वीकेंड चिट्ठियाँ
दिव्य प्रकाश दुबे
(4)
संडे वाली चिट्ठी
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डीयर T,
ऑफिस में हमारे डिपार्टमेंट से लेकर फ्लोर तक सब कुछ अलग है। कोई भी एक ऐसी वजह न है कि मैं तुमसे बात शुरू कर पाऊँ। अब मेरे अंदर का वो कॉलेज का आवारा टाइप लड़का भी सुबह ऑफिस की लिफ्ट में सिमट कर खड़े-खड़े खो गया है। अब पहले दूसरे या फिर फाइनली तीसरे प्यार वाली गलतियाँ खुशी से दोहरने की हिम्मत भी नहीं बची है।
हमारा रिश्ता बस इतना सा है कि हम दोनों ही फोन पर बातें करते हुए पता नहीं कब सीढ़ियों से उतर कर नीचे वाले फ़र्स्ट फ्लोर पर आ जाते हैं। उस बालकनी में जहां हमारे ऑफिस का कोई नहीं आता। । तुम वहाँ जब टहल टहल कर बात कर रही होती तो मैं वहीं बैठ के बात कर रहा होता हूँ। तुम्हारे हर एक चक्कर पूरा होने पर एक बार को हमारी नज़र मिलती है और फिर तुम घूम घूम कर बात करने लगती हो। कभी तुम्हारी बातें पहले खतम हो जाती हैं कभी मेरी। कभी आज तक मैंने सुनने की कोशिश नहीं की और तुम्हारी तरफ से भी ऐसी कोई कोशिश कभी नहीं हुई।
मैं अक्सर जब लंच के बाद वहाँ जाकर फ़ोन पे बात करता हूँ तो तुमको न चाहते हुए ढूँढने लगता हूँ। आदतें बड़ी अजीब होती हैं पता ही नहीं चलता कब पड़ जाती हैं। मुझे पूरे ऑफिस में केवल उतना ही हिस्सा अच्छा लगता है जहाँ हम फ़ोन पे बात कर रहे होते हैं। मेरा सब कुछ सेट है लाइफ में, नौकरी, वीकेंड पे पार्टी करना, कभी कभार घूमना-फिरना और एक स्टेबल रिलेशनशिप तुम्हारा भी कुछ कुछ ऐसा ही लगता है।
मैं तुम्हें ये चिट्ठी नहीं लिखता अगर तुम्हें पिछले शुक्रवार को सेकंड फ्लोर पर मेरी वाली जगह पर बैठ के रोते हुए नहीं देखा होता। बावजूद इसके कि मैं वहाँ हूँ फिर भी तुमने अपने आँसू नहीं पोछे, ऐसे कोई तभी रोता है जब किसी बड़ी बात पे रोना आया हो। पता नहीं शायद मुझे वहाँ से फ़ोन पे बात करते करते ही धीरे चले जाना चाहिए था लेकिन पता नहीं क्यूँ मैं आकार तुम्हारे पड़ोस में बैठ गया और तुमने भी न कुछ कहा न ही अपने आँसू पोछे।
उन दस मिनटों में न तुमने कोई बात बताई न ही मैंने पूछी। न मैंने रुमाल बढ़ाया न तुमने जाने की जल्दी दिखाई। ठीक उन्ही उदास पलों में एक भीगा हुआ एक्सट्रा मैरीटल रिश्ता बन गया तुम्हारे साथ। उदासी में बने रिश्तों के लिए जरूरी नहीं कि बात जानी जाए बस पल उदास है इतना काफी होता है। रिश्ता आसुओं से बना था और एक्सट्रा मैरीटल था इसलिए ऑफिस में किसी दोस्त को ये बात बताई नहीं वरना वो चाय पे होने वाली तमाम बातों की तरह मज़ाक बन के हवा में उड़ जाती।
तुमसे कोई उम्मीद रखना तो बेमानी होगा लेकिन बस इतना बताना था कि किसी दिन मेरा रोने का मन हुआ तो फ़र्स्ट फ्लोर पे मैं आँसुओं से पहले तुम्हें ढूंढूंगा। उम्मीद है तुम भी उदास पलों के जैसे ठहर जाओगी।
दिव्य प्रकाश दुबे,
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