Chooti Galiya - 5 in Hindi Fiction Stories by Kavita Verma books and stories PDF | छूटी गलियाँ - 5

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छूटी गलियाँ - 5

  • छूटी गलियाँ
  • कविता वर्मा
  • (5)

    मेरी वापसी का दिन आ गया, मैं सनी को खींच कर अपने सीने से लगाना चाहता था पर हमारे बीच की दूरी ने मेरे हाथ उसके कंधे तक पहुँचने ही नहीं दिए। वापस आकर मैं रोज़ गीता से बात करता रहा। सनी पर केस दर्ज़ हो गया था, लेकिन उसकी जमानत हो गयी थी। उसकी शराब पीने की आदत लत बन चुकी थी कम उम्र में हुए इस आघात, दोस्तों की बेरुखी और मेरे और उसके बीच की दूरी ने उसे बहुत अकेला कर दिया था और उसने शराब को अपना साथी बना लिया। अब तो वह अपने कमरे में अकेले बैठा शराब पीता रहता। गीता के मना करने या समझाने पर चिल्लाने लगता,"तो और क्या करूँ? मेरी जिंदगी में अब रखा ही क्या है? कोई मुझे नहीं चाहता मैं कहीं चला जाऊँगा या कहो तो जहर खा लूँ।"

    गीता फोन पर रो रो कर मुझसे वापस आने की विनती करती रही। आना तो मैं भी चाहता था पर कंपनी के अनुबंध ने मुझे रोक रखा था। अगले आठ महीने मुझे इससे मुक्ति नहीं मिल सकती थी, हम दोनों फोन पर बेबस रोते रहते।

    इस बीच सोना पर से हम दोनों का ही ध्यान कम हो गया, वह खामोश रहती स्कूल के बाद अपने कमरे में चुपचाप बैठी रहती। छह महीने बीत गये मैंने इंडिया की कई कंपनियों में जॉब के लिये आवेदन किया। अपनी कम्पनी के इन्क्रीमेंट को ठुकरा कर मैंने अनुबंध समाप्त करने की इच्छा जाहिर की। सभी को आश्चर्य हुआ लेकिन इस बार मैंने निश्चय कर लिया था। गीता को भी बता दिया कि मैं घर वापस आ रहा हूँ। उत्तर में उसकी सिसकी सुनी मैंने, इन हालातों में ख़ुशी या दुःख का कोई औचित्य नहीं रह गया था।

    अनुबंध समाप्त कर घर आने की तारीख निश्चित हो गयी हवाई जहाज़ में मैं अजीब सी मनस्थिति में बैठा था, घर जाने की ख़ुशी नहीं थी बल्कि एक तनाव था ऐसा तनाव जो पहली बार नौकरी पर जाने पर हुआ था। इतनी जिम्मेदारियाँ सम्भाल पाऊँगा या नहीं इसका तनाव।

    सोचा था सनी और सोना के लिए कोई गिफ्ट ले लूँ, लेकिन क्या लूँ समझ ही नहीं आया। अब तक गिफ्ट्स से ही तो बहलाता आया हूँ बच्चों को उनकी असली जरूरत तो कभी समझ ही नहीं पाया था। एयरपोर्ट पर ही चॉकलेट का एक डिब्बा लिया। दरवाज़े पर गीता अकेली खड़ी राह तक रही थी, घर में सन्नाटा पसरा था, मेरे कान बच्चों की आवाज़ को तरस रहे थे, मुझे पानी देते गीता ने सोना को आवाज़ लगाई।

    "सोना, सनी बेटा देखो पापा आ गए," कहीं से कोई जवाब नहीं आया। दो बार आवाज़ लगाने के बाद वह सोना के कमरे में उसे बुलाने चली गयी, मैं खुद को अपमानित सा महसूस करने लगा। तभी दरवाज़े पर आहट हुई, सनी खड़ा था लाल लाल आँखें, बिखरे बाल, कई दिनों के पहने मुसले कपड़े , मुझे गुस्सा भी आया क्या इसे पता नहीं था आज मैं आने वाला हूँ कम से कम आज तो नहा कर शक्ल सूरत ठीक कर लेता।

    तभी गीता की चीख और धड़ाम से गिरने की आवाज़ आई। मैं और सनी अंदर कमरे की ओर दौड़े, सोना के कमरे का दरवाज़ा खुला हुआ था और वह पंखे से झूल रही थी। गीता फर्श पर बेहोश पड़ी थी।

    सनी और मैंने सोना को नीचे उतारा, मैंने बदहवास उसकी नब्ज़ टटोली कुछ भी बाकी ना था। गीता बेहोश पड़ी थी सनी ने कब टैक्सी मँगवाई कब हमने गीता और सोना को उसमे डाला दोनों को हॉस्पिटल पहुँचाया कुछ भी याद ना था। अस्पताल में गीता ने अधबेहोशी की हालत में सोना को देखा। सोना की जींस की जेब में एक पत्र मिला "पापा मैं बहुत खुश हूँ आप वापस आ रहे हैं भैया और मम्मी को आपकी बहुत ज़रूरत है, मैं आपसे नहीं मिल सकती मुझे माफ़ कर दीजिये।

    पोस्टमार्टम रिपोर्ट में सोना के प्रेग्नेंट होने की बात सामने आई। घर के बोझिल वातावरण ने उसे कब किसी और के करीब कर दिया कोई ना जान सका। गीता अस्पताल से घर तो आ गयी लेकिन दुबारा बिस्तर से ना उठ सकी। सनी सोना की मौत के लिए खुद को जिम्मेदार मानने लगा अब तो वह हर समय नशे में धुत्त रहता।

    बेटी का गम और बेटे की बर्बादी को गीता सह ना सकी। दो महिने उसकी आँखें लगातार बरसती रहीं और एक दिन सारे आँसू चुक गए। सनी को इन सब से निकालना नामुमकिन लगने लगा और एक दिन उसे रिहेबिलिटेशन सेंटर में भेजना पड़ा। तब से मैं यहाँ अकेले रह रहा हूँ, एक टिफिन वाला सुबह शाम खाना दे जाता है। नौकरी के कई प्रस्ताव आये पर सनी को अकेले छोड़ कर जाने का मन नहीं होता इसलिए अपनी जमा पूँजी को ठीक से इन्वेस्ट करके मैं सनी के ठीक होने का इंतज़ार कर रहा हूँ।

    इसी समय नेहा और राहुल की कहानी सामने आ गई, व्यस्तता, बच्चों से दूरी, बेरुखी किस तरह जीवन का रुख मोड़ सकती है ये मुझसे बेहतर कौन जान सकता है। इसीलिए शायद मैं नेहा की मदद करने के लिए उतावला हूँ। राहुल को सनी बनने से बचा सकूँ तो शायद मेरी गल्तियों का बोझ कुछ कम महसूस करूँ।

    नेहा ..

    हे भगवान ये क्या हो रहा है, कहीं मैं किसी मुसीबत में तो नहीं फँस रही हूँ। उस दिन उस आदमी ने, क्या नाम था उनका दीपक सहाय, उन्होंने ने मेरी बातें सुनी, फिर वह उन बातों को लेकर सोच रहे है, मेरी मदद करना चाहते हैं, क्या वाकई?

    उन्होंने बताया कि वह अपने बच्चों को छोड़ कर विदेश गए थे, अब बेटा नशे की लत में है और वह राहुल के लिए कुछ करके अपना प्रायश्चित करना चाहते हैं। क्या पता उनकी ये कहानी कितनी सच्ची है? उस पर विश्वास करना भी चाहिए या नहीं? अपनी जिम्मेदारियाँ न उठा पाने का प्रायश्चित राहुल के प्रति जिम्मेदार हो कर, कुछ अजीब सा नहीं है?

    वैसे तो बातचीत से शरीफ ही लगे, किसी बड़ी कंपनी में सीनियर मैनेजर, इतनी बड़ी पोस्ट पर होकर कोई व्यक्ति क्यों भला किसी का बुरा करेगा, और मेरा तो उनसे कोई लेना देना भी नहीं है।

    राहुल के जन्मदिन के लिए उनकी जो योजना है वह कितनी सफल होगी नहीं पता? अगर सफल हो भी गयी तो उसके जन्मदिन के बाद क्या? राहुल सिर्फ जन्मदिन के लिए ही तो अपने पापा को याद नहीं कर रहा है। ये तो उसके शाश्वत प्रश्न हैं कि उसके पापा क्यों नहीं आते, फोन क्यों नहीं करते? जो बाद में भी अपनी जगह रहेंगे इसका समाधान कैसे करूँगी?

    बाद में जो होगा देखा जायेगा, कम से कम अपने जन्मदिन के दिन तो उसे वह ख़ुशी मिले जिसकी उसे वर्षों से आस है। हालाँकि वह ख़ुशी कितनी झूठी कितनी खोखली होगी वह नहीं जान पायेगा। बस उस दिन वह खुश रहे, उस दिन वह अपने पापा के साथ ना रहने के दुःख में ना डूबा रहे और इसके लिए जो भी करना पड़ेगा मैं करूँगी। तो क्या मैं मिस्टर सहाय का मदद का प्रस्ताव मान लूँ? उनकी योजना के अनुसार राहुल का जन्मदिन मनाने की सहमति दे दूँ?

    हे भगवान मैंने क्यों उस दिन अंजलि से सारी बातें कहीं, क्यों उन सहाय साब ने मेरी बातें सुनीं क्यों वे मदद करना चाहते हैं, क्यों मैं इस दुविधा में हूँ, जहाँ ना कोई बात सही लगती है ना गलत। बल्कि हर सही बात पल भर में गलत और हर ग़लत बात पल भर में सही लगने लगती है।

    नेहा ने करवट बदल कर राहुल को देखा उसके चेहरे पर बिखरी मासूमियत को देख कर उसकी आँखें भर आयीं। उसके मन से एक आह सी निकली इसका क्या दोष है? ये क्यों सजा भुगत रहा है? सब कुछ होते हुए भी सबसे वंचित, पिता के प्यार को तरसता हुआ। विजय ये तुमने मेरे और मेरे बेटे के साथ ठीक नहीं किया

    ...

    तीन चार दिन बाद फोन की घंटी बज़ी,"हैलो, मैं नेहा बोल रही हूँ।"

    "हाँ नेहा जी कहिये कैसी हैं आप?" ना जाने किस भाव ने मुझे उल्लासित कर दिया।

    "जी ठीक हूँ, क्या आपसे मिल सकती हूँ आज?"

    "जी हाँ क्यों नहीं।"

    "कब कहाँ?"

    "जब आप कहें, चाहें तो पार्क में या मेरे घर पर .... कहते कहते मैं खुद अटक गया, मेरा मतलब है किसी रेस्टॉरेंट में, जैसा आप कहें।" अपनी उतावली पर झेंप सी हुई मुझे।

    "जी शाम को पाँच बज़े, पार्क में, जी वहीँ उसी बेंच पर, ठीक है, नमस्ते।"

    मैं बेचैनी से पूरे कमरे में चक्कर लगाने लगा। कभी बिस्तर पर पड़ा टॉवेल उठा कर रखता, कभी पुराने अखबार जमाता तो कभी चादर की सलवटें ठीक करता। आईने में खुद का अक्स देख कर झेंप गया मैं। क्या हो गया है मुझे, वह घर थोड़े ही आ रही हैं। वह तो किसी काम से मिलना चाहती हैं, राहुल के बारे में, हाँ मुझे उसके बारे में सोचना चाहिए क्या और कैसे किया जाये?

    मैं कुर्सी पर बैठ गया। हाँ तो राहुल का जन्मदिन है, उसे उसके पापा की ओर से क्या मिलना चाहिए, कैसे मिलना चाहिए, ये सब रूप रेखा बनाई।

    साढ़े चार बजे से ही तैयार हो कर कमरे का चक्कर लगाने लगा। ये अपनी योजना के लिए उत्साह था या नर्वसनेस खुद ही नहीं समझ सका, जब रहा ना गया तो दरवाजे पर ताला लगा कर पार्क की ओर चल दिया।

    तय बेंच खाली थी मैं उसपर बैठ गया और नेहा का इंतज़ार करने लगा, बैचेनी के कारण बैठा नहीं जा रहा था पर कोई और उस बेंच पर ना बैठ जाए इसलिए उठ भी ना सका। ठीक पांच बजे वह गेट से अंदर आती दिखी।

    ***