तपते जेठ मे गुलमोहर जैसा
सपना सिंह
(13)
सुविज्ञ जब हाॅस्पिटल से घर आये थे... तो लाॅन में अप्पी को देख जानी कैसी खिन्नता मन में उठी थी.... वह सुरेखा के साथ खुश थे..... एक भरे पूरे पन का एहसास, एक निश्चिंतता थी उसके होने पर! पर, ये अप्पी...... इसे देख उनके भीतर एक छटपटाहट सी क्यों मच जाती है.... सब ठीक-ठाक चलता हुआ..... एका-एक अपनी लय खोता हुआ सा क्यों लगता है..... इसी छटपटाहट के साथ पूरी उम्र कैसे गुजारेंगे वो।
वह कुछ नही कहती ...... कुछ नही माँगती..... कल उन्हे देख कैसे तो बच्चो जैसी दौड़ कर आई थी...... उसकी ये सरलता ......उसका ये छलछलाता प्रेम वह उतनी ही सरलता स्वीेेकार क्यों नही पाते..... इतना साहस इतना प्रेम और ऐसी सरलता वो कहाँ पायें.....? अप्पी के आगे अपनी ये कमतरी ही तो कही उसकी खिन्नता का कारण नही......। वह कुछ माँगती......वह कुछ देते तो शायद ये कमतरी नही होती...... पुरुष देकर बडा़ बनता है......उसका अहं तुष्ट होता है..... मकान... गहने... कपड़े.....।
चाहने भर से वह उसके साथ कितनी आसानी से एक समानान्तर रिश्ता रख सकते हंै..वह मर्द हंै...... समर्थ हैं.....सबसे बडी बात .....अप्पी उसका सानिध्य पाने के लिए.... उनके एक कदम बढा़ने पर निश्चित रूप से समर्पण कर देगी..... पर ऐसा कुछ करना,पाना उन्हें अप्पी की भावनाओं का एक्सप्लाॅयटेशन क्यों लगता है.... उसकी अमूल्य भावनाओं का देय.... मात्रा उनका साथ नही हो सकता..... वह उसे अपनी कैप्ट का दर्जा देकर..... अपने और उसके बीच का सबसे सुंदर कुछ खत्म कर देंगे।
उस रात अप्पी को देर तक नीद नही आई...... देर तक दिमाग में उलझन मची रही....। ऐसा क्यों होता है जब वह सुविज्ञ से दूर होती है...... अपनी दुनियां में, अपनी किताबों, पत्रिकाओं, लेखों कहानियों की दुनियां में...... अपनेे परिवार...... दोस्तों की दुनियां में, उस सारे वक्त सुविज्ञ उसकी सोच...... उसके बारे में, उस सारे वक्त सुविज्ञ उसकी सोच....उसकी सोच...... पोर पोर में समायें होते हैं.... जैसे उसका सब कुछ उनसे संचालित होना हो....
उनसे संचालित होना हो.....उसके चारों ओर एक औरा की तरह होते हैं वो.....। और आज करीब से उनकी दुनिया..... उनके लोग देख..... भीतर कैसी टीस सी उठ रही है.... वह कहाँॅ है। इस सबमें अपनी जगह चाहना.... एक हिमाकत ही तो है। वह खुश..... होना चाहती है..... उसे खुश होना चाहिए....क्योंकि सुविज्ञ खुश हैं...... संतुष्ट हैं।
अप्पी को याद आया था सबके जाने के बाद सिर्फ परिवार के लोग ही बच्चे थे सभी हाॅल में बैठें थें..... अप्पी का सारा दिन लाइब्रेरी में बीता था...... उसे थकान लग रही थी.... जीजाजी का कोई मूड नहीं था चलने का.... उन्होनें पूरी बैठकी ही जामा ली। हल्की फुल्की बाते होने लगी....
‘‘ हे..... साली साहिबा ...... आप कब शादी कर रही हैं......‘‘ जीजाजी ने उससे पूछा..... वह उनींदी हो रही थी...... कोई जबाव नही..... दिया....। नीरू दी बोली......। ‘‘मौसीजी इतना परेशान हैं..... इन महारानी को कोई पसंद ही नही आता...‘‘।
अप्पी की हंसी छूट गयी.... अरे, नीरू दी..... असली बात ये है कि हम ही किसी को पसंद नही आते......‘‘
‘‘ ऐसा क्यों.....‘‘
‘‘ ऐसा ही है.....अव्वल तो लिखने पढ़ने वाली लड़की किसी को नही चाहिए होती..... और दहेज एक अलग मसला है......।
‘‘ सबके लिए भगवान किसी न किसी को ऊपर से ही भेजते हैं.... और हमने तो ये भी सुना है कि आप भी कई रिश्ते रिजेक्ट कर चुकी हैं.....‘‘जीजा जी की इस चुटकी पर अप्पी मुस्कुरा कर रह गई..... सुविज्ञ के सामनें अपनी शादी के विषय में बात किये जाना उसे अटपटा लग रहा था....पर, सुविज्ञ बहुत ही कैजुअली बातचीत में शामिल थे..... मानों अप्पी उनके लिए महज एक परिचित विवाह योग्य हो..... जिसके समय से विवाह हो जाने की चिन्ता करनी चाहिए।
वह युनिवर्सिटी में ही थी.... जब वातावरण कुछ अजीब सा लगने लगा था.... क्लासरूम्स से जोर-जोर से कुर्सियां बगैर पटकने की आवाजें आ रही थीं ....लोग जल्दी-जल्दी बाहर की ओर जा रहे थे..... लाइब्रेरी में भी अफरा तफरी मच गई...... जैसे सबको जल्दी मची हो.... सब कुछ आवाजें फुसफुसाहटें, सरगोशिया..... बाबरी मस्जिद गिरा दी.. कारसेवकों ने.....। कुछ नारा सा भी सुनाई दिया.....जय श्री राम, का जयघोष। अप्पी भी भड़भड़ा गई....क्या करे..... पता नही रिक्शा मिलेगा या नही.....मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में कफर्यू लग गया था बाॅकी जगहों पर धारा 144 लगी थी.... अप्पी पर घबराहट तारी थी। पिछले समय से कैसा तो माहौल बना हुआ है देश का.... इससे पहले तो कभी ये मंन्दिर मस्जिद का मुद्धा आम आदमी की जिन्दगी में नही घुसा था....अब देखो तो कैसे एक जमीन के टुकडे़ को लेकर लड़ मर रहे थे अप्पी को बखूवी याद है....वह स्कूल में थी तब मौसी मौसा जी और नीरू दी सावन में अयोध्या गये थे। अयोध्या में भी उनकी एक कोठी थी जिसे मंन्दिर कहा जाता था। बड़ा सा कई कई कोठरियों और कमरों वाला दो मंजिल मकान था वो जहाॅ एक नीचे भव्य मन्दिर था। पुजारी का परिवार दो तीन कोठरियों को छेकें पुश्तों से वहाॅँ रहता था। उस वर्ष वह भी गई थी अयोध्या मम्मी और एक पट्टिदारी की चाची जी के साथ मौसा जी ने एक आटो करके उन लोंगों को अयोध्या घूमने की व्यवस्था कर दी थी..... रामजन्म भूमि का ताला तभी खुला था....बडे़ चर्चे थे इस जगह के! श्रद्धालु बड़ी संख्या में रामजन्म भूमि के दर्शनो का आते थें.... बाॅकी मंन्दिरो की चमक उस समय फीकी पड़ गयी थी। अब भला मम्मी और चाची जी क्यों चूकती बेहद-पतली- सकरी गलियों से होकर जाना पड़ता था। राम जन्म भूमि कहीं जाने वाली उस जगह पर। कई किलोमीटर पहले से लाइन लगी थी...... औरतें, बूढे़,जवान, बच्चे सभी उस अलौलिक स्थान के...... दर्शन की आस लिए लाइन में खडे़ थे......बीच-बीच में ‘‘जय श्री राम‘‘ का जयघोष.....अजब सी उम्मीद श्रद्धा! अप्पी को आज भी याद है....वह रामजन्म भूमि जो काई लगे पुराने मस्जिद के भीतर थी! जिसे देख कई अलौकिकता..... किसी श्रद्धा का भाव नहीं जगता था! एक निराशा की प्रतिति जरूर होेती थी ! इतनी तंग सी जगह में..... जहाँ चारों तरफ मकान बने थें...... एक बेहद पुराने सा मुहल्ला और बीच में एक मस्जिद जहाँ शायद कभी नमाज नही पढ़ी गई ! जो सिर्फ इतिहास की एक बददिमागी का प्रतीक है..... एक गुरूर का प्रदर्शन ! वो बददिमागी आज भी बदस्तूर जारी है ! गरीबी, बेरोजगाी, सामाजिक असमानता, महिलाओं बच्चों का शोषण संबंधी मुदें मामूली हो गये...... इस एक मुदें मंन्दिर वही बनायेंगे‘ के सामने। अप्पी भी उन तमाम आम से लोगों में से है...... जिन्हें इन चीजों से कोई सरोकार नही......पर न चाहते हुए भी ये चीजें उन्हें कभी न कभी अपने दायरें मे ले जाती हैं ! जाने वो कैान से लोग थे जिन्हे मस्जिद तोड़कर परलोक जाने का रास्ता नजर आया ! शायद भीड़ और वो भी जनून भीड़ का कोई तर्कशास्त्र नही होता। उसे सिर्फ एक जोशिला आहवान.... चाहिए। जैसे अप्पी को टी.वी. के सामने बैठकर पूरे-पूरे दिन क्रिकेट मैच देखना बड़ा फिजूल लगता.... मम्मी पापा भाई..... सभी देखते ! टी.वी के सामने बैठकर ही खाना खाना चाय सब होता..... और अगर किसी कारण कोई शाॅट मिस होता तो आते ही पहला सवाल होता क्यों हुआ था..... कौन गया? अप्पी को मैदान में बैठकर मैच देखते लोग और फिजूल लगते..... धूप में गर्मी मेंः सर्दी में बैठे हैं...... पर वर्षा बाद...... उसे याद है, भारत पाकिस्तान का मैच था..... शहर में मुख्य चैराहे पर एक बड़ा सा पर्दा लगा कर मैच दिखाने का बंदोबस्त था..... आता जाता व्यक्ति रूक जाता था.....
अच्छी खासी भीड़ जुट गई थी बाइक स्कूटर,साईकिल रिक्शा और कार वाले सभी रूके हुए थे हर शाॅट पर सामूहिक शोर होता, तालियाॅ बजती और खराब शाॅट पर सामूहिक निराशा का आर्तनाद होता! अप्पी किसी काम से निकली थी उधर...... उसने भी रिक्शा रूकवा लिया था। दस मिनट ही रूकी थी पर उस दस मिनट में ही उसने महसूस किया था कि वी अपनी आइडंेटिटी खोकर सिर्फ भीड़ बन गई थी ! हाथ स्वतः ताली बजा रहे थे। भीड़ का अपना एक मनोविज्ञान होता है..... ये उसने उस दिन जाना था। जैसे हाउसफुल हाॅल में खराब फिल्म भी देखना एक्साइटेड..... करता हैं..... और बहुत अच्छी फिल्म एकदम खाली हाॅल में देखना बहुत बुरा अनुभव होता है। अभी कुछ समय पहले वह अपनी फेड्रंस के साथ गई थी प्रहार ‘ देखने...... एक दम खाली हाॅल...... इक्का दुक्का लोग...... इतनी अच्छी फिल्म पर हाॅल में बैठकर देखने जैसा मजा नही आया था।
वह सकुशल घर पहुँच गई थी। दीदी और जीजाजी बरामदे में ही खडे़ थे उन्हंे देखकर उसे रोना आ गया था..... डर को उसने उस दिन बेहद करीब से महसूसा था..... जीवन में पहला डर ! इससे पहले तो वह सिर्फ अंधेरो से डरती थी। घर में एक कमरे से दूसरे कमरें में जाने के लिए भी वह किसी का साथ चाहती थी...... रात में टाॅयलेट जाने के लिए भी मम्मी को जागती थी ! पर पिछले कुछ वर्षो मे उसने अपने इन हास्यास्पद डरों से छुटकारा पा लिया था तब से जब से शायद प्रेम रूपी कवच ने उसकी अंतरात्मा को मजबूती दी थी...... या शायद वह जो उजास जा रोशनी अपने भीतर महसूस करती थी उसने उसके इन तुच्छ डरों को बुहार दिया था।
पर..... आज अरसे बाद एक जीर्ण-शीर्ण इमारत के ढहाये जाने जैसी मामूली सी बात ने उसके भीतर तक डरा दिया था......
.....एक ऐसा डर जिसका कोई चेहरा नही..... एक अस्पष्ट धुंधलका..... पर फिर भी बहुत बड़ा एक इमारत जो उसकी आस्था- अनासा को कही भी प्रभावित नही करती...... हाॅ उसे गिराया जाना जरूर इसे गलत लगता था है..... किसी भी आम हन्दुस्तानी..... जो अपने रोज के नीचे जुगाड़ की जद्दोजहद में अपनें सुबहों शाम वर्क करता है। उसकी हैरान परेशान जिन्दगीं में किसी बाबरी मस्जिद या रामजन्म भूमि का क्या महत्व है..... वहाॅँ नमाज पढी जाये या भजन गाये जाये...... ! आज ये जगह सबसे बड़ी आस्था का प्रतीक बन गया..... क्या सालों इसके बिना भी लोगों का काम नही चल पा रहा था..... लोग पूजा-पाठ नही कर रहे थे कि राम को नही मान रहे थें कि राम को नही मान रहे थें आज खिलाफ बोलने वाला सोचने वाला सबसे बड़ा अधार्मिक। कमाल है, एमारत के प्रति सोच लोगों की आस्था-अनास्था तय करने लगी।
‘‘सुविज्ञ भैया बडे़ परेशान हो रहे थे.....कई बार फोन कर चुके..... किसी पुलिस अफसर दोस्त को लेकर निकलने वाले थे तुम्हें ढूढने.....।‘‘
‘हँ..... उन्हे फोन करके बता तो दो ‘‘जीजाजी बोले,‘‘ कहीं निकल न गये हों.....’’
’’करती हूँ......!’’ कहकर नीरु फोन लगाने लगी...... ’’अप्पी बात करो..... भइया....’’ नीरु नें अप्पी को पुकारा..... अप्पी नें फोन ले लिया..... उधर से सुविज्ञ की चिंतातुर आवाज सुनकर.... उनकी आँख आप से आप बहने लगीं.....।
’’अप्पी...... तुम ठीक हो न...... ओ गाॅड..... तुम बोल क्यों नहीं रही..... रो रही हो? क्यों..... क्या हुआ.....?’’
’’नीरु नें फोन ले लिया उसके हाथ से...... भईया कुछ नहीं..... बस वो थोडी घबराई हुई है......।
अप्पी नें टीवी पर नजरें गडा रखी थीं! जीजाजी भी बडे ध्यान से न्यूज देख रहे थे! नेशनल पर तो खास कुछ नहीं बताया रहा था पर विदेशी चैनलों पर साफ दिखाया जा रहा था मस्जिद का गुम्बद कुछ उन्मादी लोगों द्वारा गिराते हुए....।
’’बहुत.... अच्छा काम हुआ..... शाबाश! जीजा जी बोल उठे थे.....। अप्पी ने आश्चर्य से उन्हे देखा था..... यकायक उसे ख्याल आया - ऐसे ही बहुत से घरों में टी.वी., रेडियो पर खबरें सुनते हुए..... बहुत सेे लोग ऐसा ही बोल सोच रहे होंगे...... वो सब लोग जो प्रत्यक्षतः इन बातों से कोई सरोकार लेते नहीं दिखते..... पीठ कर बैठे होते हैं इन बातेंा से पर, मौका मिलते ही मन की बात जुँबा पर ला लेते हैं। अपने आस-पास अपनें लोगों के मुहं से भी उसे ऐसी बातें सुननी होगी...... अप्पी शाॅक्ड थी... क्या उसके पापा. भाई सुविज्ञ सभी ऐसा सोचते होंगे......क्योंकि वह उस धर्म को मानते हैं जिसके कुछ..... जोशिले नौजवानों ने किसी विशेष राजनीति भावना के तहत ये काम कर डाला.....बगैर दूर तक सोचे..... बिना ये सोचें कि अगर बाबरी मस्जिद किसी मुसलमान शासक की मूर्खता का नतीजा है..... और मुसलमान बाहरी थे तो फिर बाहरी तो इस धरती पर आर्य भी थे..... जिसकी संतति पंजाब से लेकर बिहार और दक्षिंण में मध्यप्रदेश तक मानी जाती है! इतिहास तो इतिहास है..... वो चाहे 400 साल पुराना हो या 4000...... उसके परिप्रेक्ष्य में न तो आज को परिभाषित किया जा सकता है...... न ही उसे न्याय का आधार बनाया जा सकता है! इतिहास की गलतियाँ कुछ मिटाने, बनाने से नहीं सुधरतीं..... सिर्फ न दोहराने से सुधरती हैं! पर, सीखते कहाँ है? सन् 47 के दंगों से कुछ सीखा होता तो क्या इंदिरा गाँधी की मौत पर दंगे होते? सन् 47 में मुस्लिम दुश्मन थे, 85 में सिख दुश्मन हो गये..... आगे और जाने कितने डर सामने खड़े हैं।
उस रात सुविज्ञ को देर तक नींद नहीं आई थी.... अप्पी की डरी हुई रुँधी आवाज कानों में गूँज नही थी! काश! वो होती यहाँ उसके पास.... वह उसे अपने बाहों के घेरे में छुपा लेते..... पर यहाँ उनकी बाँह पर सिर धरे सुकून से सोती हुई सुरेखा है..... उनका हाँथ सुरेखा के सिर पर फिरने लगा..... उन्होने सुरेखा के बगल में सोई बच्ची को देखा.... गहरी साँस ली.... और आँखें बन्द कर ली.....! हाँ उनकी दुनिया सुरक्षित है..... उनके पास है......पर फिर भी मन में एक सोच अटकी है।
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