Tapte Jeth me Gulmohar Jaisa - 15 in Hindi Fiction Stories by Sapna Singh books and stories PDF | तपते जेठ मे गुलमोहर जैसा - 15

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तपते जेठ मे गुलमोहर जैसा - 15

तपते जेठ मे गुलमोहर जैसा

सपना सिंह

(15)

सुविज्ञ ने कार पोर्च में खड़ी की...... अप्पी गेट में ताला बंद कर रही थी......।

’’मैं कर दूँ......’’ सुविज्ञ एक दम पास आ गये थे.....’’

’’बस हो गया......’’ अप्पी ने कहा और दोनो साथ ही अंदर आ गये...... अप्पी ने दीवान पर से कुशन मसनद हटाकर तकिया और चद्दर रखा..... किचन में जाकर पानी की बोतल और गिलास लाकर टेबल पर रखा, अपने लिये भी एक बोतल निकाल कर लायी......’’

’’और कुछ..... चाहिए....’’ उसने पूछा.....

’’नहीं..... ठीक है......’’ सुविज्ञ अपने जूते खोलते हुए बोले!

’’थक गया.....’’ गहरी सांस लेकर उन्होंने अपने शरीर को स्ट्रेच करते हुए कहा! अप्पी का जी कलथ गया..... एकबारगी मन हुआ उनका सिर अपनी गोद में रख उनके बालों में अपनी उंगलियाँ फिरायें...... या फिर उनके पंजों पर हल्की मालिश करके सारा तनाव सोख लें.. पर, वह चली आयी..... अपने कमरे में......।

नींद तो क्या आनी थी! बस आंखें मूदे वह सुविज्ञ के ही बारे में सोच रही थी! शायद हल्की झपकी में ही थी वो जब दरवाजे पर दस्तक सी हुई! आश्चर्य में उसने दरवाजा खोला... सुविज्ञ अंदर आकर कुर्सी पर बैठ गये.....।

’’लाइट जला दूँ.....?’’ अप्पी ने पूछा

’’नहीं...... रहने दो!’’ सुविज्ञ ने दीवार पर लगी पेंटिंग पर नजरे जमाये हुए कहा..... कमरे में लाइट बल्ब की हल्की रोशनी थी!

’’मन हुआ तुम्हारे पास बैठने का...... तुमसे कोई बात भी नहीं हो पायी......’’ कल चले भी जाना है.....’’ ’’तुम सो तो नहीं गई थी......’’

’’नहीं.....’’

कैसी अजब बात है? सुविज्ञ ने सोचा...... इस वक्त ये सोच कर आया था कि अप्पी से कुछ देर बातें करुंगा...... वो भी क्या सोच रही होगी..... उसके पास तो ढंग से बैठ भी नहीं पाया! पर, अब करने के लिये कोई बात ही नहीं सूझ रही थी। वह गुमसुम से उठे और बिस्तर पर आ अप्पी के बगल में बैठ गये। उसका चेहरा हाँथों में थाम उसके होंठो पर अपने होंठ धर दिये। अप्पी का पूरा शरीर कंपकंपा रहा था। उन्हें पता था इस लड़की का दिल पूरी तरह उनको समर्पित है..... वो उसे बताना चाहते हैं कि वो उसे कितना चाहते हैं...... वह उसे सिर से पांव तक चूमना चाहते हैं...... अपने होंठो से उसके रोम का स्वाद लेना चाहते हैं। हाँ ये वो क्षण हैं.... जब वो अपनी चाहना पूरी कर सकते हैं। वह हांफ रहें हैं...... अप्पी के इर्द गिर्द उनकी बांहों का कसाव बढ़ता जा रहा है.....अप्पी की सांस घुटती हुई महसूस हो रही है...... वो बहुत..... वह बहुत खुशी महसूसना चाहती है..... पर ऐसा नहीं हो रहा..... भीतर कोई अवरोध है..... जो उसे खुलने नहीं दे रहा...... उसकी बनावट में वही सनातनी संस्कारी..... सही-गलत के झूले में झूलती लड़की गुंथी हुई है..... सुविज्ञ का स्पर्श..... उसके माथे कान गर्दन से होता..... आगे-आगे बढ़ रहा है...... वह उस स्पर्श को पूरी तरह जीना चाहती हैं। आपनी आत्मा में महसूसना चाहती है...... पर......। सुविज्ञ ने उसका चेहरा अपनें हाथों में थामा था...... पूरी कामना......पूरी चाहत से उसके होेंठों को अपने होठों में कैद कर लिया...... गहरे सुकून में उनकी आँॅखें मंुदी हुई थी..... पल भर को आँॅखें खोल उन्होनें अप्पी को देखा.....उसकी आँॅखें क्यों नही मुंदी हैं...... अप्पी अपनी डब-डब आँॅखों से उनकी आँॅखों में देख रही थी एक फड़फड़ाती हुई दुविधा थी वहाँॅ..... समर्पण तो बिल्कुल नही था..... उसके गले की नीली नस उभर कर अपने तनाव को व्यक्त कर रही थी ! उन्होनें अपने होठों की कैद से उसके होठों को आजाद कर दिया और होठ उस नीली नस पर रख दिये..... कोई ज्वार सा उठा था उसके भीतर जो बैठ गया था..... कुछ बदला था जो अप्पी तक भी पहँुचा था.....! न तो सुविज्ञ की बाहों की जकड़ ढीली हुई थी...... और न ही उनके बेताब होठों की तपिश कमतर हुई थी... हाँ उनकी बेतरतीब सासें जरूर सयंत हो गई थीं...... उन्हांेने अप्पी की डब डब आँखों पर अपने होंठ रख दिये थे और उसे सीने में भीच लिया ! अप्पी का कंपकपाता वजूद मानों किनारा पा गया हो.... वह यूँ ही बैठी रही सुविज्ञ के सीने में मुहं घुसाये ...... उन्हे न कहना था..... न कुछ सुनना था..... मानों सब कह दिया गया हो, सब सुन लिया गया हो ! आनन्द की एक अनिवर्चनीय धारा मानों एक साथ उन दोनों में एक ही स्तर पर प्रभावित हो रही थी दोनों मानों एक ही धुन सुन रहे हों ..... चुपचाप उस धुन के सुरों को समझने की कोशिश करते ताकि उम्र भर उसे गुनगुनाया जा सकने की समझ उग सके......

सुविज्ञ जान गये थे ..... इस क्षण वह अप्पी की देह तक पहुँच भी जाते..... तो भी उसकी आत्मा अछूती रही आती ! बाज दफा आत्मा को तबीयत से छूने का एकमात्र उपाय यही होता है कि, देह को तबीयत से छू लिया जाये ! (बकौल जया जादवानी) पर, ऐसा काॅस्मिक मिलन अपना वक्त लेता है ! उन्हें उस वक्त का इंतजार रहेगा...... ’’ क्या सोच रही हो......’’ सुविज्ञ की आवाज में दुलार था......अप्पी ने कोई उत्तर नहीं दिया..... सिर्फ सिर उठाकर उन्हें देखा

’’ अच्छा ...... चलो उठो.....’’ सुविज्ञ उसके सिर में उंगलिया फिराते बोले,’’ नीचे चलें ......चाय पीते हैं.....।’’

’’ उँ हँू .....’’ अप्पी कुनमुनाई .....

’’ उठो जान ......’’

’’ काश ..... कुछ ऐसा हो जाये ...... मैं कुछ ऐसी बन जाऊँ ...... न दिखाई देने वाली चीज और यहाँ आपके दिल में रही आऊँ हर वक्त.....!’’

’’ अप्पी .....तुम यही हो ..... मेरे दिल में...... हर वक्त .....!’’

अप्पी ने सुना जो कहा गया था ...... पर वह उस बात पर विश्वास भी कर सके ..... वो वक्त दूर था अभी .....! बहुत दूर भविष्य के अंधकार में कहीं टिमटिमाती रोशनी की भांति ...... जो स्पष्ट दिखता नहीं पर अपने होने का एहसास पूरी शिद्यत से दिलाता है.....

सुविज्ञ अल्सुबह ही चले गये ..... जाते वक्त उसका हाथ अपने हाथों में थाम उसे होठों से छुआया था.....’’ टेेक केयर जान ...... मैं फिर जल्दी आने की कोशिश करूँगा .....।’’

अप्पी खुश थी ..... उदास थी ...... सोच में डूबी ..... कुछ सवालों के जवाब तलाशती.....! उसे खुश ही होना चाहिए था..... एक असंभव सी घटना...... जिसके बारे में उसे पूरा विश्वास था कि ..... वह सच रूप में कभी घटित नहीं होगी ...... पर वह असंभव उसके जीवन में ही घटित हो गया है ! असंभव सी प्रेम कहानी सच हो रही है ! सुविज्ञ के हृदय स्थल पे उसकी चाहत के फूल खिल गये थे ! पर ये वर्जित फूल थे ...... इस कहानी का कोई मुकाम नहीं था ...... एक ऐसी यात्रा जिसकी कोई मंजिल नहीं ..... सिर्फ थकन !

सुविज्ञ की अपनी एक दुनियाँ है ...... परफेक्ट दुनियाँ ! वह जानती है सुविज्ञ ऐसा कुछ नहीं करेगें जो उनकी दुनियाँ की चमक को बिगाड़े ! अप्पी जानती है ..... सुविज्ञ बहुत ही सहृदय हैं .....! कभी - कभी उसे लगता है, उनकी सहृदय ही है जो वह उसके साथ रूड नहीं हो पाये ! अप्पी क्यों चाहिए उन्हें अपनी दुनिया में ? या फिर सुविज्ञ भी एक भी एक बहुत सामान्य से आदमी हैं...... सारे बुनियादी स्खलनों से भरे हुए ! आदमी जब सारे शिखरों को पार कर लेता है ......, पद, प्रतिष्ठा, नाम, पैसा सबकुछ अचीव कर लेता है ...... तो उसे वो सबकुछ याद आता है जो ये सब पाने की होड़ में दौड़ मे उससे छूटता गया था ..... या अनदेखा रह गया था..... तुच्छ और गैरजरूरी समझकर उससे बकायदा बचा गया था ! खूबसूरत मकान, जो ब्रांडेड फर्निचर से सजे हैं ..... बैंकों में भरा रूपया ..... कई तरह के प्रापर्टीज के लाॅकर में रखे कागजात ..... कपड़ो से भरी आलमारियाँ..... गहनों से भरी तिजोजिरियां। संतुष्टि के इन्ही पैमानों को भरने में जिंदगी गर्क की गई थी..... एक सेटिल लाइफ...... अपना ये कंफर्ट एरिया..... ये सारी अचीवमेन्ट उस छूटे हुए का विकल्प नहीं बन पातें..... छुटा हुआ वह ‘कुछ‘ एक वैक्व्यूम बन कर टीसता है। और जहाँ अपना भराव देखता है उस स्थिति की तरफ सहज आकर्षित हो जाता है। डाँ0 सुविज्ञ की अपने प्रति इस भलमनसहत को अप्पी ऐसा तो कुछ समझने से अपने आपको रोक क्यों नही पाती थी? उसे ऐसा क्यों लगता था कि वह सहज उनकें वैक्यूम की फिलर थी....।

पर अपनी ये पहचान ! उसे अपने लिए अनकंर्फटेबल लगती है ! अभी जो रह गया होने से, घटने से...... क्या वह फिर उसे होने देने से रोक तो वह अब रोका था....क्यों...... उसे नही पाता......! अपने बारे में उसे पता था .....अगर कुछ होता तो वह उसे उतनी सहजता से उतनी उद्दातता से स्वीकार नहीं पाती..... उसकी जहनी तैयारी अभी इतनी मजबूत नही है..... वह सवालों में उलझ रही है.... इसका मतलब ही है..... अभी समय नहीं आया। है - तो क्या वह शरीर की सुचिता के प्रति ’आब्सेस्ड’ है ! ‘ मैं फिर आउँगा ...... कोशिश करुँगा आने की ......ं। सुविज्ञ के ये लफ्ज़ क्या ध्वनित कर रहे हैं ..... वह आकर अनुग्रहित करेंगे उसे ..... हाँ वह अनुग्रहित ही होती है ..... और ये अनुग्रहित होना उसे छोटा बनाता है ...... उसके प्रेम को छोटा बनाता है ......! वह अपने लिए आयेंगे ......? अभी अप्पी परिदृश्य से हट जाये ..... क्या कमेगा उसके जीवन में ..... कुछ नामालूम सा ...... या फिर एक रिलैक्स सा कुछ ...... सर से एक बोझ सा उतर जाना ..... !

और अगर यह सब कुछ निरंतरता में रहा आया ..... वह उसे अनुग्रहित करने उससे मिलते रहे ..... वह अपनी पागल चाहना को लिए भागी - भागी उनके शहर तक जाती कुछ पल का साथ ..... और फिर सुविज्ञ का वापस अपनी दुनियां में लौट जाना ..... पर अप्पी ...... उसका लौट पाना हो पायेगा क्या ...... वह खाली ...... ठूँठ सी महसूस करेगी ..... जैसे अब कर रही है.....

और इस तरह वह क्या बनेगी ...... एक दूसरी औरत ...... वह चाह लेगी तो ये भी सध जायेगा ! वह वहीं लखनऊ में ही कोई नौकरी तलाश लेगी ..... या न भी करे कोई नौकरी ...... सुविज्ञ के लिए कौन सा मुश्किल था उसका खर्च उठाना ..... वो ताजिंदगी ऐसा कर सकते थे ..... वर फिर इस घसर - पसर में वो ‘प्रेम’ बच पाता क्या ? अधिकार भाव ...... असुरक्षा ..... जलन ...... वही क्या दिया? क्या लिया? का रोना ..... उफ अंततः सबकुछ कितना ‘ पैथेटिक’ !

***