मैं अपनी बॉल्कनी से तुम्हारी बॉल्कनी की और देखता हूँ, पर नहीं देख पाता तुम्हे, शायद इसलिये की तुम एक शहर दूर हो, शायद मुझसे भी दूर और तुम्हारा शहर बहुत दूर है शायद चाँद से भी दूर, क्योंकि चाँद दिखता है मुझे मेरी बॉल्कनी से, जलती सिगरेट सा होता है चाँद, नालायक सी रोशनी देता है, अधूरी सी जो शायद ही किसी की ज़रूरत को पूरा करती है, बहुत ही गैर ज़रूरी सी कहीं दूर टिमटिमाता है फिर खत्म हो जाता है लौट जाता है न जाने कहाँ, सिगरेट की तरह दुबारा सुलगाने पर फिर लौट आता है अगली रात बस धुआँ ही नहीं देता ड्यूटी बजाता है शायद बेमन से तभी तो रोशन नहीं होता ये पूरी तरह ......... "चाँद" ।
अच्छा सुनो न अगर तुम होती मेरी छत की बगल में तो क्या तुम भी आती बाहर यूँ ही बेवक्त, बिना मतलब भरी दोपहर मुझसे मिलने, दूर से ही सही हाथ हिलाती मुस्कराती और लौट जाती अपने कमरे में जवाब क्यों नहीं देती मेरे प्रश्नों का बहुत अजीब हो तुम, परेशान बहुत करती हो, सुनती क्यों नहीं ? मुझे क्यों लगता है तुम सुन कर अनसुना करती हो मुझे, मैं भी लौट जाऊंगा कमरे में नहीं आऊंगा तुमसे मिलने नाराज़ हूँ बहुत बेपरवाह हो तुम, मैं नाराज़ हूं क्या, क्या हो सकता हूँ नाराज़ तुमसे, बाहर गर्मी बहुत है, सूरज की तपन क्या मेरे मन की तपन की चुभन से बढ़ी है या सूरज भी जलती सिगरेट सा है जलाता है मन को तन को और न जाने क्या क्या ........."सूरज"
अच्छा छोड़ो इन बातों को एक बात बताओ, ये प्यार क्या होता है, कब, कैसे होता है ?? किससे होता है?? क्यों होता है ?? बताओ न कुछ तो बोलो, क्या प्यार में ठंड लगती हैं या गर्मी, पसीने आते हैं क्या प्यार में ?? मेरे प्रश्नों का उत्तर नहीं देती तुम्हारे मौन को पढ़ लेता हूं मैं पर प्यार के ढाई अक्षर की क्लास नहीं अटेंड करी मैंने बताओ न क्या ये भी सिगरेट की तरह जलता है फिर बुझ जाता है थोड़ी देर में, क्षणिक सी आत्मसंतुष्टि दे फिर क्या ये भी कर्क रोग माने कैंसर की तरह तड़पाता है जलाता है और फिर देता है मौत !!! बताओ न ........."प्यार"
अच्छा एक बात बताओ लोग पागल क्यों कहते हैं प्यार करने वाले को, क्या प्यार में लोग पागल हो जाते हैं, सब भूल जाते है ?? अजीब सी हरकते करते हैं अकेले में मुस्कराते हैं, रोते हैं, खिलखिलाते हैं, मन ही मन पुकारते हैं या चिल्लाते हैं अरे मैं भी कितना पागल हूँ, तुम कैसे बता पाओगी !! तुम तो दूसरे शहर में हो जो चाँद से भी दूर है, दिखता ही नहीं !!! और हाँ क्या एक सिगरेट सी नही है ज़िन्दगी जलती है, सुलगती है और फिर धुआँ धुआँ हो जाती है और बचती है केवल......."राख"
अरे सिगरेट और ज़िन्दगी कितनी मिलती जुलती हैं, हैं न बोलो न जवाब तो दो फिर भूल गया कि तुम दूसरे शहर में हो दूर बहुत दूर......
"क्यों अंत में राख हो जाती है ज़िन्दगी जलती सिगरेट की तरह जवाब तलाश रहा हूँ मिले आपको तो बताना ज़रूर"
"अभिव्यक्ति"
ऋषि सचदेवा
हरिद्वार, उत्तराखंड । 9837241310