Aadhi najm ka pura geet - 11 in Hindi Fiction Stories by Ranju Bhatia books and stories PDF | आधी नज्म का पूरा गीत - 11

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आधी नज्म का पूरा गीत - 11

आधी नज्म का पूरा गीत

रंजू भाटिया

Episode 11

औरत जिस्म से बहुत आगे हैं

अमृता और साहिर में जो एक तार था वह बरसों तक जुडा रहा, लेकिन क्या बात रही दोनों को एक साथ रहना नसीब नहीं हो सका ?यह सवाल अक्सर मन को कुदेरता है..जवाब मिला यदि अमृता को साहिर मिल गए होते तो आज अमृता अमृता न होती और साहिर साहिर न होते...कुदरत के राज हमें पता हमें पता नहीं होते, किस बात के पीछे क्या भेद छुपा है यह भेद हमें मालूम नहीं होता इस लिए ज़िन्दगी की बहुत सी घटनाओं को हम जीवन भर स्वीकार नहीं कर पाते.

बहुत बार प्रेम की अतृप्ति जीवन को वह दिशा दे देती है जो तृप्ति नहीं दे पाती. यह भी जीवन का सत्य है कि जहाँ थोड़ी सी तृप्ति या सकून मिलता है वह वही रुक जाता है. यह सिर्फ प्यास है जो आगे की यात्रा के लिए उकसाती है. अमृता को साहिर मिल गए होते तो बहुत संभव था दोनों की यात्रा रुक जाती | यह वह अतृप्ति ही थी जो साहिर के गीतों में ढलती रही और अमृता के लफ़्ज़ों में उतरती रही.

वैसे देखा जाए तो अमृता ने साहिर को नहीं खोया बल्कि साहिर ने अमृता को खोया. साहिर को न पा कर भी अमृता ने जो हासिल किया वह साहिर नहीं हासिल कर सके. वह थी रूहानियत, अमृता के प्रेम रूहानियत में तब्दील हो गया उस में एक सूफियाना, खुशबु और फकीराना रंगत आ गयी लेकिन इमरोज़ बहुत किस्मत वाले निकले उन्हें अमृता वही रूहानियत वाला प्रेम मिला और इमरोज़ का प्रेम तो पहले ही रूह से जुडा हुआ था इस नाते अमृता भी बहुत तकदीर वाली रहीं इमरोज़ का साथ मिलने से उनका प्रेम परिपक्व हो कर मेच्योर हो कर रूहानियत की रोशनी में ढलता चला गया इश्क मजाजी एक छोर है और इश्क हकीकी दूसरा छोर जो अनंत की ओर ले जाता है

साहिर को न पाकर अमृता रुकी नहीं बल्कि उनके कदम रूहानी इश्क की ओर चल पड़े. अमृता की जीवन यात्रा में साहिर की भूमिका एक इशारे जैसी रही और इशारे ठहरने के लिए नहीं होते वह तो उस दिशा में ले जाने के लिए होते हैं जिस तरफ वह इशारा कर रहे होते हैं. सच तो यह है कि प्रेम हर किसी की ज़िन्दगी में एक इशारा होता है क्यों कि उस में अनंत की झलक होती है इश्क मजाजी एक झरोखा होता है जिसमें इश्क हकीकी का ब्रह्मांड देखा जा सकता है, लेकिन अधिकतर लोग उस झरोखे को बंद कर देते हैं और यात्रा वहीँ रुक जाती है, हमें साहिर का शुक्रगुजार होना चाहिए जो अमृता को राह का इशारा दे गए...साहिर और अमृता के बीच में महजब की खाई नहीं कुछ और था. वह कुछ और था साहिर में जीवन के प्रति वह स्वीकारता, जो उन में नहीं थी जो इमरोज़ के प्रेम में है. उनका इश्क बस गीतों में था.इस लिए वह अमृता को नहीं मिल सके..…

तू ज़िन्दगी जैसी भी हैवैसी मुझे मंजूर है जो खुदी से दूर हैवह खुदा से दूर हैछोड़ कर तुझे मैं जाउंगा किस जहाँ में हर तरफ तू ही तू और तेरा ही नूर है..यह स्वीकारता सिर्फ योगियों और फकीरों में होती है, वह इमरोज़ में है. तभी वह साहिर का नाम अपनी पीठ पर लिखवा पाए और उन्हें कभी उस से कोई जलन नहीं हुई. एक दिन की बात बताई इमरोज़ ने वह अपने स्टूडियो में साहिर की एक एक किताब का टाइटल बना रहे थे. किताब का नाम था. "आओ कोई ख्वाब बुने, इमरोज़ ने कहा, साला, ख्वाब बुनता है, बनता नहीं, जाहिर है यह बात इमरोज़ ने साहिर की शायरी के मद्दे नजर से कही कि ऐसी नज्म लिखने वाला खुद क्यों नहीं जी पाया ! इमरोज़ की यह बात जब साहिर को पता चली तो साहिर ने जवाब दिया. हाँ इमरोज़ सही कहता है, मैं कबीर की ओलाद से हूँ न, बुनता ही रहा.एक बार किसी ने इमरोज़ से पूछा.. मान लो अमृता साहिर के घर चली गयी होती, तब ? इमरोज़ ने कहा --फिर क्या फर्क पड़ना मैं साहिर के घर जाता और नमाज पढ़ती अमृता से कहता...चलो उठो ! घर चलें !यह सहज सी बात शायद दुनिया में कोई नहीं सह सकता, न ही कर सकता है...…

सही है जो सहज होता है वह ही सबसे कठिन होता है. असल में साहिर एक पाक मस्जिद थे लेकिन वहां कभी नमाज अदा नहीं हुई. और इमरोज़ का घर वह बना जहाँ अमृता इबादत भी कर सकीं और रह भी सकीं. और यह दोनों हकीकते हमारे पास ही हैं.

सन १९५८ -५९ के आस पास अमृता और इमरोज़ की मुलकात हुई, एक किताब के सिलसिले में जब उन्हें उसका मुखपृष्ट बनवाना था, तब उन्हें किसी ने इन्द्रजीत चित्रकार के बारे में बताया था, तब इमरोज़ का नाम इन्द्रजीत ही था, आगे चल कर यह मुलाक़ात.दोस्ती में तब्दील हो गयी, दोस्ती दिल के रिश्तों में बदल गयी और यह रिश्ता फिर उम्र भर में..उन दिनों अमृता ने इमरोज़ के लिए काफी कवितायें लिखी..

अरे ! किस्मत को कोई आवाज़ दो करीब से गुजरती जा रही है.

यह गीत उन्होंने रेडियो के लिए "दिवाली फीचर" में लिखा था, और लिखते समय सिर्फ इमरोज़ आँखों के सामने थे, तब यह उम्मीद नहीं थी कि वह उन्हें मिल जायेंगे, और उनके साथ उनके साथ उनके लिए खुदा के साथ रहने के बराबर था. इमरोज़ की एक कलाकृति पर सफेद काले अंगूठे का एक चित्र है और उस अंगूठे की रेखाओं के नीचे अमृता का चित्र है..ऐसा लगता है देखने में जैसे अमृता जी के चित्र पर इमरोज़ ने अंगूठा लगा दिया है.और उस पर यह पंक्तियाँ लिखी हुई है..

रब बख्शे, न बख्शे उस दी रजा असी यार नूं सजदा कर बैठे..(रब माफ़ करे या न करे उसकी मर्ज़ी हम तो यार को सजदा कर बैठे )यह कृति अपने आप में पूरी कहानी समेटे है, जब इमरोज़ अमृता की ज़िन्दगी में आये तो अमृता ने बहुत एहसास के साथ लिखा उम्रा दे कागज़ उत्ते इश्क तेरे अंगूठा लाया कौन हिसाब चुकाएगा....पंजाबी में एक लोक गीत है...सद्द पटवारी नूं ज़िन्द माहिए दे नां लावा....(पटवारी को बुला लो.मैं अपनी जान तेरे नाम कर दूँ )पुराने समय में पंजाब और सारे भारत में यही चलन था इसी के चलते सारी खरीद फरोख्त होती थी, पटवारी की मौजदूगी में दोनों पक्षों के अंगूठे लगते थे...अमृता ने इमरोज़ के लिए लिखा उम्र के इस कागज पर तेरे इश्क ने अंगूठा लगा दिया, अब कौन हिसाब चुकाएगा. और इन्ही पक्तियों को इमरोज़ ने अपनी तुलिका से कैनवास पर उतार दिया.लेकिन जब अमृता जी के उम्र के कागज़ पर इमरोज़ के इश्क ने अंगूठा लगाया तो वहां कोई पटवारी मौजूद नहीं था.न कोई धार्मिक रस्म.न कोई क़ानूनी विधान. न कोई समाज की रस्म..सिर्फ गैर जिम्मे दार आदमी को मजहब, कानून की जरुरत होती है, जिम्मेदार आदमी इन दोनों से मुक्त होता है....पहले शादियाँ आदमी तय करते थे, अब अखबार तय करते हैं, तब आदमी से आदमी अधिक जुडा था, आज इंसान अखबार से जुडा है...आज आपसी रिश्तों में कमी आ गयी है , एक दूसरे से कोई सरोकार नहीं रहा, अखबार से सरोकार अधिक हो गया है..ऐसी बात कहने वाले इमरोज़ समाज से गहरा सरोकार रखते हैं यही महसूस होता है....औरत जिस्म से भी बहुत आगे है और ऐसे लोगों को पूरी औरत नहीं मिलतीपूरी औरत उसी को मिलती है जिसे वो चाहती हैतुम्हारे ग़म की डली उठा करजुबान पर रख ली है देखो मैंने वह कतरा- कतरा पिघल रही हैमैं कतरा कतरा ही जी रहा हूँगुलजार की लिखी यह पंक्तियाँ इमरोज़ अमृता के रिश्ते को और भी पुख्ता कर देती है | इमरोज़ का कहना है इतनी बड़ी दुनिया में मेरा सिर्फ इतना योगदान है कि मैंने अपने जीवन में एक शख्स चुन लिया है जिसे मुझे खुश रखना है --अमृता को | बस अमृता को खुश रखने की कोशिश मेरी ज़िन्दगी का मकसद है | मुझमें इतनी क्षमता नहीं है कि मैं पूरी दुनिया को खुश रख सकूँ.लेकिन कम से कम एक शख्स को खुश रखने की क्षमता मुझमें जरुर है "और यह क्षमता हर इंसान में है कि वह अपनी ज़िन्दगी में कम से कम एक इंसान को खुश रख सके आप पूरी दुनिया की फ़िक्र मत करिए |अपनी ज़िन्दगी में सिर्फ किसी एक शख्श को चुन ले -अपनी माँ को चुन ले, अपने पिता को चुन ले.अपने भाई या दोस्त को चुन ले या हो सके तो अपनी बीबी को ही चुन ले..जिसे आपको खुश रखना है यही अपनी ज़िन्दगी का मकसद बना लें..फिर न किसी मजहब की जरुरत है, न कानून की, न राजनीति की, आखिर यह तीनों आपको खुश करने के वादे ही तो करते हैं, फिर भी इंसान खुश क्यों नहीं है ?उन्ही के लफ़्ज़ों में.....कानूनकिसी अजनबी मर्द औरत कोरिश्ता बनाने कासिर्फ मौका देता हैरिश्ता नहीं......रिश्ता बने या न बनेइसकी न कानूनफ़िक्र करता हैऔर न जिम्मा लेता है.....सच में इस को अपनाने में अड़चन क्या है....? अड़चन है इंसान का अहंकार, अपना स्वार्थ..बहुत कम लोग इस तरह के मिलेंगे जो दूसरो की ख़ुशी में खुश होते हैं, अधिकतर लोग तो सिर्फ अपनी ख़ुशी के लिए बेचैन लगेंगे, सिर्फ अपने सुख के लिए, चाहे इसके लिए दूसरों को दुःख देना पड़े ॥इमरोज़ का हर कर्म अपने में अनोखा है चाहे वह अमृता से प्यार करना हो चाहे पेंटिंग करना.चाहे भोजन बनाना..वह हर जगह कुछ नया करना चाहते हैं |उनकी बनायी कला कृतियाँ हर बार अलग हैं, उनकी नक़ल नहीं बनायी जा सकती.अब तक वह न जाने कितनी कृतियाँ बना चुके हैं पर सब एक दूसरे से अलग कहीं कोई नक़ल नहीं |उनके बनाए चित्र एक अलग से बिखरे हुए अक्षरों का एहसास करवातें हैं और बिखरे हुए अक्षरों का एहसास करवातें हैं और उनकी तूलिका से लिखे अक्षर नृत्य करते दिखते हैं ----अक्षरों के पैर धरती पर थिरकते हुए और हाथ आकाश में लहराते गीत गाते से....इन सबमें ख़ास बात या है कि वह हर समय वर्तमान में रहते हैं..और जो कशिश वर्तमान में रह कर जीने में है वहजल्दी कहीं देखने को नहीं मिलती फिर चाहे वह भोजन हो या ज़िन्दगी.......या अमृता से प्रेम करनाप्यार सबसे सरलइबादत हैबहते पानी जैसी....ना इसको किसी शब्द की जरुरतना किसी जुबान की मोहताजीना किसी वक़्त की पाबंदीऔर ना ही कोई मज़बूरीकिसी को सिर झुकाने कीप्यार से ज़िन्दगी जीते जीतेयह इबादत अपने आपहर वक़्त होती रहती हैऔर --जहाँ पहुँचना हैवहां पहुँचती रहती है....इमरोज़.

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