आफ़िया सिद्दीकी का जिहाद
हरमहिंदर चहल
अनुवाद : सुभाष नीरव
(21)
वर्ष 2008 में जनवरी महीने के एक दिन एस.एच. फारूकी पाकिस्तान में अपने घर बैठा टी.वी. देख रहा था। दोपहर के समय उसके घर की डोर बेल बजी तो उसकी बेगम ने दरवाज़े से बाहर झांका। किसी अज़नबी को बाहर खड़ा देख उसने इस बारे में पति को बताया। फारूकी टी.वी. की आवाज़ कम करते हुए बाहर आया। उसने दरवाज़ा खोला तो सामने टैक्सी ड्राइवर खड़ा था। टैक्सी ड्राइवर ने कहा कि उसकी टैक्सी में एक औरत बैठी है जो आपसे मिलना चाहती है। फारूकी हैरान होता हुआ टैक्सी के पास आया और अंदर देखने लगा।
“अंकल मैं हूँ।“ इस आवाज़ ने फारूकी के रौंगटे खड़े कर दिए। बेशक औरत ने अपने आप को बुर्के में लपेट रखा था, पर यह कैसे हो सकता था कि मामा अपनी भान्जी को न पहचानता। वैसे तो उसको आवाज़ से ही अंदाज़ा लग गया था, पर उसकी आँखों की ओर देखकर उसे पक्का यकीन हो गया कि यह आफिया ही है।
“आफिया बेटी, अंदर घर चल।“ पहचानने के बाद उसने मोह भरे शब्दों में कहा।
“अंकल, इस वक्त मैं घर में नहीं जा सकती। यदि हो सकता है तो आप मेरे साथ चलो। हम बाहर कहीं एकांत में बैठकर बातें करेंगे।“ एस.एच. फारूकी ने पलभर सोचा और फिर आफिया के साथ टैक्सी में बैठ गया। वे किसी रेस्टोरेंट में जा पहुँचे।
“आफिया बेटी, तू पिछले पाँच सालों से कहाँ थी ?“ मौका मिलते ही फारूकी ने बात छेड़ी।
“अंकल, कुछ न पूछो तो बेहतर है।“
“नहीं बेटी, हम सब तेरे लिए बहुत परेशान हैं। तू कुछ तो बता।“
“अंकल...।“ आफिया बात शुरु करते हुए अपने मामा की ओर देख पलभर रुकी और फिर आगे बताने लगी, “अंकल, मैं किसी चैरिटी की मीटिंग में हिस्सा लेने कराची में ही किसी के घर गई थी कि वहाँ पुलिस ने रेड कर दी। उसके साथ अमेरिकी एफ.बी.आई. भी थी। दूसरों के साथ उन्होंने मुझे भी पकड़ लिया। बाद में मुझे आई.एस.आई. के हवाले कर दिया गया।“
“यह वाकया किस दिन घटित हुआ ?“ फारूकी ने ग़ौर से आफिया की तरफ देखा।
“जी यह 29 अपै्रल 2002 की बात है।“
“पर तू तो 3 मार्च वाले दिन अपनी माँ को यह कहकर घर से निकली थी कि तू मेरी तरफ आ रही है।“
“अंकल, वो बात भी सही है।“
“फिर यह महीना भर तू कहाँ रही ? मेरा मतलब तू न मेरे पास आई और न ही तेरा कहीं और पता चला।“
“अंकल वो...।“ आफिया बात करते करते चुप हो गई।
“हाँ बेटे, बता न कि इस बीच क्या हुआ ?“
“अंकल, आप उन दिनों की बात न छेड़ो। मुझे अपनी बात अपने ढंग से कहने दो, प्लीज़। मैं बहुत परेशान हूँ।“
फारूकी कुछ न बोला, पर वह समझ गया कि यह जो तीस मार्च से लेकर 29 अप्रैल तक का वक्फ़ा है, इस बीच ज़रूर कुछ अन्य घटित हुआ है जिसके बारे में आफिया शायद बात नहीं करना चाहती। उसने इशारे से उसको अपनी बात चालू रखने को कहा तो आफिया फिर बोलने लगी, “अब मुझे लगता है कि वे पहले से ही मेरी तलाश कर रहे थे। आई.एस.आई वाले मुझे अपने किसी गुप्त ठिकाने पर ले गए। वहाँ मुझे मेरे बच्चों से अलग कर दिया गया। अगले दिन वे मुझे अफगानिस्तान के बैगराम एअरबेस में ले गए जहाँ अमेरिका का बड़ा अड्डा है।“
“फिर...?“ आफिया बोलते बोलते चुप हुई तो फारूकी बीच में बोला।
“वहाँ मुझे चार साल रखा गया। उन्होंने मुझे बेतहाशा यातनाएँ दीं।“
“कौन थे वे लोग ? मेरा मतलब आई.एस.आई. या अमेरिकी एजेंसियाँ ?“
“दोनों ही।“
“क्या उन्होंने तुझे मारा पीटा भी ?“
“अंकल, मारपीट तो शायद मैं बर्दाश्त कर जाती, पर उनका टार्चर ज्यादा मानसिक था। मुझे कईबार बहुत ही छोटे आकार के डिब्बे में लगातार दो दो दिन खड़े रखा जाता था। वह इतना भीड़ा होता था कि मैं दो दिन बैठ नहीं सकती थी और टांगे अकड़ जाती थीं। कईबार लोहे का ऐसा एक और कमरा होता जो गर्मियों के दिनों में आग की भाँति तपा होता था, मुझे वहाँ बंद कर दिया जाता। जो गर्मी मेरा बुरा हाल करती थी, वह तो करती ही थी, पर इसके अलावा वहाँ बेइंतहा तेज़ रोशनियाँ होती थीं जो आँखों को फोड़ने वाली थीं। इसके अलावा, वहाँ सारा दिन बहुत ही ऊँचा, भद्दा और कान फोड़ू म्युजिक बजता रहता था। कई कई दिन मैं सो ही नहीं सकती थी। मुझे वो वहाँ से निकालते तो करीब के एक तालाब में ले जाते, जहाँ दो दो मिनट पानी में डुबाये रखते। या फिर लकड़ी के फट्टे के साथ बाँधकर मुँह-सिर लपेट देते और ऊपर से पानी डालना शुरु कर देते। साँस बंद हो जाता और साथ ही मुँह पर लगातार पानी पड़ते रहने के कारण डूबने का अहसास होने लगता जो कि जान निकाल देता था। यह कोई एक दिन का काम नहीं था। यह हर रोज़ होता था। और यह लगातार चार साल चलता रहा...।“ आफिया बात बीच में छोड़ते हुए थोड़ा रुकी और आसपास देखते हुए फिर बोली, “अंकल, मेरे ऊपर और बड़े भयानक अत्याचार हुए जो कि बयान से बाहर हैं।“
“आफिया बेटी तेरे पर इतना जु़ल्म हुआ...।“ फारूकी का दिल भर आया।
“अंकल, यह अफसोस वाली बात नहीं है। क्योंकि जिहाद की राह पर चलते हुए ऐसा तो होता ही है। पर मुझे गर्व है कि मैंने यह सब कुछ बर्दाश्त किया, पर अपने इरादे से नहीं डोली।“
“पर वे तुझसे चाहते क्या थे ?“
“वे मुझे डबल एजेंट बनाकर अपने ही जिहादी बहन भाइयों के खिलाफ़ इस्तेमाल करना चाहते थे।“
“फिर आगे क्या हुआ ?“
“अंकल, जो भी जुल्मो-सितम मेरे पर हुआ, वह मैंने अल्लाह का हुक्म समझकर झेला। पर आखि़र उन्होंने ऐसा ढंग तलाशा कि मैं एक दिन बीच में ही टूट गई।“
“वह क्या ?“
“जो जु़ल्म वो मेरे पर करते थे, वही उन्होंने मेरे बच्चों पर शुरु करने की धमकी दी। बस, यही बात मुझे बर्दाश्त न हुई और मैं उनकी बात मानने के लिए मज़बूर हो गई। क्योंकि मैं जानती थी कि मेरे बच्चे उनके कब्ज़े में आ चुके हैं। फिर, मैंने डबल एजेंट बनने के लिए हामी भर दी। वैसे तो मैं उनके अनुसार डबल एजेंट बन गई, पर मुझे लगा कि इस तरीके से भी मैं जिहाद का काम ही कर रही होऊँगी।“
“वह कैसे ?“
“क्योंकि मैंने कुछ और सोचा था। मुझे उन्होंने आई.एस.आई की एजेंट बना लिया और कहा कि इस बात को गुप्त रखते हुए मैं उनके लोगों को अलकायदा में दाखि़ल करवाऊँ। उन्होंने मुझे नई पहचान देकर इस्लामाबाद भेज दिया। मैं उनका काम भी करती रही और साथ ही अपनी सोची हुई स्कीम के अनुसार अलकायदा को आई.एस.आई. के भेद भी देती रही। यह काम बड़ा ज़ोखि़म भरा था क्योंकि चौबीस घंटे आई.एस.आई. के लोग मेरे इर्दगिर्द रहते थे। इसी दौरान कुछ देर बाद मुझे पाकिस्तान की फैडरल इनवैस्टीगेशन एजेंसी ने गिरफ्तार कर लिया।“
“ओह ! फिर क्या हुआ ?“
“फिर उन्होंने भी मुझे वही काम करने के लिए कहा जो आई.एस.आई. करवा रही थी, अर्थात डबल एजेंट। मुझे नई पहचान देकर यह एजेंसी मेरे से अपने लिए काम करवाने लगी। अब भी मैं वहीं हूँ। पर मुझे पता है कि यह काम ज्यादा देर नहीं चल सकेगा। इसलिए मैं ताक में थी कि कब मौका मिले और यहाँ से भागूँ। आज उनके पहरेदारों की आँखों में धूल झोंककर मैं भाग आई हूँ।“
“अब फिर आगे तू क्या करना चाहती है ?“
“अंकल, अगर मैं यहाँ रही तो मुझे फिर से किसी न किसी एजेंसी ने गिरफ्तार कर लेना है और फिर से वही जासूसी का काम करवाना है। आपको पता ही है कि इस काम में कितना ज़ोखिम है। मैं यह भी जानती हूँ कि जब भी पाकिस्तानी एजेंसियों का काम निकल गया तो वे मुझे अमेरिकियों के हवाले कर देंगे। और वे मेरे पर कोई न कोई चार्ज लगाकर हमेशा के लिए जेल में बंद कर देंगे। इसलिए मैं चाहती हूँ कि इस सबसे दूर किसी ऐसी जगह चली जाऊँ जहाँ कि मुझे इनका डर न हो। जहाँ मुझे यह न रहे कि कोई अपना ही मेरे साथ दगा कमाकर मुझे पकड़वा देगा।“
“ऐसी जगह फिर कौन सी हो सकती है ?“
“अंकल, इस समय अगर मुझे कोई उचित जगह दिखाई देती है तो वह है अफगानिस्तान के तालिबान। पर मेरा अकेली का वहाँ पहुँचना आसान नहीं है।“
“आफिया बेटी, मैं तो कहता हूँ कि अपने घर में आ जा। हम सब कुछ ठीक कर लेंगे।“
“नहीं अंकल, यह मेरा निशाना नहीं है। मैंने अपनी ज़िन्दगी जिहाद के लेखे लगानी है। मेरी तीव्र इच्छा है कि मैं फ्रंट पर जाकर लड़ाई में हिस्सा लूँ और काफिरों का खात्मा करुँ।“
“ठीक है बेटी जैसे तेरी मर्ज़ी...।“ फारूकी ने बात बीच में छोड़कर आँखों के कोये पोंछे और फिर कहा, “अच्छा बता फिर मैं तेरी उस काम में क्या मदद कर सकता हूँ ?“
“आप मेरी अफगानिस्तान के तालिबानों तक पहुँचने में मदद करो। जैसा कि मैंने पहले ही कहा है कि अकेली औरत का वहाँ जाना आसान नहीं है। वह भी मेरा जिसको जगह जगह पर एजेंसियाँ खोजती घूमती हैं।“
उसकी बात सुनकर फारूकी सोच में पड़ गया। फिर उसको ख़याल आया कि इसकी मदद करनी ही पड़ेगी। वह आफिया की ओर देखता हुआ बोला, “ठीक है बेटी, मेरी तालिबान गवर्नमेंट के समय की कई अफ़सरों से जान-पहचान है। मैं तुझे उन तक पहुँचा दूँगा। पर यह प्रबंध करने में कुछ दिन लग जाएँगे। चल तब तब तू मेरे घर में ठहर जा।“
“नहीं अंकल, मैं तुम्हारे साथ नहीं जा सकती। खूफिया एजेंसियाँ मुझे जगह जगह खोजती फिरती होंगी। मेरे साथ तुम भी मुसीबत में फंस जाओगे।“
फारूकी अकेला ही उठकर चल दिया। उस रात आफिया किसी होटल में रुकी। अगले दिन फारूकी ने जैसे तैसे उसको घर आने के लिए मना लिया। आफिया डरती थी कि कहीं कोई एजेंसी उसका पीछा न कर रही हो। पर फिर भी वह उसके संग घर आ गई क्योंकि उसको फारूकी ने बताया था कि उसकी माँ और बहन आ रही हैं जिन्हें उसने रात में ही फोन करके उसके बारे में ख़बर दे दी थी। जब दोनों घर पहुँचे, तब तक इस्मत और फौज़िया आ चुकी थीं। अंदर जाते ही आफिया ने सूख कर तीला बन चुकी माँ की ओर देखा। आफिया के आँसू छलक आए। इस्मत धाह मारकर उठी और आफिया से लिपट गई।
“हाय री बेटी, तू किन भटकती राहों पर चल पड़ी ?“ रोते हुए इस्मत ने आफिया को बाहों में लपेट लिया।
आफिया ने कुछ कहना चाहा, पर मुँह से बोल न फूटे और वह ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी। दो चार मिनट माँ-बेटी वैराग्य के आँसू बहाती रहीं। माँ की छाती से सिर हटाते हुए आफिया ने बड़ी बहन फौज़िया की ओर देखा तो वह माँ से हटकर उससे लिपट गई। एकबार फिर से आँसुओं की धारा बहने लगी। दोनों बहनें जी भरकर रोयीं। फारूकी और उसकी घरवाली ने आँखें पोंछते हुए तीनों को चुप करवाया। बड़ी भावुक मिलनी थी। अलग अलग होकर भी काफी देर तक सभी अपने आँसू पोंछते रहे। आहिस्ता आहिस्ता फारूकी छोटी छोटी बातें करने लगा। उसके साथ ही दूसरे भी चुप हो गए और उसकी बातचीत में हिस्सा लेने लगे।
“अम्मी, मेरे बच्चों का क्या हाल है ?“ आफिया ने उदास स्वर में पूछा।
“तेरा बेटा और बेटी दोनों ठीक हैं। तू बता बड़ा अहमद कैसा है ?“
“ठीक है, वह भी अम्मी।“ इतना कहते हुए आफिया चुप हो गई और दीवार की ओर देखने लगी।
“सब ठीक हैं, एक मेरी बेटी के सिवा।“ इतना कहते हुए इस्मत ने एक आह भरी। उसकी बात ने आफिया की चेतना भंग की और उसने खाली खाली नज़रों से माँ की ओर देखा।
“अहमद कहाँ है अब ?“ माँ ने पूछा।
“अम्मी वहाँ कहीं भी है, ठीक है।“
“उस बच्चे पर भी मुसीबत पड़ गई।“
“नहीं अम्मी, मुसीबत नहीं बल्कि उस पर तो अल्लाह की मेहर हुई है जो वह जिहाद में शामिल हुआ है।“
“बच्चे के खेलने-कूदने के दिन थे, पता नहीं...।“ बात अधूरी छोड़ती हुई इस्मत चुप हो गई।
“जिहादी माँ का बेटा है। उसको कुछ नहीं हुआ। वह मौज में है।“ इतनी बात कहते हुए आफिया के चेहरे पर आत्म-विश्वास लौट आया। कुछ देर पहले उदासी में डूबी आफिया फिर से हौंसले में आ गई। भावुक बातों को छोड़कर वह जिहाद की बातें करने लगी। सभी उसके मुँह की ओर देखते उसकी बातें सुनते रहे। इस प्रकार बातचीत करते शाम हो गई। कमरे में तीनों, माँ-बेटियाँ रह गई तो फौज़िया ने बात शुरु की, “आफिया, अब तेरा आगे क्या करने का इरादा है ?“
“क्या मतलब ?“ आफिया ने चौंककर फौज़िया की तरफ देखा।
“मतलब यही कि अब आगे का क्या सोचा है ?“
“आगे-पीछे कुछ नहीं आपा। मेरा सबकुछ जिहाद हो समर्पित है।“
“आफिया, वापस लौट आ। पीछे जो हो गया, सो हो गया। हम मिलजुल कर सब कुछ ठीक कर लेंगे।“
पर आफिया उसकी बात नहीं सुन रही थी। वह तो दीवार की ओर देखती फिर कहीं गुम हो गई थी।
“आफिया, तेरा कमरा तेरा इंतज़ार कर रहा है। तेरे पालतू जानवर, कुत्ते-बिल्ली हर जगह तुझे खोजते फिरते हैं। तेरे लगाए हुए बूटे तेरी प्रतीक्षा कर रहे हैं। उनमें लगे फूल तेरी राह देख रहे हैं।“
“हैं ! क्या कहा ?“ सोच के समंदर से बाहर निकलती आफिया ने फौज़िया की ओर देखा।
“आफिया, मेरी बेटी, तू हमारे साथ अपने घर चल।“ इस्मत उठी और उसने मोह में आफिया को अपनी बांहों में कस लिया। आफिया ने भी माँ के इर्दगिर्द बांहें लपेटते हुए आँखें मूंद लीं। उसको चूप देखकर इस्मत फिर खुद बोल उठी, “यह सारा कसूर उस नईम खां के बेटे का है।“ उसका इशारा आफिया के तलाक ले चुके पति अमजद की ओर था।
“उसका क्यों अम्मी ?“ माँ की छाती से लगी आफिया बोली।
“उसने तुझे तेरे हक की मुहब्बत नहीं दी। अल्ला करे उसके कीड़े...।“
“अम्मी... इससे आगे कुछ न बोलना।“ माँ की बात बीच में काटते हुए आफिया उससे अलग हो गई।
“तू अभी भी उसकी तरफदारी करती है। उसने तो तुझे तलाक देते समय कुछ सोचा नहीं।“
“अम्मी वो दूसरी बात है। वह हमारा आपसी मामला था। पर मैं अमजद के बारे में कुछ नहीं सुन सकती।“
“मैं तेरे साथ सहमत नहीं आफिया। अगर वह चाहता तो तू अपने घर में सुख-शांति से रह सकती थी और...।“
“और क्या ?“
“तू इन गलत राहों पर जाने से बच जाती।“
“अम्मी...।“ आफिया भड़कते हुए उठ खड़ी हुई। वह गुस्से में कांपती हुई फिर बोली, “ये गलत राह नहीं है। यह तो बल्कि अल्लाह की खिदमत करने का एकमात्र राह है। तुम लोग क्या जानो कि जिहाद कितना पवित्र काम है।“
“पहले तेरे दुख में तेरा अब्बू चल बसा और अब...।“ इस्मत रोने लगी।
“मरना तो सबने ही है। पर कुर्बानी कोई कोई ही करना जानता है।“ आफिया वैसे ही गुस्से से कांपे जा रही थी।
“तुझे पता है कि तेरे अब्बू ने मरते वक्त क्या कहा था ?“
“हाँ-हाँ, मुझे याद है।“ आफिया को वह बात याद आई जब आखि़री दिनों में उसके अब्बू ने उसके बारे में कहा था कि इससे तो अच्छा था, आफिया पैदा होते ही मर जाती। उस वक्त आफिया चुप रही थी क्योंकि वह जानती थी कि यह उसके पिता का अन्तिम समय है। पर आज वह चुप न रही। माँ की ओर घूरते हुए वह फिर बोली, “तुम लोग इस धरती पर बोझ हो। खा लिया, पी लिया और ज़िन्दगी गुज़ार ली। तुम्हें जिहाद जैसे पवित्र कामों की समझ नहीं आ सकती।“
फौज़िया ने इशारे से माँ को चुप करवाया और फिर वह आफिया को शांत करने लगी। धीरे धीरे माहौल शांत हो गया। देर रात तक इस्मत और फौज़िया उसको अनेक प्रकार से समझाती रहीं। पर आफिया ने दुबारा उनके साथ ढंग से बात नहीं की। खा-पीकर सब पड़ गए, पर आफिया पलभर भी न सोई। वह रातभर नमाज़ें अदा करती रही और अपने आप से बातें करती रही। अगले दिन सुबह-सवेरे ही सद्दीकी ने उसको बुलाया, “आफिया बेटी, तू तो सारी रात सोई ही नहीं। क्यों, तबीयत तो ठीक है न ?“
“अंकल, भावुक माहौल ने मेरे अंदर कमज़ोरी पैदा कर दी थी। मैं उसके लिए अल्लाह से भूल बख़्शवाती रही। अब मैं पूरी तरह से उस माहौल से बाहर आ चुकी हूँ।“
उसकी बात का कोई जवाब दिए बग़ैर सद्दीकी रसोई में चला गया और उसके लिए चाय का कप ले आया। पर आफिया ने कुछ भी खाने-पीने से इन्कार कर दिया। जब इस्मत और फौज़िया वहाँ आईं तो आफिया अपना सामान बाँध रही थी। उन्होंने हैरान होकर उसकी तरफ देखा और इस्मत बोली, “आफिया, तू इतनी सुबह कहाँ के लिए तैयार हो रही है ?“
“मैं अपनी असली मंज़िल की ओर जा रही हूँ।“ वह उनकी ओर देखे बग़ैर बोली। सभी चुपचाप उसकी तरफ देखते रहे और वह तैयार होती रही। आखि़र, सद्दीकी ने प्यार से उसको बुलाया, “आफिया बेटी, इतनी जल्दी क्यों कर रही है ? मैंने तेरे साथ वायदा किया है कि मैं तुझे तेरी मंज़िल पर पहुँचाकर आऊँगा।“
“नहीं अंकल, अब मेरे लिए यहाँ और ठहरना मुमकिन नहीं है। मैं नहीं चाहती कि यह माहौल मेरे इरादे को कमज़ोर बनाए।“
“पर मैं कह रहा हूँ कि मैं तुझे....।“
“अंकल, मेरी मंज़िल मुझे पता है और वहाँ पहुँचने की राह भी मैं खुद ही खोजूँगी।“ इतना कहते हुए आफिया ने अपना भारी काला बैग उठाकर कंधे से लटका लिया। सद्दीकी ने उसका बैग उठाने में मदद करनी चाही तो आफिया ने बैग को हाथ न लगाने दिया। जब वह चलने लगी तो सद्दीकी ने टैक्सी की प्रतीक्षा करने को कहा। आफिया ने बैग नीचे रखते हुए उसकी बात मान ली तो सद्दीकी ने टैक्सी को फोन कर दिया। टैक्सी आने तक इस्मत और फौज़िया उसके साथ बात करने की कोशिश करती रहीं, पर उसने ढंग से बात नहीं की। इस्मत रोने लगी। उसने आफिया को कुछ पैसे देने चाहे तो उसने पैसों की तरफ देखा भी नहीं। तभी टैक्सी आ गई। आफिया ने नीचे रखा बैग उठाया और बाहर निकल पड़ी। सारा परिवार रोता रह गया और आफिया बिना उनकी ओर ध्यान दिए टैक्सी मे बैठकर चली गई।
अगले छह महीने तक आफिया के घर वालों को उसके बारे में कुछ पता न चला। फिर, उस दिन उनके होश उड़ गए जब ख़बर आई कि आफिया अफगानिस्तान के गज़नी शहर में पकड़ी गई है।
(जारी…)