Jab Hum Shikar par Gaye in Hindi Adventure Stories by Neerja Dewedy books and stories PDF | 1 - जब हम शिकार पर गये, 2 - जंगल की शैर

Featured Books
Categories
Share

1 - जब हम शिकार पर गये, 2 - जंगल की शैर

( अ ) जब हम शिकार पर गये.------

"प्लीज़ दादी, अपने जीवन की कोई मनोरन्जक घटना सुनाइये”- मेरे पौत्रों सौम्य एवं शौर्य ने आग्रह करते हुए कहा तभी मेरी संस्था ज्ञानप्रसार संस्थान में शिक्षा पाने आये बच्चे भी प्रफुल्लित होकर चीख पड़े--" प्लीज़ आन्टी, सुनाइये न.”

मैं असमन्जस में थी कि अचानक बच्चों के लिये टी.वी. के डिस्कवरी चैनेल पर चलाये गये वाइल्ड लाइफ़ के कार्यक्रम में मुझे वनराज सिंह की झलक दिख गई. अकस्मात बहुत पहले की एक घटना मेरे मानस में चपला सी चमक उठी और मैं ठठा कर हंस पड़ी.

"क्या हुआ?”-- सब लोग चौंक कर बोल पड़े.

"मुझे एक बड़ी रोमान्चक घटना याद आ गई”- किसी प्रकार अपने को संयत करते हुए मैं बोली.

"जल्दी सुनाइये न”- बच्चों ने अधीरता से कहा.

"लो बाबा सुना रही हूं कह कर मै पुरानी स्मृतियों मे खो गई.---

"सन १९७० के दिसम्बर की घटना है यह. उस समय मेरे पति पीलीभीत में पुलिस अधीक्षक के पद पर नियुक्त थे. वहां के डिस्ट्रिक्ट मैजिस्ट्रेट श्री योगेश चन्द्रा थे और लगभग हमारे समवयस्क थे. उनका बड़ा बेटा विक्रम मेरे बड़े पुत्र राजर्षि से एक वर्ष बड़ा था. जब हम लोग पीलीभीत में आये तो इस बात का बड़ा शोर था कि ’‘डी.एम.साहब ने शेर का शिकार किया है.’’ जहां भी हम लोग जाते, लोग उनके द्वारा किये गये शेर के शिकार के किस्से सुनाया करते थे. एक दिन योगेश चन्द्रा ने मेरे पति से कहा- "चलो हम दोनो सपरिवार शेर के शिकार पर चलते हैं.”

उन दिनों शेर का शिकार पूर्ण रूप से प्रतिबन्धित नहीं था, शिकार के लिये पर्मिट लिया जाता था. आज कल काफ़ी मात्रा में जंगल कट गये हैं परन्तु उस समय पीलीभीत ज़िले के जंगल बहुत घने थे और लगभग आठ किलोमीटर पर जंगल का क्षेत्र प्रारम्भ हो जाता था. कार्यक्रम के अनुसार हम सब लोग जंगल के डाकबंगले में जाकर रुक गये. जिस समय हम वहां पहुंचे सूर्यास्त का समय हो रहा था. डाकबंगले पर पुलिस और कलेक्ट्रेट के कर्मचारियों के अतिरिक्त फ़ौरेस्ट के रेन्ज औफ़िसर भी उपस्थित थे. श्री भारत सिंह नामक एक पुराने ज़मींदार, जो कि बहुत बड़े शिकारी थे और अंग्रेज़ों के समय भी उन लोगों को शिकार खिलाया करते थे, वहां पर आ गये थे. उन्होंने कहा-

"आप लोग देर न करिये. यही समय है जब जंगली जानवर पानी पीने निकलते हैं. जीप से जंगल का एक चक्कर लगा लेते हैं तब तक शेर के बारे में भी सूचना आ जायेगी.”

एक जीप पर जिसका हुड उतार दिया गया था और सामने बड़ी सर्च लाइट लगी हुई थी हम लोग चलने को तैयार हो गये. आगे ड्राइवर अपनी सीट पर बैठ गया. उसके बगल में रेन्ज औफ़िसर गुप्ता जी बैठ गये. भारत सिंह अपनी चार सौ पचहत्तर बोर रायफ़ल लेकर बीच में आगे खड़े हो गये. पिछले हिस्से में एक सीट पर हम दोनों पति-पत्नी और दूसरी सीट पर योगेश चन्द्रा व उनकी पत्नी बैठ गये. अपने-अपने बच्चों को हम लोगों ने बीच में खड़ा करके कस कर पकड़ लिया. सुरक्षा के लिये मेरे पति व योगेश चन्द्रा ने हाथ में बारह बोर की बन्दूक पकड़ ली. बड़ी टौर्चें भी साथ में ले ली गईं. इस जीप के पीछे एक जीप में दरोगा जी व सिपाही आदि लोग बैठ गये.

अभी हल्का धुंधलका होना प्रारम्भ हुआ था. निरीक्षण भवन के बाहर निकलते ही सघन वन प्रारम्भ हो गया था. पाकड़, शीशम, खैर, अमलतास, बरगद, पीपल, नीम, आम आदि सभी वृक्ष उस जंगल में मिले. सबसे अधिक आनन्द तो यह देखकर आया कि गेट के बाहर निकलकर पचास कदम चलते ही, सड़क के किनारे, कुछ घने पेड़ों के बीच में घास के मैदान में एक चीतल का जोड़ा दिखाई दिया. जीप पांच गज़ भी नहीं चली थी कि झाड़ियों के पीछे से मैदान में चरता हुआ हिरनों का विशाल झुंड दिखाई दिया. हम लोग जीप खड़ी करके फ़ोटो खींचने का उपक्रम करने लगे. ड्राइवर ने जीप रोक दी. जो हिरन अब तक पालतू हिरनों की तरह चर रहे थे, एकदम से सतर्क हो गये. एक हिरन ने चेतावनी भरी आवाज़ निकाली और सब हिरनों ने चरना छोड़कर, कान खड़े कर लिये और दुम उठाकर भागने की मुद्रा में तैयार हो गये. बारहसिंघे की छवि तो कमाल की लग रही थी. जीप चलने को तैयार हुई और हमारे चलते ही हिरन फिर से निश्चिन्त होकर चरने लगे. कुछ बाहर निकले कि सामने फिर एक चीतल का झुंड सड़क पार करता हुआ दिखाई दिया. बाईं ओर दृष्टि गई तो मेरे मुख से निकला-- "हिरन.”

भारत सिंह ने मुख पर उंगली रखकर चुप रहने का इशारा करते हुए इशारों से बात करने के लिये आगाह किया. बाईं ओर अनेकों हिरनों के झुंड चर रहे थे. जीप की आवाज़ सुनकर उनके बीच मे दो बड़े-बड़े सींगों वाले बारहसिंघे सतर्क होकर खतरा भांपने की कोशिश करने लगे. जीप बिल्कुल धीमी रफ़्तार से चल रही थी और हम लोग हिरन देखने का आनन्द उठा रहे थे कि इसी बीच मे दूर से कांकड़ (हिरन की एक प्रजाति) के बोलने का स्वर सुनाई दिया. वह कुछ क्षणों के अंतराल पर बोल रहा था. उसकी आवाज़ सुनते ही सारे हिरन घास खाना छोड़ कर, अपने स्थान पर भागने की तैयारी की मुद्रा में दुम खड़ी करके खड़े हो गये और कान हिलाकर सतर्कता से सुनने का प्रयत्न करने लगे. पेड़ों के ऊपर बैठे लंगूरों में भी हलचल प्रारम्भ हो गई. भारत सिंह ने फ़ुसफ़ुसा कर कहा- "शेर को देखकर कांकड़ चेतावनी देता है. इसीलिये हिरन सतर्क हो गये हैं. बन्दरों में भी खलबली मची है.”

हमारी जीप उसी दिशा की ओर बढ़ने लगी. चारों ओर पाकड़, शीशम, बांस आदि का घना जंगल था. अब बेंत की झाड़ियां भी शुरू हो गईं. भारत सिंह ने बताया कि अब शेर का इलाका शुरू हो गया है, बेंत की झाड़ियों में शेर छिपकर आराम करता है और सूरज डूबने पर उठता है. जब वह अंगड़ाई लेकर चलने की तैयारी करता है तो कांकड़ उसके पीछे-पीछे चेतावनी देता चलता है और जिस दिशा की ओर वह मुड़ता है उधर के सब जानवर कांकड़ की आवाज़ सुनकर सतर्क हो जाते हैं. यह सुन कर हम सबकी सांस रुकने सी लगी. धीरे-धीरे कांकड़ के बोलने की आवाज़ दूसरी दिशा की ओर चली गई तो भारत सिंह ने फ़ुसफ़ुसा कर बताया कि शेर को आहट मिल गई और उसने रास्ता बदल दिया है. कुछ आगे चलकर घने वृक्षों और आदमी की ऊंचाई के बराबर ऊंची बड़ी-बड़ी, घनी घास के बीच भारत सिंह ने इशारा किया तो हम लोग शीघ्रता से जीप में खड़े हो गये. ड्राइवर ने भी गाड़ी रोक दी. अचानक हमने देखा कि घास के मैदान के बीच एक काला सा कम्बल उछलता हुआ जा रहा है. थोड़ी दूर दौड़ने के बाद वह दो पैरों पर खड़ा हो गया और मुड़कर हमारी ओर सशंकित दृष्टि से देखने लगा-"अरे रे, भालू---” मैं उत्सुकता से बोल पड़ी तो हमारे बगल की झाड़ी से ’सर्र-सर्र करती तीन-चार जंगली मुर्गी उड़कर बाहर निकलीं और हमें एकदम से चौंका दिया. तब तक एक भालू बड़ी-बड़ी घास से निकल कर यह गया और वह गया हो गया. हम लोग लगभग एक घन्टे जंगल में घूम कर डाक बंगले लौट आये. लौटते समय निरीक्षण भवन के बगल में ही जीप की रोशनी पड़ने पर जुगनू जैसे टिमटिमाते हरे-हरे असंख्य प्रकाश-पुंजों को देखकर हमें अपने नेत्रों पर विश्वास नहीं हुआ कि हिरन के नेत्र रात में इस प्रकार चमकते हैं और इतने सुन्दर लगते हैं. वे हमारी तरफ़ से बेपरवाह से हो गये थे जैसे जान गये हों कि उन्हें हमसे कोई खतरा नहीं है. भारत सिंह ने बताया कि रात में हिरन ही नहीं सभी शाकाहारी जानवरों की आंखें हरी चमकती हैं और मांसाहारी जीवों की लाल. अचानक एक झाड़ी में लाल आंख देखकर सब चौकन्ने हो गये- कहीं शेर तो नहीं. भारत सिंह ने बताया कि यह ’महोप’ नामक एक चिड़िया है जिसकी आंखें रोशनी पड़ने पर लाल चमकती हैं. मैने देखा कि सब बच्चे बड़े ध्यान से सुन रहे थे. छोटे बच्चों की आंखें तो उत्सुकता से झपकना भूल जाती थीं. मैने गहरी सांस लेकर पुनः कहना प्रारम्भ कर दिया.--

जब हम लोग वापस लौटकर आये तब तक फ़ौरेस्ट विभाग का हाथी भी आ चुका था. उसे देखकर मेरा बेटा राजर्षि एवं डी.एम. साहब का बेटा विक्रम बहुत उत्साहित थे अतः उन्हें उसके ऊपर बैठा कर डाकबंगले के अन्दर ही घुमा दिया गया. डाक बंगले की बैठक में चौकीदार ने हर्थ में ( पहले घरों में आग जलाने के लिये स्थान बनाया जाता था) लकड़ी रखकर आग जला दी थी. जानवरों को देखने के रोमान्च में हम लोगों ने ध्यान ही नहीं दिया कि बाहर कितनी ठंड हो गई थी. हम सब लोग आग के चारों ओर बैठकर आग तापने का आनन्द उठाने लगे. इसी समय र्फ़ौरेस्ट गार्ड खबर लाया कि शेर ने नौ-दस किलोमीटर दूर पर कल एक किल किया है ( जानवर मारा है ) और वहां मचान बांध दी गई है. भारत सिंह के छोटे भाई त्रिभुवन सिंह भी वहां आ गये थे. वह भी अच्छे शिकारी थे अतः यह तय किया गया कि जो ताजा किल है उस मचान पर डी. एम साहब और यस. पी. साहब के साथ त्रिभुवन सिंह रायफ़ल लेकर बैठेंगे. उन लोगों को विश्वास था कि नये किल पर शेर अवश्य आयेगा. डाकबंगले के पास ही शेर ने दो दिन पहले एक गाय मारी थी और काफ़ी मात्रा में उसे खा चुका था. उसके ऊपर भी मचान बनाई गई थी. पहले तो योगेश चन्द्रा और मेरे पति उस मचान पर बैठने वाले थे परन्तु बाद में यह सोचकर कि शेर ताजे किल पर ज़रूर आयेगा, उन्होंने विचार बदल दिया. मैं बचपन में अपने पापा श्री राधेश्याम शर्मा के साथ गोरखपुर एवं देहरादून के जंगलों में बहुत घूमी थी अतः मैं मचान पर बैठना चाहती थी और योगेश चन्द्रा की पत्नी भी मचान पर बैठने को उत्सुक थीं. सब लोगों ने विचार किया कि जो पहले वाला किल है वहां पर शेर के आने का चान्स कम है और वह स्थान डाक बंगले के समीप ही है अतः महिलाओं के लिये निरापद रहेगा. भारत सिंह के साथ मुझे और मिसेज़ योगेश चन्द्रा को पास वाली मचान पर बैठने की स्वीकृति मिल गई.

सब लोगों ने शीघ्रता से भोजन समाप्त किया और मेरे पति, योगेश चन्द्रा और त्रिभुवन सिंह जीप मे बैठकर तुरन्त चले गये. मुझे एवं मिसेज़ चन्द्रा को भारत सिंह के साथ नौ बजे के बाद जाना था. जब नौ बजने वाला था तब तक डाक बंगले के बगल की सड़कों पर आने जाने वालों का शोर नहीं खत्म हुआ था. जहां मचान बांधी गई थी वह स्थान डाकबंगले के समीप ही जंगल के बीच में था अतः मुझे कुछ निराशा हो रही थी कि शेर देखने को नहीं मिलेगा. हम लोगों के लिये हाथी तैयार कराया गया. बच्चों को सुला कर मैं और श्रीमती चन्द्रा तैयार हो गईं. हाथी पर मैं तो पहले भी बैठ चुकी थी पर मिसेज़ चन्द्रा को कुछ दिक्कत हुई. हाथी के हौदे में महावत पहले से बैठा था. उसने "हम”, "हम” करके लोहे के अंकुश से हाथी के माथे के बीच के स्थान पर मारते हुए इशारा करके उसको ज़मीन पर बैठा दिया. पहले मैं हाथी की पूंछ की तरफ़ से रस्सी पकड़कर ऊपर चढ़ कर हौदे में बैठ गई. इसके बाद मिसेज़ चन्द्रा चढ़ीं. हम दोनों हाथी के आगे की ओर हौदे का एक-एक पाया पकड़ कर बैठ गये. महावत खिसक कर हाथी के सर पर गर्दन में दोनों ओर पैर डालकर बैठ गया. भारत सिंह व एक फ़ौरेस्ट गार्ड रायफ़लें लेकर हौदे में पिछली तरफ़ बैठ गये. उनके पास वक्त ज़रूरत के लिये दो टौर्चें भी थीं, इनका यथासम्भव प्रयोग नहीं करना था. एक दम घने अंधेरे में घने जंगल के बीच हाथी पर बैठ कर शेर देखने जाने का यह अत्यन्त रोमान्चकारी अनुभव हम दोनों के लिये ही एकदम नया था. सुन रखा था कि शेर हाथी की ऊंचाई तक कूद सकता है. यदि उसे खाते समय कोई छेड़े तो वह बहुत खूंखार हो जाता है. ऊपर से तो हम दोनो स्त्रियां बहुत बहादुर बन रही थीं परन्तु अन्दर ही अन्दर सांस थमी सी जा रही थी. हम थोड़ा सा सड़क पर चलने के बाद ही जंगल में घुस गये थे. वहां पगडंडी भी नहीं थी. माधोसिंह अनुभवी थे अतः अंधेरे में ही पेड़ों की शाखाओं से हमें चोट न लगे इस लिये हाथ से शाखाओं को पकड़कर हटाते चल रहे थे. लगभग दो फ़र्लांग चलने के बाद हम एक बड़े तालाब के समीप पहुंचे. यहां हाथी को अपनी सूंड़ से टहनियां तोड़कर रास्ता बनाना पड़ रहा था. लगभग पचास कदम चलने के बाद महावत ने हाथी को एक बड़े वृक्ष से सटा कर खड़ा कर दिया. अब चांद की हल्की रोशनी में हमें पेड़ के ऊपर बांधी गई मचान दिखाई दी. हम दोनों को मचान के बीच में बैठने को कहा गया. किसी तरह यह कठिन प्रक्रिया पूरी की गई. मचान के ऊपर केवल तीन व्यक्ति ही बैठ सकते थे. भारत सिंह मिसेज़ चन्द्रा के बगल में मचान पर बैठ गये एवं फ़ौरेस्टर मेरी ओर मचान के बगल में, एक शाखा पर दोनों ओर पैर लटका कर बैठ गये. हम लोगों को पहले से सावधान कर दिया गया था कि हिलना नहीं, खांसना नहीं, छींकना नहीं, बात बिल्कुल नही करना. थोड़ा सा हिलने पर साड़ी की सरसराह्ट होते ही भारत सिंह मुख पर उंगली रख कर शोर न करने के लिये कह देते. यह समय बहुत कष्टप्रद प्रतीत हो रहा था. अचानक दूर पर कांकड़ के बोलने की आवाज़ सुनाई दी. हम सबके कान चौकन्ने हो गये. मोरों ने भी चीखना शुरू कर दिया. लंगूरों की उछल-कूद एवं डर कर बोलने की अलग तरह की आवाज़ सुनाई देने लगी. सारे जंगली जानवरों में जैसे तहलका मच गया. कुछ देर के बाद हमारे सामने से आती आवाज़ें थोड़ी देर के लिये थम गईं. थोड़ी देर के बाद पुनः हमारे बाईं ओर से हलचल हुई और फ़िर शान्त हो गई. भारत सिंह की भाव भंगिमा बता रही थी कि शेर कहीं आस- पास है. हर पल खड़-खड़ की आवाज़ पर हम सांस साध लेते थे. कुछ देर की शान्ति के पश्चात हमारे पीछे से, ठीक नीचे सूखे पत्तों पर भारी कदमों के चलने की आवाज़ सुनाई दी. हमने चंद्रमा की हल्की रोशनी में देखा कि एक बड़े जानवर का साया बड़ी सतर्कता से चारों दिशाओं में निरीक्षण करने के पश्चात हमारे नीचे से होकर सामने की ओर पड़े गाय के बचे हुए हिस्से की ओर बढ़ा. हम अनुमान लगा रहे थे कि वह शेर ही होगा कि इतने में ऐसा आभास हुआ जैसे कि वहां पर एक नहीं दो शेर हों. हड्डी टूटने एवं चबाने की आवाज़ें आने लगीं. कुछ देर के बाद ज़ोर-ज़ोर से सांस लेने और उनके आपस में "गुर्र-गुर्र” करके क्रीड़ा करने की आवाज़ सुनाई देने लगी. हम सब लोग सांस साधे बैठे इन्तज़ार करते रहे कि कब भारत सिंह टौर्च जलाकर शेर का दर्शन करायें पर उन्होंने हमें शेर दिखाने की हिम्मत नहीं की. महावत को बारह बजे हाथी लाने को कहा गया था अतः वह "हो-हो” कर शोर मचाता हुआ पास आने लगा. हम दोनों ने उस दिन शेर की हल्की झलक ही देखी उसको ठीक से नहीं देख पाये. भारत सिंह ने सोचा कि कहीं हम दोनों स्त्रियों में से कोई मचान से नीचे न टपक पड़ें इस कारण उन्होंने शेर के ऊपर टौर्च नहीं जलाई. अपनी उपस्थिति का भान करा के शेर गायब हो गये.

"आन्टी! आपको डर नहीं लगा? मैं तो डर के कारण जंगल में जाती ही नहीं”-नन्हीं राशि बोल पड़ी. मैने देखा कि अन्य बच्चों के मुख पर भी सहमने के चिन्ह थे.

"हां, हाथी जब पेड़ के पास खड़ा हुआ तो हमें डर के कारण पेड़ से हाथी पर उतरना मुश्किल हो रहा था. हम लोग किसी तरह हाथी पर बैठ कर डाकबंगले वापस आये. शेर की उपस्थिति के आभास मात्र से हमारे रोम-रोम रोमांचित हो उठे. रास्ते भर यह डर लगता रहा कि कहीं शेर से आमना-सामना न हो जाये.”

जब हम लोग सुरक्षित वापस आ गये तो भारत सिंह चैन की सांस लेते हुए बोले--" मुझे बिल्कुल उम्मीद नहीं थी कि शेर इस जगह पर आयेगा इसीलिये मैं आप दोनों को ले जाने को तैयार हुआ था. यह बहुत चालाक शेर है और खतरनाक भी. गांवों के आस-पास जाकर गाय भैंस खींच लाता है. एक-दो लोगों को पन्जे भी मार चुका है. जब मचान के नीचे एक नहीं दो-दो शेर आ गये तब तो मैं डर ही गया कि कहीं आप लोगों में कोई नीचे न गिर जाये.”

" आपने टौर्च जलाकर शेर दिखाया क्यों नहीं?” -मैने प्रश्न किया.

" एक बार मेरे साथ एक साहब और मेमसाहब मचान पर बैठे थे, शेर अपना शिकार खा रहा था कि मैने टौर्च जलाई. शेर एकदम गुस्सा हो गया और मचान की तरफ़ लपका. उसका एक पन्जा मचान के निचले हिस्से पर पड़ा तो मचान झटके से टूट गई और मेमसाहब नीचे गिरने लगीं. ये तो अच्छा हुआ कि उनका एक हाथ मेरे हाथ में आ गया और मैने लपक कर उन्हें पकड़ लिया. जैसे ही वह ऊपर आ पाईं कि शेर ने गुर्रा कर फ़िर से उछाल मारी. टौर्च की रोशनी में शेर की उस भयानक मुद्रा को देखकर उस हादसे से मेमसाहब बेहोश हो गईं. हवाई फ़ायर करके शेर को भगाया तब जान बची. वह घटना याद करके मैं आज भी सिहर उठता हूं. अचानक जीप आने की आवाज़ सुनाई दी तो मैं और मिसेज़ चन्द्रा बड़ी उत्सुकता से अपने-अपने पतियों की प्रतीक्षा करने लगीं. जीप आकर रुकी तो हम लोगों ने उत्सुकता से पूछा- "क्या हुआ?”

" कुछ नहीं. कहीं शेर वेर नहीं था. बहुत मच्छर थे, एक गीदड़ आया था, जिसे हमने भगा दिया.”- मेरे पति ने उत्तर दिया.

" मच्छरों ने जीना मुश्किल कर दिया तो हम लोग वापस चले आये.”-योगेश चन्द्रा ने कहा.

जब हम लोगों ने बताया कि वहां पर एक नहीं दो शेर आये थे तो इन लोगों ने विश्वास नहीं किया. जब भारत सिंह ने पूरी बात बताई तो सब लोग चकित रह गये और इन लोगों की शकलें देखकर हम लोग हंसते रहे. सौम्य, शौर्य, प्रशस्ति एवं सभी बच्चे इस कहानी को सुनकर बहुत आनन्दित थे. मुझे आज भी कभी-कभी इस घटना की याद आ जाती है.---------


(ब) . जंगल की सैर.

मैं और मेरे पति अपने छोटे पुत्र देवर्षि के पास अमेरिका के सियाटिल शहर में आये थे. इस बार लेबर डे पर तीन दिन की छुट्टी थी अतः उसने हमें कनाडा में व्हिस्लर माउंटेन घुमाने का कार्यक्रम बनाया. पुत्रवधू अनामिका, पौत्र देवांश एवं पौत्री अदिति के साथ देवर्षि ने हम लोगों को लेकर यात्रा प्रारम्भ की. यह पूरा रास्ता अत्यंत सुंदर है. यहां जंगल, पहाड़, झरने, नदियां, झीलें, समुद्र सभी कुछ हैं. सघन वन में हिरनों के झुन्ड दिखाई दिये. स्थान-स्थान पर भालू बने थे एवं भालू होने के संकेतात्मक चिन्ह लगे थे. देवर्षि बोल पड़ा---

“मम्मी! यहां हिरन देखकर मुझे शाहजहांपुर की याद आ गई. वहां पर डाकबंगले के बाहर निकलते ही कितने हिरन मिले थे. मुझे अंधेरे में उनकी हरी-हरी चमकती आंखें आज भी याद हैं. यहां शेर, चीते नहीं होते. तालाब के किनारे शेर को देखना आज भी याद आ जाता है.”

देवांश एवं अदिति एकदम से चहक कर बोले-

“दादी! हमें भी इंडिया के जंगल व जानवरों के बारे में बताइये.”

मैंने देखा कि रास्ता लम्बा है और देवर्षि एवं अनामिका भी सुनने को लालायित हैं तो सोचा कि क्यों न जंगल की सैर के विषय में विस्तार से बता दूं. आजकल भारत में जंगल बहुतायत से काट दिये गये हैं और जंगली जानवरों की संख्या भी बहुत कम हो गई है. जो हमने देखा है वह अब विगत हो चुका है. मैंने सोचते हुए सुनाना प्रारम्भ किया.—

“यह घटना शाहजहांपुर की है जब मेरे पति श्री महेश चन्द्र द्विवेदी वहां पर पुलिस अधीक्षक थे. एक दिन उनको जंगल के बीच पड़ी एक डकैती के घटनास्थल पर जाना था. उस क्षेत्र के क्षेत्राधिकारी मेरे पति से मिलने के लिये आये थे. उन्होंने कहा-

"साहब! आप बच्चों को भी साथ ले चलिये. जंगल में घटना-स्थल के समीप ही वह जगह है जहां एक शेरनी अपने बच्चों के साथ देखी गई है. काम के बाद लौटते समय जानवरों के निकलने का समय हो जायेगा.”

उनके आग्रह पर मैं व आठ वर्षीय राजर्षि एवं तीन वर्षीय देवर्षि भी जीप पर साथ चल दिये. माधोटांडा के पास जंगल के बीच में जीप रोक दी गई. मैं राजर्षि व देवर्षि के साथ जीप पर रुक गई. वाहन चालक एवं एक दरोगा जी श्याम सिंह अपनी रायफ़ल लेकर मेरे साथ रुक गये. मेरे पति श्री महेश चन्द्र द्विवेदी पुलिस अधिकारियों के साथ घटनास्थल देखने चले गये. जहां हमारी जीप रुकी थी वह स्थान सघन जंगल के बीच था. बाईं ओर पाकड़, शीशम आदि के घने पेड़ों के बीच में एक खेत था जहां आधे हिस्से में गन्ने और आधे में जानवरों के चारे के लिये बार-बार काटी जाने वाली बरसीम और हरी घास बोई हुई थी. दो तीन लड़के वहां अपनी गाय-भैंस चरा रहे थे. पुलिस की जीप देख कर एक किशोर उत्सुकतावश वहां पर आ गया. अचानक मेरी दृष्टि एक भैंस के ऊपर पड़ी जिसकी पीठ पर बड़ा सा घाव था.

मैने उस बच्चे से पूछा-

"इस भैंस के चोट कैसे लगी?”

उसने उत्तर दिया—

"दो दिन हुए मैं जानवर चरा रहा था कि अचानक उधर जंगल से एक बड़का बाघ निकला और हमारी भैंसिया पर झपट पड़ा. माई रे माई! उसने अपने दोनों पन्जे से ऐसा झपट्टा मारा कि भैंसिया लहू-लुहान हो गई. वो तो बापू और कई मनई खेत में गुड़ाई कर रहे थे तो सबने मिलकर इसे बचा लिया. बाघ भाग गया पर सारी रात आस-पास डौंकता ( दहाड़ता) रहा. हम लोगों को रात भर मड़ैया के पास आगी जला कर जानवरों की रखवाली करना पड़ा.” (अदिति एवं देवांश हिंदी समझ लेते हैं पर उन्हें देहाती बोली का मतलब बताना पडा.)

भैंस के प्रति मेरी सहानुभूति देखकर दरोगा श्याम सिंह ने भैंस को ध्यान से देखा और बताया कि भैंस की पीठ पर पिछले हिस्से में शेर के अगले पंजों की पूरी छाप बनी है. यदि आस-पास लोग न होते तो वह उसे उठा ले गया होता. मेरा ध्यान भी उधर गया तो उसे देखकर मैं विचलित हो उठी. भैंस की पूंछ के पास, कूल्हे की उभरी हुई हड्डी के बगल में, शेर ने अगले दो पंजों से भैंस को कसकर जकड़ लिया था जिससे नाखून मांस में गहरे गड़ गये थे और घाव हो गया था. घाव पर हल्दी चूने का लेप लगा था फिर भी मक्खियां भिनभिना रही थीं.

मैने पूछा-

"इसको डौक्टर को नहीं दिखाया?”

लड़के ने उत्तर दिया-

"यहां डौक्टर कहां मिलेंगे? देसी दवाई बांध दी है.”

यह सुनकर श्याम सिंह ने बताया-

"शेर का पंजा बहुत ज़हरीला होता है. यह भैंस बचेगी नहीं. वह शेर आस-पास ही मंडराता रहेगा और मौका मिलते ही इसे उठा ले जायेगा. यदि शेर न भी ले जाये तो भी ठीक से इलाज न हो पाने से इसकी जान बच पाना कठिन है.”

मैने देखा भैंस की दोनों आंखों से आंसू बह रहे थे. मेरा हृदय बहुत उदास हो गया.

डकैती के घटनास्थल को देखकर जब मेरे पति लौटकर आये तब तक दोपहर के तीन बजने वाले थे. हम सबने जीप पर बैठ कर पूड़ी और आलू की सब्ज़ी खाई जो मैं साथ में बना कर लाई थी. भोजन के उपरान्त जंगल में घूमने की तैयारी हुई. सूर्यास्त का समय हो रहा था. श्याम सिंह ने बताया कि इस समय सब जानवर पानी पीने निकलते हैं. हम लोग चले ही थे कि एक चीतल (हिरन) का झुन्ड सड़क पार करता हुआ दिखाई दिया.

कुछ आगे चलने पर जंगली मुर्गे और एक तीतर का जोड़ा दिखाई दिया जिसे देखकर मुझे अपने शिकारी-फ़ुफ़ेरे भाइयों की स्मृति हो आई जो जंगली मुर्गे या तीतर को देखकर शिकार करने को उतावले हो उठते थे और शब्द वेधी निशाना लगाया करते थे.

“दादी! शब्दवेधी क्या होता है?” छोटी अदिति पूछ बैठी.

मेरे पति ने उत्तर दिया-

“किसी चीज़ की आवाज़ सुनकर बिना देखे निशाना लगाने को शब्दवेधी कहते हैं”

देवर्षि ने प्रश्न किया-

“कौन सदन मामा शब्द्वेधी निशाना लगाते थे?”

मैंने उत्तर दिया-

“ऐसे निशाना तो मदन पाठक, सदन पाठक, कैलाश पाठक तीनों ही भाइयों का बहुत अच्छा था परंतु मैंने मदन दद्दा को शब्दवेधी निशाना लगाते देखा था.”

इस पर अनामिका पूछने लगी-

“सच मम्मी. प्लीज़ पूरी बात बताइये.”

“ठीक है.’’ कहकर मैंने पुनः सुनाना शुरू किया.-

“एक बार जब मेरे पापा श्री राधेश्याम शर्मा गोरखपुर में पुलिस अधीक्षक थे तो मेरे फुफेरे भाई श्री मदन पाठक वहां आये थे. गोरखपुर में जंगल बहुत घने थे और नेपाल बौर्डर तक फैले हुए थे. मदन दद्दा राष्ट्रीय स्तर के निशानेबाज थे अतः पापा ने उनसे अपनी शब्दवेधी कला का प्रदर्शन करने को कहा. उस समय रात थी और जंगल में घुप्प अंधेरा था. सारा जंगल जैसे सांय-सांय कर रहा था. केवल झींगुर की झन-झन की आवाज़ सन्नाटे को तोड़ रही थी. अचानक दूर पर एक ’खसूटरी’ नामक चिड़िया जो लक्ष्मी वाहन उल्लू की मौसी कही जाती है, के बोलने की आवाज़ सुनाई दी. हम सबके आश्चर्य का ठिकाना नहीं था जब हमने देखा कि दद्दा ने एक बार और खसूटरी के बोलने पर उसकी आवाज़ को ध्यान से सुना, अपनी बारह बोर की बन्दूक को अनुमान से निशाना लगाने की स्थिति में लाये और जैसे ही वह अगली बार बोली, दद्दा की बन्दूक से गोली दगी और खसूटरी के धराशाई होकर दूर पर गिरने की आवाज़ सुनाई दी. जब हवलदार मंगल सिंह टौर्च लेकर गये और उसे उठा कर लाये तो हमें उस चिड़िया के मरने पर दुःख भी था और दद्दा की निशानेबाज़ी की विलक्षण कला देखने का दुर्लभ अवसर मिलने के सौभाग्य पर आश्चर्यमिश्रित आल्हाद भी.”

देवर्षि, अनामिका समेत अदिति एवं देवांश यह जानकर चकित थे कि कोई अंधेरे में कैसे निशाना लगा सकता है और शिकार कर सकता है.

“ मम्मी हमने शाहजहांपुर मे हाथी भी देखे थे.”- देवर्षि सोचते हुए बोला.

“हां.’’- मैंने बात आगे बढाते हुए कहना प्रारम्भ किया-

उस दिन हम लोग जंगल में कुछ मील गये थे कि दरोगा श्याम सिंह के फ़ुसफ़ुसाहट भरे स्वर कानों में सुनाई दिये. हमने देखा कि बाईं ओर के जंगल में पेड़ों की शाखायें तोड़ने की आवाज़ें आ रही हैं. एक लम्बे दांतों वाला हाथी सूंड़ उठाये हुए सामने से निकलकर भागा जा रहा है. उसका पिछला हिस्सा दाहिनी ओर के घने वृक्षों में घुसता दिखाई दे रहा था. श्याम सिंह के इशारा करते ही ड्राइवर ने जीप तेज़ी से आगे बढ़ा दी. आगे जाकर श्याम सिंह ने बताया कि नर हाथी बहुत खतरनाक होते हैं खासकर वह नर हाथी जिसे झुन्ड निकाल देता है. गनीमत थी कि हवा का रुख हमारी ओर नहीं था. अपने बाईं ओर हाथियों का झुन्ड मौजूद था. इस समय हाथियों के झुन्ड में बच्चे भी हैं. कुछ दिन पहले हाथियों ने उलट कर एक ट्रक तोड़ दिया था और ट्रक चालक का पैरों से दबा कर मलीदा बना दिया था. मज़दूरों ने किसी तरह भाग कर जान बचाई थी. यह सुन कर सबके शरीर में झुरझुरी आ गई थी.

मैंने देखा कि देवांश व अदिति बडे ध्यान से जंगल की सैर के बारे में सुन रहे थे. अतः मैंने बात आगे बढ़ाते हुए कहा-

“सूर्यास्त होने वाला था अतः जंगल व जंगल के जीव जग चुके थे. कई स्थानों पर हिरन, सांभर, चीतल, जंगली सुअर, मोर, बंदर, लंगूर दिखाई दिये. वन मुर्गी भी कई बार दिखीं. चिड़ियां भी अपने घोंसलों को लौटती दिख रही थीं. एक बहुत विशाल बरगद के पेड़ पर सैकड़ों तोते आकर बैठ रहे थे और जैसे वे आपस में बातें कर रहे थे. जीप धीरे-धीरे चल रही थी तो उन्हेँ देख कर ऐसा लगा जैसे उनकी सभा हो रही है. यह दृश्य अनोखा था अतः जीप की गति अत्यंत धीमी कर दी गई. बचपन मेँ मेरी बुआ मुझे एक कहानी सुनाती थीं- मैंने देखा कि अदिति व देवांश कहानी के नाम पर एकदम सतर्क होकर मेरी ओर देखने लगे और बोल पड़े-

“कौन सी?’’

मैंने कहानी सुनाते हुए कहा-

“एक जंगल में एक बरगद के पेड़ पर एक तोता अपने परिवार के साथ रहता था. एक रात

में जब वह लौटकर आता है तो रास्ते मेँ चोरों को बगल के पीपल के पेड़ के नीचे एक घड़ा गाड़ते देखता है. वह चोरों को कहते सुनता है---

“राजा के खजाने को अभी यहीं छिपा कर रखना चाहिये. कुछ दिन बाद जब धन की खोज-बीन बंद हो जायेगी तब धन निकाल कर बांट लेंगे.’’

तोता अपने परिवार को राजा के यहां चोरी हुए गुप्त खजाने के विषय मेँ बताता है. पेड़ के नीचे एक लकड़हारा थक कर लेटा था जो पक्षियों की बोली समझता था. वह यह सुन लेता है और राजा को इसके विषय में बता देता है. राजा का चोरी गया खजाना वापस मिल जाता है. राजा लकड़हारे की ईमानदारी से प्रसन्न होकर उसको ढेर सा धन इनाम देता है और अपने दरबार में दरबारी बना लेता है.’’

बच्चों! उस दिन हमने पहली बार देखा और ध्यान से सुना कि पहले एक तोता बोलता था फिर दूसरा उत्तर देता था. इसके बाद फिर उसी तोते का स्वर सुनाई देता था. फिर दूसरे तोते की आवाज़ आती. तोतों के परस्पर कई बार के वार्तालाप के बीच में एक दो बार ऐसा लगता जैसे कई तोते किसी बात के विरोध में एक साथ बोल पड़े हों. उस समय उनके वार्तालाप को सुनकर मेरे मन में यह बात आई कि काश मुझे भी पक्षियों की भाषा आती होती.

“दादी! आपने शेर के बारे में तो बताया ही नहीं.-‘’ चपल अदिति खीझते हुए बोली.

“अच्छा बाबा बताती हूं.- कहते हुए मैंने पुनः अपनी बात प्रारम्भ की –

“हमें जंगल के अधिकांश जीव मिल चुके थे पर वनराज सिंह का साक्षात्कार तो दूर, आज उनके यहां होने के कोई लक्षण नहीं थे. हम लोग शेर देखने को बेचैन थे और अब निराश होने लगे क्योंकि डाक बंगले के समीप पहुंचनेवाले थे. श्याम सिंह सबका मन प्रसन्न करने के लिये हंस कर कहने लगे—

"साहब! जहां आज हम गये थे वह शेरों का गढ़ है. सबसे घने बेंत के जंगल वहीं हैं जहां दिन में भी शेर बेंत की छाया में सोते दिखाई दे जाते हैं पेट भरा हो तो शेर हमला नहीं करते. असल में उन्हें पता चल गया कि साहब बहादुर इधर आ रहे हैं अतः वे दूसरी जगह चले गये. भला एक जंगल में दो शेर कैसे रह सकते हैं?"

बात का मतलब न समझ कर आठ वर्षीय राजर्षि भोलेपन से श्याम सिंह से पूछने लगा-

"अंकल! दूसरा शेर कहां है?”

इसी समय तीन वर्षीय देवर्षि अपनी आंखें गोल-गोल घुमा कर दाहिने हाथ को मुख के आगे हाथी की सूंड के समान लाकर हाथी के चिंघाड़ने की नकल करने लगा.

मेरे यह बताने पर बच्चे व अनामिका देवर्षि की ओर देखने लगे तो उसके मुख पर झेंपी-झेंपी हंसी आ गई और हम सब लोग ज़ोर-ज़ोर से हंसने लगे.

बात बदलने को देवर्षि बोला-

“ वहां शेर देखा था उसकी मुझे हल्की सी याद है पर बांधवगढ़ में हाथी पर बैठ कर शेरनी और तीन बच्चों को देखा था वह मुझे अच्छी तरह याद है. वह सबसे अच्छा लगा था.”

“दादी! तालाब के किनारे जो शेर देखा उसके बारे में बताइये.”- अदिति व देवांश एक साथ बोल पड़े.

मैंने आगे बताना शुरू किया—

हम लोगोँ की जीप डाकबँगले मेँ वापस जाने वाली ही थी कि उस क्षेत्र के दरोगा जी शीघ्रता से आकर बोले-

“साहब! शेर तालाब के किनारे बैठा है, जल्दी चलिये.’’

ड्राइवर ने जीप घुमा ली. एकदम डाकबँगले के समीप ही तालाब था. मेरा बड़ा पुत्र राजर्षि लपक कर दरोगा जी का हाथ पकड़ कर तेजी से आगे दौड़ा और मैँ छोटे देवर्षि को लेकर उसके पीछे-पीछे. मेरे पति दरोगा जी के हाव-भाव को देख कर यह समझे कि शेर यहां है नहीं केवल हमको खुश करने के लिये दरोगा जी ने कह दिया है अतः वह धीरे-धीरे जीप से उतरे. असल में इसके पहले जब भी हम लोग जंगल में गये थे तो यह देखा था कि शेर को देखकर कांकड़ (हिरन की एक प्रजाति) बोलने लगता है. जिधर शेर जाता है उधर ही कांकड़ भी चेतावनी देता चलता है. उसे सुनकर जानवरों में हलचल मच जाती है. यहां हिरन चुपचाप चर रहे थे. लंगूरों ने भी उछल कूद नहीं की. हो सकता है कि डाकबंगले के एकदम पास तालाब था अतः जानवर स्वयं को सुरक्षित समझ रहे हों. बीस-पच्चीस कदम झाड़ियों में घुसते ही हमें तो तालाब के दूसरे छोर पर बैठे वनराज के दर्शन हो गये जो हमें देख कर अंगड़ाई लेकर उठ खड़े हुए थे. जब तक मेरे पति वहाँ आये तब तक सिंहराज राजसी शान के साथ जंगल में विलीन हो चुके थे केवल उनकी लहराती दुम शेष थी. वहां से लौटते समय काफी अंधेरा हो चुका था. जैसे ही गेट के पास घास के मैदान में जीप की रोशनी पड़ी तो वहां अनेकों हिरनों की आंखें हीरे-पन्ने जैसी जगमगा

उठीं. “

“ क्या हिरन की आंखें चमकती हैं?” – देवांश ने उत्सुकता से पूछा.

देवर्षि बोला-

“ हां. हिरन की आंखों पर अंधेरे में रोशनी पड़ती है तो जुगनू की तरह चमकती हैं. यह कह कर वह मेरी ओर मुड़ते हुए बोला- मम्मी! आपको याद है कि लौटकर आने पर हमें शेर के बच्चे मिले थे.”

“ क्या शेर के बच्चे?”- अदिति ने उछल कर अनामिका की गोद से उठते हुए प्रश्न किया.

मैंने उत्तर दिया-

“हां. हम लोग जंगल की सैर करके जब वापस आये तो हमारे लिये एक सर्पराइज़ मौजूद था. गांव के कुछ आदमी शेर के दो बच्चों को लेकर आये थे. उन्होंने बताया कि जंगल मेँ आग लग गई थी जिससे शेरनी अपने दो बच्चों को आग में घिरा छोड़कर भाग गई. बच्चों को हमने बचा लिया है तो आपके पास ले आये हैं. इनकी अभी आंखें नहीं खुली हैं.

अगले दिन उन दुधमुँहे सिंह शावकों को हम लोग अपने साथ शाहजहांपुर ले आये. उनके लिये दूध की बोतल मंगा ली गई थी क्योंकि उन्हें अभी बर्तन में दूध पीना नहीं आता था. वे अभी देख भी नहीं पाते थे. जब शेर के बच्चों को आवास की बैठक में छोड़ा गया तो हम यह देख कर चकित रह गये कि वे दीवार के किनारे चले गये और अपने पंजे ज़मीन पर दबा-दबा कर, शरीर को झुका कर सावधानी से आगे बढ़ते थे. सावधानी बरतने की यह कला उनमें जन्मजात थी. कुछ दिन अपने पास रखने के बाद हमने उन सिंह-शावकों को लखनऊ के ज़ू में भेज दिया था.”- कहते हुए मैंने अपनी बात समाप्त की.

व्हिस्लर माउंटेन की बर्फभरी चोटियां दिखने लगीं थीं और यहां के सघन वनों को देखकर मैं सोच रही थी कि बचपन में एवं वर्षों पूर्व भारत के जंगलों के जो दृश्य हमने देखे हैं क्या आज की पीढ़ी उस पर विश्वास करेगी? जिस गति से अपने यहां के वन काटे जा रहे हैं और जंगली जानवरों की संख्या कम होती जा रही है यह सब पुस्तकों के पृष्ठों एवं कम्प्यूटर के चित्रों में रह जायेंगे.