह बात आई कि कहीं यह दोनों भाई घर में जो हुआ उसके लिए पापा, अम्मा को तो ज़िम्मेदार नहीं मानने लगे हैं। जो उनसे इस तरह मुंह मोड़ लिया है। इतने रूखे हो गए हैं कि बाप भूखा है, जिंदा है, या मर गया इसकी भी परवाह नहीं । मुझे लगा कि मेरी यह आशंका एकदम सही है कि पापा यहां एकदम अकेले पड़ गए हैं। उनकी देखभाल, खाने-पीने की कोई व्यवस्था नहीं है। मैंने तय कर लिया कि पढ़ाई हो या ना हो अब पापा को छोड़ कर नहीं जाऊंगा।

मगर अगले दिन पापा बात शुरू करते ही आग-बबूला हो गए। ‘तुम अपनी पढ़ाई पूरी करो। बाकी चीजों से तुम्हें कोई मतलब नहीं। अगर तुम्हें भी अपनी मनमर्जी करनी है तो करो।’ गुस्सा होते-होते यहां तक धमकी दे दी कि ‘नहीं करोगे तो मेरा मरा मुंह देखोगे।’ यह बात कहते वक्त उनके चेहरे, उनकी आवाज़ में जो दृढ़ता थी, उससे मैं डर गया। आखिर मैंने यह तय किया कि एक काम वाली लगा कर जाऊंगा। जो साफ-सफाई, खाना-पीना पूरा कर दे।

घर करीब दस दिन रुका रहा। पापा की आंखें चेक कराई। उन्हें दवा वगैरह दिलवाई। जब तक रहा तब तक उन्हें रोज घुमाने ले गया। भाइयों के प्रति पापा की सोच क्या बन गई है यह जानने के लिए मैं उनसे उन लोगों की बात करने की कोशिश करता तो पापा बिना देर किए बात यह कह कर टाल देते ‘बेटा वो लोग भी अपनी समस्याओं से जूझ रहे हैं। उनको जब समय मिलता है तब वे मेरा ध्यान रखते हैं।’

मैं मन में कहता पापा अपनी समस्याएं तो सब की हैं। तो क्या कोई अपनी ज़िम्मेदारी नहीं पूरी करेगा। और आपकी यह बात बिलकुल झूठ है कि वो लोग समय मिलने पर अपका ध्यान रखते हैं। ऐसा होता तो आपको बार-बार पड़ोसियों की मदद ना लेनी पड़ती। मुझे इतने दिनों में सब मालूम हो गया है। समस्याएं तो पड़ोसियों के पास भी हैं। लेकिन आपके बुलाने पर आ तो जाते हैं। फिर बेटे क्यों नहीं? दस दिन से देख रहा हूं कि कोई एक बार भी देखने नहीं आया कि कैसे हैं आप? और मैं, आप खा-पी रहे हैं या नहीं। फ़ोन तक तो आया नहीं।

मेरा मन नहीं माना तो दिल्ली लौटने से एक दिन पहले मैंने कहा पापा ऐसा है कि मैं जब तक लौट कर आ नहीं जाता तब तक आप बड़े भइया के पास रहिए। या फिर यहां मकान किराए पर दे देते हैं। आप मेरे साथ चलिए। आप को सेफ करके ही मेरा मन पढ़ाई में लग पाएगा। पापा फिर बिफर पडे़। ‘तुम मेरी सेफ्टी की चिंता मत करो। अभी मैं इतना गया-गुजरा नहीं हूं कि अकेले नहीं रह सकता। अब जमाना बहुत बदल गया है बेटा, उसे देखते हुए अपने को ढालोगे नहीं तो नुकसान उठाते रहोगे। ठीक है तुम्हें मेरी इतनी चिंता है तो जब नहीं रह पाऊंगा तब चला आऊंगा तुम्हारे पास दिल्ली। ज़रूर कोई अच्छे कर्म किए हैं जो तुम जैसी औलाद मिली।’ यह कहते-कहते वह भावुक हो उठे।

अगले दिन मैं काम वाली के सहारे पापा को छोड़ कर दिल्ली आ गया। आने से पहले अपना कर्तव्य समझते हुए दोनों भाइयों से भाभी एवं बच्चों से भी मिला। बच्चों को छोड़ कर बाकी सब ऐसे मिले जैसे कोई बिन बुलाए आ पहुंचे मेहमान से मिलता है। किसी ने एक बार भी नहीं पूछा कि इतने दिन रहे, दुबारा क्यों नहीं आए? मंझले भइया की अनु ने जरूर कहा ‘आप तो दुबारा आए ही नहीं।’ मैंने कहा बस कुछ काम में उलझा रहा।

इस बार दिल्ली आने के बाद मेरा मन हमेशा पापा पर लगा रहता। कैसे हैं, वो क्या कर रहे होंगे। खाना खाया कि नहीं। आते वक्त मैं दो-तीन पड़ोसियों के मोबाइल नंबर ले आया था। उन्हें फ़ोन करता रहता। हाल-चाल लेता रहता। काम वाली को दिन भर में दो तीन बार फ़ोन करके पूछता रहता खाना दिया कि नहीं? उनकी तबियत कैसी है? वास्तव में यदि पापा का पढ़ाई पर इतना जोर ना होता। वो इसे अपनी अंतिम इच्छा ना कहते तो इस बात की पूरी संभावना थी कि मैं पढ़ाई छोड़ कर लखनऊ चला जाता। लेकिन पापा ने जो बेड़ियां डाली थीं, वो पढ़ाई पूरी किए बिना खुलने वाली नहीं थीं।

इसलिए मैंने जी-जान से पढ़ाई पर ध्यान दिया। प्रोफ़ेसर के एकदम पीछे पड़ गया। मगर उनके जितना पीछे पड़ता वह उतना ही हर चीज को उलझा देते। इससे मेरी उलझन बढ़ गई। मैं चिड़चिड़ा सा होने लगा। खीझ कर मन में यह भावना पनपने लगी कि जो होना होगा, होगा। अब प्रोफे़सर या किसी के पीछे नहीं पडूंगा। इधर पैसों की दिक्कत भी शुरू हो गई थी। घर पर नौकरानी और कई अन्य बातों से खर्च बढ़ गया था। इसलिए मैं पापा से कम से कम पैसा मांगता।

पहले जो कमरा लेकर अकेले रहता था वह छोड़ दिया। वहां से एक सीनियर के साथ रहने विकासपुरी आ गया। उनके साथ कुछ और लड़के भी रहते थे। उनमें एक एम. टेक. कर रहा था। बाकी भी ऐसे ही कुछ ना कुछ पढ़ रहे थे। सीनियर जो थे वह भी मेरी तरह रिसर्च स्कॉलर थे। कहीं कुछ काम भी करते थे। रोज के काम के लिए बाई थी। यहां आकर मैं खर्च में कटौती कर ले गया। लेकिन इन साथियों का खाने-पीने, जीवन शैली से शुरुआती कुछ हफ्तों तक मैं बड़ा असहज था। मगर यह साथी इतने उस्ताद थे कि मुझे जल्दी ही अपने जैसा बनाने में सफल हो गए।

पहले जहां महीने में एकाध बार नॉनवेज़ लेता था, अब वह महीने में बीस-बाइस दिन हो गया। पहले जहां स्मोकिंग, टोबैको, वाइन आदि की आदत नहीं थी। मॉडल शॉप पर कभी-कभी ले लिया करता था। अब स्मोकिंग बराबर चलती। वाइन वगैरह भी शुरू हो गई। फैशन का चस्का भी बढ़ता गया। खर्चा मेरा दुगुना से ज़्यादा हो गया था। वहां खर्च कम करने गया, मगर वह कई गुना बढ़ गया। लेकिन इन साथियों ने मन ऐसा बदला था कि एक बार भी वहां से हटने की बात मन में नहीं आती। बचत कैसे करूं? खर्च में कटौती कैसे करूं? यह मन में नहीं आता। बल्कि और पैसा कैसे लाऊं? कहां से लाऊं? यह बात मन में आई नहीं बल्कि उमड़ने लगी।

साथियों की शाह-खर्ची देख कर मैं सोचता आखिर ये सब कैसे इतना पैसा ला रहे हैं। मैं वहां पहुंचने के कुछ महीनों बाद से ही पापा से महीने में दो-दो बार पैसे मांगने लगा था। संकोच बहुत होता लेकिन आखिर में मांग ही लेता। मगर अचानक ही एक समस्या आ खड़ी हुई। पापा की तबियत खराब हुई तो उन्हें हॉस्पिटल में भर्ती करना पड़ा। सूचना मिलने पर मैं जब वहां पहुंचा तब तक भाई लोग उन्हें एडमिट करा चुके थे। उन्हें लंग्स में संक्रमण के चलते सांस लेने में मुश्किल हो रही थी।

मेरे पहुंचते ही उनके देखभाल की सारी ज़िम्मेदारी मेरे ऊपर आ गई। भाई लोग थोड़ी-थोड़ी देर के लिए बस दो-तीन बार आ जाते। भाभी एक बार। और मंझले भइया की अनु सुबह, शाम दो बार आतीं। उसी हनक, अधिकार के साथ जैसे वह घर की बहू हैं। आते ही ऐसा बिहैव करतीं जैसे सीनियर डॉक्टर राउंड पर आई हैं।

पापा से ऐसे प्यार से हाल-चाल,खाने-पीने की बातें करतीं जैसे वह उन्हें ना जाने कितना प्यार करतीं हैं।

मैंने देखा कि पापा भी उनसे इस तरह बोलते-बतियाते बिहैव करते हैं मानो वह भी उन्हें बहू मान चुके हैं। पापा करीब महीने भर हॉस्पिटल में रहे। तीन लाख से ऊपर खर्च आया। पापा के पास जो जमा-पूंजी थी वह पहले डेढ़ दो हफ्ते में ही खत्म हो गई थी। दोनों भाइयों ने अगर हाथ न बढ़ाया होता तो उनका ट्रीटमेंट ना हो पाता। मेरे पास तो समय के अलावा और कुछ था नहीं।

पापा के पास जितना था उससे सरकारी हॉस्पिटल में तो इलाज हो सकता था, लेकिन किसी अच्छे प्राइवेट हॉस्पिटल में नहीं। इस पूरे एक महीने में सभी ने अपने-अपने हिस्से की ज़िम्मेदारी कुल मिला कर पूरी की। मगर अनु ने जो किया उसे मैं किस खाने में रखूं। यह मैं समझ नहीं पा रहा था। वो मुझे समीर भइया बोलतीं। आवाज़ में मधुरता थी। हॉस्पिटल में उन्होंने मेरे हाथ में हज़ार-हज़ार के करीब बीस नोट थमाते हुए कहा ‘इन्हें रख लिजिए। पता नहीं कैसी जरूरत पड़े।’ मेरा स्वाभिमान एकदम भड़क उठा कि क्या पापा के सारे लड़के-लड़कियां मर गए हैं जो एक बाहरी के पैसों से उनका इलाज होगा। क्या मैं इतना निकम्मा हूं कि पापा के लिए दस-बीस हज़ार रुपए का भी इंतजाम ना कर पाऊंगा।

मैंने अपनी आग अपने अंदर ही दबाए रख कर कहा नहीं इनकी कोई जरूरत नहीं है। पैसों की कोई कमी नहीं है। फिर आप क्यों परेशान हो रही हैं। हम लोग तो हैं ही। मेरी इस बात पर वह बड़ी बारीक मुस्कान के साथ बोलीं ‘ठीक कह रहे हो। हम सब हैं ना। इसी लिए तो दे रही हूं। यहां अंदर बाहर की बात क्यों की जाए? मैं किसी बाहरी से तो कह नहीं रही। अपने देवर से ही कह रही हूं।’ मैं उन्हें एकटक देखने लगा तो बोलीं ‘चलो भाभी ना सही, फ्रेंड के नाते तो अधिकार है मेरा। मेरे अधिकार तो तुम छीनना नहीं चाहोगे।’

मैं अंदर ही अंदर उनकी बातों से थोड़ा असमंजस में पड़ गया। फिर भी तुरंत बोल दिया आपको परेशान होने की जरूरत नहीं है। मैंने कहा ना पैसे की कोई कमी नहीं है। जरूरत होगी तो देखेंगे। और ये अधिकार-वधिकार के चक्करों में मैं पड़ता नहीं। जो मुझे ठीक लगता है वो मैं करता रहता हूं। और अभी मुझे पैसे लेना क्यों कि बिल्कुल ठीक नहीं लग रहा है इस लिए नहीं लूँगा। क्यों कि अभी इसकी जरूरत ही नहीं है। मगर वह तो जैसे पीछा छोड़ने वाली ही नहीं थीं। बोलीं, ‘यही तो मैं कह रही हूं कि जरूरत आए उस समय के लिए रख लो। और कभी-कभी अपने मन को पीछे कर बड़ों की बात भी तो मानी जाती है।’

यह कहकर उन्होंने मुझे निरुत्तर कर दिया। और बड़े अधिकार के साथ मेरी शर्ट की जेब में पैसे डाल दिए। इसके बाद भी उन्होंने कई बार पैसे दिए। जो कुल मिलाकर चालीस हज़ार थे। मैंने उसमें से एक पैसा नहीं खर्च किया। जब महीने भर बाद पापा को हॉस्पिटल से डिस्चार्ज किया गया तो बड़े भइया उन्हें लेकर अपने घर चले गए। उन्होंने कहा ‘अकेले वहां ठीक नहीं है। और यहां से वहां जाकर देखभाल नहीं की जा सकती।’ उनकी बात को सबने मान लिया। मुझे भी इससे बड़ी राहत मिली। मगर भाभी या भइया ने एक बार भी नहीं कहा कि समीर तुम भी यहीं रुक जाओ। मेरा मन इससे बहुत टूट गया। अनु वहां भी ऐसे मिक्सप थीं जैसे कभी मंझली भाभी हुआ करती थीं।

मैं अपने घर चला आया। खाना बड़ी भाभी के कहने पर वहीं खा लिया था। उस दिन हॉस्पिटल में महीने भर की थकान के बावजूद मैं रात में सो नहीं पाता, क्यों कि भाइयों ने, भाभी ने जो व्यवहार किया। एक शब्द किसी ने नहीं बोला कि ‘रुक जाओ’ उससे मैं बहुत आहत था। इसलिए आते वक्त सिग्नेचर का एक क्वार्टर, सिगरेट लेता आया था। घर में कोई तो ऐसा था नहीं जिससे मैं छिपाता। एक पापा थे तो वो भी हालात के चलते भाई के यहां थे। लेकिन मैं इस बात से थोड़ा निश्चिंत हुआ कि चलो उनकी देखभाल होती रहेगी। मैं अकेले यहां क्या कर पाऊंगा।

व्हिस्की के सहारे मैं रात भर बेसुध हो कर सोया। अगले दिन सुबह दस बजे उठा। तैयार होकर पापा को फ़ोन किया, वो ठीक थे। तो मैं दिन भर इधर-उधर घूमता रहा। युनिवर्सिटी में कुछ दोस्तों के पास गया। शाम को मंझले भइया के पास गया। असल में वहां जाने का ना मेरा मन था। और ना कोई और बात। मैं अनु को उनका चालीस हज़ार रुपया वापस करना चाहता था। क्योंकि मेरा मन अभी तक उनके पैसों पर लगा था।

मैं जानबूझ कर नौ बजे के बाद घर पहुंचा जिससे भइया भी मिलें। लेकिन तब तक वो दुकान से नहीं आए थे। पहुंचने पर अनु ने बैठाया। वो बातें करना चाहती थीं। पापा के बारे में, मेरी पढ़ाई के बारे में। लेकिन मैं सीधे मुद्दे पर आ गया और उनके दिए चालीस हज़ार रुपए उनके सामने रखते हुए कहा। ये रख लीजिए। चालीस हज़ार हैं। रुपयों की ज़रूरत पड़ी नहीं इस लिए ये बच गए। ये सारे नोट भी वही थे जो अनु ने दिए थे। रुपए देखकर अनु थोड़ा अचंभे में पड़ीं। बोलीं, ‘क्या भइया। मुझसे इतनी नफरत।’ उनकी इस बात से मैं एकदम सकते में आ गया।

मैंने तो सोचा था कि वो थोड़ी फॉर्मेलिटी करेंगी और रुपए रख लेंगी। लेकिन उन्होंने तो बात का रूख ही ऐसा मोड़ा कि मैं परेशान हुआ। गुस्सा भी आया कि ये क्यों अपने पैसों से हमारे ऊपर एहसान लादना चाहती हैं। क्या पापा के लड़के इतने सक्षम नहीं है कि एक ऐसी महिला से हेल्प लें जिसका न तो घर से कोई रिश्ता तय है, और ना यह तय है कि कितने दिन साथ रहेंगी। जिससे रिश्ता था उसने तो यह गुल खिलाया। ये क्या करना चाहती हैं। जो बात करना है भइया के साथ करें। बाकी से क्या रिश्ता?

मैंने भी उन्हें बड़े सपाट शब्दों में कहा। ज़रूरत ही नहीं पड़ी तो बेवजह फेंक तो देता नहीं। इसलिए रखिए। हमें बेवजह किसी के लिए इतना परेशान नहीं होना चाहिए। मेरा मूड इतना खराब हो गया कि इतना कह कर उठा। और उन्हें नमस्कार कर वापस चल दिया। उन्होंने नमस्कार का जवाब दिया या नहीं यह भी नहीं देखा। वो ‘सुनिए तो, आप नाराज हो गए क्या? मैंने ऐसा तो कुछ कहा नहीं।’

यह कहते-कहते वह गेट तक आ गईं। लेकिन मैंने उन पर ध्यान दिए बिना बाइक स्टार्ट की और घर चला आया। भइया से मिलने का प्लान त्याग दिया। मुझे लगा कि शायद अनु फ़ोन करेंगी। लेकिन फ़ोन नहीं आया। सोचा शायद भइया के आने के बाद आए लेकिन नहीं आया। इससे ना जाने क्यों मेरे मन में अजीब सी खीझ पैदा हो गई।

अगले दो-तीन दिन मैं दिन में किसी टाइम पापा को देख आता। बाद में फ़ोन करता रहता। करीब हफ्ते भर बाद मुझे लगा कि वो ठीक हो चुके हैं तो मैं दिल्ली वापस आ गया। आते समय पापा, भाभी, भाइयों से मिला मगर किसी ने एक बार नहीं पूछा कि खाना वगैरह खाया कि नहीं। पैसे हैं कि नहीं। बस पापा ने पैर छूते समय आशीर्वाद दिया। ऐसे वक्त पर अम्मा की इतनी याद आई कि मैं किसी तरह अपने को रोने से रोक पाया। सोचा अम्मा होती तो क्या वह ऐसे जाने देतीं।

वह तो अपने किसी भी बेटे के कहीं भी जाते समय दही, अक्षत से तिलक करती थीं। चम्मच से दही शक्कर खिलाती थीं। आशीर्वाद देती थीं। मगर यह सब अब कहां है? अम्मा की जगह और कौन ले सकता है? अम्मा की जगह पैसे के लिए पापा ने पूछा तो मैंने कह दिया ‘हैं’। मगर सच यह था कि तब मेरे पास पैसे नहीं थे। लेकिन अब मैं वहां ज़्यादा ठहर नहीं सकता था। लौट कर मैं कई दिन बड़ा परेशान था। कि क्या करूं? कहां से पैसा लाऊं? पापा से अब मैं किसी सूरत में पैसा नहीं लेना चाहता था। क्योंकि अब उनकी दवा पर बराबर खर्च होना था।

मैंने सोचा भाई देखभाल कर रहे हैं। लेकिन बराबर पैसा भी खर्च करेंगे तो ऊब जाएंगे। पैसा मिलता रहेगा तो ऊबेंगे नहीं। इस उधेड़बुन से सिर फटने लगा तो आखिर मैंने तय किया कि हो चुकी पढ़ाई। अब लौट चलें। घर पर रहेंगे। वहीं कुछ करेंगे। फिर उस दिन शाम को अपने साथियों से कह दिया कि अब मैं जा रहा हूं। वापसी का असली कारण मैं किसी से शेयर नहीं करना चाहता था। लेकिन चेहरे पर आ-जा रहे भावों को रोक भी नहीं पा रहा था। आखिर एक साथी जो मेरी ही तरह रिसर्च स्कॉलर थे उन्होंने कहा ‘समीर यह बात समझ में नहीं आ रही है। रिसर्च में इतना आगे आने के बाद बीच में छोड़ना सिवाय मूर्खता के और कुछ नहीं है।

फादर तुम्हारे अब ठीक हैं। वो जानेंगे तो उनको बुरा लगेगा। जिस तरह तुम बताते रहे उससे तो तुम्हें डॉक्टरेट एवॉर्ड होना उनकी अंतिम इच्छा है। इस नज़रिए से देखें तो तुम जा क्यों रहे हो यही समझ में नहीं आ रहा है। मैं तो यही कहूंगा कि ऐसा कोई कारण है ही नहीं कि तुम सब छोड़-छाड़ कर घर चले जाओ।’ इसके बाद उन्होंने जिनका नाम सौमित्र डे था और बिहार के रहने वाले थे, मुझसे सच जान ही लिया। सच जानने के बाद बोले ‘अब मैं तुम्हें किसी हालत में नहीं जाने दूंगा।’ फिर उन्होंने अपनी आर्थिक समस्याओं के बारे में बताया जो उन्होंने शुरुआती दिनों में झेेली थीं।

उन्होंने कहा ‘मैं तुम्हारी तरह हार मान लेता तो आज कहीं का नहीं रहता। मगर अब सब कुछ अपने हिसाब से कर रहा हूं। वो दिन भी दूर नहीं जब मैं प्रोफेसर भी बन जाऊंगा।’ तब उन्होंने बताया कि वह शाम को एक कोचिंग में पढ़ा़ते हैं। और दिन में एक कंपनी का भी काम-धाम संभालते हैं। काम ठेके पर है। जो बचता है वह रात में घर पर करतें हैं। उसी समय हमें बाकी साथियों के बारे में भी पता चला। केवल एम.टेक. कर रहा विपुल ही ऐसा था जो कहीं काम नहीं करता था। घर से जितना पैसा आता था वह उसके खर्च को देखते हुए हफ्ते भर के लिए भी पर्याप्त नहीं था।

सौमित्र के कहने पर मैंने अपने विचार बदल दिए।

मैंने एक बार फिर तय कर लिया कि जैसे भी हो पापा की इच्छा पूरी करनी ही है। मैंने विश्लेषण दूसरी तरह से किया कि इच्छा तो हम उनकी पूरी करेंगे। लेकिन भविष्य तो मेरा ही बनेगा। जीवन भर आराम से तो मैं रहूंगा। महीने भर बड़ी जोड़-तोड़ अथक कोशिशों और सौमित्र के सहयोग से एक काम मिल गया। उससे इतना पैसा मिलना शुरू हो गया कि मैं खींचतान कर किसी तरह अपनी गाड़ी बढ़ा सकता था। मगर साथियों की शाह-खर्ची से मैं स्वयं को शर्मिंदा महसूस करने लगा। मेरा भी मन उन सब की तरह खर्च करने को मचलने लगा। वह सब के सब ठीक वीक एंड पर रात नौ बजे तक मस्ती पर निकल जाते। फिर अगले दिन आते। बीच में भी ऐसे कई दिन होते जब इनमें से कोई न कोई रात को नहीं लौटता।

इन सबने मुझे तब तक यह नहीं बताया था कि वे कहां जाते हैं? क्या करते हैं? पूछने पर यही कहते। ‘हम वो मजा लेते हैं जिसके बारे में तुम सोच भी नहीं सकते, और हम बता भी नहीं सकते। क्यों कि कैसे बताएं यह हमें आता नहीं। जब आता नहीं तो बताएं क्या? जानना है, मजा लेना है, तो साथ चलो।’

मैंने कहा तो ठीक है, बताओ ना कब चलना है। वैसे पार्टी-सार्टी के लिए फिलहाल मेरे पास पैसा नहीं है। इस पर विपुल हंस पड़ा। ‘अरे डिब्बे से बाहर निकल तभी जान पाएगा कि कुछ ऐसी पार्टियां भी होती हैं जिनमें पैसे की ज़रूरत ही नहीं होती। होती है तो जिंदादिली की। एक कंप्लीट पर्सनॉल्टी की। जब ये हो तो पैसा और मजा दोनों आता है। कूल मैन अब तुम तय कर लो कि कूल ही बने रहोगे या एक कंप्लीट मैन की तरह जियोगे।’

मुझे उसकी बात बड़ी अटपटी लगी। साथ ही चैलेंज भी। और रहस्यमयी भी। मैंने उसके साथ-साथ सौमित्र से भी और जानना चाहा लेकिन उन्होंने भी कहा ‘जानना है तो साथ चलो। ऐसा एंज्वायमेंट पहले कभी नहीं मिला होगा। इसका हम चैलेंज करते हैं।’ उन सब की बातों ने मुझमें उत्सुकता की ऐसी लहर पैदा कर दी कि मैंने भी एक बार चलने का निर्णय कर लिया। दो दिन बाद ही वीकएंड था। जब मैंने उन सबसे कहा कि मैं चलूंगा तो विपुल ऐसे चहका जैसे उसकी लॉटरी लग गई हो। बोला ‘अरे वाह टीम में फ्रेश प्लेअर आ गया। कल की पार्टी की तैयारी आज से ही शुरू कर दी जाए।’ बाकी सब भी उसके सुर में सुर मिला कर हंस पड़े।

रात दस बजते-बजते सब तैयार हो गए। सबने लिवाइस, पे-पे की महंगी जींस, ब्रांडेड शूज, टी-शर्ट पहन रखी थी। जींस तो मेरी भी ब्रांडेड थी लेकिन टी-शर्ट नहीं। शूज भी ठीक ही थे। उन सब की यह सारी बातें मुझे रहस्यमयी लग रही थीं। और मुझे आगे भी बढ़ा रही थीं। सबने अपने ऊपर डियो ऐसे डाला था मानो उसी से नहा लेंगे। पूरा कमरा उसकी स्मेल से महक रहा था।

करीब दस बजे दो-दो के जोड़ों में आगे-पीछे सब निकल लिए। मैं सौमित्र की बाइक पर था। विपुल की बाइक पर जेवियर और सुहेल की बाइक पर जसविंदर था। मैं उस टीम में एक ऐसा सदस्य था जिसे ये नहीं मालूम था कि करना क्या है? जा कहां रहे हैं? आखिर में ये काफ़िला साउथ एक्सटेंशन मार्केट में एक बड़े रेस्टोरेंट के पास रुक गया। इशारों में सब में क्या बात हो गई मुझे पता नहीं चला। फिर वहीं पास की पार्किंग में बाइक खड़ी कर सब अलग-अलग चहलक़दमी करने लगे।

सौमित्र, मैं वापस रेस्त्रां के पास खड़े हो गए।

मैं भी उत्सुकता से उन्हीं के साथ खड़ा रहा। चहलक़दमी करते बाकी में कोई सिगरेट पी रहा था तो कोई च्यूइंगम चबा रहा था। मगर एक काम सबने कर रखा था कि अपनी-अपनी रुमाल अपने गले में बांध ली थी। उन सबकी यह नौटंकी मेरी समझ में एकदम नहीं आ रही थी। तभी थोड़ा सा आगे एक लग्जरी महंगी कार बहुत धीमी स्पीड में आकर रेंगने सी लगी। मेरी नज़र उस कार के लुक के कारण उस पर चली गई थी। वह रेंगती हुई आखिर रुक गई।

तभी मैं चौंका, विपुल अचानक ही वहां कार के पास पहुंचा। अंदर जो भी ड्राइवर था उसने विपुल की तरफ के दरवाजे का शीशा थोड़ा नीचा किया। विपुल भी थोड़ा झुका। शायद वह अंदर बैठे शख्स से कुछ बातें कर रहा था। बमुश्किल दो मिनट बीता होगा कि कार का दरवाजा खुला और विपुल अंदर बैठ गया। उसके बैठते ही कार एक झटके में स्पीड लेती हुई सीधे आगे को निकल गई। मैंने सौमित्र की ओर देखा तो उनके चेहरे पर हल्की मुस्कान थी। धीरे-धीरे च्युंगम चबाए जा रहे थे।

इसके बाद जेवियर, जसविंदर, सुहेल भी इधर-उधर टहलते रहे। पंद्रह मिनट भी ना बीता होगा कि जेवियर भी निकल गया। इसके बाद जसविंदर, सुहेल बाइक से कहीं और निकल गए। मैं सौमित्र के साथ ही रहा। तभी मैंने वहां कुछ और नवयुवकों को भी गले में रुमाल बांधे देखा। मुझसे जब रहा ना गया तो मैंने सौमित्र से पूछा आखिर हो क्या रहा है? विपुल और बाकी सब गए कहां? सभी कहीं एंज्वॉय करने के लिए चलने की बात कर रहे थे। सौमित्र ने च्यूंगम थूकते हुए कहा।

‘विपुल और बाकी सब तो एंज्वॉय करने गए रात भर को। अब वो कल मिलेंगे। और मैं भी निकलूंगा थोड़ी देर में।’ मैंने कहा और मैं, आप लोग तो मुझे भी लाए हैं साथ। सब लोग मुझे छोड़ कर जा रहे हैं। सौमित्र ने मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए कहा ‘सुनो यहां सब अकेले ही जाते हैं। मैं भी किसी के साथ चला जाऊंगा, तुम्हें यहीं अकेले छोड़ कर, उस लेडी के साथ जो आएगी और रात भर अपनी कंपनी के लिए मुझे साथ ले जाएगी। तुम भी एंज्वॉय करने आए हो तो हम लोगों की तरह एंज्वॉय करो किसी लेडी के साथ, जो रात भर कंपनी के लिए तुम्हारा साथ चाहे।’

मैंने कहा मैं यहां किसी लेडी को जानता ही नहीं, मुझे कोई क्यों कॉल करेगी। इस पर सौमित्र ने कहा ‘डियर इस खेल में कोई परिचित कभी भी कॉल नहीं करेगा। अपनी रूमाल निकालो, गले में बांधो। कोई लेडी खुद कॉल करेगी। आएगी।’ फिर आगे सौमित्र ने जो बतया उससे मैं भौचक्का रह गया। जिनके साथ मैं आया था एंज्वॉय करने वो सब तो घिनौने लोग थे। सौमित्र भी।

मतलब मैं इतने दिनों से गिगोलोज के साथ रह रहा था। मुझे शॉर्ट में डिटेल्स बताते हुए उसने कहा ‘इसमें मजा भी है, पैसा भी है। ये रिच वुमेन कई बार दो-तीन घंटे के लिए साथ ले जाती हैं। तो कई बार रात भर के लिए। हर एक की अलग-अलग फीस है। तुम भी जाना चाहते हो तो गले में रुमाल बांधो जल्दी ही कोई आ ही जाएगी।’ मैंने कहा रुमाल जरूरी है क्या? तो उसने कहा ’इससे रिच वूमेन जान जाएगी, कि तुम रेडी हो। हां रुमाल की लंबाई तुम्हारे प्राइवेट पार्ट की लंबाई को इंडिकेट करती है।’ और फिर सौमित्र ने अलग-अलग लंबाई के लिए अलग-अलग साईज की रुमाल बता दी। अपनी बात पूरी कर वह बोला ‘अब मैं भी तुम से अलग रहूंगा। नहीं तो कोई लेडी मुझे कॉल नहीं करेगी। तुम भी रुमाल बांध लो।’ मुझे असमंजस में पड़ा देखकर उसने कहा ‘अच्छा तुम डिसीजन लेते रहना। मैं चलता हूं।’ यह कह कर वह रोड के दूसरी तरफ चला गया।

इसके पहले गिगोलोज के बारे में मैंने सुना था। मगर यहां तो देखने की छोड़िए उन्हीं के साथ रह रहा था। गिगोलो यानी पुरुष वेश्याओं के साथ। मैं ज़्यादा देर वहां खड़ा नहीं रहना चाहता था इसलिए सौमित्र की बाइक जो मेरे पास थी उसे लेकर पहले इधर-उधर घूमता रहा। फिर करीब दो बजे घर आकर सो गया। सौमित्र मुझसे अलग होने के बाद मुश्किल से बीस मिनट था वहां। फिर एक कार रुकी थी। वह आराम से चहलक़दमी करते हुए पहुंचा था वहां। कुछ देर बाद वह भी विपुल की तरह कार में बैठ कर फुर्र हो गया था।

घर लौटने और सोने तक मैं इस कंफ्यूजन में था कि अब मुझे क्या करना चाहिए। इन सब के साथ रहना चाहिए या नहीं। ये सब जो कर रहे हैं वह सही है या गलत यह भी नहीं तय कर पा रहा था। असल में मेरा भी मन भटक रहा था। उन लग्जरी गाड़ियों, उनमें बैठी महिलाओं और उनसे मिलने वाली रकम, और साथ ही उनके साथ सेक्स के अट्रैक्शन ने बल्कि यह कहें कि पैसे से ज़्यादा मेरा मन सेक्स के तरफ भाग रहा था।

मन में यह भी आया कि बेवजह लौट आया, चला जाता। यहां अकेले पड़ा बोर ही तो हो रहा हूं। कौन है यहां देखने वाला? किसको परवाह है यहां किसी की? ये सब इतने दिनों से यह सब करते आ रहे हैं, कौन जान पाया? मैं तो साथ रह के भी नहीं जान पाया। इन सबने बताया तभी मालूम हुआ। इन सब की कमाई तो इससे ही हो रही है। नहीं तो ये भी मेरी तरह क्राइसिस झेल रहे होते। मगर इसके बारे में सब कुछ जाने बिना क़दम बढ़ाना भी तो अच्छा नहीं है। यही सब सोचते-सोचते मैं सो गया। सुबह जब नींद खुली तो दस बज रहे थे।

उठ कर देखा तो सारे साथी अपने-अपने बेड पर बेसुध पड़े थे। इंटरलॉक की चाभी सबके पास थी। इसलिए किसी को उठाने की ज़रूरत नहीं होती थी। उठते ही पेपर और चाय की आदत से मजबूर मैंने चाय बनाई। पेपर पड़ा था दरवाजे पर उसे ले आया। घंटे भर पढ़़ता रहा। फिर तैयार होकर प्रोफ़ेसर के यहां चला गया। छुट्टी में उनके यहां ड्यूटी बजाना ज़रूरी था। सभी साथी क्यों कि छः सात घंटे से पहले उठने वालेे नहीं थे। इसलिए मैं भी शाम से पहले लौटने वाला नहीं था। सभी साथियों का यह नियम था कि जब भी रात को अपने मिशन पर निकलते तो अगले दिन पूरा समय सोते।

शाम को जब मैं लौटा तो घर में चिकेन, मटन, व्हिस्की, चल रही थी। मुझे देखते ही विपुल बोला, ‘वेलकम वेलकम माय डियर। एंज्वॉय द पार्टी।’ और मैं जब तक बैठूं तब तक उसने एक पैग बना कर मेरे सामने रख दिया। साथ में सिगरेट, लाइटर, ढेर सारे चिकेन लेग पीस से भरी प्लेट, चिकेन मंचूरियन की प्लेट भी। इस समय सब के सब फुल मस्ती में थे। सब अच्छे-खासे नशे में थे।

मैं भी उनके साथ शामिल हो गया। जिन लेडी के साथ इन सब ने रात बिताई थी सब उन्हीं की बातें कर रहे थे। हमेशा की तरह बातचीत में उन लेडीज के लिए एक से एक वल्गर वर्ड्स बोले जा रहे थे, बातें की जा रही थीं। कोई उनकी फिजिक की बात करता। तो कोई सेक्स को लेकर उनकी जानकारी, उनकी इच्छाओं, उनकी पसंद की बात करता। बेडरूम, फर्नीचर, गाड़ियां सब कुछ शामिल था इसमें।

मैं सच जान चुका हूं सब यह सोच कर आज और भी खुल कर बातें कर रहे थे। पहले कुछ बातें संकेतों में होती थीं इस लिए मैं समझ नहीं पाता था। मगर आज बातचीत बिल्कुल साफ थी। बातचीत में सब अपनी-अपनी कमाई भी बताना नहीं भूल रहे थे। सबसे ज़्यादा जसविंदर ने पंद्रह हज़ार रुपए कमाए थे। सबसे कम जेवियर ने केवल नौ हज़ार कमाए। पार्टी खत्म हुई तो सब बाहर निकल गए घूमने के लिए। मुझे भी साथ जाना पड़ा।

भीतर से मेरा मन कह रहा था कि कोई भी बाहर ना जाए। इस समय सब नशे में हैं और ऐसे में ड्राइव करना अच्छा नहीं। कहीं चेकिंग वगै़रह में पकड़ लिए गए तो और मुश्किल। देर रात जब सब लौटे तो नशा उतर चुका था। सब अब मुझसे इस बारे में खुल कर बात कर रहे थे। मुझे इस लाइन की बारीकियां बता रहे थे। और फील्ड में तुरंत उतर आने को कहने लगे। तर्क एक से एक कि अभी हम पैसा इतना कमाते नहीं। आगे बढ़ने के लिए बहुत कुछ करना ही पड़ेगा। और उन सब की तमाम बातों के बाद मैंने उन्हीं के सुर में बोल दिया कि अगले वीकएंड पर चलूंगा। और गेम खेल कर ही लौटुंगा।

सक्सेज को लेकर मैंने संदेह व्यक्त किया, और यह भी कि सड़क पर गले में रुमाल डाल कर मैं चल पाऊंगा यह भी कुछ निश्चित नहीं कह सकता। तो ‘सौमित्र बोला ये कोई प्रॉब्लम नहीं है। रुमाल बांध कर नहीं चलना चाहते तो एक प्वॉइंट ऐसा है जहां तुम अपने को रजिस्टर करा दो, वो तुम्हारी डिटेल्स के अनुसार क्लाइंट आने पर तुम्हें कॉल करेंगे।

पेमेंट भी वही तय करेंगे, तुम मेनिमम चार्ज बता देना। तुम्हें जो पेमेंट मिलेगा उसका तीस पर्सेंट तक उस प्वाइंट को देना होगा। अब तीस पर्सेंट बचाना चाहते हो तो रुमाल बांधो, नहीं तो नहीं।’ फिर सौमित्र ने रेट कैसे फिक्स होता है यह भी बताया। कहा ‘यदि फोर, सिक्स पैक एब्स मेंटेन हैं तो पेमेंट बढ़ जाएगी’ इसके बाद वीक एंड आने तक ये सारे साथी मुझे शिक्षित करते रहे। मैं इस शिक्षा-दीक्षा के साथ-साथ कंफ़्यूज होता रहा, जाऊं या ना जाऊं इसी में उलझता रहा। और जब समय आया तो अंततः साथियों के प्रोत्साहन ने क़दम बढ़ा ही दिए।

गले में रुमाल के साथ चलना मैंने स्वीकार कर लिया था तो किसी प्वॉइंट में डिटेल्स दर्ज नहीं कराई। उस दिन सभी एक ही जगह ना जाकर तीन तरफ निकले। मैं सौमित्र के साथ जनकपुरी गया। जेवियर, सुहेल आई. एन. ए. अंसल प्लाजा और विपुल कनाट प्लेस को चला गया। जसविंदर किसी पव को चला गया। सौमित्र किसी पव, कॉफी हाउस या डिस्कोथेक में रुमाल बांध कर चलना पसंद नहीं करता था।

इस फ़ील्ड की दृष्टि से मेरा पहला दिन सक्सेजफुल रहा। सौमित्र को क्लाइंट मुझसे पहले मिल गई थी। या यह कहें कि पहुंचते ही मिल गई थी। मुझे घंटे भर बाद मिली। तब करीब बारह बज रहे थे। उसके पहले मुझे लगा कि शुरुआत ही गड़बड़ होने वाली है। अभी तक कोई आया नहीं। लेकिन निराश मन को आखिर मंज़िल मिली। एक गहरे नीले रंग की ऑडी एस.यू.वी. मेरे सामने रुकी। मेरी तरफ वाले दरवाजे का शीशा नीचे हुआ।

मेरी नजर तुरंत गाड़ी के अंदर गई तो ड्राइविंग सीट पर बैठी लेडी को अपनी तरफ देखते पाया। गाड़ी में लाइट बेहद कम थी। फिर भी मैं उस महिला को ठीक से देख पा रहा था। उसने फ्रेमलेश चश्मा लगा रखा था। बाल कन्धों से नीचे तक झूल रहे थे। उसने गोल गले की ढीली-ढाली डार्क ब्राउन कलर की टी-शर्ट और जींस पहन रखी थी। आंख से इशारा कर उसने करीब बुलाया तो मैं गाड़ी के दरवाजे पर जाकर खिड़की पर झुका और बोला यस मैम, कैन आई हेल्प यू। मेरे यह कहने पर उसने क्षण भर मेरी आंखों में देखने के बाद अंदर बैठने को कहा। मैं दरवाजा खोल कर अंदर बैठ गया, उसकी बगल वाली सीट पर। उसने गाड़ी धीरे से बढ़ाते हुए कहा

सिंस व्हेन आर यू इन दिस फ़ील्ड? (कब से हैं इस फ़ील्ड में) उसके इस अनपेक्षित प्रश्न से मैं थोड़ा गड़बड़ा गया। क्यों कि सौमित्र ने कहा था वो तो टाइम बताती हैं, चार्जेज़ पूछती हैं। फिर भी मैंने संभलते हुए कहा। फॉर दि लास्ट फ्यू मंथ्स ओनली। (कुछ महीने से) ‘हाउ मैनी’ (कितने) मैंने कहा फॉर दि लास्ट फाइव ऑर सिक्स मंथ्स (यही कोई पांच या छः महीने से) इस पर वह बड़ी रहस्यमयी मुस्कान मुस्काई। फिर बोली ‘हाउ मच डू यू चार्ज फॉर दि होल नाइट।’ (आपकी पूरी रात की फ़ीस कितनी है।)

मुझे सौमित्र की बातें यार्द आइं। उसी आधार पर मैंने कहा इट्स ट्वेंटी थाउजेंड रुपीज़ वुड यू लाइक टू पे दिस मच? (बीस हज़ार.. आप कितना देना पसंद करेंगी।) मेरे इतना कहने पर वह बोली ‘इट्स टू मच। आई कैन अफोर्ड टू पे रुपीज टेन थाउज़ेंड ओनली।’ (यह तो बहुत हैं। मैं दस हज़ार दे सकती हूं) इट्स ऑल राइट। आई एक्सेप्ट योर ऑफर। (मैंने कहा ठीक है। मुझे यह स्वीकार है)

मैं हड़बड़ाहट में था कि कहीं डील टूट ना जाए। एक कारण और था तुरंत हां करने का। वह करीब पैंतीस साल की बहुत आकर्षक महिला थी। मैं वह व्यक्ति था जिसने पहले कभी सेक्स का अनुभव नहीं लिया था। यहां तो उम्मीदों से एकदम अलग एक शानदार महिला ने न सिर्फ मुझे सेक्स के लिए पसंद किया बल्कि अच्छी कीमत भी दे रही थी। और लग्ज़री गाड़ी में खुद ही बैठा कर ले भी जा रही थी। मेरे डन करते ही वह मुस्कुराई और बोली ‘इट्स ए साउंड डिसीज़न।’ (बहुत अच्छा निर्णय है) फिर उसने गाड़ी की रफ्तार बढ़ा दी।

वैसी लग्ज़री गाड़ी में मैं पहली बार बैठा था। वहां से मुझे लेकर वह कीर्ति नगर के पास एक अच्छे ख़ासे बड़े से मकान के गेट पर रुकी। मुझे बैठे रहने को कह कर वह उतरी, गेट का ताला खोल कर गाड़ी पोर्च में खड़ी की। गेट बंद किया। मैं अब भी अंदर बैठा था। उसने खिड़की के शीशे पर नॉक कर अंदर आने का इशारा किया। उसके पीछे-पीछे मैं उस बड़े से घर में पहुंचा। मुझे ड्रॉइंग रूम में सोफे पर बैठने को कह कर वह मैडम अंदर चली गईं।

घर मेरी उम्मीद से कहीं ज़्यादा खूबसूरत था। वहां की एक-एक चीज़ घर की रईशी को बता रहे थे और यह भी कि यहां सदस्यों की संख्या ना के बराबर है। मुझे बैठे पांच मिनट भी ना हुआ होगा कि वह महिला अंदर आई। उसके ठीक पीछे एक और महिला थी, वह उसी की बहन सी लग रही थी। मगर दो-चार साल बड़ी। दोनों मेरे सामने वाले सोफे पर बैठ र्गइं। मैं उन दोनों को देख कर सहम गया।

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