मन क्या है?
मन क्या है? इस विषय में हम इतना ही समझ पाते है कि यह केवल दुख, दर्द, संताप के सिवा कुछ नहीं। इसका प्रमुख कारण है- इसकी चंचल वृत्ति। इसी कारण चित्त अस्थिर होता है और प्रमाद बढ़ता है, इन्हीं कारणों से मनुष्य इतना व्यथित होता है कि वह बुरे कार्यों की ओर अग्रसर हो जाता है परन्तु वास्तव में वह विनाश के गर्त में चला जाता है। हमारे शास्त्रों में मन को वायु से भी अधिक गतिशील बताया गया है। कभी-कभी मन की चंचल वृत्ति के दुष्परिणाम भी होते है। इसका कारण है विवेक द्वारा इसे संयमित न किया जाना। यदि मन को संयमित किया जाए तो हमें शांति ढूँढने की जरूरत नहीं पड़ेगी क्योंकि तब चित्त तालाब के पानी की तरह ठहर जाएगा।
जीवन में ज्ञान की प्राप्ति के लिए स्थिरता (ठहराव) का होना परम आवश्यक है। इच्छा, माँग, चाह हमें सांसारिक सुविधाएँ तो दे सकती है, कींचित ये क्षणिक ही होंगी फिर हमारी इच्छाएँ बढ़ती ही जाएँगी इन्हें नियंत्रित करने के लिए इंद्रिय-निग्रह आवश्यक है। ज्ञान प्राप्ति में यह किस प्रकार सहायक हो सकती है इस विषय में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है कि
यदा संहरतेचाडयं कूर्मोअंगनीव सर्वशः।
इन्द्रियाणीइन्द्रियर्थेतस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठतः।
अर्थात इंद्रियों की गति कछुए की गति के समान है, जिस प्रकार अपने पैरो को अंदर कर लेने से कछुआ अपने आप में पूर्ण हो जाता है। भौतिक जगत में उसकी गति समाप्त हो जाती है। उसी प्रकार इंद्रियों को भौतिक विषयो से अलग करने पर व्यक्ति ज्ञान में स्थिर हो जाता है। वह आत्मकाम हो जाता है उसकी भौतिक इच्छाएँ समाप्त हो जाती है।
चंचलता स्थिरता में बाधक है। यही कारण है कि हम मृत्युलोकी हमेशा किसी न किसी के पीछे भागते रहते है, यह भागना ही तो दुख को जन्म दे रहा है। अरे! हम क्यों भाग रहे है? किसके पीछे भाग रहे हंै, क्या उसके पीछे भागना उचित है? जिस दिन हम इस प्रश्न का उत्तर ढूँढ लेंगे उस दिन हम सभी प्रकार के विकारों से मुक्ति पा लेंगे और इसका एक उपाय है- इंद्रिय निग्रह। जब तक हम सांसारिक विषयों में फँसे रहते हैं तब तक आवेशित होते रहते है। इसी से सम्मोह पैदा होता है। यही सम्मोह स्मृति भ्रम का कारण होता है, जो बु़द्धि नाश का हेतु बनता है और विवेक को नष्ट करता है। अतः सर्वप्रथम हमें अपने भीतर से इस विकार को दूर करना है। क्या हम ऐसा कर पाते है? नहीं क्योंकि हमारी इच्छाएँ, तृष्णाएँ हमें ऐसा करने नहीं देती। हमारी समस्या का समाधान हमारे हाथ में है फिर भी हम भटक रहे है, हमें यह भी चाहिए, हमें वह भी चाहिए। बस यही है हमारे जीवन लक्ष्य? मन एकाग्र नहीं है, तभी तो भटकाव है इतना संताप है। जब तक मोह-माया है तब तक हमारा मन स्थिर नहीं रह सकता और जिसने इस मन पर विजय प्राप्त कर ली समझ लो एक तरह से उसने मोक्ष के द्वार पर दस्तक दे दी।
इस चराचर में इंसान भगवान की अनुपम कृति है। परंतु दुर्भाग्य की बात है कि आज हम स्वयं को निराश महसूस कर रहे है क्योंकि मानव बनने के लिए धर्मिक होना जरूरी है, परंतु यह धर्म शाश्वत चिरतन एवं उध्वरेता होना चाहिए। अमरता एवं मानवता के संबंध में सुमित्रानंदन पंत ने लिखा-
मानव दिव्य स्पफुलिंग चिरतन
वह न देह का नश्वर रज कण
देश-काल का उसे न बंधन
मानव का परिचय मानव पन
आशा रौतेला मेहरा