मन कस्तूरी रे
(6)
ये मन का मौसम है न कब बदल जाये क्या कहिये। फिर हर दिन एक सा नहीं होता। एक बार मन पर उदासी का कोहरा छाया नहीं कि संभलते-संभलते वक्त लग ही जाता है। बहुत मूडी हो गई है आजकल स्वस्ति। उस दिन मन कुछ उदास था स्वस्ति का तो अलमारी से पापा की तस्वीर निकालकर बैठ गई। सामने पापा की तस्वीर थी और स्वस्ति जैसे ऐसी यादों में कहीं डूब गयीं जो उसने कभी देखी नहीं थी सुनी भर थीं।
कितने सुदर्शन थे पापा। लंबा कद, चौड़े कंधे, मजबूत कद काठी और चेहरे पर एक कोमलता का भाव। कितना विचित्र था न यह भाव जो उनकी कदकाठी से बिल्कुल मेल नहीं खाता था। उसने तो पापा को कभी सामने देखा नहीं था। उसके लिए ये ब्लैक एंड वाइट तस्वीर ही उसके पापा थे जिसे वह बचपन से देखती आई थी। स्वस्ति देर तक उस तस्वीर को निकालकर भावुक होती रही।
मन में भाव आते रहे कि अगर आज पापा होते तो क्या होता। माँ और उसके जीवन के अकेलेपन में पापा की उपस्थिति के ख्याल ने उसे पल भर को कितना सुकून दिया पर एक गहरी खलिश और खालीपन से भी भर दिया। यही होता था जब जब वह पापा की तस्वीर देखती थी। माँ भी तो देखती होंगी पर उसके सामने नहीं, ठीक वैसे ही जैसे वह माँ के सामने पापा की तस्वीर लेकर नहीं बैठती। दरअसल दोनों ही एक दूसरे के सामने कमजोर नहीं पड़ना चाहती थीं।
एक और तस्वीर थी उनके पास। उसके पापा और माँ की तस्वीर। कितनी अबोध नजर आती हैं उस युगल तस्वीर में माँ। तब उस तस्वीर वाली अबोध नवयुवती और आज की दृढनिश्चयी, स्वाभिमानी और गम्भीर वृंदा कुमार के बीच एक पूरी आयु है और है उस आयु भर के ढेर सारे संघर्ष जो माँ के चेहरे पर कठोरता के रूप में चिरस्थायी हो गये हैं। कितनी कोमलता और मृदु भाव हैं इस तस्वीर में उनके चेहरे पर! ठीक वैसे ही जैसे किसी पुरुष के प्रेम में पगी एक नवयुवती के चेहरे पर होते हैं! प्रेम कितना कोमल बना देता है न स्त्री को, स्वस्ति सोचने लगी! पापा होते तो माँ को ये कठोरता नहीं ओढ़नी पड़ती वे केवल स्वस्ति की माँ बनी रह सकती थीं। माँ पापा की तस्वीर को देखते हुए स्वस्ति को उसका और शेखर का ख्याल आने लगा। साथ ही उनके रिश्ते को लेकर माँ की बातें भी याद आने लगीं।
ये रिश्ता जितना सहज स्वस्ति के लिए है, वृंदा कुमार के लिए ये सब उतना सहज नहीं है। कैसे होता। अपने जीवन के संघर्षों में वे जितना वक़्त स्वस्ति को दे पायीं उतने में उसके मन के भीतर के तहखाने में किसी खिड़की के खुलने का अहसास ही नहीं हुआ उन्हें। जीवन के एकाकीपन में भी वे अगर किसी साथी को चुन पाई वह था उनका संघर्ष। जीवन में एकाएक आया अकेलापन उनका चुनाव नहीं था पर वक्त के दिए इस चुनाव को ओढ़ लेने में वे पीछे नहीं रहीं।
कितना संघर्षों से भरा रहा वृंदा का जीवन। उनकी माँ तो छुटपन में ही चली गईं थी। अभी महज चार बरस की थीं वृंदा कि मलेरिया के चलते माँ नहीं रहीं। माँ के जाने के बाद पिता ने उन्हें माँ और पिता दोनों का स्नेह देना चाहा पर कभी भी माँ की स्मृतियों से बाहर निकलकर वे उतने मजबूत नहीं बन पाए। जल्दी ही अवसाद और एकांत ने उन्हें घेर लिया। वे चुप्पी में डूबते चले गए। जीवनसाथी से विछोह को मन से लगा लिया था उन्हें। वृंदा जैसे बचपन में इतनी परिपक्व और गम्भीर हो गई जैसे कोई बड़ी उम्र में होता है। माँ की मृत्यु और पिता की बीमारी दोनों ने उन्हें अवाक् कर दिया। जीवन में खेलने खाने की उम्र बड़ी चिंता में बदल गई। तो भी उन्होंने तय किया कि वे पढ़ाई जरूर पूरी करेंगी। ये सपना पिता ने दिखाया था पर कैसे विडम्बना थी कि इस सपने कि पूर्ति के लिए वे स्वयं कोई मनोबल या इच्छा न जुटा सके।
कुछ साल ऐसे ही बीते। पत्नी की अनुपस्थिति ने उन्हें कभी सम्भलने का मौका नहीं दिया और अभी वृंदा की पढ़ाई भी पूरी नही हुई थी कि एक साल की बीमारी के बाद पिता ने बिस्तर पकड़ लिया। वृंदा ने जी जान से बेटी का फर्ज निभाया पर कुछ फर्क नहीं पड़ा। वे एक बार बिस्तर पर आये तो कभी नहीं उठे और एक दिन नींद में ही चल बसे। पिता की बीमारी में काफी पैसा लग गया था। अब बसा था तो वह घर और थोड़ी बहुत पारिवारिक जमीन में उसका हिस्सा।
उस छोटे से पहाड़ के कस्बे में उनके करीबी रिश्तेदारों को उनकी पढाई और उनकी महत्वकांक्षाओं से कहाँ कुछ लेना देना था। वे तो जल्द से जल्द उससे पीछा छुड़ाना चाहते थे ताकि थोड़ी बहुत बची पारिवारिक सम्पत्ति पर कब्जा जमा सकें। इसका सबसे आसान तरीका यही था कि उनका विवाह कर उन्हें इस परिवार से चलता कर दिया जाए।
वृंदा तब बीस की थीं। खींचतान कर अभी बी.ए. के इम्तिहान ही दे पाई थीं कि वे ‘वृंदा कुमार’ बना दी गईं। विवाह के बाद ही वे अपने पति को देख मिल पायीं। पति विनय कुमार एक सरकारी हॉस्पिटल में ड्राईवर के पद पर कार्यरत थे। देखने में यकीनन वे बहुत सुदर्शन थे पर उनके और वृंदा के बौद्धिक स्तर और स्टेट्स में जमीन आसमान का फर्क जरूर था। बी.ए. पास वृंदा के पति महज दसवीं पास थे। ऐसा नहीं कि वृंदा को धक्का नहीं लगा पर तकदीर इतने धक्के लगा चुकी थी कि वृंदा तो शायद इससे भी बुरे की उम्मीद पाले बैठी थीं। वे किसी बेमेल रिश्ते की उम्मीद में थीं। रिश्तेदारों का व्यवहार इतना बुरा था वृंदा के साथ कि पक्के तौर पर उन्हें लग रहा था उनका विवाह किसी दुहाजू बीमार या शराबी बूढ़े से कर दिया जाएगा जिसके चार पांच बच्चों को पालने में वे अपना जीवन खंपा देंगी। पर किस्मत इतनी बुरी नहीं थी उस वक्त।
ये ठीक है कि न विनय के पास उच्च शिक्षा थी न कोई बड़ा पद या सम्पत्ति। लेकिन वे स्वभाव से एक सरल व्यक्ति थे। अगर कोई व्यसन था तो वह शराब पीने का व्यसन था उनमें जो अमूमन पहाड़ों में रहने वालों के लिए सहज है पर वे दिल के हीरा थे। उन्हें जानने के बाद वृंदा को लगा कि जैसे वे नर्क के द्वार से लौट आई हैं। सामने उनका छोटा सा स्वर्ग उनकी प्रतीक्षा में था।
उनके न कोई आगे था न पीछे। उस शहर में एक किराये के घर में दोनों ने अपनी छोटी सी गृहस्थी बसा ली। धीरे-धीरे जिस व्यसन के लिए विनय बदनाम थे वृंदा के प्यार ने उनके जीवन के खालीपन को भरा तो उनकी लत भी कम होने लगी। यार दोस्तों के साथ कभी हो जाती थी पर एक दिन वो भी कसम खाकर छोड़ दी। रिश्तों के मामले में सदा से अभागी रही वृंदा को न माँ का प्रेम मिला न ही पूरी तरह पिता का प्यार पा सकीं। माँ जीवन के हाथों हार गईं और पिता माँ के गम के हाथों पर वृंदा ने पति का भरपूर प्यार पाया। इतना प्यार कि उनकी जीवन से हर नाराज़गी दूर होने लगी। उन्हें अब तकदीर पर यकीन होने लगा। वृंदा को लगता था उनके जीवन की किताब में दुःख का पन्ना बीत गया शायद।
जब विनय को पता चला कि वृंदा आगे पढने और अपने पैरों पर खड़ा होने की इच्छुक हैं तो उन्होंने ख़ुशी ही जाहिर की और उसकी इच्छा का सम्मान करते हुए उन्हें बहुत प्रोत्साहित भी किया। वृंदा ने जल्दी ही एम् ए में दाखिला ले लिया। साथ ही पास के एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाने भी लगीं। दोनों की कमाई से घर गृहस्थी की गाड़ी मजे में चलने लगी। दो साल इस संग-साथ में कैसे बीते वृंदा जान ही नहीं पायीं।
कहते हैं दुःख पहाड़-सा विराट और अटल होता है पर सुख के दिन किसी पखेरू से हल्के और अस्थायी मानो पंख लगाकर आते हैं। इसीलिए उनके बीत जाने का अहसास तक नहीं होता है। वृंदा के साथ ऐसा ही कुछ हुआ। तब तक तो सब कुछ ठीक ही चल रहा था, ठीक उनके सपनों और प्लानिंग के ही मुताबिक। पर जीवन की किताब में उनके सुख के पन्ने के बीतने के भी दिन आ गए। जीवन में एक दिन एक नया अध्याय शुरू हुआ। उसके बाद कुछ भी तो ठीक न रहा। उनके जीवन में जैसे सब कुछ बदल गया!
उनके प्रेम ने वृंदा की देह में सांस लेना शुरू कर दिया था। कुछ पल के लिए वृंदा को उलझन हुई कि पढ़ाई और नौकरी के साथ एक और नई जिम्मेदारी का वहन वे कैसे करेंगी और विनय तो जैसे खुशी से पागल हो उठे। उन्होंने वायदा किया वृंदा से कि वे दोनों मिलकर सारी जिम्मेदारियां उठाएंगे। ये भी कि बच्चे के जन्म के समय वे भी लंबी छुट्टी ले लेंगे ताकि वृंदा को कोई परेशानी न हो। पर कहते हैं न तेरे मन कछु और है विधना के कछु और। विधि तो नया ही किस्सा लिखकर बैठी थी काली कलम से।
उस रात बारिश का मौसम था और एक इमरजेंसी के चलते विनय को गाड़ी लेकर मसूरी जाना पड़ा। वृंदा का मन जाने क्यों अनिष्ट की आशंका से घबराने लगा पर हमेशा की तरह मुस्कुराते विनय ने उसके गाल को थपथपाते हुए जल्दी लौटने की बात की और चल दिए। फिर उसके बाद विनय कभी नहीं लौटे। वह तेज़ बारिश तूफान में बदल गई और तूफान थम जरूर गया था पर अपने साथ विनय को लेकर गया। एक भीषण कार एक्सीडेंट में विनय की गाड़ी एक अन्य जीप से टकराकर खाई में गिर गई और वे सदा के लिए वृंदा के सुख के दिनों को अपने साथ लेकर चले गये। बिल्कुल टूट गईं थीं वृंदा। अगर गर्भवती न होती तो जाने क्या कर बैठती। किस्मत की इस नाइंसाफी के सामने वे कुछ न कर सकीं।
दुःख जाने कितने रूप बदलकर उनके सामने आ खड़ा होता था। पीछा ही नहीं छोड़ता था। पहाड़ जैसे इस दुःख के सामने टूटती-बिखरती पहाड़ की वह अभागी लड़की अपने अजन्मे शिशु के साथ फिर से अकेली हो गईं थी। उनकी तरह रिश्तों के मामले में विनय भी अभागे ही थे। कोई आगे पीछे तो था ही नहीं बस कुछ दूर के रिश्तेदार थे जो वृंदा को मनहूस मानकर सदा के लिए दूर हो गये। वृंदा के अभागेपन के किस्से यहाँ भी पहुँच गये। पीहर से कोई आसरा नहीं था ससुराल से भी वृंदा को कोई सहारा नहीं था। कुछ दिन वहां गुजारने के बाद अपनी एक दोस्त की मदद के सहारे वे दिल्ली आ गईं!
दिल्ली में एक बार फिर संघर्षों का नया दौर शुरू हुआ। सामने न तो मंजिल थी और न ही कोई रास्ता सूझता था। इन्ही हालात में स्वस्ति का जन्म हुआ! उसके जन्म के कुछ समय बाद वे फिर से खड़े होने की हिम्मत जुटाने में लग गईं। उस पर नियति भी एक कदम आगे चलती है। अभी छह महीने की थी स्वस्ति कि उनकी दोस्त का ट्रान्सफर हो गया। कुछ समय उन्होंने अपनी बचाई हुई जमापूंजी और पति की पेंशन से बड़ी किफायत से गुज़ारा किया। पति की मृत्यु के बाद मिली धनराशि को उन्होंने फिक्स डिपाजिट में डाल दिया। आखिर उन्हें कल के लिए भी तो सोचना था। आस पास के बच्चों को कई कई शिफ्ट में ट्यूशन पढ़ाते हुए, उन्होंने मेहनत से नौकरी ढूंढी। जल्दी ही उन्होंने एक स्कूल में पढ़ाते हुए किराये के उसी छोटे से कमरे में अपनी गृहस्थी जमाना शुरू किया जिसमें वे अपनी दोस्त के साथ रह गईं थीं। कुछ सामान तो उनके पास पहले से था और बाद में घर में कपड़े, बर्तन, फर्नीचर के साथ-साथ किताबें भी आती रहीं। इधर स्वस्ति का स्कूल जाना शुरू हुआ उधर उनकी पीएचडी शुरू हुई।
वे जानती थीं वे पढ़ाई और नौकरी के चलते स्वस्ति को वक़्त नहीं दे पाती हैं पर स्वस्ति के एकांत के लिए उन्होंने उसे एक साथी जरूर दे दिया। उन्होंने बचपन में ही स्वस्ति की किताबों से दोस्ती करा दी थी। वे करती भी क्या। इस भरी दुनिया में अकेले छूट गईं थीं दोनों माँ बेटी। एक के लिए बस दूसरे का ही सहारा था और ऊपर से जीवन के संघर्ष। उनकी पीएचडी और स्वस्ति का प्राइमरी स्कूल, साथ-साथ चल रहे थे। किताबों का साथ उन दोनों को घेरे रहता।
वे अपने स्कूल से लौटते ही उसे खाना खिलाकर, अपना काम निपटा शाम को किताबों में खो जाती और उसे भी कोई कहानियों की किताब थमा देतीं। धीरे धीरे किताबें और उनकी काल्पनिक दुनिया स्वस्ति का सबसे फेवरेट पासटाइम बन गया। दुनिया भर की किताबें अब स्वस्ति की साथी थीं जिनसे दूरी उसे बेचैन कर देती। ये किताबें दुनिया की दृष्टि रही होंगी केवल कागज़ की किताबें, स्वस्ति के लिए वे जीती-जागती, हंसती बोलती और सजीव थीं – उसके एकांत की सबसे विश्वसनीय साथी।
फिर एक वक़्त आया कि पासटाइम से कई कदम आगे बढ़ किताबें टीनएज की दहलीज़ से कुछ पहले खड़ी स्वस्ति के जीवन का सबसे जरूरी तत्व बन गईं। किताबों की ये चाह और भूख दुनिया की हर चाह और हर भूख पर हावी रहने लगी।
बस वे यही बचपन के अकेले दिन थे जब उसके जीवन में उसके दोस्त, मीत, चिरसखा कार्तिक का प्रवेश हुआ।
क्रमशः