Mann ki khushi in Hindi Short Stories by Vandna Sharma books and stories PDF | मन की ख़ुशी

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मन की ख़ुशी

ख़ुशी की तलाश में हम दूर तक गए इधर न मिली ,उधर ना मिली
यहाँ ना मिली ,वहां ना मिली
मिली तो मेरे मन में मिली
बैठी थी एक कोने में
लगी थी रोने -धोने में
मैंने पूछा -ये क्या बात हुई ?
नाम तो ख़ुशी ,और खोयी हो झमेलों में
उसने कहा -
तुम्हारी उदासी मुझे
नहीं आने देती बाहर
तुम मुस्कराऊं तो मैं आती हूँ बाहर
जिसे तुमने ढूंढा जग में
मिलेगी तुम्हे अपनी हसी में
मेरे हँसते ही फ़ैल गयी ख़ुशी चहुँ ओर
और बिखेर दिए इंद्रधनुषी रंग ज़िंदगी में
अब मुझे हर पत्ता हँसता लगता है
कबूतर का फुदकना ,चिड़िआ का चहकना
पेड़ो का हिलना ,सबमें संगीत बजता है
बादलो से बनती बिगड़ती आकृति
कितनी सूंदर है ये प्रकृति
बारिश की बूंदो में जीवन समाया लगता है
ख़ुशी ही ख़ुशी ,मन की ख़ुशी
मुझमें ही मिली

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बिजनौर टू गोवा
२२ अप्रैल २०१० को पोन सात बजे दिल्ली की बस मिली। मुझे प्रकृति से बेहद लगाव है ,बहुत सुना था गोवा की ख़बसूरती के बारे में ,अब अवसर मिला है महसूस करने का। इस बार मैंने कोई सपना नहीं देखा था ,कोई आस नहीं लगायी थी इस टूर से। अक्सर मेरे साथ ऐसा होता है जो सोचती हु वो नहीं होता इसलिए बस खुद को छोड़ दिया भगवन के भरोसे ,जो होगा देखा जायेगा। पहली बार इतना लम्बा सफर वो भी अकेले जाने क्या होगा बस यही सोच मैं खिड़की से बाहर देखने में व्यस्त थी। कुछ सीखना था ज़िंदगी से ,कुछ समझना था ज़िंदगी को। लगभग साढ़े ग्यारह बजे दिल्ली पहुंचे वहां स्टेशन पर मेरा भाई विकास इंतज़ार कर रहा था। विकास को देखते ही सब टेंसन ख़त्म हो गयी और अब मैंने खुद को फ्री कर लिया था यात्रा का आनंद लेने के लिए। मेरे पास एक छोटा बैग था उसे भी भाई को पकड़ा मैं छोटी बच्ची बन गयी जो भाई का हाथ पकड़ सिर्फ अपनी दुनिया में खोयी थी। तीन बजकर पांच मिनट पर हमारी ट्रैन रवाना हुई गोवा के लिए।
रेल कोच में कोन है क्या कर रहा है मुझे कोई मतलब नहीं मैं तो बस अपनी दुनिया में मस्त। कहीं ऊँची बिल्डिंग ,कहीं नयी तकनीक से सुसज्जित मॉल ,कहीं हरियाली ,सरसो के खेत ,गंदे के खेत ,झील में बहता पानी ,सड़को पर दौड़ती ज़िंदगी सब दृश्य गति के साथ आँखों के सामने से गुजर रहे थे। कहीं कुछ बदनसीब सड़क के किनारे चिलचिलाती धूप में नंगे पाँव ,इस दुनिया से बेखबर सो रहे थे ,कुछ बच्चे जिन्हे शायद ये भी नहीं पता बचपन क्या होता है कूड़ा बीन रहे थे। ज़िंदगी का एक रंग ये भी था। किसी के पास इतनी धन दौलत कि उसे चिंता के मारे नींद न आये ,किसी के पास इतनी रोटी उसे पचने के लिए हाजमे की गोली लेता है। किसी को एक वक़्त की रोटी भी न नसीब , वाह रे उपरवाले क्या खूब है तेरी दुनिया।
हमारे साथ एक फॅमिली जो शिरडी जा रही थी उन्हें कॉपर गांव उतरना था और एक तमिल फैमिली भी थी जिसमे सिर्फ एक लड़की को ही हिंदी आती थी। वो ही हमारी बाते समझ रही थी और उनका उत्तर दे रही थी। कमर दर्द होने लगा था बैठे हुए। बाहर देखते हुए कब सोयी याद नहीं। अगली सुबह एक और सहयात्री अदिति हमसे जुड़ चुकी थी। मेरी हम उम्र थी और बातूनी भी। फिर तो हम दोनों की खूब जमी। भोपाल से भी कुछ साहित्यकार चढ़े ,हम सभी एक ही सम्मलेन में जा रहे थे संयोग से। अब सफर में आनंद आ रहा था। एक कवी अशोक कुमार अनुज बाते भी तुकबंदी में कर रहे थे। विकास की उनसे खूब जमी वो भी तुकबंदी में शामिल हो गया। एक कवि अंकल राजेंद्र जोशी ने अपना काव्य पाठ सुनाया शुभकामनायें दी।
"अदिति तुम मेरी दुनिया में चलोगी ,बहुत सूंदर है मेरी दुनिया। मेरी सपनीली दुनिया इस खिड़की से बाहर शुरू होती है। वहां सिर्फ प्यार ही प्यार है। बस प्यार। न कोई दिखावा न कोई चालाकी। बस कुछ समय के लिए तुम भूल जाओ तुम क्या हो ?" "मंजूर है ". तो आओ मेरे साथ देखो यह अनंत आकाश हमे बुला रहा है। ये पौधे ,फूल दूर जहाँ तक तुम्हारी नज़र जाती है। देखो दूर वहां आसमान धरती से मिल रहा है। सबकुछ शुन्य सफ़ेद। धरती आकाश का भेद ख़त्म। एक नीली सी चादर दिखाई दे रही है। ये ऊँचे ऊँचे पहाड़ पेड़ो से ढके हुए यहाँ की हवाओ मधुर संगीत है। ये पंछी कितनी उन्मुक्तता से उड़ रहे है। ये पेड़ -पत्ते ,फूल ये वादियां ,हमे बुला रही हैं। आओ देखो ज़िंदगी कितनी खूबसूरत है। पहाड़ से फूटता झरना ,ऊँची ऊँची चट्टानें ,दूर तक फैले हरे मैदान ,दूर उस चोटी पर खड़े होकर ,बाहें फैलाये इन बहारों का स्वागत करो। "ए जिंदगी गले लगा ले-------"यहाँ हम सब कुछ कर सकते हैं। ये असीमित आकाश मेरा है। ये पेड़ पौधे ,ये खूबसूरत नज़ारे मेरे हैं। है न मेरी दुनिया खूबसूरत। मेरी दुनिया में प्यार ही प्यार है। मासूमियत है ,सादगी है ,यहाँ हमे रोकने टोकने वाला कोई नहीं है। देखो ये समुद्र कितना विशाल ,इसकी गहराई से डर भी लगता है लेकिन इसका लहराना ,उछलना ,सबको अपनाना अच्छा लगता है। "पर तभी उसकी मम्मी ने आकर हमारे सपनों की दुनिया में ब्रेक लगा दिया। " तुम दोनों उधर मेरी सीट पर जाओ। सामान का ध्यान रखना मैं अभी आती हूँ औरो से मिलकर। " हम दोनों आज्ञाकारी बच्चों की तरह वहां से चल दिए। बड़ा अजीब लग रहा था फिर से इस दुनिया के शोर-शराबे में आकर। "थोड़ी देर किताब पढ़ी इधर उधर देखा। सब अपने में मस्त। " अदिति चलो यहाँ से मन नहीं लग रहा। यहाँ दृष्टि का परावर्तन हो रहा है। यहाँ का क्षेत्र सीमित है। ये दीवारे हमारी सोच हमारे सपनो को उड़ने से रोक रही हैं। चलो अपनी सीट पर चलते हैं। "पर यहाँ से भी हम बाहर का मौसम देख सकते हैं। " " देख सकते हैं पर जितना गैप उस खिड़की और हमारे बीच है उसमे ये स्वार्थी दुनिया ,झूठ ,चालाकी ,दिखावे की बातें एक पर्दा बन गयी हैं ,जहाँ से हमारी दुनिया दिखाई तो दे रही है पर धुंधली सी तस्वीर। अगर हम ज़्यादा देर यहाँ रुके तो हम भी इनकी बातों में शामिल हो जायेंगे। यहाँ तो ऐसा लग रहा है जैसे हमारी उड़ान सीमित कर दी गयी हो ,बस इन दीवारों से बाहर कुछ नहीं सोचना। मैं अपनी उसी अनंत विस्तार वाली सपनीली दुनिया में जाना चाहती हूँ। " विकास को भेज देते हैं यहाँ। और हम दोनों अपनी सीट पर आकर गाते है -मंजिल से बढ़िया लगने लगे हैं ये रस्ते -----".
अंताक्षरी खेलते खेलते अँधेरा होने लगता है। सब खाना खाकर सो जाते है। सुबह आँख खुलती है वास्को स्टेशन गोवा। वास्को रेजीडेन्सी में ठहरने की व्यवस्था थी। मेरा कमरा ४०१ था। मेरी रूम पार्टनर थी हिंदी -उर्दू की गजल साहित्यकार 'इंद्रा शबनम इंदु '. साढ़े ११ बजे हमे लंच के लिए अनन्ताश्रम होटल में एकत्र होना था। अपना सामान रखकर ,नहाकर जब मैं वापिस आयी तो सोचा इंदु जी से बात करते हैं। जैसे ही मैंने उनसे बात करना शुरू किया -" डोंट टॉक मी। मुझे अकेला रहना पसंद हैं ,तुम्हे जो करना है करो ". . अजीब महिला है सोचते हुए मैं रूम से बाहर आ गयी। जब उन्हें पता चला मैं भी उसी प्रोग्राम में काव्यपाठ के लिए आयी हूँ जिसमे वो आयी हैं तो बड़ी विनर्मता से बोली -देखो मेरी बात का बुरा मत मांनना कभी कभी परेशान हो जाती हूँ। "कोई बात नहीं ,मैं किसी की बात का बुरा नहीं मानती मैं तो हमेशा खुश रहती हूँ। "लंच के बाद डेढ़ बजे सब सेमीनार हाल में एकत्र हुए। सबका एक दूजे से परिचय कराया गया। मुझे ाष्टक्षेत्रीए गौरव 'साहित्य भूषण 'से सम्मानित किया गया। पुरे भारत से वहां कविगण आये हुए थे। पांच बजे प्रोग्राम समाप्त हुआ। फिर अपने भाई विकास और अदिति साथ हमने गोवा की सड़को की सैर की। वहां का मार्किट देखा। पानी -पूरी (गुल-गप्पे )खाये। ८ बजे सम्मलेन था. इतने बड़े हाल में बड़े बड़े साहित्यकारों के सामने काव्यपाठ करके बहुत ख़ुशी हुई। रात १२. बजे तक समाप्त हुआ कविसम्मेलन। अगले दिन प्रातः ९ बजे गोवा भृमण के लिए निकले। सबसे पहले हम पहुंचे मिनी गोवा देखने। वहां पचास rs टिकिट था। हमने सोचा फ्री में दिखाते तो देख लेते चलो कहीं और घूमते हैं। हम तीनो समूह से अलग हो गए। बराबर में एक पहाड़ी सी थी ,दोनों तरफ घने जंगल थे। बीच में ज़रा सा रास्ता गया था ,एक आदमी को उधर जाते हुए देखा। तो सोचा हम चलते है देखें इधर क्या है? तीनो कूदते -फांदते जहाँ पहुंचे वो उसी मिनी गोवा का ऊपरी भाग था। हम तीनो की हंसी नहीं रुक रही थी क्युकी फ्री में हम उसी जगह पहुँच गए थे। बड़ा मज़ा आ रहा था। किसी आदिवासी समुदाय का नृत्य चल रहा था। सजीव झांकियां सजी हुई थी। एक बार तो मैं भी डर गयी की पीछे कोण है लेकिन सिर्फ एक मूर्ति थी। पुराने ज़माने की एक डोली थी उसमे बैठकर अदिति और मैंने फोटो खिंचवाए। हम उसी रस्ते से बाहर जाने लगे जहाँ से आये थे लेकिन अब वहां गार्ड खड़ा था टोका वहीं से जाओ जहाँ से आये थे। हम तीनो हंस पड़े और मेनगेट से बाहर आ गए। फिर हम लोग चर्च देखने गए। .उस चर्च के सामने एक चर्च और था उसका बगीचा बहुत सूंदर। था इस बार इंदुजी भी हमारे साथ वहीं मस्ती करने लगी और हम चारो अपने समूह से गए। बहुत देर हो गयी बस दिखाई न दी तो ड्राइवर को फोन किया पता चला सब लोग तो जा चुके थे। हम चौंक गए। हम वहां खड़े बेबुकफी पर हंस रहे थे। हमे सख्त हिदायत दी गयी समूह साथ रहें। उसके बाद हमारी बस पहुंची लवर्स पॉइंट। वहां अक्सर फिल्मो शूटिंग होती रहती है। अदिति का मन वहां लगा उसे बीच देखने जल्दी थी। ठीक पांच बजे हम क्रूज़ पहुंचे। ऊपर का वातावरण एकदम अलग था। समुद्र में दूर से शिप खिलोने लग रहे थे। ठंडी ठंडी रही थी। पहली बार इतनी नजदीक से समुद्र को देखा और महसूस किया था। मैं देखती रह गयी। क्रूज़ पर डांस का भी प्रोग्राम था। सभी आनंद ले रहे थे। मैं एक कोने में खड़े प्रकति आनंद ले रही थी। डूबते सूरज को देखना ,किनारो पर बसे शेहरो होटल को देखना ,सब कुछ इतना प्यारा लग रहा था। आकाश और सागर मिलन देखा। सागर किनारे की खूबसूरती को देखा। सात बजे हम वापिस होटल पहुंचे। हम तीनो ने आधी रात तक बाते की और बाते करते हुए कब सो गए याद नहीं। अगली सुबह हम अपने घर बिजनौर। तो खत्म हुआ बिजनौर से गोवा ,और फिर बिजनौर तक का सुनहरा सफर।