Chooti Galiya - 2 in Hindi Fiction Stories by Kavita Verma books and stories PDF | छूटी गलियाँ - 2

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छूटी गलियाँ - 2

  • छूटी गलियाँ
  • कविता वर्मा
  • (2)

    "अरे कितना अँधेरा हो गया है बातों में कुछ पता ही नहीं चला, राहुल अकेला होगा ट्यूशन से आ गया होगा। तू कैसे जायेगी?" नेहा ने अपनी सहेली से पूछा। .

    "मैं ऑटो ले लूँगी।"

    तभी दोनों का ध्यान मेरी ओर गया। मुझे अपनी ओर देखता पाकर वे दोनों घबरा गयीं। बगीचे का सन्नाटा और अँधेरे में उनकी ओर घूरते हुए पकड़ा जाने पर मैं भी सकपका गया। अपनी जगह से उठा और तेज़ी से बाहर की ओर चलने लगा। हालाँकि अपनी पदचाप धीमी करके सुनने की कोशिश भी की कि पीछे वे दोनों आ रही हैं या नहीं? पर कोई आवाज़ सुनाई नहीं दी, शायद वे मेरे बाहर निकलने का इंतज़ार कर रहीं थीं। बगीचे के गेट के कुछ दूर पान की एक दुकान पर मैं सिगरेट लेने रुका नज़रें गेट पर ही लगी रहीं। करीब तीन चार मिनिट बाद वे दोनों बाहर निकलीं और चलते चलते सड़क के अगले मोड़ पर ओझल हो गयीं।

    मैंने भी सिगरेट सुलगाई और पैदल घर की ओर चल पड़ा। मेरे कानों में नेहा के शब्द गूँजने लगे "अब वो कभी नहीं आयेंगे।"

    एक अनजानी लड़की सहज उत्सुकतावश सुनी गयीं उसकी बातें कहे गए कुछ शब्द, उन शब्दों का मर्म मैं इतना बैचेन क्यों हूँ समझ नहीं पा रहा हूँ? उसके स्वर की कातरता अब वो कभी नहीं आयेंगे की ध्वनि कानों में अब भी गूँजती रही।

    ***

    नेहा

    पता नहीं कौन था वह आदमी ? देखने से तो ठीक ही लग रहा था , लेकिन फिर अँधेरे में बैठ कर हमारी बातें क्यों सुन रहा था ?आजकल किसी का कुछ पता नहीं चलता। हमारी बातें सुन कर उसे पता लग गया कि मैं अकेली और परेशान हूँ, कहीं वह इसका गलत फायदा ना उठाये, कहीं राहुल को कोई नुकसान ना पहुँचाये

    अरे नहीं मैं भी ना जाने क्या क्या सोचती हूँ, भला एक अनजान आदमी जिससे कुछ लेना देना नहीं है बिना वजह मुझे या राहुल को क्यों नुकसान पहुँचायेगा ? फिर भी आजकल किसी का कोई भरोसा तो है नहीं। मुझे सावधान रहना पड़ेगा, शायद उसने सुन लिया कि मैं अकेली रहती हूँ।

    मैं भी ना क्या जरूरत थी अंजलि को सब कुछ बताने की? वैसे भी वह क्या कर लेगी? मैंने खुद ही अपना राज़ ज़ाहिर कर दिया, अब तक जो बात सिवाय मेरे किसी को नहीं मालूम थी अब पता नहीं कहाँ कहाँ, किस किस को पता चल जायेगी। मुझे अंजलि को मना करना होगा, उससे कहना होगा कि ये बात सिर्फ अपने तक रखे।

    यदि स्कूल में या अड़ोस पड़ोस में पता चल गया तो लोग मेरे बारे में जाने क्या क्या बात करेंगे? उनकी नज़रों में मेरे लिए दया होगी, कुछ लोग शायद इस बात का मज़ाक ही बना दें, और कुछ लोग तो ये जानकार बड़े खुश भी होंगे कि डॉक्टर साहब ने मुझे छोड़ कर वहाँ दूसरी शादी कर ली है।

    हे भगवान ये मैंने क्या किया? क्यों मैं कमज़ोर पड़ गयी वह आदमी भी शायद यहीं कहीं आस पास रहता है अगर उसने मुझे पहचान लिया तो पता नहीं किस किस को क्या क्या बतायेगा?

    नेहा ने आँखे मूँद लीं दो आँसू कोरों से बहते हुए तकिये में समा गये किसी को ना बता पाने की घुटन बता देने के बाद पछतावे में बदल गयी। अंजलि को बता कर मन कुछ हल्का हुआ था लेकिन वह आदमी ....

    नेहा ने करवट बदली मैं क्यों उस आदमी को इतना महत्व दे रही हूँ? होगा कोई क्या कर लेगा?आखिर को पार्क में कई लोग आते हैं उसने कुछ सुना ही होगा जरूरी तो नहीं है, लेकिन मन का डर बार बार सिर उठा लेता।

    जब मन खुद को दोष देते थक गया तो खुद की कैफ़ियत देने लगा। तीन साल से इस दुःख का बोझ अकेले ढ़ो रही हूँ कभी किसी से कुछ नहीं कहा। मैं कब तक अकेले इस तरह घुटती रहूँ आखिर को मन की बात कहने बताने के लिए कोई तो होना चाहिए ना? अब जब बता ही दिया है तो फिर क्या सोचना अब जो होगा देखा जायेगा।

    ***

    घर पहुँचा तो देखा टिफिन वाला टिफिन दरवाजे पर रख कर लौट रहा था। दरवाज़ा खोल कर टिफिन टेबल पर रखा हाथ मुँह धोकर भगवान के आगे दिया अगरबत्ती लगाई। साढ़े आठ बज रहे थे अब खाना खा लेना चहिये खाना खा कर टी वी ऑन कर सोफे पर पसर गया और समाचार देखने के लिए पंद्रह मिनिट में कम से कम पच्चीस चैनल बदल डाले पर समझ नहीं पा रहा हूँ कि कहीं समाचार नहीं आ रहे हैं या ये मेरे मन की बैचेनी है? कुछ समझ नहीं आया तो टी वी बंद कर दिया।

    सामने दीवार पर लगी गीता की तस्वीर पर नज़र अटक गयी वह अपनी सूनी आँखों से मुझे ही देख रही थी। उन आँखों के सूनेपन को मैंने गहरे तक महसूस किया क्यों? क्या कहना चाह रही हैं गीता की आँखें? आज उसके होंठों की कोर मुस्कुराती सी क्यों लग रही है मुझे? क्या है ये, कैसा विरोधाभास है आँखों का सूनापन और होंठों पर मुस्कान? क्या स्निग्ध मुस्कान? नहीं नहीं, तो व्यंग्य? नहीं गीता मुझ पर ऐसे नहीं हँस सकती। गीता मेरी पत्नी उसकी सूनी आँखों में डूबता मैं अतीत में खो गया।

    मैं गीता, बेटा सनी और बेटी सोना, खुशहाल परिवार था हमारा। तभी मुझे सिंगापुर में एक शानदार नौकरी का प्रस्ताव मिला। गीता ने कितना विरोध किया था, सब कुछ तो है हमारे पास खुद का घर, गाड़ी और बच्चों की पढ़ाई के लिए भी हमने प्लानिंग कर रखी है फिर क्यों तुम सबको छोड़ कर पैसों के लिये एक अनजान देश में जाना चाहते हो? हम यहाँ अकेले कैसे रहेंगे? कोई रिश्तेदार भी तो नहीं है यहाँ। बच्चे भी बड़े हो रहे हैं इस उम्र में उन्हें पिता के अनुशासन की जरूरत होती है उस समय सनी तेरह और सोना ग्यारह साल की थी। मेरी आँखों पर तो डॉलर में मिलने वाली तनख्वाह, बड़ी गाड़ी, पैकेज में मिलने वाली शानदार जिंदगी के सपने तैर रहे थे। मैं गीता की आँखों में उमड़ते प्रश्नों और सूने भविष्य की आशंका को देख ही कहाँ पा रहा था। बच्चे तो इसी बात से खुश थे कि अब हमारे पास बड़ी सी गाड़ी होगी ढेर सारा पैसा होगा।

    "पापा हम छुट्टियाँ मनाने प्लेन से जायेंगे न?" सनी ने पूछा तो मैं मुस्कुरा दिया।

    "हाँ हाँ प्लेन से जायेंगे और फ़ाइव स्टार रिसोर्ट में रुकेंगे।"

    "पापा पापा हम एक बार प्राइवेट याट से घूमने जायेंगे।" सोना की आँखों में ताज़ा ताज़ा देखी फिल्म के हीरो हीरोइन की कल्पना तैर गयी।

    "पापा फिर मैं ब्रांडेड जूते और स्पोर्ट्स किट लूँगा और मोटर साइकिल भी। और पापा मैं .... "

    "बच्चों की चहकती इच्छाएँ, उनके आँखों में उग आये सपनों को क्यों कुचलना चाहती हो तुम," मैंने गीता को समझाया।" अगर हम उन्हें नहीं देंगे तो वो कुछ माँगेंगे भी नहीं पर अगर हम उन्हें सुनहरा भविष्य दे सकते हैं लेकिन नहीं देंगे तो ये उनके साथ नाइंसाफी होगी। मुझे जाने दो मैं हमेशा के लिए थोड़े जा रहा हूँ, चार पाँच साल में वापस आ जाऊँगा।" मैंने गीता को खींच कर बाँहों में भर लिया। मेरे सीने से लग कर देर तक सूखे पत्ते सी काँपती रही वो, कुछ नहीं बोली और उसके मौन को स्वीकृति मान कर मैं चला गया।

    गीता और बच्चों से दूर एक बारगी तो घबरा गया पर फिर वहाँ की चकाचौंध में डूबता चला गया। आलीशान इमारतें शानदार गाड़ियाँ खुली खुली साफसुथरी सड़कें और कॉलोनियाँ ढेर सारी सुविधाओं युक्त मेरा ऑफिस सभी मुझे अभिभूत करते थे। सामान से भरे मॉल और बड़ी बड़ी पार्किंग अद्भुत थीं। भारत की भीड़ और शोर भरी जगहों से अलग यह सब मुझे बहुत भला लगता था। घर पर जब फोन करता यहाँ की बातें बच्चों को बता कर खुद को बहुत बड़ा महसूस करता। बच्चों को फरमाइशों के लिये लगभग उकसाता और उन्हें पूरा करते गर्व का अनुभव करता। घर में सामान और बच्चों के जेब खर्च बढ़ते जा रहे थे। गीता जब तब दबी जुबान से इनका विरोध करती तो यहाँ से बच्चे और वहाँ से मैं उसे हँसी में उड़ा देते।

    एक साल बाद जब छुट्टियाँ लेकर घर आया तो गीता पहले से कमजोर लगी उसका चेहरा मुरझा गया था मैंने पूछा तो कहने लगी अभी कुछ दिनों पहले तबियत ठीक नहीं थी इसलिए ऐसा लग रहा है। मैंने भी फिर इस बात पर ज्यादा जोर नहीं दिया। बच्चों की फरमाइश पर सारा फर्नीचर बदलवा दिया, नये परदे लैंप मोटे मोटे गद्दे और भी बहुत कुछ। गीता के लिए डायमंड सेट लेकर आया था जो उसने चुपचाप रख लिया कहने पर पहन कर भी दिखाया फिर बोली, "अब तुम वापस आ जाओ मुझसे अकेले इतनी जिम्मेदारियाँ नहीं संभलतीं।"

    "अरे क्या जिम्मेदारियाँ हैं यहाँ? बच्चे अब बड़े हो गए हैं अपना काम खुद कर ही लेते हैं। पढ़ाई के लिए चाहो तो ट्यूशन लगवा लो, घर के काम के लिए एक दो बाई और रख लो और क्या?"

    वह थोड़ी देर मुझे देखती रही फिर धीरे से बोली "ठीक है।"

    आज उसका उस तरह देखते रहना क्यों याद आ रहा है मुझे? क्या था उन नज़रों में आज समझ आ रहा है। ऐसी ही तो थी नेहा की आँखें जब उसने कहा था "अब वो कभी नहीं आयेंगे।"

    उफ़ तो क्या गीता समझ गयी थी कि मैं घर से, बच्चों की जिम्मेदारियों से, उससे दूर होते जा रहा हूँ, और अब लौटूँगा नहीं। मैं तो लौटा ना ?

    "हाँ मैं वापस आ गया हूँ गीता पर किसके पास?" गीता की निगाहों के प्रश्न का उत्तर नहीं है मेरे पास।

    ***