अपनी अपनी मरीचिका
(राजस्थान साहित्य अकादमी के सर्वोच्च सम्मान मीरा पुरस्कार से समादृत उपन्यास)
भगवान अटलानी
(8)
6 सितम्बर, 1951
छात्रसंघ के विभिन्न पदों पर चुनाव के लिए आवेदन-पत्र जमा कराने की आज अंतिम तारीख थी। नियमानुसार प्रथम वर्ष के छात्र मतदान तो कर सकते हैं किंतु चुनाव नहीं लड़ सकते। इस दृष्टि से हमारी कक्षा को चुनाव लड़़ने का अवसर पहली बार मिला है। गत वर्ष रैगिंग के मुद्दे को लेकर हम लोगों ने चुनावों का बहिष्कार किया था। चुनाव लड़़नेवाले 3 वरिष्ठ छात्रों ने अप्रत्यक्ष रूप से संदेश भेजकर हम लोगों को मतदान करने के लिए राजी करने की कोशिश की थी। हमारा जवाब एक ही था, रैगिंग के मुद्दे पर हमारा समर्थन करने की घोषणा करो। नए छात्रों के सभी मत तुम्हें और तुम्हारे प्रत्याशियों को मिलेंगे।
चुनाव लड़़नेवाले छात्रों के सामने दोहरा सकट था। कोई भी एक प्रत्याशी-समूह हमारा समर्थन करता तो उसका विरोधी प्रत्याशी-समूह इसको मुद्दा बना लेता। हमसे चार गुना मत वरिष्ठ छात्रों के थे। कोई भी प्रत्याशी चार मत खोकर एक मत लेने की बात नहीं सोच सकता था। इसलिए हमारी शर्त के अनुसार किसी प्रत्याशी ने घुमा-फिराकर भी रैगिंग के मुद्दे पर हमारा समर्थन करने की बात नहीं कही। इतना जरूर हुआ कि चुनाव-प्रचार में रैगिंग वाले प्रकरण को किसीने नहीं छुआ। हालाँकि रैगिंग कभी चुनाव-प्रचार में चर्चा का विषय बने, ऐसी नौबत आज से पहले कभी नहीं आई थी। इसलिए पिछले साल इन दिनों का यह ज्वलंत विषय चुनाव-चर्चा में नहीं आया, इसे अपनी उपलब्धि मानने का कोई कारण हमारे पास नहीं है। वरिष्ठ छात्रों मे रैगिंग के संबंध में कुछ नहीं कहा या कहा जाए हमारे मत का समर्थन नहीं किया, इसलिए अपने निर्णय के अनुसार हमारी कक्षा के एक भी विद्यार्थी ने मतदान में भाग नहीं लिया। हमारे बहिष्कार को बहुत तूल मिला हो, छात्रसंघ या प्रशासन के स्तर पर कहीं किसी ने ध्यान दिया हो, ऐसा नहीं हुआ। हम लोगों ने जरुर समझा था कि हर स्तर पर हमारे बहिष्कार को महत्त्वपूर्ण घटना माना जाएगा। लेकिन यह घटना क्योंकि महत्त्वपूर्ण नहीं थी इसलिए महत्त्वपूर्ण समझी भी नहीं गई। अपने खेमे में हमारे साथी बहुत तिलमिलाए थे लेकिन चुनावों में मतदान किसने किया और किसने नहीं किया, इस पर टिप्पणी करने की किसी को क्या जरूरत है? चुनाव परिणामों की घोषणा के लिए तो एक मत पड़ना ही काफी है। यों है यह विचित्र बात कि छोटी-छोटी समितियों, सोसाइटियों में बैठकों के लिए निर्धारित कोरम आवश्यक होता है, मगर चुनाव जैसे महत्त्वपूर्ण अनुष्ठान में कोरम की बात कोई नहीं कहता। गत वर्ष यदि कोरम का प्रावधान होता तब भी शायद अंतर नहीं पड़ता। बहिष्कार करनेवाले छात्र कुल छात्रों के बीस प्रतिशत ही तो थे। अस्सी प्रतिशत मतदाता दुनिया के किसी भी संविधान के कोरम से ज्यादा होंगे। मेडीकल कॉलेज के चुनावों में कोरम का विचार बहस का मुद्दा है, इस बात को स्वीकार करने से शायद ही कोई इनकार करेगा।
कुल मिलाकर देखें तो मेडीकल कॉलेज में चुनाव लड़ने और चुनावों में मतदान करने का अवसर हम लोगों को इस वर्ष पहली बार मिल रहा है। पिछले वर्ष, पूरा साल घटनाचक्र कुछ इस तरह चला कि चक्रवात में फंसे रेतकण की तरह विवश-सा मैं केंद्र में बना रहा। चुनाव की छूट मुझे उपलब्ध नहीं थी। रैगिंग का प्रकरण शुरू हुआ तब भी, और अंकोंवाले प्रकरण में रणनीति बनी, तब भी। घटनाओं ने इस तरह अपने जाल में फंसाया कि साहसपूर्वक लड़़ने के अतिरिक्त कोई विकल्प था ही नहीं मेरे पास। मैंने साहस ही नहीं, धेर्य और बुद्धि से भी काम लिया और सफलतापूर्वक संकटों पर काबिज हो सका, यह अलग बात है। किंतु सचमुच जूझ जाने के अतिरिक्त मैं कर भी क्या सकता था उन परिस्थितियों में? बाबा ने अपने आपको इस उम्र में बदल लिया, वे धन्य हैं। जिसे ठीक समझता हूँ उस पर अड़ जाने की जिद मुझसे छोड़ी नहीं जाती। हो सकता है, किसी समय बाबा की तरह मैं भी सही और गलत का पैमाना अपने स्वार्थ को मान लूं। किंतु अभी तो मैं मन से इस स्थिति में नहीं हूँ कि अवांछित समझौते कर सकूं। मेरा गठन इस तरह का नहीं होता तो शायद कुछ नहीं होता। किंतु जैसी बनावट मेरी है. उसके चलते गत वर्ष चला धटनाक्रम और उसके केंद्र में मेरी उपस्थिति अस्वाभाविक नहीं है।
बाबा एकांगी रहे हैं। सिंध में स्वतंत्रता के लिए लड़़ते हुए उन्होंने आदर्शों के साथ तिलमात्र भी समझौता नहीं किया। अब अर्थोंपार्जन की दौड़ में वे आदशोर्ं की तिलमात्र भी चिंता नहीं करते। मेरे व्यवहार में इस प्रकार का एकांगीपन नहीं है। आदर्श और व्यावहारिकता का सम्मिश्रण मेरे निर्णयों को प्रभावित करता है। झुकाव आदर्शों की ओर ज़रूर होता है किंतु व्यावहारिक पक्ष ध्यान में रहता ही न हो, ऐसा नहीं है। लाभ-हानि का आकलन करते हुए आदर्श के साथ उचित समझौता करने में मुझे हिचकिचाहट नहीं होती है। आदर्श को मैं सर्वोपरि मानता हूँ। आदर्श का महत्त्व मैं स्वीकार करता हूँ। किंतु व्यावहारिकता-शून्य आदर्श की परिणति आदर्श शून्य व्यावहारिकता में हो जाती है। बाबा इसके प्रमाण हैं। जो प्रतिमान मुझे आज स्वीकार्य हैं, कल और परसों भी मेरे लिए ग्राह्य रहेंगे। यह अगर संभव होगा तो केवल इसलिए क्योंकि मैंने व्यावहारिकता को तिलांजलि देकर आदर्शों को स्वीकार नहीं किया है।
सहपाठियों, अनेक वरिष्ठ छात्रों और अध्यापकों का आग्रह था कि इस बार छात्रसंघ के महासचिव पद के लिए मैं चुनाव लड़ूं। इस आग्रह का एक छोर उनकी इच्छा और दूसरा छोर उनका दबाव था। उनके विचार से महासचिव के रूप में छात्र-हितों की रक्षा करने का काम मैं अच्छी तरह कर सकूंगा। मुझे जिस तरीके से समस्याओं से निपटते हुए सबने देखा था, उसी के आधार पर यह विचार बना होगा। स्वतंत्रता के बाद देश में लोकतंत्र की अवधारणा जोर पकड़़ रही है। सोचने-समझने के तरीके बदल रहे हैं। प्रतिमान बदल रहे हैं। जिन लोगों ने आजादी से अपनी असीम अपेक्षाएँ जोड़ रखी थीं, उनका मोहभंग होने लगा है। अत्याचार, अनाचार, शोषण, गरीबी, अन्याय, परपीड़़न, भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी, दमन और दबाव में वृद्धि हुई है। अंग्रेजों की सत्ता और अपने लोगों की सत्ता में अंतर दृष्टिगोचर नहीं होता। विरोध और समर्थन के बीच कशमकश चल रही है। जब तक सुस्थिरता आए, पुराने और नए के बीच सेतु बनने की क्षमता रखनेवाले लोगों की आवश्यकता बढ़ गई है। मेडीकल कॉलेज का प्रशासनिक ढाँचा अंग्रेजों की रीति-नीति से काम करता है जबकि अब देश का वातावरण स्वछंदता का पक्षधर बन रहा है। कक्षाओं में, अस्पताल में, चाल-चलन, व्यवहार, आचार-विचार के स्तर पर अध्यापकों की छात्रों से अपेक्षाएं उसी तरह की हैं, जिस तरह की अपेक्षाएं आज के अध्यापकों से उनके अधिकांश अंग्रेज़ अध्यापकों ने की होंगी। आज छात्र, अध्यापक से स्वयं को बहुत कमतर मानना नहीं चाहता। पुरानी रीति-नीति का स्वछंदता के साथ, पुराने दौर की अपेक्षाओं का नए दौर के अहम्वाद के साथ सामंजस्य बैठानेवाले छात्र नेता के रूप में मेडीकल कॉलेज से संबद्ध विभिन्न स्तर के लोग मुझमें संभावनाएँ देखते हैं।
गलत को बरदाश्त न कर पाने के कारण मैं चाहे-अनचाहे स्वयं को रोकते-रोकते भी भंवर में छलांग लगा देता हूं। सिद्धातों में आस्था के बावजूद समझौते का जो रास्ता मैं चुनता हूँ, उसमें गैर-जरूरी अड़ियलपन नहीं होता है। आगे बढकर उड़़ते तीर को पकड़़ता हूँ और उसे अपने हाथ में थामे रखने की जिद नहीं करता हूँ। यदि धारा का रुख वांछित दिशा में नहीं है तो पूरी एकाग्रता और पूरी ताकत के साथ प्रयत्न में जुट जाता हूँ कि धारा का रुख बदल जाए। इस प्रयत्न में मैं अकेला नहीं जुटता, दूसरे लोगों को भी साथ लेता हूँ। मेरे उद्देश्य अवांछित और अनुचित नहीं होते हैं। जिन साधनों का उपयोग मैं उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए करता हूँ वे भी यथासंभव अवांछित और अनुचित नहीं होते हैं। लक्ष्य कभी ऐसे नहीं होते जिन्हें प्राप्त करना संभव न हो। मुश्किल हो सकता है, किंतु असंभव लक्ष्य पर मैं शरसंधान नहीं करता हूँ। सफलता मिले, चाहे न मिले, प्रयत्न करने में कोई कमी नहीं छोड़ता हूँ। यदि असफलता मिलती है तो निराश होकर बैठ नहीं जाता हूँ। असफलता के कारण तलाश करता हूँ। उन कारणों पर विचार करता हूँ। उनका विश्लेषण करता हूँ। उनको ध्यान में रखकर नई रणनीति बनाता हूँ और सफलता हासिल करने के लिए फिर प्रयत्नशील हो जाता हूँ।
इसके बावजूद मैं नेता नहीं हूँ। नेता को स्वभाव से महत्त्वाकांक्षी होना चाहिए। महत्त्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए उसे हर तरह की नैतिक-अनैतिक, पवित्र-अपवित्र, हिंसक-अहिंसक, शासित-बाधित, जोड़़-तोड़़ और उठा-पटक में सिद्धहस्त होना चाहिए। नेतृत्व का गुण, समस्याओं को सुलझाने की रचनात्मक या विध्वंसात्मक प्रवृत्ति, नेता बनने की दृष्टि से पर्याप्त गुण नहीं है। अनैतिकता सिद्धांततः मुझे अप्रिय है। अपवित्रता से बचने की मैंं हर संभव कोशिश करता हूँ। हिंसा को मैंं अपना अंतिम और विवश परिस्थितियों में काम में लेनेवाला अस्त्र मानता हूँ। जोड़़-तोड़़ और उठापटक अनैतिकता, अपवित्रता और बौद्धिक हिंसा के परिणाम होते हैं। इसलिए संस्कारगत, स्वभावगत या परिस्थितिगत कारणों से जो भी गुण मुझमें हैं, उनके आधार पर मैं सफल नेता बन सकता हूँ, ऐसा मुझे नहीं लगता। छात्रसंघ का महासचिव यदि अच्छा नेता नहीं है तो संभव है, वह कार्य-निष्पादन सफलतापूर्वक न कर पाए। मेरी असफलता उन सबकी असफलता होगी जो समझतेे हैं कि मैं महासचिव के रूप में सफल रहूँगा।
यदि कोई ऐसा लड़का महासचिव बनता है जिसे मेरी तरह सोचनेवाले छात्रों का सहयोग और समर्थन प्राप्त हो तो इस बात की संभावना अधिक होगी कि वह छात्रों, अध्यापकों व प्रशासन की अपेक्षाओं पर खरा उतरे। अति न करे तो हमलोगों का सतत सहयोग उसे मिलता रहेगा। नेता के रूप में जोड़़-तोड़़, उठा-पटक वह करता रहेगा। निर्णय लेकर उनकी घोषणा, उनका कार्यान्वयन वह करता रहेगा। हम लोगों को कोई बात ठीक नहीं लगती तो उसे बता देंगे। अधिक-से-अधिक यह होगा कि हमारी बात एकाधिक बार वह नहीं मानेगा। ऐसी स्थिति में हम भी शेष छात्रों की तरह खामोशी से अध्ययन करते रहेंगे। वैसे एम.बी.बी.एस. का यह दूसरा वर्ष है। इसके बाद भी तीन वर्ष मुझे मेडीकल कॉलेज में रहना है। यदि महसूस होता है कि स्वयं महासचिव बनकर ही काम किया और कराया जा सकता है तो लड़़ लेंगे चुनाव। इन विचारों की मैंने अपने समूह के पंद्रह-बीस लड़कों से चर्चा की। मुझे महासचिव का चुनाव लड़़ाने की दृष्टि से वे लोग इतने अधिक उत्साहित थे कि पहले तो किसी ने मेरी बात सुनी ही नहीं। बहुत कहने पर मेरी बात तो सुन ली किंतु सहमत उनमें से एक भी नहीं हुआ। विशेष रूप से नेता के अपेक्षित गुणों की मेरी व्याख्या को किसी ने भी स्वीकार नहीं किया। मेरी सीमाओँ, मेरी आर्थिक स्थिति, समय के संदर्भ में मेरी व्यस्तताओं का विवरण भी जब उनके गले नहीं उतरा तो मैंने चर्चा की दिशा बदली, ‘‘ऐसा करते हैं कि इस बार महासचिव पद के लिए हम लोग कौशल किशोर को चुनाव लड़़वाते हैं। हमारा पूरा समूह उसके साथ रहेगा। समूह साथ रहेगा, इसका मतलब है कि मैं भी साथ रहूँगा। नाम के लिए महासचिव कौशल किशोर होगा किंतु कोई भी काम वह अकेला फैसला लेकर नहीं करेगा। चुनी हुई कार्यकारिणी से बात बाद में करेगा, हम लोगों के साथ विचार-विमर्श पहले करेगा। कौशल किशोर में हम बीस लड़कों का समूह समाया हुआ होगा। इस साल महासचिव एक नहीं, इवकीस होंगे।''
मेरे प्रस्ताव का विरोध सबसे पहले कौशल किशोर ने करना चाहा। मैंने उसको बोलने से रोक दिया, ‘‘तुझे कुछ नहीं कहना है। नाम तेरा चलेगा इसका मतलब यह नहीं है कि बाकी बीस लोग अपनी जुबान काटकर तुझे दे देंगे। तय यह होना है कि इवकीस महासचिवोंवाला विचार स्वीकार करने योग्य है या नहीं?''
जैसा मैं चाहता था, वही हुआ। बहस की दिशा बदल गई। इक्कीस लड़के बात करें, फैसला लें इसके बाद कार्यकारिणी विचार करे और प्रस्ताव को अस्वीकार कर दे तो वे बीस लड़के क्या कर लेंगे? एक है महासचिव। कार्यकारिणी की बात उसे वैधानिक रूप से माननी पड़ेगी। कार्यकारिणी की बैठक में शिरकत वही करेगा। जवाब वहीं देना पड़ेगा उसे, सवालों की बौछार का। कौशल किशोर या कोई और उलटा फँस जाएगा इस चक्कर में। हम लोगों को पूरा समय छात्रसंघ की नेतागिरी तो करनी नहीं है कि इस तरह वक्त बरबाद करते रहेंगे। कभी अपने आपको गैर-कानूनी ढंग से महासचिव मानने वाले बीस लोगों के साथ बैठकर परेशानी में डालेंगे और कभी कार्यकारिणी के साथ बैठकर दिमाग खराब करेंगे। सारा दिन यही करेंगे तो पढेंगे कब? इससे तो अच्छा है कि हम लोग महासचिव का चुनाव लड़ने की बात सोचे ही नहीं। सब लोग मिलकर महासचिव पद के लिए चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशियों में से जिसको मत देना है, उस पर विचार कर लेंगे। कौनसा पैनल अपेक्षाकृत बेहतर है, यह देखकर अन्य पदों के बारे में सोच लेंगे।
सबसे अधिक दबाव मेरी कक्षा के इस समूह का था, चुनाव लड़ने के लिए। बाकी लोगों की इच्छा और आग्रह का सामना करना आसान था। उनमें से कोई जिद करके, पीछे पड़कर या तर्क देकर चुनाव के लिए राजी करने की कोशिश करेगा, इस तरह की आशंका नहीं थी। हो सकता है कुछ लोग ऐसे भी रहे हों जिनकी इस बात में बहुत रुचि न रही हो कि मुझे महासचिब बन जाना चाहिए। औपचारिकतावश मुँह देखकर टीका लगाने वाले ढंग से उन लोगों ने यह बात उछाल दी हो। इसलिए जिस समूह में उठता बैठता था, जहां से मुझे मेडीकल कॉलेज में अपनी शक्ति की अनुभूति होती थी, वहाँ से अनापत्ति प्रमाण-पत्र पाने के बाद मैं निश्िंचत हो गया। अब मैं मतदाता हूँ। दर्शक हूँ, किंतु खिलाड़ी नहीं हूँ।
महासचिव पद के लिए चुनाव लड़़ना चाहिए, सच कहा जाए तो अपने साथियों के मस्तिष्क में यह बीज अनजाने में मैंने ही बोया था। गत वर्ष रैगिंग प्रकरण सुलझाने के बाद जो आशंकाएँ मुझे चिंतित करती रही थीं मैंने अपने समूह में उनका जिक्र किया। दो जुलाई को कॉलेज खुला था। यह बात तीन जुलाई की है। मुझे स्पष्ट रूप से महसूस हुआ कि मेरे लगभग सभी साथी ठीक वैसा ही व्यवहार करने की बात सोचे हुए थे, जिसकी आशंका मुझे थी। जब सिद्धांतों की छाया में रैगिंग के नाम पर बढती कालिमा को धोने के लिए खून बहाने को तैयार मेरे साथी, वरिष्ठ छात्र बनते ही कनिष्ठ छात्रों की रैगिंग करने के अपने अधिकार का उसी वहशियाना तरीके से इस्तेमाल करने के इच्छुक हैं, तो साथ पढ़ने वाले अन्य छात्र-छात्राओं से तो कोई अपेक्षा मुझे रखनी ही नहीं चाहिए। एक छात्र ने तो कहा भी, ‘‘यार, पिछले साल रैगिंग की खिलाफत करने का मतलब यह थोड़े ही है कि रैगिंग नहीं करेंगे।''
‘‘यह मतलब हमारा पिछले साल भी नहीं था। पिछले साल भी हमने विरोध रैगिंग का नहीं किया था। हमने विरोध किया था रैगिंग के नाम पर की जाने वाली गुंडागर्दी का। हमने विरोध किया था उस प्रवृत्ति का जिसने रैगिंग को अत्याचार, परपीड़़न और अनैतिकता का पर्याय बना दिया था।'' मैंने उत्तेजित होकर कहा।
समूह में सन्नाटा खिंच गया। वातावरण को सामान्य बनाने के लिए एक ने हल्का-सा हँसकर कहा, ‘‘रैगिंग में से फूहड़़ता माइनस हो जाए, फिर तो इजाजत है न?''
‘‘इस साल तुमने रैगिंग शालीनता के साथ ली। परिचय किया, मेडीकल कॉलेज के तौर-तरीके समझाए। शिष्टाचार के बारे में बातचीत की। नए छात्रों को बताया कि डॉक्टर का मरीज के प्रति क्या कर्त्तव्य होता है। थोड़ी-बहुत हँसी-मजाक की। गाना या चुटकुला सुना-सुनाया, यही न?''
‘‘हां, यही करेंगे। रैगिंग में होना ही यह चाहिए जो तूने बताया है।''
‘‘इस साल तुमने रैगिंग इसी तरह की। तुम लोगों में से कोई दावे के साथ कह सकता है कि अगले साल तुम्हारे इस साल के कनिष्ठ छात्र भी रैगिंग उसी तरह करेंगे?''
जवाब किसी ने भी नहीं दिया। मैंने फिर कहा, ‘‘रैगिंग की शुरुआत जब भी हुई होगी, जिसने भी की होगी, उसने नहीं सोचा होगा कि आगे चलकर इसका यह हश्र हो जाएगा। इसलिए शालीन तरीके से रैगिंग को शुरुआत करने से यह समस्या समाप्त नहीं होगी।''
‘‘खतम कर यार! नहीं करेंगे इस साल रैगिंग, बस!''
‘‘नहीं, हल इस तरह भी नहीं निकलेगा।''
‘‘तू साफ-साफ क्यों नहीं बोलता कि क्या करना है? बात को उलझाने में तुझे मजा आता है?''
मैं मुसकराए बिना नहीं रह सका, ‘‘हम लोगों को नई परंपरा शुरु करनी होगी इस साल।''
‘‘कौन-सी नई परंपरा शुरू करानी है?''
‘‘मैं सोचता हूँ कि जुलाई के पहले या ज्यादा-से-ज्यादा दूसरे सप्ताह में द्वितीय वर्ष के छात्र नए छात्रों को चाय-पान के लिए बुलाएंगे। जो बातें बतानी हैं उनको सामूहिक रूप से या छोटे-छोटे समूहों में बाँटकर बता दी जाएँ। इसके बाद उनमें से हर एक को यह बताने के लिए बुलाया जाए कि आज हुई बातचीत से उसने नया सीखा? इसके साथ कोई गीत, भजन, कविता, नृत्य, चुटकुला, एकाभिनय, आवाजें निकालना, हँसना, रोना, भाषण देना, कुछ-न-कुछ प्रस्तुत करना आवश्यक होना चाहिए। इसी दौरान सब नए छात्र अपना परिचय देते रहेंगे। कुछ वरिष्ठ छात्रों का परिचय नए छात्रों को वैसे ही मिल जाएगा। बाकी लोग चाय-पान के दौरान घूम-घूमकर बातचीत करके परिचय भी देते रहेंगे और घुलते-मिलते भी रहेंगे। चाय के लिए आमंत्रित करके वरिष्ठ छात्र नए छात्रों को संकेत देंगे कि हम तुम्हारे संरक्षक हैं, पोषक हैं। हम तुम्हारे शोषक नहीं हैं। रैगिंग में जो पकड़ में आता है उसकी दुर्गति तो हो जाती है, किंतु उसे ज्यादा कुछ सीखने को नहीं मिलता। इस तरह प्रत्येक नए छात्र और छात्रा को जो कुछ बताया जाना चाहिए, संप्रेषित करना संभव हो सकेगा। गाकर, नाचकर, हँसकर, गप-शप करके नए और पुराने विद्यार्थियों के बीच खुलापन लाया जा सकेगा। नए छात्र स्वयं को पुराने छात्रों के निकट महसूस कर सकेंगे। सबसे बड़ी बात यह कि अब तक अगस्त के अंत में जाकर कहीं नए छात्रों को रैगिंग की दहशत भरी संभावनाओं से मुक्ति मिलती है। जुलाई और अगस्त के दो माह वे ठीक तरह से न कक्षाओं में बैठ पाते हैं और न पढ़ पाते हैं। सितंबर में चुनाव वक्त चुरा ले जाते हैं। इस परंपरा को शुरू करके हम लोग नए छात्रों को तुरंत पढाई में लग जाने की सुविधा प्रदान करेंगे। यह सिलसिला साल-दर-साल चला तो रैगिंग की बेहतर पूर्ति हो जाएगी। रैगिंग का उचित स्थानापन्न मिल जाने के कारण पुराने रास्ते की तरफ लौटनेवाले छात्रों की छवि अपने साथियों में अच्छी नहीं रहेगी।''
‘‘मुझे तो तेरी बात बहुत अच्छी लगी।''
‘‘एक को नहीं, अगर सबको मेरा सुझाव अच्छा लगा हो तो बताओ।'' मैंने कहा।
सब लोग मेरी बात से सहमत थे। ‘‘कॉलेज के नए साल का आज दूसरा दिन है। नए छात्रों की रैगिंग करने का इरादा रखनेवाले हमारे सहपाठियों ने अपना काम शुरू कर दिया होगा। बायोकैमिस्ट्री की कक्षा थोड़ी देर में लगेगी। उसके बाद वहीं सबसे बात कर लेते हैं।''
बायोकैमिस्ट्री की कक्षा के तुरंत बाद मैं प्लेटफॉर्म पर आ गया। संक्षेप में गत वर्ष के संघर्ष की पृष्ठभूमि, संघर्ष के मुद्दों और विजय के कारण अपने कंधों पर आए दायित्वों की मैंने चर्चा की। फिर नई परंपरा स्थापित करने के लिए योजना प्रस्तुत करते हुए मैंने सबसे सुझाव माँगे। कक्षा के कुछ लड़़के किसी भी कीमत पर इस योजना का पालन करने या रैगिंग न करने के पक्ष में नहीं थे। मेरे समूह के छात्रों ने जहाँ जोर देकर इस योजना को कार्यान्वित करने का समर्थन किया, वहीं कुछ छात्रों ने पिछले साल दी हुई वरिष्ठ छात्रों की दलीलें दोहराते हुए रैगिंग करना अपना अधिकार स्थापित किया। मुझे प्रस्तावित योजना का विरोध करनेवाले लड़कों के स्वरों की कटुता से आभास हुआ कि बहुमत के आधार पर निर्णय करने के बाद भी वे उसका पालन नहीं करेंगे। जिन छात्रों को विचार व्यक्त करने थे, वे सब बोल चुके तो मैं फिर प्लेटफॉर्म पर आया, ‘‘साथियो, सुझावों और विचारों से स्पष्ट है कि रैगिंग करने, न करने और नई परंपरा प्रारंभ करने वाले प्रश्न पर हम लोग एकमत नहीं हैं। गत वर्ष अनैतिक तरीकों से रैगिंग करने, वीभत्सता, उत्पीड़़न और अनाचार के विरुद्ध जो संघर्ष हमारी कक्षा ने किया, उसका नेतृत्त्व आपने मुझे सौंपा था। इसलिए आप में से कोई अपना उत्तरदायित्व अनुभव करे चाहे न करे, किंतु व्यक्तिगत रूप में मैं रैगिंग की शुद्धता के लिए प्रतिबद्ध हूँ। वरिष्ठ छात्रों का विरोध करनेवाला आपका मित्र सिद्धांतों के प्रश्न पर अपने सहपाठियों का भी विरोध कर सकता है। प्रशासनिक स्तर पर, कानूनी ढंग से रैगिंग पर रोक लगाने के लिए, मुझे इस वर्ष महासचिव पद का चुनाव लड़़ना पड़़ा तो मैं यह भी करूँगा। मैं समझता हूँ, अपनी भावनाएँ मैंने आप तक पहुँचा दी हैं। अपने मतभेद सुलझाने के लिए हम सबने हमेशा मतदान का तरीका अपनाया है। आप में से जो मित्र नई परंपरा शुरू करने के पक्ष में नहीं हैं, वे अपने हाथ ऊपर उठाएँ।'' एक छात्र ने स्पष्टता के साथ और दूसरे छात्र ने हिचकिचाते हुए हाथ उठाया। किंतु कक्षा के सभी छात्रों को नई परंपरा के समर्थन में देखकर, उन्होंने भी हाथ नीचे कर लिये।
नई परंपरा शुरू करने का प्रस्ताव पारित करके हमारी मंडली ने चौकसी रखते हुए बाकायदा सुनिश्चित किया कि हमारा कोई सहपाठी किसी नए छात्र की रैगिंग तो नहीं कर रहा है। नई परंपरा के विरोध में हाथ उठाने वाले दोनों छात्रों से मैंने कैंटीन में बैठकर अपनत्व और आत्मीयता के साथ इस संबंध में फिर चर्चा की। हर तरह से उन्हें समझ में आ गया है कि नई परंपरा की शुरुआत करना रेगिंग की बुराइयों को नेस्तनाबूद करने का एकमात्र उपाय है। यह विश्वास हो जाने के बाद ही उनके साथ मैंने कैंटीन छोड़ी। दस जुलाई को हमने मिलकर पैसा इकट्ठा करके नए छात्र-छात्राओं को चाय-पान के लिए कैंटीन में बुलाया। पूर्व निर्धारित योजनानुसार सब-कुछ हुआ। नए छात्र इतने खुश थे कि लगता था उन्हें कारून का खजानां मिल गया है। चाय-पान की व्यवस्था कक्षा के एक लड़के और एक लड़की के जिम्मे थी। उन दोनों ने ही कार्यक्रम का संचालन किया था। नए छात्र और छात्राएँ व्यवस्था व संचालन के काम में लगे लड़के और लड़की पर जैसे न्योछावर हो रहे थे। रैगिंग की दहशत को खूबसूरत मोड़ देकर खुशनुमा यादों में बदल देने वाले वरिष्ठ छात्र उन्हें देवता स्वरूप लग रहे थे। किसी भी तरह की मदद देने की तत्परता के साथ जब चाय-पान का कार्यक्रम समाप्त हुआ तो हम लोग बहुत संतुष्ट थे। हम लोगों में वे दोनों लड़के भी शामिल थे जिन्होंने इस परंपरा की शुरुआत के विरोध में एक बार हाथ उठा दिए थे।
मेरी चिंता दूर हो गई। रैगिंग की प्लास्टिक सर्जरी करने में मुझे सफ़लता मिली। विरोध को कटुता बढाए बिना, कटुता पैदा किए बिना समर्थन में बदलने में कामयाबी मिली। किंतु मुझे महासचिव के पद का चुनाव लड़ना चाहिए, इस बीज को अपने साथियों के मस्तिष्क में डालने का काम उसी दिन कर बैठा था मैं। उस दिन यदि मैंने यह धमकी नहीं दी होती तो प्रस्ताव के विरोध में उठनेवाले हाथ कहीं ज्यादा होते। ऐसी स्थिति में बहुमत के आधार पर लिये गए निर्णय को न मानने का मानस जिन छात्रों का था, वे खुलकर मैदान में आ जाते। तब वही करना पड़ता जो हमने गत वर्ष वरिष्ठ छात्रों के साथ किया था। चुनौती देनी पड़ती कि अवांछित तरीके से रैगिंग करनेवाले लड़कों को हम पीटेंगे। कनिष्ठ छात्रों के सामने पीटेंगे। अगर बाद में पता लगा तो संबंधित कनिष्ठ छात्र के पास ले जाकर पीटेंगे। ऐसा करने पर कक्षा की एकता टूटती। कनिष्ठ और वरिष्ठ दोनों वर्गों के छात्रों के बीच हमारी फजीहत होती। हम आपस में लड़ते और अब एम.बी.बी.एस. के तीसरे साल में पढ़नेवाले छात्र हँसते। महासचिव का चुनाव लड़़कर रैगिंग पर प्रशासनिक और कानूनी रोक लगाने की धमकी ने ये सभी वीभत्स संभावनाएँ जरूर समाप्त कर दीं, किंतु उन बीजों को निकालने में मुझे बहुत शक्ति लगानी पड़ी।
बीजों को खोदकर निकाल फेंकने और उनको स्थायित्व प्रदान कस्ने की लड़़ाई में जो दलीलें देकर मुझे चुनाव लड़ने के लिए तैयार करने की कोशिशें की गई थीं, उनमें से एक दलील रैगिंग को नया आयाम देने के लिए प्रारंभ की गई परंपरा को लेकर भी थी। सहपाठियों में मैंने अपने प्रति समर्थन का भाव अधिक पुष्ट किया था। समस्या कितनी भी जटिल क्यों न हो, उसका रुचिकर हल मैं दूँढ़ निकालता हूँ, यह धारणा अधिक बलवती हुई थी। भले ही ईर्ष्यावश रहा हो किंतु यदि कुछ छात्रों के मन में मेरे प्रति विरोध, क्षोभ या दुर्भाव पैदा हुआ होगा तो इस प्रकरण के बाद वह पूरी तरह समाप्त हो गया है। सामने चाहे कोई और हो किंतु अब तक नए छात्र-छात्राएँ इस तथ्य से भली-भाँति परिचित हो गए हैं कि चाय-पान के कार्यक्रम के पीछे मस्तिष्क, प्रेरणा और योजना एकमात्र मेरी थी। ऐसी अवस्था में महासचिव के लिए यदि मैं चुनाव लड़़ता हूँ तो प्रथम वर्ष और द्वितीय वर्ष एम.बी.बी.एस. के सभी विद्यार्थियों के शत-प्रतिशत मत मुझे मिलने की आशा है। ऐसा अवसर शेष बचे तीन वर्षों में न जाने मिलेगा या नहीं? इसलिए चुनाव मुझे लड़ ही लेना चाहिए। जबकि मुझे मालूम है कि ये सारे काम मैं इसलिए नहीं करता हूँ कि इस वर्ष या अगले वर्ष या उससे अगले वर्ष मेरी चुनाव लड़़ने की योजना है। चुनाव लड़ूंगा तब भी आस्था के आधार पर किए गए किसी काम का प्रतिफल मिले, यह कामना मैं नहीं करूँगा। चुनावों में मुझे हराना मेडीकल कॉलेज में पढ़ रहे विद्यार्थियों के लिए शायद कभी संभव नहीं हो सकेगा। लड़़ूंगा तो जीतूंगा। क्योंकि मैं जानता हूँ कि मतदाता यदि समझदार है, समस्याओँ और उनका सामना करने की क्षमता रखनेवालों को पहचानता है तो उससे मत माँगना नहीं पड़ता। वह मत देता है।
रैगिंग के विकल्प के रूप में नई परंपरा डालने की बात मीनू को बताई तो उसे बहुत अच्छा लगा। एक उदाहरण देकर उसने अपनी चिता और प्रसन्नता मेरे सामने व्यक्त की। कहने लगी, ‘‘नई बहू को कई बार सास का व्यवहार बहुत खराब लगता है। उस व्यवहार का विरोध बहू करे या न करे, अलग बात है, मगर जब उसका बेटा शादी करता है तो नई बहू के लिए वह वैसी ही सास बन जाती है जैसी अपनी सास उसे लगती थी। रैगिंग की खामियों को भी हर साल मेडीकल कॉलेज में आने वाले नए विद्यार्थी देखते और भोगते हैं। किंतु जब रैगिंग करने का मौका आता है तो सुविधापूर्वक भूल जाते हैं कि कुछ बातें उनको अच्छी नहीं लगी थीं। तुमने जब विरोध किया तो मुझे अच्छा लगा क्योंकि हम लोग गलत बातों को अति की सीमा तक बरदाश्त करने के आदी हैं। बहू सास की ज्यादतियों को अति की सीमा तक बरदाश्त करती है न? मुझे लगता था कि अगले साल जब तुम्हें रैगिंग करने का अवसर मिलेगा अर्थात् तुम सास बनोगे तो भूल जाओगे कि अभी एक साल पहले तुम्हें क्या महसूस हुआ था? ये बातें बताकर तुमने मेरी चिता को खुशी में बदल दिया है। तुममें कुछ है जो बाकी लोगों से अलग है। वही कुछ तुम्हें ऐसे काम करने की प्रेरणा देता है। हूँ तो तुमसे छोटी, मगर आशीर्वाद देती हूँ कि तुम हमेशा मजलूमों के दुःख-सुख से जुड़़े रहो।''
खुशी के जज्बे से छलकते हुए जिस तरह मीनू ने अपनी बात कही, उससे मीनू का कद मेरी दृष्टि में बहुत बढ़ गया है। सोलह-सत्रह साल की धर में रहनेवाली, साधारण पढी-लिखी लड़की धटनाओं को जिस संवेदनापूर्ण ढंग से देखती-महसूस करती है, वैसा दुर्लभ है। मेंरे सहपाठियों में से किसी एक ने भी अपनी ओर से इतना स्पष्ट विश्लेषण करते हुए मुझे समर्थन नहीं दिया था। मेरे सोच को समर्थन मिला किंतु कितने विद्यार्थी विचार के स्तर पर हमारे कार्यकलापों की अंतरधारा से एकाकार हो पाए? शायद आयु का परिपक्वता के साथ, शिक्षा का समझ के साथ और पृष्ठभूमि का ग्राह्यता के साथ कोई संबंध नहीं होता। यदि ऐसा संभव होता कि मीनू मेडीकल कॉलेज में मेरे साथ पढ़ रही होती .....।
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