मेरी जनहित याचिका
प्रदीप श्रीवास्तव
भाग 2
मंझली भाभी ने थाने में धारा 498। (दहेज प्रताड़ना कानुन)के तहत हम तीनों भाइयों, पापा-अम्मा के खिलाफ एफ.आई.आर. दर्ज कराई थी। साथ ही जान से मारने का प्रयास भी जुड़ा था। हम सब गिड़गिड़ाने लगे कि यह सब झूठ है। घर में दहेज का तो कभी नाम ही नहीं लिया गया। यह मामूली घरेलू कलह के अलावा कुछ नहीं है। बड़ी भाभी को भइया ने सामने लाकर खड़ा कर दिया। कहा कि ‘घर की ये बड़ी बहू हैं। इन्हीं से पूछताछ कर लीजिए, क्या इन्हें एक शब्द भी कभी दहेज के लिए कहा गया है।’
इस बीच जो डॉक्टर अम्मा को देख कर गए थे उन्हें ही फ़ोन कर बुलाया गया, कि पापा को भी देखें। पापा-अम्मा की हालत देख कर पुलिस का रूख थोड़ा नरम था। लेकिन उसने भी साफ कह दिया कि ‘हम कानून के आगे विवश हैं। इस धारा में गिरफ्तारी तो किसी भी सूरत में नहीं रुक सकती। रिपोर्ट झूठी है या सही यह कोर्ट ही तय करेगी। हां रिपोर्ट लिखाने वाला रिपोर्ट वापस ले ले तो ही बात बन सकती है।’ यह सुनते ही मैंने भाभी के बारे में पूछा कि वह कहां हैं? मैंने सोचा कि उनके हाथ-पैर जोड़ कर उन्हें समझाऊं कि रिपोर्ट वापस ले लें। दहेज को लेकर तो कोई बात ही नहीं हुई।
पापा ने तो शादी के समय उनके फादर के सामने अचानक आर्थिक समस्या आ जाने पर उनकी मदद भी तुरंत की थी। कहा था कि ‘अब आप हमारे रिश्तेदार हैं। हमारा मान-सम्मान एक है। हमें एक दूसरे का पूरा ध्यान रखना है।’लेकिन पुलिस ने उम्मीदों पर और पानी फेर दिया कि ‘वह एफ.आई.आर लिखाने की जिद पर अड़ी रहीं। और लिख जाने के बाद मायके जाने की बात कहकर जाने लगीं तो उन्हें मेडिकल चेकप के लिए रोक लिया गया। उनके घर के लोग आ चुके हैं। आप लोगों को चलना ही हो होगा।’ इस बीच डॉक्टर ने यह कहा कि ‘मदर-फादर दोनों की हालत सीरियस है।’ तो पुलिस ने उन्हें सरकारी हॉस्पिटल में एडमिट करा दिया। मगर गिरफ्तारी किसी की नहीं रुकी।
इस बीच सारे रिश्तेदारों को फ़ोन किया गया। लेकिन कुछ लोग ही मदद को आगे बढ़े। दोनों भाई स्थानीय व्यापार मंडल के सदस्य थे। एक उसमें पदाधिकारी भी थे। तो व्यापारियों का भी एक हुजूम मदद को थाने पहुंचा। लेकिन पुलिस ने साफ कह दिया की ‘अब जो भी हो सकता है वह कोर्ट ही से हो सकता है।’ भाभी के मायके वाले लाख कोशिशों के बावजूद भी सामने नहीं आए। बात नहीं की। अगले दिन हम तीनों भाई तमाम कानूनी पचड़ों को पूरा कर जेल पहुंच गए। पापा-अम्मा भी तबियत ठीक होते ही जेल आ गए। वहां उनकी हालत देख कर भाभी की हरकत पर खून खौल उठा। पापा-अम्मा हफ्ते भर में ही आधे हो गए थे। अम्मा जिन्हें पहले कभी चलने के लिए छड़ी या किसी सहारे की जरूरत नहीं थी वही अब छड़ी लेकर मुश्किल से चल पा रही थीं।
इस बीच बहनोइयों ने एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा दिया कि समझौता हो जाए। मामला खत्म हो। सब शांति से रहें। जो बात हुई ही नहीं आखिर पूरे परिवार को उसी आरोप में क्यों जेल में सड़ाया जाए। लेकिन भाभी के परिवार का दो टूक जवाब कि ‘नहीं दहेज प्रताड़ना ही का मामला है। मेडिकल चेकप में चोट के निशान साफ मिले हैं।’ भइया ने गुस्से में जो हाथ उठाए थे उन्हीं के एक-दो स्याह निशानों को वो गंभीर चोटें बता रहे थे। जान से मारने का प्रयास बता रहे थे।
बड़ी भाभी ही बच्चों के संग घर में बची थीं। उनका नाम छोटी ने अपनी रिपोर्ट में शामिल नहीं किया था। क्यों कि वह दोनों मिल कर ही तो कोहराम मचा रही थीं। लेकिन गनीमत रही कि उन्होंने रिपोर्ट नहीं लिखाई। बाद में वह बच्चों के संग मायके चली गईं। घर पर ताला लटक गया। मुकदमा आगे बढ़ा। पेशियां शुरू हुईं। बहनोई जल्दी-जल्दी पेशी लगवा कर मामला जल्दी निपटाने के प्रयास में जुटे। सुलह की भी कोशिश करते रहे। मगर शर्त आई कि सारा खर्च दें। और पूरा मकान भाभी के नाम लिख दिया जाए।
पापा शर्त मानने को तैयार नहीं हुए। उन्होंने साफ कहा ‘दुनिया के सामने हम दहेज लोभी बन गए। हत्या की कोशिश करने वाले बन गए। जिस दरवाजे पर कभी पुलिस नहीं आई। वो पूरा घर आज जेल में है। जो सोचा भी नहीं था वह सब जलालत झेल रहा है परिवार। आखिर अब बचा ही क्या है? जिसको बचाने के लिए हम उसे मकान देकर सड़क पर भीख मांगें।
आज यह देंगे कल को दुकान, पेंशन भी मांगेगी। फिर क्या करेंगे? फिर इसको देंगे, तो दूसरी भी मांगेगी। उसे कहां से लाकर देंगे? अपना हाड़-मांस बेच देंगे तो भी ना दे पाएंगे।’ मुलाकात के वक्त पापा अपनी लड़कियों-दामादों के सामने रो-रोकर कहते कि ‘बेटा यहां जो गति हो रही है उससे तो लगता ही नहीं कि हम यहां से जीवित निकल पाएंगे।
सही कहूं बेटा तो अब हम घर जाना भी नहीं चाहते। जितनी बेइज्जती दुनिया के सामने हुई है। जिस तरह टीवी, पेपर में हमारा तमाशा बना है। उसके बाद तो अब जीने का मन नहीं करता। सारी दुनिया हमीं पर थूक रही है। हमें ही सारा दोष दे रही है। अरे कोई एक बार नहीं पूछता कि बहू कैसी है? मेडिकल रिपोर्ट हवा में लहराते टीवी एंकर चिल्लाते हैं कि ससुराल वालों ने बेरहमी से बहू को पीटा। लेकिन कोई एक बार भी नहीं पूछता कि उसने कितनी बार हमें मारा। धमकी दी। हमने तो रिपोर्ट नहीं लिखाई। नियम तो वृद्धों की सुरक्षा का भी है।’ उसी दिन हम लोगों कोे यह भी पता चला कि भाभी पहले भी कई बार झगड़ा कर चुकी हैं। धक्का-मुक्की बहुत बार किया। दो तीन बार हाथ भी उठा चुकी थीं। हर बार जेल में सड़ा देने की धमकी देकर मां-बाप का मुंह बंद किए रहती थीं।
यह सब जान कर हम सारे भाई उबल पड़े। हम सबने कहा कि यह बातें समय से मालूम हो जातीं तो यह नौबत ना आती। मैंने बहनोई से कहा कि ‘वकील से बात करें कि क्या अब वृद्ध माता-पिता को मारने-पीटने, धमकाने, ब्लैकमेल करने के आरोप में एफ. आई. आर. हो सकती है? यदि हो सकती है तो किया जाए। उसने हमारे खिलाफ झूठी रिपोर्ट लिखाई, हम क्या सच भी नहीं लिखा सकते?’ लेकिन मेरी बात पूरी होते ही पापा ने हाथ जोड़ते हुए कहा ‘नहीं, ऐसा कुछ मत करना। हम भी वही करेंगे तो हममें उसमें फर्क़ क्या रह जाएगा?’ और फिर पोते का नाम लेकर बोले अगर ‘बहू भी जेल चली गई तो उसकी देखभाल कौन करेगा? बाप तो यहां है। बेचारा लावारिस हो जाएगा।’ तभी भइया बोले ‘जब उनकी लड़की भी जेल में होगी तब उन्हें पता चलेगा कि जेल, पुलिस, समाज में बेइज्जती की पीड़ा क्या होती है। तभी वह केस वापस लेगी।
जब तक केस वापस नहीं होगा तब तक कुछ नहीं होगा। हम जेल में ही सड़ते रहेंगे। अभी जमानत तक नहीं हो पाई है। हम तो जो सच है वही कहेंगे। उसकी तरह झूठ तो नहीं कहने जा रहे।’ लेकिन सब बेकार। सारे तर्क फेल। पापा पुत्र नहीं पोता मोह में टस से मस ना हुए। और अम्मा वह तो कुछ बोलती ही नहीं थीं। हर बात का जवाब हां, हूं। वह भी कई बार पूछने पर। जेल में आने के बाद उनकी सेहत तेज़ी से गिरती जा रही थी। जमानत की सारी कोशिश बेकार हो रही थी। कुछ न कुछ अड़ंगा हर बार लग जा रहा था। कभी केस का नंबर नहीं आता। तो कभी नंबर आया तो जज साहब उठ गए। या फिर वकीलों ने बायकॉट कर दिया।
जज साहब के अचानक ही चले जाने पर मन में बड़ी गुस्सा आती कि हर चीज पर स्वतः संज्ञान लेने वाले न्याय-मूर्तियों इस बात का स्वतः संज्ञान कब लेंगे? दूसरे पक्ष के लोग कोई कसर नहीं छोड़ रहे थे केस को उलझाए रखने के लिए। यही सब करते छः सात महीने बीत गए। इसी बीच एक पेशी के लिए मां जब जेल से कोर्ट पहुंचीं तो वहीं अदालत में जज के सामने बेहोश हो कर गिर गईं। जज के आदेश पर तुरंत हॉस्पिटल पहुंचाया गया। लेकिन डॉक्टर ने उन्हें मृत घोषित कर दिया। पता चला कि सडेन कॉर्डिएक अरेस्ट हुआ था।
उनका हृदय अपनी बहू द्वारा धोखे से दी गई विपत्ति का बोझ नहीं सह पाया था। कोर्ट के आदेश पर हमें उनके अंतिम संस्कार के लिए छोड़ा गया। संस्कार पूरा करते ही हम फिर जेल में थे। पापा की हालत भी हमें बराबर भयभीत किए जा रही थी। इस बीच आर्थिक रूप से घर पूरी तरह बर्बाद होने के कगार पर पहुंच गया। भाइयों की दूकानें उसी दिन से बंद थीं। बहनोई बराबर लगे रहे। पैसा भी खूब खर्च कर रहे थे। बहनें जब मिलने आईं तो उनसे हम लागों ने कह दिया कि जब बाहर आएंगे तो सारा पैसा दे देंगे। बहनोइयों को जब पता चला तो वो नाराज हुए कि ‘यह सब सोचने की जरूरत नहीं है। आखिर हम भी परिवार के सदस्य हैं।’
असल में बहनों, बहनोइयों का व्यवहार ही उस विपत्ति में हमें जीने की ताकत दे रहा था। उठ खड़े होने की कोशिश के लिए प्रेरित कर रहा था। तो उन लोगों की मेहनत का परिणाम आया। हमें जमानत मिल गई। इस बीच बड़ी भाभी का भी हृदय परिवर्तन हुआ। उन्होंने आकर हम सब से माफी मांगी। कहा कि ‘हम छोटी के बहकावे में आ गए थे। हमें बहुत पक्षतावा है।’ उनकी माफी, उनके आंसू देख कर पापा ने उन्हें माफ कर दिया। उनके परिवार ने भी मदद शुरू कर दी। बड़ी भाभी के बयानों ने अहम भूमिका निभाई।
कई साल मुकदमेंबाजी के बाद अंततः हम जीत गए। सभी लोगों को कोर्ट ने बाइज्जत बरी कर दिया। छोटी और उसके मायके वालों को सख्त चेतावनी मिली। पुलिस वालों को दोनों पक्षों की विवेचना ठीक से ना करने के लिए चेतावनी मिली। तब पापा ने तमाम बातों के साथ यह बहुत क्रोधित होकर कहा कि ‘हमारी गिरफ्तारी पर तो यह मीडिया बड़ा चीखा था। लेकिन बाइज्जत बरी होने पर एक शब्द नहीं बोल रहा। उसे तो यह भी नहीं मालूम कि हम बाइज्जत जीत गए हैं। ऐसे मीडिया से तो अच्छा है कि देश बिना मीडिया के ही रहे।’ उनका गुस्सा जायज ही था। लोअर कोर्ट, हाई कोर्ट में जीतने के बाद हमें शंका थी कि छोटी सुप्रीम कोर्ट जाएगी। हालांकि वकील ने पूरा विश्वास दिलाया कि केस उनके इतना खिलाफ है, हाई कोर्ट ने ऐसा फैसला सुनाया है कि वहां केस पहली पेशी में ही खारिज हो जाएगा। मगर हम लोगों के मन से डर नहीं निकल रहा था।
इसके पहले जमानत मिलने के बाद दोनों भाई किसी तरह अपना बिज़नेस पटरी पर लाने में सफल हो गए थे। घर जो बहुत दिन तक बंद रहने के कारण भूत घर बन गया था उसे हमने बहुत कोशिश की। बड़ी भाभी ने भी लेकिन घर की रौनक नहीं लौटी। घर में हर तरफ मां का आंसू भरा चेहरा दिखाई देता। लगता जैसे उनकी सिसकियां सुनाई दे रही हैं। बड़ी भाभी से भी अब किसी का पहले जैसा लगाव नहीं बन पा रहा था। भइया का भी। हालांकि भाभी अपनी तरफ से जीजान से लगीं थीं।
हमेशा हंसी-मजाक करने वाले बड़े भइया अब बहुत गंभीर हो गए थे। दोनों भतीजे भी शांत रहते थे। उनकी बाल सुलभ-चंचलता ,शरारत सब विलुप्त हो गई थी। पापा अब मशीनी मानव से बन गए थे। भावहीन चेहरा लिए कभी इधर तो कभी उधर बैठे रहते। रात में जागते मिलते। किसी से भी काम के अलावा कोई बात न करते। उनका मन बहला रहे इसके लिए हम लोगों ने कोशिश की कि उन्हें दुकान पर बैठाया जाए, लेकिन वह चुप रहे। मगर गए नहीं। घूमने-फिरने के लिए लाख कहने के बाद भी टस से मस नहीं होते।
समय बीतने के साथ परिवार की जिंदगी चलने लगी। पापा अब फिर मेरी पढ़ाई को लेकर चिंतित हो गए। वह बोले ‘देखो तुम्हारी मां तो यह इच्छा लिए मर गईं कि तुम भी एक लाइन से लग जाओ। मैं चाहता हूं कि तुम्हारी भी शादी कर के अपनी ज़िम्मेदारियों से मुक्ति पा लूं। तुम्हारी मां का मन था तुम्हारी शादी के बाद एक बार सारे परिवार के साथ रामेश्वरम् जाने का। लेकिन दुर्भाग्य ने यह सब हमसे छीन लिया। अब ऐसी इच्छा करने की मैं हिम्मत भी नहीं जुटा पाता। बस इतना चाहता हूं बेटा कि तुम पढ़ाई पूरी कर अपनी नौकरी-वौकरी शुरू कर दो। अपने पैरों पर खड़े हो जाओ। किसी पर डिपेंड ना रहो। अब मेरा किसी पर भरोसा नहीं रहा।’ फिर पापा ने एक ऐसी बात कही की मैं विचलित हो उठा।
उन्होंने कहा ‘छोटी ने जिस तरह परिवार को बरबाद किया। कानूनी पचड़ों से जो अनुभव मिला उसे देखते हुए मैंने यह तय किया है कि तुम सब को अलग-अलग कर दूं। जिससे भविष्य में कोई समस्या ना खड़ी हो। माना अभी तुम भाइयों में सब कुछ बहुत अच्छा है। लेकिन मेरे बाद क्या होगा? इसको लेकर मेरे मन में बहुत डर है। अभी तीनों भाई मिल कर रह रहे हो। कल को सब अपने परिवार के साथ ही होंगे। पत्नियों के साथ ही होंगे। उनकी पत्नियों ने जो रूप दिखाया है उससे मैं यही मान कर चलता हूं कि एक साथ रहने पर कभी शांति नहीं रहेगी।
इसका एक ही समाधान मेरे दिमाग में आता है कि सब लोग अलग-अलग घरों में रहो। रिश्ते अच्छे रहें तो बोलो नहीं तो नहीं। ये मकान ऐसा बना है कि इसमें चाह कर भी अलग-अलग नहीं रहा जा सकता। इसलिए यह मकान बेच दूँगा, फिर तुम तीनों के अलग-अलग मकान बनवा दूंगा। वो मकान इतने बड़े भले ना बन पाएं। लेकिन फिर भी ठीक-ठाक बन ही जाएंगे। हां वो दोनों और पैसा लगा देंगे तो अपने मकान जैसा चाहेंगे वैसा बनवा लेंगे। मेरा क्या आज हूं कल नहीं। जब तक रहूंगा तुममें से किसी के पास किसी कमरे में पड़ा रहूंगा।’
पापा की बात सुनकर मैं बहुत भावुक हो गया कि इनके दिमाग में कैेसी-कैसी बातें चल रही हैं। यह अंदर ही अंदर कितना पीड़ित हैं। उस समय वह बहुत भावुक थे। उस वक्त हम दोनों एक पार्क में बैठे थे। शाम ढल रही थी। सूरज गहरा केसरिया होता जा रहा था, दूर क्षितिज की ओर बढ़ता हुआ। पापा के चेहरे पर उसकी किरणें पड़ रही थीं। उनका चेहरा भी तांबई सा होता जा रहा था। लगा जैसे वह भी क्षितिज की ओर चलते जा रहे हैं। अचानक ही मन में ऐसे खयाल आए कि मैं सहम गया। पहले तो मैं उनको अपना निर्णय बदलने के लिए समझाना चाह रहा था। लेकिन यह सोच कर शांत हो गया कि इन्हें जिसमें शांति मिले, खुशी मिले वह इन्हें करने दिया जाए।
यह सच ही कह रहें हैं। आखिर कितने दिनों के मेहमान हैं? आज हैं कल नहीं। आखिर हम लोगों ने अभी तक इन्हें जीवन में दिया ही क्या? और यह भी कि हम भाइयों ने अब तक किया ही क्या? अब तक जो कुछ भी है सब इन्हीं का किया तो है। बेचना चाहते हैं मकान, इसी में इन्हें संतुष्टि मिलती है तो यही अच्छा है। फिर जो बात कह रहे हैं वह एक कटु सत्य है। उनका निर्णय बहुत व्यावहारिक है।
उसी दिन पापा ने रात को खाने के बाद भाइयों को बुलाकर अपने मन की बात कह दी। भाइयों के लिए भी यह एक झटका था। वैसे ही जैसे मुझे लगा था। मगर पापा ने किसी से सलाह ना मांग कर एक तरह से अपना निर्णय सुनाया था। अपनी तरफ से उन्होंने किसी को कोई रास्ता नहीं दिया था कोई विकल्प रखने का। मैं तो यही चाहता था कि जो भी हो उनके मन का हो। जैसे भी हो वह खुश रहें। इन सब से बड़ी बात यह कि मैंने देखा कि शुरू में तो दोनों भाइयों के चेहरे पर शॉक जैसे भाव उभरे थे। लेकिन कुछ पल बाद भाव ऐसे हुए कि उनसे समझा जा सकता था कि पापा का यह निर्णय उन्हें भा गया है। फिर क्या था मकान बेचने और अलग-अलग तीन प्लॅाट खरीदने का काम ज़ोर-शोर से शुरू हो गया।
पापा इस पक्ष में भी नहीं थे कि प्लॅाट अगल-बगल और एक ही मोहल्ले में हों। प्लॅाट उम्मीदों से कहीं ज्यादा महंगे मिल रहे थे। इसलिए भाइयों ने लोन लिया। अलग-अलग मोहल्ले में तीन प्लॅाट लिए गए। मेरे प्लॅाट का भी पेमेंट भाइयों ने किया। पापा ने कहा मकान बिकने पर उसमें से ज्यादा हिस्सा तुम दोनों को दे दिया जाएगा। कोशिश रंग लाई। तीनों मकान बन गए।
दोनों भाइयों ने कोशिश करके अपने मकान बड़े-बड़े बनवा लिए थे। मेरे लिए मुश्किल से तीन बेडरूम का छोटा सा मकान बन सका। क्यों कि अच्छी खासी रकम प्लॅाट के एवज में भाइयों को भी दी गई थी। फिर वह दिन आया जब परिवार तीन टुकड़ों में अलग-अलग घरों में रहने लगा। वही परिवार जिसे मोतियों की तरह चुन-चुन कर बनाने में पापा-अम्मा ने अपना जीवन लगा दिया था। दोनों भाइयों ने पापा को अपने-अपने पास रखने की पूरी जिद की। मैं अब भी विश्वास से कहता हूं कि उन्होंने वह जिद पूरी ईमानदारी से, पूरे मन से नहीं की गई थी।
पापा ने मेरी तरफ इशारा करते हुए कहा ‘अभी मुझे इसी के साथ रहने दो। मकान ही अलग हुए हैं। हम लोग अलग नहीं हुए हैं।’ यह बात पूरी करते ही वह एकदम फूट कर रो पड़े थे। आखिर वह इतना दर्द कैसे सहते? पूरा जीवन लगा कर उन्होंने अपने सपनों का जो संसार बसाया था वह कहां बचा पाए थे। सब तो बिखर गया था। अपने सपनों का संसार बिखरने का गम उनसे ज़्यादा हम कहां समझ सकते थे। तो हम सब उन्हें चुप कराते रहे। पापा इसी तरह उस दिन भी रोए थे जब मकान बेचने के बाद चाबी नए मकान मालिक को सौंपी थी। और तब भी जब मकान से सामान निकाला जा रहा था।
नए मकान में पहला दिन हम-बाप बेटे का ऐसे कटा जैसे किसी भूत मकान में बंद कर दिए गए हों। टीवी भी देखने का मन नहीं हो रहा था। कभी इधर बैठते, कभी उधर। खाने-पीने की चीजें बहुत भरी हुई थीं। कुछ मैं लाया था। और ज्यादातर भाइयों ने लाकर भर दिया था। पहली रात बस यूं ही कट गई। ठीक से नींद नहीं आई। अगले दिन एक बहन अपने परिवार के साथ आ गई। दो दिन अच्छे कट गए। भांजे-भांजियों की उछल-कूद में पापा का मन लगा रहा। लेकिन उनके जाते ही फिर वही उदासी। लेकिन हमारी बहनों जैसी बहनें कम ही होती हैं। और बहनोई भी।
उदासी भरे चार दिन ही कटे थे कि दूसरी बहन भी आ गई। पूरा परिवार हफ़्ते भर रुका रहा। बड़ी चहल-पहल रही घर में। बहन-बहनोई जब तक रहे तब तक हर दिन पापा से बराबर कहते रहे कि ‘आप दोनों हमारे साथ चलें। वहीं रहें, जब तक समीर की शादी नहीं हो जाती।’ लेकिन पापा ने कहा ‘बेटा जब तक ऐसे चल रहा है तब तक चलने दो। जब नहीं चलेगा तब कुछ सोचा जाएगा। हां मन जब ऊबेगा तब तुम सब को फोन कर दूंगा। जैसा हो सके तुम लोग समय निकाल कर आते रहना।’
दोनों भाई सुबह शाम दोनों टाइम आते। चाय-नाश्ता, खाना-पीना लेकर आते। दुकान से एक नौकर आकर झाडू-पोंछा का काम कर जाता। हमने, पापा ने बार-बार मना किया कि यह न करें, हम लोग कर लेंगे। इस पर भाइयों का सीधा जवाब होता कि ‘या तो साथ चलो, नहीं तो हम जो कर रहे हैं करने दो।’ भाभी भी हर दूसरे तीसरे दिन आतीं, और जब आतीं तब घर चलने की जिद जरूर करतीं। पापा से, मुझसे बार-बार माफी मांगतीं। कहतीं ‘घर चलिए। आखिर सब आप ही का है। अपने ही घर चले चलना है।’
आखिर में जब माफी मांगतीं तो मैं देखता पापा के चेहरे पर अजीब से भाव आ जाते। जैसे बड़ी कसैली सी कोई चीज खा ली हो। आखिर एक दिन उन्होंने बोल दिया गहरी सांस लेते हुए। ‘तुमने तो बस गलती कर दी। बहक गई छोटी के बहकाने से। लेकिन यहां तो पूरा घर बर्बाद हो गया। तहस-नहस हो गया। मेरे बच्चों की जिंदगी, सब का जीवन बर्बाद हो गया। पूरी दुनिया में परिवार की बेइज्जती हुई, मेरे बच्चों की मां मर गई। इसका मैं क्या करूं।
पूरी दुनिया की दौलत दे दूं तो भी इनमें से कुछ मिलने वाला नहीं है। सबके मन में गांठें पड़ गई हैं, वो अब खत्म होने वाली नहीं हैं। लाख जतन करूं तो भी गांठ बनी रहेगी। अरे पहले ऐसे ही नहीं कह दिया गया था कि ‘‘रहिमन धागा प्रेम का मत तोड़िव चटकाय, जोड़े से फिर ना जुड़े फिर जुड़े गांठ पड़ जाए।’’ मगर अब तो दुनिया पहले की सारी बातों को बेकार-बेहूदा समझती है। और जब-तक उन्हें कुछ समझ में आता है तब-तक उनके हाथ से सब निकल चुका होता है। उनके पास सिवाय पछताने के और कुछ नहीं बचता।
अपने यहां यही हुआ है। जो गांठ पड़ गई है वह अब खत्म होने वाली नहीं है। इस लिए अब जैसा चल रहा है उसे वैसे ही चलने दिया जाए। आखिर यह भी तो कहा गया है कि प्रेम की भी अति नहीं होनी चाहिए। ज़्यादा मिठाई में कीड़े लग जाते हैं।’ उस दिन पापा की यह बात सुनकर भाभी बहुत गंभीर हो गई थीं। मुझे ऐसा लगा कि जैसे पापा जानबूझ कर इतना सख्त हो रहे हैं जिससे भाभी दूर रहें। वैसे भी उन्होंने जो किया उसके बाद तो हमें उनसे नहीं बोलना चाहिए था, पापा तो कम से कम बोल रहे थे। उस दिन के बाद भाभी ने कभी चलने के लिए नहीं कहा।
पापा मुझ से जल्दी से जल्दी पढ़ाई पूरी कर लेने के लिए बराबर कहते। वैसे भी इस समस्या के कारण मेरे कई साल बरबाद हुए थे। कई बार मन पढ़ाई बंद कर देने का भी हुआ। लेकिन पापा और भाइयों के प्रोत्साहन से मैं संभल गया। इस बीच मंझले भइया ने छोटी को तलाक दे दिया। जब तलाक की नोटिस पहुंची थी तो उनके फादर दौड़े आए थे। कि ‘जो हुआ उसे भूल जाइए। इंसान से गलतियां हो ही जाती हैं। आज कल लड़की की पहली शादी ही इतनी मुश्किल से होती है। डायवोर्सी की कहां हो पाएगी? बच्चे का क्या होगा? उसका तो भविष्य ही चौपट हो जाएगा।’
पापा उन्हें देखते ही बिफर पड़े थे। उनकी इस बात पर कहा था कि ‘जो गलती इंसान से हो जाती है उसे माफ किया जा सकता है। जो गलती जानबूझ कर की जाती है, पूरे कमीनेपन के साथ की जाती है वह अक्षम्य होती है। आपके क्षमा मांगने से हमारा जो परिवार बर्बाद हुआ वह आबाद हो जाएगा? क्या मेरी बीवी जो मर गई वह वापस आ जाएगी? क्या मेरी इज्जत वापस मिल जाएगी? तब तो आप पूरा परिवार मिलकर मेरी पूरी प्रॉपर्टी लिखाने पर जुटे हुए थे।
तुमने मेरे घर अपनी लड़की की शादी नहीं की थी। बल्कि संपत्ति हथियाने की साजिश के तहत उसे यहां भेजा था। अरे शर्म आनी चाहिए तुम लोगों को। बेशर्मी की भी हद होती है। अगर मैं भी तुम्हारी तरह नीचता पर उतर आऊं तो तुम पर क़ानून के दुरुपयोग, वृद्ध लोगों को मारने के प्रयास का मुकदमा कर सकता हूं। तुम्हें अंदर करा सकता हूं। तुम्हारी तरह झूठ साजिश के बल पर नहीं,सच के दम पर। लेकिन इसलिए नहीं किया क्योंकि मैं नहीं चाहता था कि तुम्हारा परिवार बर्बाद हो।
परिवार के बर्बाद होने की तकलीफ़ क्या होती है यह हमसे पूछो।
यह तकलीफ़ आदमी को जिंदा लाश बना देती। इसका दर्द सोते-जागते, उठते-बैठते हमेशा कोंचता रहता है। जो पीड़ा मेरे रोम-रोम में बसी है मैं नहीं चाहता वह मेरे दुश्मन को भी मिले। इस लिए जाइए और दुबारा मेरे सामने मत पड़िएगा। क्यों कि गलती मुझसे भी हो सकती है। आखिर मैं भी इंसान हूं।’ पापा का वैसा रौद्र रूप मैंने जीवन में पहली बार देखा था। नहीं तो बड़ी सी बड़ी गलती वह बस यूँ ही क्षमा कर दिया करते थे। उनकी डांट, गुस्से और कही गई बातों के निहितार्थ को समझने के बाद मंझली के फादर ने दुबारा पापा की तरफ रूख नहीं किया।
भइया को पता चला तो उन लोगों ने कहा ठीक किया। हमने और बड़े भइया ने सोचा था कि मंझले भइया का मन हो तो उन्हें वापस ले आएं। बस हम लोग कोई मतलब नहीं रखेंगे। लेकिन बात करने पर वे भी पापा की तरह बिफर पड़े थे। कहा ‘मैं उसे एक मिनट भी बर्दाश्त नहीं कर सकता। जब उसकी बातें खून खौला दे रही हैं तो सामने होगी तो मैं खुद पर कंट्रोल नहीं कर पाऊंगा। ऐसे में साथ रहेगी तो कुछ ऐसा-वैसा हो जाएगा।’
हमने सोचा कि जब इतने वर्षों के बाद भी इतना गुस्सा है। तो सही यही है कि दोनों अलग हो जाएं। मंझली को भी यह बात समझ में आ गई। तो आपसी सहमति से तलाक हो गया। हम लोगों ने सोचा था कि मंझली बच्चे को हर हाल में पाना चाहेगीे। अपने पास रखना चाहेगी। इधर भइया भी बच्चे को हर हाल में पाना चाहते थे। हमने सोचा था मामला उलझेगा लेकिन इसके उलट वह बिना हील-हुज्जत के ही निपट गया। मंझली ने बच्चे के लिए खुद तो कहा ही नहीं बल्कि मना भी कर दिया। छोटी की इस हरकत ने हम सब को एक बार फिर सकते में डाल दिया।
हम आश्चर्य में थे कि मां अपने स्वार्थ में इस कदर अंधी हो जाएगी कि अपने बच्चे से मुंह मोड़ लेगी। सोचा कि हो सकता है घर वालों ने दबाव डाला हो कि बच्चे की परवरिश कैसे करोगी? दूसरी शादी में यह बच्चा बड़ी बाधा होगा। कोई कुछ भी समझाए लेकिन क्या अपने बच्चे के प्रति मां की ममता अब इतनी कमज़ोर हो गई है, कि वो उसे अपने पास अपना नफा-नुकसान देख कर रखेगी। हमारे हृदय उस वक्त चीत्कार कर उठे थे। जब उसने बच्चे को दिया तो वह चीख-चीख कर मम्मी-मम्मी चिल्लाता रहा। लेकिन छोटी की आँखें भीगी भर थीं, जब कि भइया बच्चे को गले से लगा कर रो पड़े थे।
हम लोगों के भी आंसू उसका रोना सुनकर नहीं रुक रहे थे। लेकिन मंझली ने कोर्ट में बच्चा देकर जैसे उससे मुक्ति पा ली। अपने परिवार के साथ मुड़ी और चली गई। मुड़कर एक बार देखा तक नहीं। बच्चे ने चीख-चीख कर उल्टी कर दी। नाक से पानी निकल आया। हिचकियां बंध गईं। पस्त हो गया। निढाल होकर बाप के कंधे पर लटक गया था। तब भइया इतना भावुक हो गए थे कि बेटा बड़ा हो चुका था लेकिन उसे गोद से नीचे तभी उतारा जब गाड़ी में बैठे।
बड़े प्रयासों के बाद वह घर में मिक्सअप हुआ। दूसरी शादी की बात आई तो भइया बोले ‘एक से इतना कुछ मिल गया कि जी भर गया। दूसरी ना जाने कौन सी दुनिया दिखाएगी? मेरे बेटे का पता नहीं क्या करेगी?’ उनकी आशंका अपनी जगह ठीक थी। मगर हम सब परेशान थे कि कैसे कटेगा उनका जीवन? मगर वो किसी के समझाने से नहीं समझे। इस विषय पर बात होते ही बिगड़ जाते। बेटा भी धीरे-धीरे बाप के साथ ऐसा मिला कि उनके बिना एक पल अलग नहीं रहता। बाप-बेटा एक दूसरे के छाया बन गए थे। बड़ी भाभी उससे जब मिलतीं तो उसे मां का प्यार देने का पूरा प्रयास करतीं। बाबा को जैसे प्राण मिल गए थे।
कहने को मंझले भइया अलग रहते थे। लेकिन बेटे के आने के बाद उनका ज़्यादा समय बड़े भइया के यहां ही बीतने लगा था। मैंने देखा इन बातों से पापा को बड़ी राहत मिलती थी। इस बीच मैंने एम.एस.सी. कर ली तो पापा ने कहा ‘अच्छा होता कि पी.एच.डी. कर लो जिससे कहीं कॉलेज में जॉब मिल जाए। फिर आगे प्रोफेसर वगैरह हो जाओगे। एम.एस.सी. वगैरह करके कोई फायदा नहीं।’ फिर लगे हाथ यह जोड़ देते कि ‘जल्दी कहीं लाइन से लग जाओ तो तुम्हारी भी शादी वगैरह कर दूं। मुक्ति पाऊं ज़िम्मेदारी से। तुम्हारी मां भी उपर यही सोच रही होगी।’
आखिर पापा की जिद के आगे मैंने पी.एच.डी. के लिए क़दम बढ़ाए। हालात ऐसे बने कि पी.एच.डी. के लिए दिल्ली के एक संस्थान में पहुंच गया। वहां भी बड़े पापड़ बेलने पड़े। जो प्रोफ़ेसर साहब मिले उनकी तुनक-मिजाजी, और पैसे के लिए हमेशा मुंह बाए रखने की आदत ने मेरी हालत खराब कर दी। हॉस्टल मिल नहीं पाया। किराए पर रहना बड़ा मुश्किल हो गया। प्रोफ़ेसर साहब की आदतों के चलते एक साल तो देखते-देखते निकल गया। उनकी सेवा में जितना समय देता वह ही काफी नहीं था। बहुत सी चीजों के लिए फ़ोन आता कि समीर आते समय यह लेते आना। सामान ले जाता तो कभी पैसा ना देते।
पापा जितना पैसा भेजते थे वह दिल्ली में अलग मकान लेकर रहने के लिए कम पड़ रहे थे। उपर से प्रोफ़ेसर साहब की सेवा में लगने वाला खर्च मेरी हालत को नाजुक किए जा रहा था। शोध के नाम पर प्रोफे़सर साहब से जब कोई बात करता तो उनका एक ही जवाब होता। ‘समीर अभी तुम अपने विषय को ठीक से समझ नहीं पाए हो। अभी और आगे बढ़ना मुझे उचित नहीं लगता। जिस दिन मुझे लगेगा कि आगे बढ़ना है, आगे बढ़ेंगे। ठीक है।’ हर बार यही रटारटाया जवाब सुनकर मैं परेशान हो जाता। परेशान होकर मैंने अपने एक अन्य दोस्त से बात की जो एक अन्य प्रोफ़ेसर साहब के मार्ग-दर्शन में पी.एच.डी. कर रहा था। उसने कहा ये ‘मान कर चलो कि यह दो साल से पहले खिसकने वाला नहीं है। तब-तक तुम और स्टडी करते रहो।’
कुछ और सीनियर्स से अपनी समस्या शेयर की। सब एक सा बोले। मैंने कहा ये क्या रिसर्च हुई ? तो एक ने कहा ‘देखो परेशान होने की जरूरत नहीं। ये सर बहुत अच्छे हैं। पांच साल होते-होते तुम्हें पी.एच.डी. वगैरह सब अवॉर्ड हो जाएगी। लगे रहोगे तो कहीं किसी कॉलेज में लगवा देंगे। बस लगे रहो।’ उन सबकी बातें सुनकर मैं बड़ा निराश हुआ। उन प्रोफ़सर का नाम तो बहुत सुना था। कि वह तेज़-तर्रार कड़क मिजाज आदमी हैं। अपने विषय के चुनिंदा विद्वानों में से एक हैं। यह सब देखकर सोचा कि लोगों ने जो बताया था वह गलत था या मैं गलत सुन रहा था। इधर घर पर पापा की सेहत संबंधी समस्याएं और परेशान करतीं। दोनों भाई अपने बिज़नेस में व्यस्त रहते। सुबह शाम थोड़ा बहुत ही समय दे पाते थे।
पापा अपनी जिद के चलते अब भी अकेले ही रहते थे। यही सब सोचकर मैं जल्दी से जल्दी पढ़ाई पूरी कर लौटना चाहता था। मन में यही था कि जब तक पापा हैं तब तक लखनऊ में ही जॉब ढूंढूंगा । पापा की इच्छा पूरी होगी, उनकी खुशी भी देख सकूंगा। और देखभाल भी कर सकूंगा। मगर हालात तो यह कह रहे थे, कि पांच-सात साल निकल जाएं तो कोई आश्चर्य नहीं।
कई बार मन में आया कि छोड़ कर चलूं। वहीं कोशिश करूं। मगर जब पापा सेे बात की तो वो नाराज हुए कि ‘मैं इंतजार कर रहा हूं कि तुम प्रोफ़ेसर बनो। तुम्हारी शादी कर मैं अपनी ज़िम्मेदारी से मुक्ति पाऊं। वहां से यहां आओगे फिर से शुरू करोगे। दो साल जो वहां बिताए हैं वह समय और पैसा दोनों बरबाद होगा। यहां आकर तीन-चार साल में कर लोगे तो भी छः साल तो हो ही जाएंगे।’
पापा अपनी जगह सही थे। लेकिन मैं बड़े असमंजस में था। क्या करूं? क्या ना करूं? कुछ समझ नहीं पा रहा था। इसी बीच एक दिन पापा से बात कर रहा था, तो पापा ने जो बताया मंझले भइया के बारे में उससे मेरी परेशानी और बढ़ गई। पापा बड़े पसोपेश में थे। डर रहे थे कि फिर कोई समस्या ना खड़ी हो जाए। सुनकर कुछ समय तो मैं भी परेशान हुआ। लेकिन सोचा कि मंझले भइया ने जो किया वह उनकी स्वाभाविक जरूरत है। उन्होंने जो किया ठीक किया।
आखिर कब तक अकेले रहेंगे? लेकिन पापा की आशंका भी तो गलत नहीं है। उनका यह क़दम कोई नई समस्या ना खड़ी कर दे। उनको यही करना था तो जब कहा जा रहा था तभी दूसरी शादी कर लेते। या नहीं की तो कोई बात नहीं। जिस महिला के साथ रह रहे हैं उसे विधिवत शादी कर के रखें। किसने मना किया है। उन्हें पता नहीं क्या हो गया है। पापा को टेंशन दे रहे हैं।
सौभाग्य है कि बच्चा बड़ी मां के साथ घुल-मिल गया है। वो भी उसे अपने बच्चे की तरह पाल रही हैं। मगर इस नई महिला से कोई बच्चा हो गया तो क्या होगा? पहले तो इन्हीं सब के चलते साफ कह दिया था कि शादी नहीं करूंगा। आखिर क्या सोचकर उठाया है उन्होंने यह क़दम। अपनी उलझन शांत करने के लिए मैंने बड़े भइया को फ़ोन करके पूछा कि क्या मामला है? तो उम्मीद से एकदम अलग उन्होंने दो टूक जवाब दिया कि ‘मुझे कुछ नहीं मालूम। उनका पर्सनल मैटर है। जो चाहे करें। मुझे कोई लेना-देना नहीं। अब मैं किसी चक्कर में पड़कर अपनी लाइफ और नहीं बर्बाद करना चाहता। अब सब लोग बड़े हो, जिसे जो ठीक लगे वह करे। अब मैं किसी मामले में नहीं हूं।’
उनके इस बेरूखे जवाब ने मुझे सन्न कर दिया। कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि वो ऐसा जवाब देंगे। और मंझले भइया ऐसी हरकत करेंगे। वही मंझले भइया जिनके लिए कहा जाता था कि इस मामले में वो बहुत संकोची, शर्मीले हैं। लेकिन वो तो एकदम डबल निकले। यह सब जानकर मेरा मन एकदम घबड़ा गया कि पता नहीं पापा कैसे हैं? ये दोनों भाई इस तरह जवाब दे रहे हैं। ऐसा बेरूखा व्यवहार मुझसे कर रहे हैं तो पापा के साथ क्या कर रहे होंगे? मैं पापा की हालत का अनुमान कर घबड़ा उठा।
मैं उसी दिन बिना रिज़र्वेशन कराए ही रात को लखनऊ के लिए चल दिया। रिजर्वेशन तत्काल में भी नहीं मिला। ट्रेन में धक्के खाते सवेरे जब घर पहुंचा तो मेरी आशंका सच निकली। पापा पूरी तरह उपेक्षित घर में अकेले पड़े थे। घर की हालत बता रही थी कि उनकी देखभाल कोई नहीं कर रहा था। कम से कम तीन-चार दिन से सफाई वगैरह कुछ नहीं हुई थी। फ्रिज में कई दिन का खाना पड़ा था। कुछ फल थे। मतलब पापा खाना भी नहीं खा रहे थे। दरवाजे पर मैंने पापा को जिस हाल में देखा था वह मेरे अनुमान को शत-प्रतिशत सही ठहरा रहा था। वो मुझे देखकर चौंक गए थे। क्यों कि मैंने आने की कोई सूचना नहीं दी थी।
पैर छूकर मैंने कहा पापा बस अचानक ही प्रोग्राम बन गया था। पैर छू कर उठा तो उन्होंने गले से लगा लिया। मैंने भी उन्हें बांहों में भर लिया। बाप-बेटे दोनों ही की आंखें नम हो गईं थीं। मेरी आंखें मां को ढूंढ़ रही थीं। पापा को सोफे पर बैठा कर मैं किचेन में इसी उद्देश्य से गया था कि कुछ चाय नाश्ता बनाऊं। लेकिन जो देखा उससे मन बहुत दुखी हुआ। मां की याद में खोया जा रहा था। बार-बार आंखों में आंसू आ जा रहे थे। रात में भी खाना नहीं खाया था। भूख भी बड़ी तेज़ लगी हुई थी। मगर कहता किससे? मुझे पक्का यकीन था कि पापा भी भूखे होंगे। मगर मैं उनसे कुछ पूछूं उसके पहले ही वह बोल पड़े।
‘रात भर के थके होगे। बैठो मैं चाय बनाता हूं।’ बाप के इस प्यार ने मेरा कलेजा ही निकाल लिया। हिलते-डुलते से वो उठने ही वाले थे कि मैंने उन्हें बैठाते हुए कहा क्या पापा मेरे रहते आप करेंगे यह सब। फिर माहौल हल्का करने की गरज से मैंने बंद पड़े टी. वी. को ऑन किया। पापा ने बड़े भइया को फ़ोन करने को कहा लेकिन मैंने मना कर दिया। उन लोगों के रवैये से मुझे बड़ा गुस्सा आ रहा था। मैंने कपड़े भी चेंज नहीं किए, पहले गया पास की दुकान से दही, जलेबी, खस्ता और चाय ले आया। किचेन इतना गंदा था कि बिना साफ किए कुछ नहीं बना सकता था। थकान के कारण मेरा यह सब करने का मन नहीं हो रहा था।
नाश्ते के बाद मैंने पापा से पूछा कि क्या भइया लोग नहीं आ रहे? क्या हाल हो रहा है घर का, खाना-पीना भी अस्त-व्यस्त है। आपकी सेहत बता रही है कि कुछ खा-पी नहीं रहे हैं। पापा बात टालते हुए बोले ‘देखो हर समय कोई किसी के साथ नहीं रह सकता। और खाना-पीना सब आता रहता है। चिंता की कोई बात नहीं है। अब उम्र हो गई है। हमेशा एक सा तो नहीं रहूंगा ना। मुझे अब चिंता है तो बस तुम्हारे कॅरियर की। शादी की। बस और किसी चीज की परवाह नहीं। और जब-तक यह हो नहीं जाता तब-तक मुझे कुछ नहीं होने वाला।’
पापा साफ-साफ सब कुछ छिपा रहे थे। लेकिन मैंने उनसे बहस करना उचित नहीं समझा। उन्होंने मंझले भइया के बारे में बहुत सी बातें कीं। कहा ‘उससे यह उम्मीद नहीं थी। मैं डायवोर्स के बाद ही दूसरी शादी के लिए कह रहा था। लेकिन तब तैयार नहीं हुआ और अब यह सब हो रहा है। पता नहीं कौन सी औरत है? कैसी औरत है? क्या होगा समझ में नहीं आ रहा।’ मैंने कहा वो समझदार हैं। वो अपनी जिंदगी अपने हिसाब से जीना चाह रहें हैं तो जीने दीजिए। आप चिंता मत करिए। आखिर में जाकर पापा ने भाइयों द्वारा अपनी उपेक्षा की बात भी कह ही डाली। उनकी बातें सुनकर मुझे लगा कि अब उन्हें अकेले छोड़ कर मेरा दिल्ली जाना संभव नहीं है।
शाम को भाइयों से मिलने गया। बड़े ने फॉर्मेलिटी अच्छी की। भाभी ने भी। हां बच्चे पहले ही की तरह प्यार से मिले। बड़े भाई ने एक बार भी यह नहीं कहा कि सुबह से आए हो। फ़ोन तक नहीं किया या पढ़ाई-लिखाई कैसी चल रही है। कुछ भी नहीं पूछा। मंझले के पास पहुंचा तो उन्होंने यह शिकवा ज़रूर किया कि सुबह से आए हो बताया तक नहीं। हाल-चाल, पढ़ाई-लिखाई भी पूछी। फिर मुझसे रहा ना गया तो मैंने महिला की बात छेड़ दी। तो उन्होंने एक लंबी चौड़ी दास्तान बताते हुए इतना कहा कि ‘हम दोनों परिचित तो काफी समय से हैं। जो सी.ए. हमारे काम को देखता है वह उसी के ऑफ़िस में काम करती हैं। पहली बार वहीं मिली थीं। फिर बात इतनी बढ़ी कि यहां तक पहुंच गई। वह भी डायवोर्सी हैं। बुलंदशहर की रहने वाली हैं।’
मैंने कहा जब बात यहां तक पहुंच गई है तो शादी कर डालिए। भले ही मंदिर में। विभव की मां की कमी पूरी हो जाएगी। लोग कुछ कहना-सुनना बंद कर देंगे। मेरे इतना कहते ही भइया तमक कर बोले ‘देखो मुझे दुनिया की परवाह नहीं। मेरे लिए जो ठीक है, वह मैं जानता हूं। वही कर रहा हूं। मैं पहले ही कह चुका हूं कि अब मैं शादी-वादी का झमेला नहीं पालना चाहता। विभव जब तक भाभी के पास रह रहा है ठीक से तब-तक ठीक है। नहीं तो यहीं ले आऊंगा। फिर जितना उसे मैं जान पाया हूं उस हिसाब से वह भी शादी-वादी के झमेले में नहीं पड़ना चाहती। वह शांत स्वभाव की है। एकांत जिंदगी जीना चाहती है। कुल मिला कर हम दोनों फिलहाल एक दूसरे को सूट कर रहे हैं। जब-तक सूट कर रहे हैं, तब-तक साथ हैं। नहीं तो नई दुनिया देखेंगे।’ आखिर मैंने पूछा आज नहीं आईं क्या? तो वह बोले ‘टाइम हो गया है। आती ही होंगी।’ हम दोनों की बातें चलती रहीं। खासतौर से पापा को लेकर।
पापा के बारे में जिस रूखेपन से उन्होंने बातें कीं उससे एक तरह से ये साफ मैसेज था कि पापा कोई उनकी ज़िम्मेदारी नहीं हैं। मैंने देखा कि आज वीकली ऑफ होने के कारण वो और बड़े भाई दोनों घर पर थे। लेकिन दोनों में से कोई भी पापा के पास नहीं पहुंचा था। मेरा मन गुस्से, नफरत से भर रहा था। आठ बजने को हुआ तो मैंने सोचा चलूं पापा के लिए खाना वगैरह देखूं। इन दोनों भाइयों ने तो दुनिया ही बदल दी है। चलने को हुआ तभी बाहर गेट खुलने की आवाज़ हुई। भइया बोले ‘शायद आ गईं ।’ मेरी नजर दरवाजे की तरफ चली गई। भइया का अंदाजा सही निकला, वही थीं। जिनका नाम भइया ने अनुप्रिया बताया था।
अनुप्रिया करीब साढ़े पांच फीट की अच्छी हेल्थ वाली महिला थीं। गोरा रंग, कंधे तक कटे बाल। अपेक्षाकृत मोटे होठों पर हल्की लिपिस्टक थी। चेहरे पर दिन भर की थकान साफ झलक रही थी। हावभाव से वह शांत स्वभाव की ही लग रही थीं। उन्होंने स्किन टाइट लाइट ब्लू जींस और लाइट पिंक शर्ट पहन रखी थी। पैरों में स्टाइलिश कैनवॉस शू थे। साथ ही पतली सी पायल भी।
जींस के साथ पायल मैंने कम ही देखी थी। मैं समझ नहीं पाया कि यह ड्रेस उनकी यूनीफॉर्म थी या उनकी पसंद। भइया ने बहुत बुझे मन से मेरा परिचय दिया ‘अनु ये समीर। मेरे छोटे भाई।’ इस पर उसने हाथ जोड़ कर नमस्कार किया। मैंने भी उसी तरह जवाब दिया। क्षण भर में ही यह बात मन में कौंध गई कि इन्हें भाभी कहूं या अनुप्रिया जी कहूं। मगर आखिर में हाथ जोड़कर ‘नमस्ते’ कह कर रह गया।
मैं खड़ा हो ही रहा था कि उन्होंने कहा ‘बैठिए। हमारे बीच अकसर आपकी बातें होती हैं। कैसी चल रही है आपकी रिसर्च?’ मैंने कहा ठीक है। हाथ में लिया अपना बैग। स्कूटर की चाभी, उन्होंने सेंटर टेबिल पर रखी और सोफे पर भइया से एकदम सट कर बैठ गईं। जैसे बैठने की जगह बहुत कम हो। इधर-उधर की दो-चार और बातों के बाद वह किचेन में चली गईं। और चाय नाश्ता, लेकर लौटीं।
मैं उन्हें समझने की कोशिश कर रहा था। लेकिन मुझे लगा कि उन्हें समझना मेरे वश के बाहर है। कुछ ही देर में मैं घुटन महसूस करने लगा। पापा पर मन लगा हुआ था। इसलिए नाश्ता खत्म होते ही मैंने उठते हुए कहा भइया अब चलता हूं। पापा इंतजार कर रहे होंगे। खाने की भी देर हो रही है। भइया बोले ‘अच्छा ठीक है।’ कुछ इस अंदाज में जैसे कि कह रहे हों चलो प्यारे, निकलो यहां से।
मैं घर आया तो खाना होटल से ही लेता आया। मैंने सोचा बनाने में देर होगी। पापा भूखे होंगे। होटल में जब खाना पैक करा रहा था, तो मेरे दिल में आया कि मैंने पापा के खाने की बात की लेकिन भइया ने एक बार भी फॉर्मेल्टी के लिए भी नहीं कहा कि रुको यहीं बन जाएगा। तुम खा लो और उनका लेते जाना। अनु के लिए तो खैर कुछ कह ही नहीं सकता। उनका हमारे परिवार से क्या लेना-देना। हां यदि मैनर्स के दृष्टिकोण से देखें तो उनको भी यह कहना चाहिए था। आखिर वो दोनों कल को यदि शादी की रस्म पूरी कर लेते हैं तो पापा उनके ससुर ही होंगे। लेकिन अनु ने भी एक शब्द नहीं कहा।
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