मन कस्तूरी रे
(5)
“उसे आईलाइनर पसंद था, मुझे काजल।
वो फ्रेंच टोस्ट और कॉफी पे मरती थी, और मैं अदरक की चाय पे।
उसे नाइट क्लब पसंद थे, मुझे रात की शांत सड़कें।
शांत लोग मरे हुए लगते थे उसे, मुझे शांत रहकर उसे सुनना पसंद था।
लेखक बोरिंग लगते थे उसे, पर मुझे मिनटों देखा करती जब मैं लिखता।
वो न्यूयॉर्क के टाइम्स स्कवायर, इस्तांबुल के ग्रैंड बाजार में शॉपिंग के सपने देखती थी, मैं असम के चाय के बागानों में खोना चाहता था। मसूरी के लाल डिब्बे में बैठकर सूरज डूबना देखना चाहता था।
उसकी बातों में महँगे शहर थे, और मेरा तो पूरा शहर ही वो।
न मैंने उसे बदलना चाहा न उसने मुझे। एक अरसा हुआ दोनों को रिश्ते से आगे बढ़े। कुछ दिन पहले उनके साथ रहने वाली एक दोस्त से पता चला, वो अब शांत रहने लगी है, लिखने लगी है, मसूरी भी घूम आई, लाल डिब्बे पर अँधेरे तक बैठी रही। आधी रात को अचानक से उनका मन अब चाय पीने को करता है।
और मैं...…
मैं भी अब अक्सर कॉफी पी लेता हूँ किसी महँगी जगह बैठकर।“
--- भास्कर त्रिपाठी
इन दिनों फेसबुक पर ‘भास्कर त्रिपाठी’ की ये कविता कई दिन से वायरल थी। कितने सारे तो शेयर हुए थे इस कविता के। बस धूम मची थी हर वाल पर इस कविता। स्वस्ति ने भी इस कविता को अपने एक क्लासमेट की वाल पर देखा तो इसे अपनी वाल पर शेयर कर दिया था। और हाँ याद आया कि मजे की बात यह है कि इस कविता पर खासा विवाद भी हुआ था क्योंकि फेसबुक और व्हाट्स एप जैसी सोशल साइट्स पर यह कविता गुलज़ार साहब के नाम से वायरल थी। जिसे देखो वही इस कविता का मुरीद होकर वाह वाह कर रहा था जबकि असली लेखक को कोई जानता ही नहीं था। यही तो है सोशल मिडिया का चेहरा।
आज कार्तिक ने इस कविता को व्हाट्स एप पर भेजा तो पढ़कर मुस्कुरा दी स्वस्ति। आजकल व्हाट्स एप पर कविताओं की भरमार है। एक-एक सन्देश में चार-चार कवितायेँ। उफ़... कविताओं के नाम पर कुछ भी भेजा जाता है। सब कुछ पर कविता है कहाँ इस इंस्टेंट फॉरवर्डिंग के दौर में। बच्चन, अमृता प्रीतम, ग़ालिब और गुलज़ार के नाम पर कुछ भी लिखकर एक साथ पचास लोगों को भेज देने का यह फितूर स्वस्ति की समझ से परे है। आखिर ऐसा करते क्यों हैं लोग? खीज उठती है स्वस्ति। यहाँ से उठाया और वहाँ भेज दिया। मतलब इस सबमें क्या रचनात्मकता है या क्या थ्रिल है स्वस्ति समझ नहीं पाती।
ये प्रवृति नई है, नया ट्रेंड....नया पैशन.... आज की पीढ़ी के लिए, पर इसे अपनाने में आज कोई पीछे नहीं। ज्ञान आज सहेजने नहीं फॉरवर्ड करने की विषय वस्तु भर है। स्वस्ति सोचती है। अपनी किताबें देखते हुए उसे लगता है दुनिया में मेसेजेज बढ़ते हुए एक दिन किताबों पर हावी हो जाएँगे। स्वस्ति ऐसी दुनिया की कल्पना तक से डर जाती है। भला किताबों के बिना भी जीवन संभव है अवनि सोच भी नहीं सकती। किताबे उसका जीवन हैं, जीवन प्राण हैं। न बाबा न, वह दुआ करती है कि उसके जीवन में तो ऐसा अवसर कभी न ही आये।
वह अमूमन व्हाट्स एप पर बहुत सक्रिय नहीं है। फॉरवर्ड मेसेजेज पर तो बहुत ध्यान भी नहीं देती। पर ये कविता कुछ अलग है। वैसे व्हाट्स अप मेसेज ही सही पर कार्तिक और कविता? ये मेल कुछ जमता नहीं। ह्म्म्म......ये बेमेल बात ही उसके चेहरे की मुस्कान का कारण नहीं थी बल्कि उसने जब जब इस कविता को पढ़ा उसे लगा, उसके और कार्तिक के व्यवहार में फर्क को कितनी सहजता से परिभाषित करती थी यह कविता। और शायद इसीलिए कार्तिक ने भेजी थी उसे। इस एक मुस्कराहट ने स्वस्ति का मूड बदल दिया। कितना अच्छा लगा स्वस्ति को। जैसे उसके कई प्रश्नों का हल है यह कविता। उसके और शेखर के बीच के इस फर्क को परिभाषित करने के लिए भी तो यह कविता कितनी मुफीद है न। वे दोनों भी तो इसी तरह एक दूसरे से सर्वथा भिन्न पर प्रवृति के लोग हैं। एकदम अलग।
वैसे ये पच्चीस की उम्र भी न विचित्र होती है। न बचकानेपन की गुंजाईश बचती है और न ही परिपक्वता का अहसास पूरी तरह पाँव ही जमा पाता है। फिर स्वस्ति तो सबसे अलग है। अपनी उम्र की तमाम लड़कियों से अलग बस अपने ही तरह की
अकेली एक लड़की। अब रही सही कसर भी पूरी हो गई। शेखर से उसके रिश्ते ने उसे कुछ और अलग बना दिया है। लोगों की दृष्टि में बेमेल इस रिश्ते को लेकर स्वस्ति बिल्कुल सहज हैं और वह यही बात शेखर के लिए भी फील करती है। अनोखा अहसास है अपने जैसे किसी अपने के करीब हो जाना।
शेखर और स्वस्ति के रिश्ते में सबसे सन्तोषजनक बात अगर कुछ है तो यही है कि पच्चीस की उम्र में अपने ही सपनों की दुनिया में खोयी रहने वाली स्वस्ति अपनी हमउम्र लड़कियों से कुछ ज्यादा बड़ी है, ज्यादा परिपक्व और कुछ ज्यादा समझदार है और पैंतालीस की उम्र में शेखर कुछ ज्यादा ही एनर्जेटिक हैं, चुस्त और अपटूडेट। कहाँ है फासला? जब वे कुछ बोल रहे होते हैं तो स्वस्ति एकटक उनके चेहरे को निहारती है। वे कितने पास, कितने अपने महसूस होते हैं। कितने अपने और कितने सहज। स्वस्ति का मन होता है वह देखती रहे और शेखर इसी तरह बोलते रहें। तब वक़्त कहीं किसी कोने में खड़ा हो प्रतीक्षा करता है स्वस्ति के लिए। कितनी मुग्ध है वह शेखर के व्यक्तित्व पर, उनकी बौद्धिकता पर, उनके ज्ञान और उनके अनुभव पर। यही एक चीज तो है जो स्वस्ति को उन्हें अलग तरह से देखने का नजरिया देती है। उसकी अपनी पीढ़ी के बेसब्र और बेलगाम लड़कों से कितना अलग हैं शेखर। उनकी परिपक्वता के आगे सब बेकार और बेअसर लगता है स्वस्ति को। यही एक बात तो है जो वह लोगों में ढूंढती है और मायूस हो जाती है।
वैसे स्वस्ति और शेखर में बहुत कुछ कॉमन है। उन दोनों के बीच का एक साझा तत्व है किताबें। और किताबों पर बात करते हुए शेखर अक्सर उम्र के उस पायदान पर आकर खड़े हो जाते हैं जब स्वस्ति को वे बेहद करीब लगने लगते हैं। उसे लगता है उनकी आँखों की चमक और उत्साह की रोशनी में उनके बीच उम्र का फासला मालूम नहीं कहाँ खो जाता है। उनके साथ की उष्मा में पिघल जाता है यह फासला। बल्कि उसे तो लगता है जब वो उसके साथ होते हैं तब वे दोनों , दो अलग अलग इंसान नहीं “हम” होते हैं। उम्र के उन सालों के अंतर से एकदम अप्रभावित और बेपरवाह। यह अंतर तो है। उफ़्फ़....स्वस्ति शिद्दत से चाहती है ये चेहरे ओझल हो जाएँ, वह नज़र घुमाकर इनकी जद से तो दूर निकल जाती है पर माँ को कैसे इग्नोर कर सकती है स्वस्ति।
वह जानती है माँ की फीलिंग्स। ये भी कि माँ के लिए शेखर को स्वीकार करना कितना कठिन है। जबकि वह खुद शेखर की उम्र के आसपास हैं।
ऐसा नहीं कि उन्होंने विरोध नहीं जताया पर वे औरों से अलग हैं। वे स्वस्ति की माँ हैं, शिक्षित, सुसंस्कृत और शांत। उनका तरीका बेशक अलग था पर हाँ विरोध तो उन्होंने भी जताया ही था जब उन्हें स्वस्ति के मन में झाँकने का अवसर मिला।
कैसे स्वीकार कर लेतीं इस बेमेल रिश्ते को माँ? कैसे कह देती हैं कि जाओ स्वस्ति तुम्हे अधिकार है अपने मन के पुरुष को चुनने का चाहे वह तुम्हारे पिता की उम्र का हो। माँ के सोच से उम्र का यह अंतर कभी नहीं दूर हो पाया। उन्होंने कई कई बार स्वस्ति को समझाने की कोशिश की। गुस्सा नहीं पर नाराज़गी दिखाई जिसके पीछे छिपा क्रोध और खीज स्वस्ति से छुप नहीं सकते। क्या करे माँ? आखिर वह माँ है। पढ़ी लिखी हैं पर बेमेल रिश्तों के हश्र से डरना नहीं छोड़ पातीं।
उन्होंने बातों बातों में बहुत से उदाहरण दिए स्वस्ति को। यही कि कैसे उनके रिश्ते की एक बहन ने ऐसा किया और कुछ सालों बाद तलाक हो गया या फिर उनकी एक कलिग भी अपने पिता की उम्र के प्रेमी से धोखा खाकर अपनी जिन्दगी से हाथ धो बैठी। माँ को तो दरअसल इस बात पर भी यकीन करना मुश्किल हो जाता है कि शेखर अभी तक अविवाहित हैं। उन्होंने इशारे इशारे में कहा था स्वस्ति से कि उन्हें लगता है कि या तो शेखर पूर्व विवाहित हैं या फिर तलाकशुदा।
“पैंतालिस की आयु का पुरुष अपनी किताबों और अध्ययन में इतना व्यस्त रहा कि उसके जीवन में कोई स्त्री नहीं ये कैसे संभव है भला, स्वस्ति। कोई सारी उम्र अकेले कैसे काट सकता है?” वे उत्तेजित होकर पूछ बैठी एक दिन।
“क्यों नहीं काट सकता माँ? वैसे ही जैसे आपने पूरी उम्र पापा की यादों के साथ काट दी।” स्वस्ति का उत्तर अप्रत्याशित था। और उसका लहजा भी! उसने कभी इस तरह से माँ से बात नहीं की!
चौंक गईं थीं वृंदा। ठीक है ये सच था कि उन्होंने अपनी पूरी जिन्दगी अपने पति की यादों में काट दी पर उनके पास स्वस्ति थी उनके जीवन का सहारा भी लक्ष्य भी। अब कैसे समझाये माँ स्वस्ति को जो समझना ही नहीं चाहती कि वह आग से खेल रही है। एक ऐसे रिश्ते में जा उलझी है जिसका न कोई ओर है न छोर। न न समाज की कोई चिंता नहीं वृंदा कुमार को। समाज और उसके दकियानूसी, दोगले रवैये को तो वे स्वयं बहुत पीछे छोड़ आई हैं पर अपनी बेटी को समझाना वे नहीं छोड़ पाती क्योंकि उसकी चिंता न करना उनके वश से बिल्कुल बाहर की बात है।
बहुत सी बातें चेतावनी की तरह स्वस्ति के इर्द गिर्द घेरा बनाने लगती हैं जब जब माँ और उसके बीच उसके और शेखर के रिश्ते की बात चलती है। पर स्वस्ति ने जैसे निश्चय कर लिया है कि ये बातें उनके रिश्ते पर कोई असर डाले बिना विलीन हो जाएंगी पर क्या ऐसा सचमुच हो पाता है? माँ के चेहरे पर चिंता की लकीरें, उनकी नाराज़गी और अनमनापन कभी नहीं भूल पाती स्वस्ति और यही कारण है कि वह भरपूर कोशिश करती है कि उसकी और माँ की बातों के बीच शेखर का सन्दर्भ कभी जगह न बनाये।
सच तो ये है कि माँ भी उदासीनता दिखने लगी हैं! ये भी उनकी नाराज़गी का ही एक रूप है कि एक तरह से अब माँ ने बार-बार बोलना भी छोड़ दिया है इस बारे में। यूँ भी वे और स्वस्ति कम बातें करते हैं। पहले ही कम बोलती थीं माँ और अब तो जैसे सुन्न सी हो गई हैं। बस केवल काम की बात। जानती है स्वस्ति कि अंदर ही अंदर घुट रही हैं माँ। उनके स्वभाव नहीं क्रोध करना, चीखना चिल्लाना, शोर मचाना पर उनके मन में दबी उस चीख को सुन लिया है स्वस्ति ने।
कार्तिक और सुनंदा आंटी को भी जब इस बारे में मालूम चला था तो जैसे सन्न रह गए थे दोनों। उनके रिएक्शन ने बहुत हर्ट किया स्वस्ति को।
“ऐसा कैसे कर सकती स्वस्ति? कार्तिक का क्या होगा? वह तो उसके बिना जी ही नहीं पाएगा। स्वस्ति को एक बार तो सोचना चाहिए था। आखिर क्या कमी है कार्तिक में?”
स्वस्ति और कार्तिक के बीच प्रेम का रिश्ता नहीं था। कभी भी नहीं। पर यह महज दोस्ती भी तो नहीं थी। आंटी बहुत अनमनी हो गई थीं उसके और शेखर के बारे में जानकर। माँ ने ही बताया था उन्हें। कार्तिक को खुद स्वस्ति ने बताया था पर वह तो चुप लगा गया था। कार्तिक जैसे एक सदमे से गुजर रहा था। उसके और स्वस्ति के बीच दोस्ती थी जो प्रेम तक नहीं पहुँच पाई थी पर ये भी तो सच था कि उन*/के परिवार, पड़ोस, दोस्त, समाज सबने उन्हें एक साथ बचपन से इस तरह देखा था कि किसी एक के यूँ अलग दुनिया बसा लेने के ख्याल के बारे में तो कभी किसी ने सोचा ही नहीं था। फिर आंटी तो ये कभी समझ ही नहीं पाई कि स्वस्ति उनके बेटे कार्तिक को छोड़कर इतनी आयु के एक पुरुष के प्रेम में कैसे पड़ सकती है।
फिर कार्तिक ने उन्हें समझाया तो उन्होंने सब कुछ भाग्य पर छोड़ दिया। हालाँकि उनके चेहरे पर उगे सवाल और आँखों की टीस को पहचानती है स्वस्ति। जिन सुनंदा आंटी को वह दूसरी माँ कहती थी उनके दिल को तोड़कर वह बिल्कुल भी तो खुश नहीं थी पर उसका खुद का दिल?? उसके दिल को कोई क्यों नहीं समझता। उसके दिल को अगर कोई समझता है तो सिर्फ कार्तिक। एक वही है जिसने चुपचाप बिना कोई सवाल किये स्वस्ति के इस रिश्ते को खुलेमन से स्वीकार किया। वही जो सबसे ज्यादा चोटिल था, घायल अपने मन के घाव छुपाकर मुस्कुराता था, छेड़ता था, जबकि जानती थी स्वस्ति कि उसके भीतर कहीं कुछ था जो छन्न से टूट गया था।
क्रमशः