सड़कछाप
20
अमर कुछ घण्टे वहॉ बिताकर फिर अपने घर लौट आया। लेकिन अपना सब कुछ वहीं छोड़ आया था वो। दिलेराम ने उसे देखकर चैन की सांस ली। अमर को किसी दम चैन ना था। रेवती की बातें उसका कलेजा छलनी किये जा रही थीं। आज उसे अपनी माँ की भी याद आ रही थी, मोह के कारण नहीं, अपने न्याय-अन्याय की तुला पर वो माँ-बेटे के रिश्ते को तौलने लगा। अभी तक वो ये मानता रहा था कि उसकी माँ ने उसके साथ अन्याय किया लेकिन आज वो खुद को न्याय के कटघरे में खड़ा करके जिरह-बहस कर रहा था। ऐसा क्या था जिसकी वजह से उसकी माँ को ये कदम उठाना पड़ा। बड़ी देर तक माथापच्ची करने के बाद भी उसे उसकी मां का पक्ष समझ में नही आया। उसने निश्चय किया कि इन झंझावतों से निकलने के बाद वो अपनी माँ से मिलेगा।
लेकिन ये झंझावत क्या इतने आसान थे, वो आँख बन्द करता या खोले रहता उसे बारी-बारी से कभी उषा दिखाई पड़ती या सलाखों के पीछे खड़ी निशा। दोनों बाहें फैलाये मानो उसकी तरफ आ रही हों। आंख बन्द थी मगर उषा अपने मनमोहक रूप की छटा बिखेर रही थी। उजली धवल सी उसकी खिली-खिली रंगत, गदराया सुरमई, मांसल जिस्म, रेशमी उड़ते बालों वाली परी जिसके ग़ुलाबी चेहरे में उसके धवल दन्त पंक्ति की खिलखिलाहट चार चांद लगा रहा था, अमर ने उसे अपने आगोश में लिया तो लाज से पहले खुद में सिमट गयीऔर फिर अमर की बाहों में। अमर ने उसकी सुराहीदार गर्दन को सहलाना शुरू किया, और उसकी गर्दन को हाथों से पकड़कर बेतहाशा चूमना शुरू किया और अचानक उन्ही हाथों से उसने उषा की गर्दन दबाना शुरू कर दी और दांतों उषा की गर्दन काटने लगा। थोड़ी देर में उषा की सांस रुक गयी और उसने उषा की गर्दन काट कर अलग कर दी। उसके मुंह में खून भरा था उसने जोर का अट्टहास किया तब तक उसकी आंख खुल गयी। उसने देखा कि कमरे में अंधेरा था, इस भयानक स्वप्न से वो सिहर गया।
वो उठा उसने हाथ मुंह धोया और लाइट जला दी। सामने एक दीवार थी, मन की हलचल से बचने के लिये उसने सामने दीवार पर फोकस किया और बिना कुछ सोचे एकटक दीवार को देखता रहा। काफ़ी देर तक दीवार को देखते रहने के बाद उसे लगा दीवार में सलाखें लगी हैं और उन सलाखों के पीछे निशा खड़ी है उसके हाथों में हथकड़ी लगी है कुछ पुलिस वाले उसे बुरी तरह से पीट रहे हैं, एक पुलिस वाला उसके कपड़े भी फाड़ने की कोशिश कर रहा है। निशा जोर-जोर से चिल्ला रही है औए रहम की भीख मांग रही है, और पुलिसवाला उसके आधे से ज्यादा कपड़े फाड़ चुका है। अचानक वो अमर को देखती है कातर नजरों से और जोर जोर से रोने लगती है। अरे ये क्या, निशा रोते-रोते अचानक ठहाके लगाकर हँसने लगती है । वो अपना हथकड़ी वाला हाथ ऊपर करती है फिर एक-एक करके अपने तन के सारे कपड़े उतारकर हवा में लहराते हुए फेंक देती है, , अलिफ नंगी निशा अचानक अमर की तरफ बढ़ती है, उसके साथ जेल के दरवाजे भी बढ़ते चले आ रहे हैं अमर बिस्तर पर पीछे खिसकता जाता है, अंत मे जब उसकी पीठ दीवाल से सट जाती है तब वो बेबस हो जाता है। सामने से अट्टाहास करती हुई जेल की सींखचों से उसे दबाने को आ रही है वो भी निर्वस्त्र। लज्जा और डर से वो आँख बंद कर लेता है क्योंकि ना वो निशा को इस हालत में देख नहीं देख सकता तथा दीवार और सीखचों के बीच पिसने के भय से आँख बंद करके चिल्लाता है “मम्मी, मम्मी, बचाओ”।
दिलेराम ने उसे कंधे से पकड़कर झंझोड़ा “क्या हुआ अमर भाई, क्या हुआ, किससे बचाओ, यहाँ तो कोई नहीं है। तुम्हारी तबियत तो ठीक है”।
अमर की तन्द्रा टूटी तो उसने देखा कि दिलेराम उसके कंधे पर हाथ रखे खड़ा है। उसने पूछा”दिलेराम भाई, तुम यहाँ कैसे”
दिलेराम ने कहा-
“खाना लाया हूँ आपके लिये, खा लीजिये। तबियत ठीक नहीं है चलो डॉक्टर के पास ले चलता हूँ आपको। “
अमर ने बुझे हुए स्वर में कहा-
“तबियत ठीक है, कोई बात नहीं”।
“तबियत ही तो ठीक नहीं आपकी, कोई बात तो है जो आप अपने आप से नुझ रहे हो। मैं पढा लिखा तो नहीं हूँ लेकिन आपके कहने पर जूझ जाऊंगा, बताओ तो सही। खैर खाना खा लो पहले”ये कहते हुए दिलेराम ने अमर के लिये खाना लगा दिया।
अमर ने खाने को हाथ ना लगाया, बड़ी देर तक कमरे में शांति रही। अंत मे अमर ने चुप्पी तोड़ी। उसने कहा –
“दिलेराम भाई, मेरी दो मदद करो, लेकिन सवाल मत करना प्लीज। “
“मदद कैसी, भाई-भाई में कोई भेद नहीं, कुछ नहीं पूछुंगा, जब ज़रूरी लगे तो बता देना। बताओ क्या करना है”?दिलेराम ने पूछा।
अमर ने उसे पांच सौ का नोट देते हुए कहा-
“जाओ एक बोतल शराब ले आओ, और आज रात यहीं सो जाओ मेरे पास “।
दिलेराम ने अमर को ध्यान से देखा, अमर ने नजरें झुका ली।
“ठीक है, बोतल लाता हूँ, घर पर भी बोलकर आता हूँ, तब तक खाना खा लो, ये बात आप मेरी मान लो”दिलेराम ने अनुनय करते हुए कहा।
अमर ने सहमति में सिर हिलाया तो अमर वहाँ से चला गया।
अमर को पीने की आदत नहीं थी लेकिन वो शराब की तासीर से बेखबर भी नहीं था, बहुतों को देखा था खास तौर से खाली पेट पीने के बाद उल्टी वगैरह का तमाशा। दिलो दिमाग के लिए शराब जरूरी थी और शराब का सुरूर चढ़े इसलिये पेट भरना जरूरी था सो मन मारकर अमर ने खाना खाया और फिर शराब उतनी पी गया जितनी पी सकता था।
पूरी रात लाइट जलाए वो दिलेराम का हाथ पकड़े पड़ा रहा, शुरू में कुछ देर तो वो बड़बड़ाया लेकिन शराब इतनी ज्यादा मात्रा में उसने पी ली थी कि कुछ देर बाद वो लगभग बेसुध हो गया, हाथ-पाँव, दिलो दिमाग सबने काम करना बंद कर दिया। फिर यही तो चाहता था अमर कि कोई उससे सवाल ना करे, जवाब ना मांगे कि उसने ऐसा क्यों किया। सपने में सब बारी-बारी आते रहे, उषा, निशा, रेवती, उसकी माँ सरोजा, उसके पिता लल्लन, दादा रामजस, अतर सिंह, गुरपाल, सब कुछ ना कुछ कहते रहे, लेकिन उनके सवालों को ना अमर सुन पाया और ना अमर के जवाबों को वे सब समझ पाए।
सुबह बड़ी देर से उसकी आंख खुली, शराब ने उसके जिस्म और दिलोदिमाग पर रात जो कहर नाजिल किया था उसके निशान अभी बाकी थे, लेकिन ये वक्त उन ज़ख्मों को सहलाने का नहीं था। अमर तुरंत तैयार होकर बैंक पहुँच गया। आठ हजार रुपये एक खाते में पड़े थे जो उसने हारे-गाढ़े और सबसे बुरे दिन के लिए बचाकर रखे थे। उसने वो पैसे निकाले और रेवती के घर पहुंच गया। रेवती उसी की राह देख रही थी। वो अमर के लिए चाय ले आयी।
अमर ने चाय पीते-पीते कहा “मैंने खाना भी नहीं खाया है, यहीं खाऊंगा”।
रेवती ने सहमति में सिर हिलाया। अमर ने कहा-
“आप मानती हैं कि आपकी बेटियों की बर्बादी का ज़िम्मेदार मैं हूँ ना”।
रेवती ने उसे देखा, मगर सहमति में सिर ना हिलाया। वो अमर को अपलक देखती रही, कल की तरह उसकी आँखों में क्रोध ना था बल्कि एक भाव शून्यता थी।
अमर ने कहा”मैं अपने को हाज़िर कर रहा हूँ, लो मेरी गर्दन काट दो, अपना गुस्सा, बदला पूरा कर लो, मैं पुलिस को चिट्ठी दे जाऊंगा कि अपनी मौत का जिम्मेदार मैं ही हूँ। लाओ अभी चिठ्ठी लिख देता हूँ। “
रेवती कुछ ना बोली, बस अमर को कभी देखती, कभी सर झुका लेती।
थोड़ी देर बाद फिर अमर ने कहा –
“या तो मुझे सजा दो या फिर मुझे माफ़ कर दो, मेरे जिंदा रहने के लिये इन दोनों में से किसी एक का मिलना बहुत ज़रूरी है। वरना आपके इल्जाम का ये अपराध बोध लेकर मैं जी नहीं पाऊंगा। आप सोच रही होंगी कि मुझे इतनी ही लाज आ रही है तो मैं खुद क्यों नहीं मर गया। पहली बात तो निशा को जेल और मुकदमे से छुट्टी दिलाये बिना मेरे प्राण नहीं निकलेंगे और दूसरी बात कि मै कायर हूँ, बस मुसीबतों से भागता ही रहा, में मरना तो चाहता हूँ मगर खुद की जान लेने से डरता हूँ”
रेवती ने कहा-
“छोड़ो ये सब, मरने -मारने की बातें ना करो “।
अमर ने कहा –
“नहीं ये बातें ज़रूरी हैं, आप जान लो, मैं शायद किसी से ना कह पाऊं। मेरी आत्मा मुझे फटकारती है, कल आपकी बातों से मेरा कलेजा छलनी हो गया। अपने जीवन में कौन से दुख नहीं देखे मैंने। बाप की मौत, नाना के घर की दुत्कार, अपने चाचा-दादा के जुल्म, । फिर मेरी माँ विवाह करके चली गयी, कितने-कितने बुरे दिन देखे मैने इसी दिल्ली में, भूखा -प्यासा, तन-पेट काटकर चार पैसे जोड़े, गांव में जाकर घर बनाया। बिन घरनी घर भूत का डेरा, लेकिन वहाँ भी छत नसीब ना हुई। माँ छोड़कर जा चुकी थी और माँ जैसी चाची ने मेरा घर बनने नहीं दिया। घर बन जाता तो घर बस जाता, घरवाली आ जाती लेकिन मेरी चाची ने ये होने ना दिया। मैंने जहर खा लिया था तब लेकिन मेरे नसीब में मौत नहीं लिखी थी मुझे आपके घर से ये लांछन जो लगना था”।
रेवती ने अमर को समझाते हुए कहा-
“ऐसा मत कहो, मैंने कोई लांछन नहीं लगाया तुम पर, मगर जो कुछ हुआ, कहीं-ना-कहीं तुम्हारी गलती थी जरूर, लेकिन अब इन बातों का क्या फायदा”।
अमर ने प्रतिवाद किया-
“फायदा है, क्योंकि आपसे नहीं कहूँगा तो मेरी आत्मा जीने नहीं देगी मुझे। मैं अपनी आत्मा पर आपकी बेटियों की बर्बादी का बोझ लेकर नहीं जी सकता । मेरी माँ के जाने के बाद एक बार मैंने अपनी चाची को अपनी मां माना था तो उन्होंने मेरे मर जाने के सारे जतन किये। दूसरी बार कल आपने मुझसे कहा कि मुझमें आप अपने बेटे की छवि देखती हैं तो अब आप मेरी बात सुनिये वर्ना इस बार बेटा खुद मरने का जतन करेगा और मां देखती रह जायेगी”।
रेवती ने कातर स्वर में कहा-
“देखो अमर, अब मरने-मारने की बातें ना करो, ऐसी बातों को सुनकर ही मेरा कलेजा बैठ जाता है, मैं मर ही जाऊंगी, मुझे जीने दो अमर, अभी निशा को बचाना है मुझे। “
अमर ने कहा-
“सिर्फ निशा ही जेल मे नहीं है, मैं भी जेल काट रहा हूँ बस फर्क ये है कि मेरी जेल लोगों को दिखाई नहीं पड़ती । सिर्फ उषा नहीं मरी है, थोड़ा सा मैं भी मरा हूँ उसके साथ। जैसे कल आप कह रही थीं कि आप नहीं मरीं इसलिये कि आपको अपनी बच्चियों को जिंदा रखना था । वैसे ही कल यहाँ से जाकर मैं भी नहीं मरा क्योंकि निशा को बचाना था उसे नई जिंदगी देनी है। विधाता ने मुझे ना जाने क्यों बचपन मे मौत नहीं दी, मैं जहर खाकर भी शायद इसीलिये नहीं मरा क्योंकि ये बदनामी और दाग मेरे ही हिस्से में आना था जिसमें उषा की मौत और निशा की जेल शामिल थी”।
ये कहते-कहते अमर की आंखों से आँसूं बह निकले, उसे रोता देख रेवती की आंखों से दो आँसू टपक पड़े। रेवती ने अमर को समझाते हुए कहा-
“छोड़ो अमर, पुरानी बातों को अब इन सबमें क्या रखा है”।
अमर ने कहा-
“नहीं आपके लिये जानना जरूरी है कि मुझ पर क्या बीती। आपने ये कहा कि मैं मिला तो मानों आपको एक बेटा मिल गया और जिसे आपने अपना बेटा माना उसने कितनी जलील हरकत की, आपके भरोसे को तोड़ा । ये बात सच है मगर पूरी तरह नहीं । गांव में चाची ने घर ना बनने दिया, घर बना नहीं तो घर बस भी नहीं पाया । मैं तो दिल्ली दुबारा आना ही नहीं चाहता था। लेकिन जिस जगह मुझे जान के लाले पड़ गए थे उस जगह को छोड़ देना मैंने मुनासिब समझा । फिर दिल्ली दुबारा आया, निशा से मिला, निशा से ही प्रेम भी था। आपके घर आया तो उषा से मिला। पता ही नहीं चला कि कब हम दोनों एक दूसरे पर आकर्षित हो गए । मैं तो सिर्फ आकर्षित ही था मगर उषा शायद मुझसे प्रेम कर बैठी। आठ-दस महीने बाद उस रात जब चोटिल होकर आपके घर आया था तब भी मेरे मन में कुछ खास नहीं था। उस रात यहां सोया तो बारी-बारी से उन दोनों को मैंने हासिल करने की कोशिश की, लेकिन कामयाबी नहीं मिली । आपकी दोनों बेटियां बहुत अच्छी थीं उन्होंने अपनी लाज मुझे नहीं सौंपी बस मैं काबू नहीं कर पाया खुद पर और एकांत में उनके शरीर को टटोलने चला गया। लेकिन कुछ हुआ नहीं था आप चाहें निशा से पूछ लें। निशा तो मेरी थी ही, बस उषा की तरफ जाने से मैं अपने को रोक नहीं पाया”।
“काश उस रात मेरी आँख खुल जाती तो आज मेरी उषा ज़िंदा होती और निशा जेल से बाहर होती”रेवती ने कलपते हुए कहा।
“उस रात ऐसा कुछ नहीं हुआ था जो किसी की जान ले या जेल भेजे बस ये दाग मुझे लगना था, आगे सुनिये इंसान पर जब हवस चढ़ती है तो वो पागल हो जाता है, राक्षस हो जाता है, लेकिन उसका नशा जब तक रहता है तब तक सोचने -समझने की शक्ति चली जाती है। मैंने उन दोनों के जिस्म को छुआ लेकिन ये भी उतना ही बड़ा सच है कि उन दोनों ने कोई विरोध तक नहीं किया और उस एकांत की हद में जितना सम्भव था उतनी छूट मुझे दी, अगर मैं ही अकेले ये सब कर रहा होता तो वे दोनों विरोध ना करतीं, चिल्लाती नहीं, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया”।
रेवती को ये बात नागवार गुजरी उसकी भाव-भंगिमा तनिक असामान्य हुई । अमर जानता था कि ये बात रेवती को पसंद नहीं आयी है । उसने बात को संभालते हुए कहा-
“माफ कर दीजिये, मैं जानता हूँ कि आपको ये बात अच्छी नहीं लगी। लेकिन माँ को अपने हर बच्चे की बात सुननी चाहिये”।
रेवती ने कहा-
“मानती हूँ अमर, इस सबमें मेरी बेटियां शामिल थीं। लेकिन अपने और उनके बीच के फर्क को तो देखो। कहाँ तुम इतने पढ़े लिखे, कवि हो तुम्हे तो सही -गलत का होश होना चाहिये था। इंसान और जानवर में यही फर्क होता है कि जानवर अपनी सही-गलत किसी भावना पर काबू नहीं रख पाता और शुरू हो जाता है जबकि इंसान सोच -समझ कर ही कदम आगे बढ़ाता है। वो राजी थीं तो तुम्हारी अक्ल तो उनसे ज्यादा थी तुम काबू रख लेते। और अगर तुम्हें उषा ही पसंद आ गयी थी तो उषा से ही सम्बन्ध रखना था। उसी रात उषा पर भी, निशा पर भी हाथ डाला और कहते हो कि तुम्हारी कोई गलती नहीं, हम गरीब हैं, वो हमारी बेटियां थीं कोई कोठे की रंडियां नहीं कि तुम दोनों पर हाथ साफ कर लेते। और दूसरी बात पर मेरा ध्यान नहीं गया कि उजली रंगत हमेशा मरदों की कमजोरी होती है । चाहे देवी जैसी स्त्री हो मग़र गोरे रंग की अगर तवायफ भी आ जाये तो मरद उसी पर लार टपकायेगा। वही तुमने भी किया”।
अमर ने कहा- “मुझे वो सब इतना नहीं पता, रंग -रूप का आकर्षण तो होता ही है, लेकिन इंसान और जानवर में एक बुनियादी फर्क होता है कि इंसान थोड़ी देर के लिये जानवर बनता है फिर उसकी इंसानियत लौट आती है। लेकिन जानवर से इंसानियत की उम्मीद करना बेमानी है, होश-हवास में निशा से ही मेरा रिश्ता था लेकिन उषा पर ना जाने कब आकर्षित हुआ मैं। उस रात निशा ने मेरा साथ देने से इनकार कर दिया, तब मुझे लगा कि मैं उसकी नजरों में गिर गया हूँ। लेकिन सुबह होते-होते मेरी सोच बदल गयी”।
“वो कैसे”रेवती ने अचरज से पूछा।
“रात जब मेरा नशा और वहशीपन उतर गया, तब मैंने आपके बारे में सोचा कि कितनी ममता, कितना विश्वास कितना स्नेह है आपको मुझ पर। मुझे अपने साथ, अपनी बेटियों के साथ एक ही बिस्तर में सुला लिया मानों मैं आपका सगा बेटा होऊं। आपके मुझसे जिस धोखे की उम्मीद नहीं थी मैंने वो धोखा उसी रात दिया आपको। “अमर ने नजर नीची करते हुए कहा।
“फिर सुबह अचानक क्या हो गया”रेवती ने पूछा।
“फिर आधी रात से ही मैं अपनी नजरों में गिर गया। बड़ी देर तक आपकी तुलना अपनी माँ से करता रहा। कि एक मेरी माँ है जिसने मुझे जन्म दिया लेकिन अपने फायदे के लिए अपने अबोध बेटे को छोड़कर चली गयी। और एक आप थीं कि एक पराये मर्द को अपने बगल ऐसे लिटाकर सेवा कर रही हों मानो वो आपका सगा बेटा हो। कैसी औरत हैं आप, एक तरफ आप थीं दूसरी तरफ मेरी माँ, चाची, मौसी जैसी औरतें थीं जिन्होंने अपने स्वार्थ के लिए मुझे दुख दिया। आपसे नजरें मिलाने की हिम्मत ना बची थी मुझमे। मेरे लिए उषा और निशा का अब सिर्फ यही मतलब था कि वे अब आपकी बेटियां थीं जिनके साथ मैंने गलत किया ये बात देर-सबेर खुलनी ही थी। तब मैं आपको क्या मुंह दिखाता। “
“इतना सब सोच डाले तो उस वक्त कुछ बोल भी देते” रेवती ने धीरे से कहा।
“बोलने से ही तो डर गया। सुबह याद कीजए कि मैं जिद करके अपने कमरे पर गया था आप साथ आयीं और लौट गयीं तब मैंने सोचा कि जब कभी उषा-निशा में मुझको लेकर विवाद होगा तो ये बात आपके सामने जरूर खुल जायेगी और किस मुंह से मैं आपका सामना करूँगा। इसी शर्मिंदगी में मैने घर बदल लिया। यहीं दिल्ली में वहाँ से थोड़ी दूर गोबिंद पूरी में शिफ्ट हो गया। कि आप मुझे खोज ना सकें, कभी गांव नहीं गया। यहीं जी तोड़ मेहनत करता रहा। प्लाट लिया घर बनवाने जा रहा था, घर बन जाता तो आपकी किसी बेटी से विवाह करता। मेरा इरादा तो निशा से ही विवाह करने का था और उषा को समझा देता लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था। बतरा के यहाँ पैसा लाने ना जाता तो शायद ये सब मुझे पता ही नहीं चलता”।
“अमर कितने जूझे खुद से, एक बार मुझसे कुछ कहते तो”रेवती ने उससे नरम स्वर में कहा।
अमर ने ठहरकर कहा- “क्या कहता, अपनी नजर में गिरे हुए आदमी का यही हाल होता है, मुझे लड़की तो और भी मिल जाती लेकिन वो माँ वाला मामला, कैसे सामना करता आपका। कल जब आपने मुझसे कहा तब से पागल हुआ जा रहा हूं मैं। एक घड़ी के लिए भी निशा और उषा के अपराधबोध ने मेरा पिंड नहीं छोड़ा है। सोच-सोच के पागल हुआ जा रहा हूँ। कल जीवन मे हार गया मैं ये दुख बर्दाश्त करने के लिए जीवन मे पहली बार शराब पी मैंने। अकेले होता हूँ तो आपकी बेटियां नजर के सामने आकर जलील करने लगती हैं । रात भी दिलेराम का हाथ पकड़े बैठा रहा । अब अगर अकेला रहा तो या तो मैं मर-कट जाऊंगा या शराब पीकर और सोच-सोचकर पागल हो जाऊंगा। “
रेवती ने कहा-
“हे भगवान, शराब मत पीना अमर, मेरा पति शराब पीकर जानवर बन चुका है, तुम तो इंसान बने रहो, अपने मन को समझाओ, जो हो गया सो हो गया”।
“अगर मुझे जिंदा देखना चाहती हो तो मुझे माफ़ कर दो और हो सके तो मुझे यहीं रहने दो वरना अकेले में कुछ कर बैठूंगी मैं, बेटा माना था तो कुछ ऐसा करो कि बेटा जी भी सके”अमर ने भावुक होते हुए कहा।
“अमर यहाँ फिलहाल मैं अकेली रहती हूं, भले ही तुम्हारा मेरा रिश्ता माँ-बेटे जैसा है लेकिन दुनिया की नजर में अभी ये पक्का नहीं है। तुम मेरे बन गए होते तो बात दूसरी थी। लेकिन अभी हो नहीं है। निशा के पापा भी यहाँ नहीं रहते हैं। तो तुम्हारा यहाँ रहना ठीक नहीं होगा। दुनिया तो भले बाद में कहे लेकिन मेरा पति खुद जानवर है वही तमाशा खड़ा कर देगा। जो ना तुम्हारे लिये ठीक होगा ना मेरे लिये। जब चाहो आओ जाओ लेकिन निशा आ जाये पहले तब देखेंगे बाद की बात। और हाँ बेटे मैंने तुम्हें माफ कर दिया है, लेकिन मेरे माफ करने से क्या होगा । निशा को छुड़ाने का जतन करो। मैं ये घर बेच दूंगी, मेरी बेटी को लाओ बेटा”ये कहकर रेवती रोने लगी।
“जी ज़रूर लाऊंगा, उसे हर हाल में निकालूंगा। मेरी ग़लतियों की सजा उसको नहीं भोगनी पड़ेगी। मैंने कोशिश शुरू कर दी है । आपको कुछ नहीं करना है अब और ना ही परेशान होना है। घर-जेवर बेचने की नौबत नहीं आयेगी। मैं सब देख लूंगा। पैसे ले आया हुँ मैं” ये कहते हुए उसने नोटों की गड्डी निकाल कर रख दी।
“पैसों की बात नहीं है बेटा, मैं घरेलू, अनपढ़ औरत, मुझे कोर्ट-कचहरी का मुझे कुछ पता नहीं। बेबस थी मजबूर थी तभी तो तुम्हें खोजने गयी थी बतरा के यहाँ। मेरे पास जो कुछ है, बेच-वेच कर मेरी बेटी को बचा लो बेटा तुम्हारे आगे मैं हाथ जोड़ती हूँ, तुम्हारे पाँव पड़ती हूँ बेटा, निकालो मेरी फूल सी बच्ची को “ये कहकर रेवती फिर रोने लगी।
अमर ने दृढ़ता से कहा”आप रोइये मत, निशा को मैं हर हाल में निकालूंगा जेल से वो भी बहुत जल्द, चाहे मुझे हाइकोर्ट या सुप्रीमकोर्ट तक जाना पड़ा। जो प्लाट है वो बेच दूंगा, अपना गांव का घर -खेत सब बेच दूंगा और अगर उससे भी पूरा ना पड़े तो अपने आप को बेच दूँगा, दिल्ली में किडनी, आंखों के खरीदार बहुत हैं”।
रेवती झट से बोली “नहीं, नहीं बेटा, ऐसा मत कहो, इस सबकी नौबत नहीं आएगी। निशा ने कोई ग़लती नहीं की है ना कोई पाप किया है। उसने उषा को मरने के लिए नहीं कहा था लेकिन पुलिस ने रिपोर्ट में ना जाने क्या उलटा सीधा लिख दिया और मुझसे पैसे भी ले लिए । जब तक पैसे देती रही तब तक निशा को गिरफ्तार नहीं किया उन लोगों ने, जब पैसा नहीं दे पाई तब जेल में डाल दिया। किसी के चिट्ठी लिखने से कोई दोषी नहीं हो जाता लेकिन मेरी बात सुने और माने कौन। यही बात कोई पढा-लिखा आदमी कहे तो सुनवाई हो”।
अमर ने ठंडी सांस लेते हुए कहा”बहुत जल्द मैं आपकी बेटी आपको लौटा दूँगा, बस वो फ़ाइल मुझे दो जो वकील वाली है”।
रेवती ने अंदर से एक फ़ाइल लाकर दे दी। अमर ने वो फ़ाइल ली और चलने को उद्धत हुआ । तभी रेवती ने उसे रोका और उसके सर पर हाथ फेरते हुए कहा-“
“अमर बेटा, इतना मन भारी मत रखा करो, अब अपने को दोष देना बंद करो, विधि का लेखा कौन टाल सका है। “राम का वनवास, कैकेयी का अपयश” जो कुछ हुआ उसका कारण तुम्हे बनना था, भले ही दोष तुम्हारा हो या ना हो । इसलिये अपने को सजा मत दो बेटे, शराब मत पियो, जीना है तुम्हे, जो चले गए वो तो वापस आएंगे नहीं। अब तुम मेरे बेटे हो, तुमने बचपन में अपनी माँ को खोया था अब जवान बेटे को मैं नहीं खोना चाहती। बेटा खुद को सम्भालो, तुम्हे खोना नहीं चाहती मैं, बेटी तो मैं पहले ही खो चुकी हूँ। और निशा आ जाये तो अगर भगवान ने चाहा तो हम सब इक्कठे ही रहेंगे यहीं। अपना ख्याल रखो बेटे, खुद को सजा मत दो”ये कहते हुए रेवती की आंखों से आँसू बह निकले।
अमर ने रेवती की तरफ देखा, उन आँखों में उसे वो ममता और चिंता नजर आई जो बहुत साल पहले भुर्रे डाकू की चर्चा चलने पर उसकी माँ सरोजा की आँखों में उसे नजर आया करती थी । लेकिन एक फर्क था उस माँ को अमरेश की चिंता दूर करनी थी और इस माँ की चिंता अमर को दूर करनी थी। समय का चक्र अपना चक्कर पूरा करके लौट आता है जबकि किरदार वहीं खड़े रहते हैं। अमर ने फ़ाइल ली और वो तेजी से सीढिया उतरते हुए वहाँ से निकल गया।
अमर ने तुरंत जाकर इंदरजीत से मिलने की कोशिश की, पता लगा कि वे जींद गए हैं किसी रैली में । अगले दिन ही मिल पाएंगे। वक्त काटना ही तो उसके लिए मुश्किल था, जब तक काम और उसकी धुन तब तक तो ठीक ठाक कटी उसकी मगर काम मुल्तवी होने और एकांत की आहट हुई कि वो फिर अवसादग्रस्त हो गया। उसे खुली या बन्द आंखों से कभी उषा दिखाई पड़ती तो कभी निशा। रेवती के शब्द भी उसे मुकम्मल हौसला ना दे सके थे कि वो दोषी नहीं है। निशा को लेकर उसे इतनी चिंता नहीं थी अब क्योंकि फ़ाइल पढ़कर वो जान चुका था कि ये केस बेदम है और निशा की जमानत भी हो जायेगी और बाद में उसे मुकदमे से भी निजात मिल जाएगी। क्योंकि पिछले काफी समय से वो थाना-पुलिस की सेटिंग-गेटिंग ही कर रहा था । उसे यकीन था कि वो निशा को छुड़ा लेगा, बचा लेगा और अगर वो मानी तो उसे अपना भी लेगा लेकिन उषा का क्या।
अमर रेवती से तो बता आया था कि उषा से जुड़ना उसकी गलती थी, निशा ही उसका प्रेम थी। मगर क्या वाकई ऐसा था । शायद नहीं, निशा उसकी नैतिकता थी, अपराध बोध का विकल्प थी लेकिन प्रेम नहीं थी शायद। क्योंकि दिमाग कहता था कि उचित-अनुचित और तर्क की कसौटी पर तो उसका रिश्ता निशा से ही जुड़ता और ठहरता था । लेकिन दिल के किसी कोने में उषा का ही संसार आबाद कर रखा था उसने। दिल के सात तालों में उषा के प्रेम की सुगंध को उसने महफूज कर रखा था उसने । वहाँ जहां सिर्फ वो और उषा, रेवती और निशा की ताक -झांक का कोई डर नहीं। और वो उषा जो इस दुनिया से ही चली गयी कभी भी लौटकर वापस ना आने के लिए, वजह चाहे जो रही हो, निमित्त तो उसका प्रेम ही रहा होगा। वो लड़ी होगी, अड़ी होगी मेरे लिये, लेकिन फिर मुझे हासिल ना होता देख टूट गयी होगी, हार गयी होगी। तभी उसने अपनी जान देगी। काश उषा तुम एक बार मुझे फोन कर देती, एक बार मुझे खोज निकालती जैसे तुम्हारी माँ ने मुझे खोज निकाला था। मेरे लिये मर सकती थी मुझसे मिल नहीं सकती थी। तुम एक बार मिलती तो सही तो देखती कि तुम्हारा अमर कितना ताकतवर है अब । सबसे निपट लेता, निशा से, तुम्हारी माँ से, तुम्हारे बाप से, डंके की चोट पर अपनाता तुम्हे। लेकिन तुमने ये क्या किया, जन्म भर का दाग तुमने मुझे दिया, मर-मर के जियूँगा अब। निशा के कारण तुम्हारी मौत हुई है, उसको भी सबक सिखाऊंगा मैं। हाय उषा, , , मेरी उषा, मुझे माफ़ कर दो मैं तुम्हें बचा ना सका। यही सब बुदबुदाते हुए वो रोने लगा।
रोने से, सोचने से जिंदगी की कड़वी सच्चाइयों से भागा नहीं जा सकता। कुछ घण्टों बाद अमर एडवोकेट जगमोहन सुराना के ऑफिस में था। सुराना तो कोर्ट में थे मगर मुंशीयाना देकर उसने ये जानकारी हासिल कर ली थी कि पुलिस ने अभी चार्ज शीट नहीं लगाई थी । निशा के मुकदमे की फ़ाइल उसने सुराना के जूनियर वकील को पैसे देकर हासिल कर ली। उस फ़ाइल से उसे ये पता लगा कि पुलिस ने निशा को पहले सिर्फ पूछताछ के लिये उठाया था फिर पुलिस कस्टडी में निशा ने कॉन्फेशन किया कि उसने ही उषा को उकसाया था कि वो खुदकुशी कर ले । पुलिस के कॉन्फेशन लेटर में निशा ने उसका भी जिक्र किया था। ये खबर उसके लिये डरावनी थी यानी कि पुलिस उससे भी पूछताछ कर सकती है । अच्छा हुआ वो थाने नहीं गया था वरना पुलिस वाले उसे भी धर लेते । फिर मार-पीट के उसे भी मुकदमे में कहीं ना कहीं डाल ही देते।
उसने सुराना के यहाँ से फ़ाइल ले ली । फ़ाइल पढ़कर उसे थोड़ा बहुत समझ मे आया। वो इतना तो समझ गया था कि निशा को पुलिस ने कन्फेशन के आधार पर जेल में डाल रखा है ना कि उषा की चिट्ठी के आधार पर। उसी फ़ाइल में उसे उषा की चिट्ठी भी मिली, जिसमें उसने लिखा था कि” मैं अपनी मर्जी से खुदकुशी कर रही हूँ। किसी बात को लेकर मेरे और मेरी बहन निशा के बीच विवाद है। इस बात से हम दोनो में झगड़ा होता रहता है। मैं इस सबसे बहुत आजिज आ गयी हूँ। इसलिये मैं खुदकुशी कर रही हूँ। मेरी मौत का कोई जिम्मेदार नहीं है,,, उषा नन्दिनी,, ”।
अमर ने उस लिखावट को बार-बार सहलाया, उसे चूमा और निहारता रहा । उस खत में मानो उषा लेटी हो औऱ वो उसे निहार रहा हो, ऐसा वो बहुत देर तक करता रहा। फिर रात आई, लेकिन आज सिर्फ उषा ही सामने थी, वो उषा जो उसे पा ना सकी और इस दुनिया से चली गयी। अमर के हाथ मे फिर बोतल थी लेकिन आज दिलेराम की जरूरत ना थी उसे। वो पीकर बेसुध हो गया खुली आँखों से वो उषा से प्यार-मोहब्बत करता रहा, उषा इठलाती-इतराती रही। उषा जब चलने को हुई तब अमर ने कहा-निशा को मैं कभी माफ नहीं करूंगा उसी की वजह से तुम मुझसे दूर गयी हो, कभी नहीं, कभी भी नहीं”।
अगली सुबह अमर इंदरजीत से मिला, उनके पाँव छूकर उसने अपनी पूरी राम कहानी सुनाई और बोला-
“मेरी मद्दद कर दीजिये, आप अगर थाने पर फोन कर दें, तो बात बन जाएगी और हाइकोर्ट का कोई बेहतर वकील बता दें “।
इंदरजीत हँस पड़े, और बोले”मैंने दुनिया देखी है बच्चे, पण्डित होकर तूने मेरा पाँव छू कर तूने मुझे धर्मसंकट में डाल दिया, भई तेरे मामले से मुझे लेना देना तो नहीं है, सही गलत का भी नहीं पता, पर तु अपना बच्चा है इसलिये तेरी मदद तो करनी ही पड़ेगी। “
अमर ये सुनकर आश्वस्त हो गया, इंदरजीत ने चार-पांच जगह फ़ोन घुमाया। कुछ बात की, कुछ मैसेज छोड़ा उसके बाद बोले”पण्डित, उधर के डीसीपी को मैंने फोन कर दिया है । जाकर जांच अधिकारी से मिल लो, कुछ दे दिला देना, चार्जशीट से तुम्हारा नाम निकाल देगा और उस लड़की का जो बन्द है उसका मामला भी हल्का कर देगा। कम से कम दस हजार रुपये ले जाइयो। सर्वेस अस्थाना, अमरजीत पुरी इन दो लोगों से मिलना है तुझे।
मेरा नाम बताना और कहना कि कामत साहब से मेरी बात हो गई है। तुम्हारा काम हो जाएगा। “
“कौन कामत”अमर ने पूछा।
“तुम जाओगे तो पता लगेगा, सारे नाम नोट कर लो, सर्वेस अस्थाना, अमरजीत पूरी, मेरा नाम और दस हजार”ये कहते हुए हारे हुए विधायक ने विजयी स्वर में कहा।
अमर ने सब कुछ नोट किया। तब तक इंदरजीत किसी से फिर फोन में उलझ गए। अमर चलने को हुआ तो तो इंदरजीत ने उसे इशारे से रुकने को कहा। अमर तत्काल रुक गया। थोड़ी देर तक फोन पर बात करने के बाद इंदरजीत ने फोन रख दिया और अमर से कहा-
“क्यों मजनूँ, लड़की को जेल से नहीं छुड़ाना है क्या। या उसे अंदर ही रहने देना है”।
अमर ने झेंपते हुए कहा-“जी छुड़ाना तो है, आप ही कोई राह दिखाइए, आपकी शरण में हूँ”।
इंदरजीत फिर हँस पड़े और बोले”पण्डित बातें तो तू बड़ी लच्छेदार करता है, इसीलिये इतनी लड़कियां तेरे झांसे में आ गईं शायद। अबकी तुझे महिला प्रकोष्ठ में भेजूंगा तो मेरे वोट बढ़ जाएंगे। खैर, ये कार्ड लो, कल परसों इनसे जाकर मिल लेना, एडवोकेट हरित माकन। हाइकोर्ट, डिस्ट्रिक्ट कोर्ट दोनों जगह की प्रैक्टिस है। मैंने बात कर ली है, दस हजार यहाँ भी लगेंगे। ज्यादा बात मत करना, मेरा नाम बताना, पैसा देना, फ़ाइल देना और चले आना। बड़ा शातिर वकील है, बात-चीत करोगे तो उलझा देगा। इतने पैसे हैं तुम्हारे पास”।
“जी हैं, आप ही के आशीर्वाद से कमाया है”ये कहकर अमर ने इंदरजीत के पांव छूने की कोशिश की तो इंदरजीत ने मना कर दिया। इंदरजीत फिर हँसे और अमर भी मुस्कराता हुआ वहाँ से चला गया।
अगले कुछ दिनों में घटनाक्रम बड़ी तेजी से बदला। अमर ने पुलिस चार्जशीट से अपना नाम निकलवा लिया। सिफारिश और पैसों के बदले निशा की भी चार्जशीट में कई माकूल संसोधन हो गए थे, एडवोकेट माकन की सलाह पर। माकन ने बताया कि निशा की जमानत सीजेएम कोर्ट से खारिज हुई थी और जिला जज की कोर्ट से भी। सीजेएम कोर्ट में आम तौर पर गम्भीर मामलों में बेल खारिज हो जाती है और डिस्ट्रिक्ट कोर्ट में कोई वकील जमानत के लिए पेश ही नहीं हुआ था अलबत्ता सुराना का वकालतनामा जरूर लगा हुआ था फ़ाइल में। यानी मनमाफिक पैसा नहीं मिला तो सुराना पेश ही नहीं हुए अदालत में।
रिवीजन की अपील दाखिल हुई डिस्ट्रिक्ट जज की कोर्ट में और पहली पेशी पर ही निशा की जमानत हो गई। अमर और दिलेराम जमानतदार बने। इन सबमें अमर का घर फिर नहीं बन पाया। उसने दुजाना से पैसे वापस ले लिए थे। क्योंकि मुकदमे में एकदम से बीस-पच्चीस हजार का खर्च आ गया था और अभी ना जाने कितने हजार लगने थे। क्योंकि उसका मुकदमा फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट में लगा हुआ था जहाँ बड़ी -बड़ी जल्दी पेशियां लगनी थी। अमर ने सोचा उसके नसीब में शायद घर था ही नहीं, उसका पिछला घर भी अधूरा रह गया था और ये घर भी इस गति को गया।
रेवती ने उसे माफ कर दिया था। अपने वादे के अनुसार अमर ने ना उसकी एक पाई खर्च होने दी थी और ना ही कहीं आना-जाना पड़ा था। दौड़-धूप कम हुई तो उसे उषा की यादों ने आ घेरा । उषा उसे जीने नहीं दे रही थी,
मानो कह रही हो “जिसकी वजह से मेरा जीवन गया उसे तुमने जीवनदान दे दिया, ये कैसा प्रेम है तुम्हारा, तुमने क्या कहा था मुझसे क्या तुम निशा को ऐसे ही जाने दोगे”। “”नहीं, नहीं मैं निशा से तुम्हे खोने की कीमत वसुलूँगा। उसे अमर चाहिये था, अमर मिलेगा मगर अमर का प्यार नहीं, वो हमेशा तुम्हारा ही रहेगा मेरा प्यार, चाहे तुम इस दुनिया में रहो या उस दुनिया में। निशा हमेशा तुमसे हारी ही रहेगी”ऐसा ही कुछ हरदम बड़बड़ाता रहता था अमर।
दिलेराम ने ये बात इंदरजीत को बताई । इंदरजीत ऐसा वफादार बन्दा खोना नहीं चाहते थे। अमर के बहुत मना करने के बावजूद इंदरजीत ने ओमप्रकाश और दिलेराम के साथ जबरदस्ती अमर को मनोचिकित्सक इकबाल मिर्जा के पास भेज दिया। दवा शुरू हुई, चलती गई मगर अमर की हालत में सुधार ना हुआ। वो उषा से बातें करता रहता दिन-ब-दिन बावला भी होता जा रहा था और शराब ही उषा से उसकी मुलाकात का जरिया थी सो वो जरिये के जरिये उषा से मिलता रहता।
बस्ती में, परिचितों में ये बात धीरे-धीरे फैल रही थी कि अमर के दिमाग में कुछ ना कुछ दिक्कत हो गई है। दिलेराम ने फिर मनोचिकित्सक को दिखाया और हाथ जोड़ कर कहा-“डॉक्टर साहब, अमर भाई की जिंदगी किसी तरह बचाओ”। ।
इकबाल मिर्जा ने कहा “ -
दवा से ज्यादा इसके माहौल को परिवर्तन कारगर रहेगा यानी कि अकेलापन इसका सबसे बड़ा दुश्मन है। जब तक काम काज करता रहता है तब तक तो ठीक रहता है अकेले होते ही उषा की याद उसे घेर लेती है और उषा से अपने हिसाब से मिलने के लिये ये शराब का सहारा लेता है उसका विकल्प ये है कि ये उषा को ना सोचे तो शराब भी ना पिये। मरी हुई लड़की को ना सोचने का विकल्प ज़िंदा लड़की हो सकती है। वरना शराब और सोच इसे बर्बाद करके रख देगी”।
दिलेराम, रेवती से मिला। उसे ये बात बताई। उसने कहा-
“अमर ने दुजाना से प्लाट के सारे पैसे वापस ले लिए हैं, वो अपनी कमाई और जवानी बर्बाद कर रहा है। आपकी मरी हुई बेटी से बातें करने के लिए रोज शराब पीता है । तिल-तिल मर रहा है वो, आप उसे अपना बेटा मानती हैं और वो आपको अपनी माँ। उसे बचा लो, डॉक्टर ने कहा है कि अमर आपकी मरी हुई बेटी से ना मिले इसके लिये जरूरी है कि कोई जिंदा लड़की उसके साथ रहे। अब आप देखो अपना लड़का कैसे बचाना है आपको”।
रेवती चिंता में पड़ गयी। उसने थोड़ी देर तक विचार करने के बाद दिलेराम से कहा –
“ठीक है, कल दोपहर अमर को ले आना, एक बजे के आसपास । मैं कोई ना कोई रास्ता निकालूँगी”।
अमर निशा के सामने पड़ना नहीं चाहता था न जाने क्यों। जब शराब के सुरूर में होता तो निशा उसे अपराधिनी नजर आती और जब होश-हवास दुरुस्त रहता तब वो खुद को निशा का गुनाहगार समझता था। लेकिन ज़िन्दगी सोच और इमोशन से बड़ी होती है । अगले दिन दिलेराम अमर को लेकर हाज़िर हुआ। मौका देखकर दिलेराम नीचे उतर आया। उसी ऊपर के कमरे में रह गए निशा, अमर और रेवती । रेवती ने सोचा मैं भी थोड़ी देर के लिये हट जाऊं अमर और निशा आपस में बातें कर लें उनके गिले-शिकवे मिट जाए, शक-शुबहा पर बातें कर लें क्योंकि जिंदगी उन्हें ही साथ बितानी है, क्योंकि अब अमर और निशा के बीच प्रेम के अलावा भी बहुत कुछ था।
रेवती ने उठते हुए कहा “मैं नुक्कड़ से किचन का कुछ सामान ले आती हूँ, तब तक तुम लोग बातचीत करो, और हाँ पुरानी बातें भूल जाओ । मैं बस पांच मिनट में आती हूँ”ये कहते हुए रेवती कमरे से निकल गयी।
निशा को अमर ने देखा, वो मानों जिंदा लाश हो, उसके चेहरे पर ज़िन्दगी के उल्लास का कोई निशान ना था। निशा ने अमर को देखा शराब और बावलेपन ने उसे भी एक खण्डहर इमारत बना दिया था जहॉ से रोज ज़िन्दगी कम होती जाती थी। वक्त की मार से दोनों बेबस थे, उनमें जीने, जीतने का कोई जज्बा ना बचा था।
दोनों को एक दूसरे की हालत पर अफसोस हुआ। अमर ने कहा-
“मैं दो जन्म भी लेउँ तो मेरे पाप धोने को कम पड़ जाएंगे। हो सके तो मुझे माफ़ कर दो निशा। सब कहते हैं कि मेरे ज़िंदा रहने के लिये मुझे तुम्हारी ज़रूरत है। मैं जीना नहीं चाहता, लेकिन अब मैं तुम्हारी माँ का बेटा भी हूँ। वो चाहती हैं कि मैं जिंदा रहूं इसलिये । मुझसे शादी कर लो निशा। मुझे तुम्हारी बहुत जरूरत है”।
कमरे में बड़ी देर तक चुप्पी छाई रही। निशा ने ना तो नजर उठाई और ना ही कुछ कहा। अमर को जब ये सब असह्य हो गया तो उसने कहा –‘”निशा कुछ तो बोलो प्लीज”।
निशा ने धीरे से कहा “अब भी, आप ऐसा सोच भी कैसे सकते हैं। मेरी ज़िंदगी आपकी कविता की कॉपी नहीं है कि जब चाहा, गोदा, फाड़ा, फेंक दिया और फिर जब जरूरत पड़ी तो उठाकर लिखने लगे। लडक़ी हु मगर इंसान हूँ। तुमने पाला बदल लिया तो मैं नहीं बदल सकती क्या। मैं पाला नहीं बदलूंगी। मैदान ही छोड़ दूंगी। किसी पुरुष से कभी वास्ता नहीँ रखूंगी। मैंने अपनी ज़िंदगी में दो पुरुष देखे, एक अपना पिता और दूसरे तुम, दोनों ही एक जैसे औरत को गोश्त समझने वाले। फिर तुम तो हर्गिज़ नहीं, तुम इस दुनिया के अंतिम पुरुष होवोगे जिससे मैं शादी की बात सोचूँ। उषा की लाश मैं अपना घर बसाउंगी तुमने सोचा कैसे। मुझे अफसोस है कि तुम मेरी बहन को उस रात हासिल नहीं कर पाए और ना मुझे। वैसे भी अब जिंदा लाश हूँ मैं। माँ का मुंह देखकर ही जी रही हूँ। वरना कबका खुद को खत्म कर लेती। मैंने तुम पर प्रेम किया, भरोसा किया तो यही सजा मिलनी चाहिये मुझे। ये हर्गिज़ ना होगा, मेरी माँ को तुमने माँ-बेटा की खूब पट्टी पढ़ाई है। वो सीधी और अनपढ़ हैँ, मैं नहीं। ये कभी नहीं होगा । “
“ऐसा मत कहो निशा, मैं अपने किये की बहुत सजा भोग चुका हूँ, भले ही विवाह ना करो, लेकिन मुझे माफ़ कर दो”
निशा ने कुछ नहीं कहा । वो नजरें नीची किये बैठी रही ऐसे ही काफी देर बीत गया तो अमर उठा और जाने लगा उसने कहा-
“कहा-सुना माफ, अब जाता हूँ, दुबारा शायद कभी नहीं आऊँगा। “
“रुकिए ऐसे क्यों जा रहे हैं, खाली हाथ कुछ वसूल कर जाइये। आपने हमारा घर बिकने से बचाया है, मुझे जेल से छुड़ाया है। हम माँ-बेटी का उद्धार किया है। आपने पचासों हजार मेरे लिए खर्च कर दिये। अपना प्लाट तक बेच दिया। कैसे चुकाउंगी ये कर्जा। आपको बड़ा अफसोस था ना कि उस रात आप मुझे हासिल नहीं कर पाए थे। अब ये तमन्ना पूरी कर लें । इसीलिये शायद मेरी माँ टल गयी है । आइए भोगिये मुझे आज और बार, बार जब आपका दिल करे, इस घर के दरवाजे आपके लिए हमेशा खुले हैं। जब तक आपका पैसा वसूल ना हो जाये मुझे भोगिये, फिर भी मन ना भरे तो मेरी माँ को भी भोगिये। आपकी पाई-पाई वसूल होनी चाहिये हर हाल में, है ना सड़कछाप नेता जी”।
अमर तमककर खड़ा हुआ, उसने अपना हाथ ऊँचा उठाया निशा की पिटाई करने के लिये। निशा ने उसे विस्फारित नजरों से देखा और वो भी खड़ी हो गयी तमककर। अमर ने अपने हाथ को हवा में ही रोक लिया और मुट्ठियां भींच ली। दोनों एक दूसरे को इसी अवस्था मे बड़ी देर तक देखते रहे लेकिन कोई आगे ना बढ़ा और ना कोई बोला।
अमर थोड़ी देर बाद सीढ़ियों से उतर आया और दिलेराम को चलने का इशारा किया दिलेराम मोटर साइकिल पर बैठ गया। वो गली के नुक्कड़ से मेन रोड की तरफ बढ़े तो सामने से रेवती कुछ सामान लेकर आती हुई दिखी। अमर ने उससे बच के निकलना चाहा, लेकिन रेवती आगे खडी हो गयी। अमर को देखकर उसने हँसते हुए कहा-
“माँ से भागकर कहाँ जाओगे बेटा। क्या हुआ निशा ने इनकार कर दिया”?
“जी, बहुत बुरी तरह से, वो तो मेरी शक्ल तक नहीं देखना चाहती”अमर ने असमंजस से कहा।
“उतरो, उतरो तो बताऊं मेरे साथ आओ”ये कहते हुए रेवती ने अमर का हाथ पकड़कर उसे मोटरसाइकिल से उतार दिया। फिर दिलेराम की तरफ मुखातिब होते हुए बोली “आप जाओ दिलेराम जी, ये मोटसाइकिल भी ले जाओ, और शाम को इनके कपड़े और सामान लेकर चले आना । अब कुछ दिन ये यहीं रहेंगे। विधायक जी को भी बता देना। और वहाँ का कमरा सही रखना अब ये दुल्हन लेकर ही उस कमरे में लौटेंगे। अब आप जाओ, चिंता मत करना”।
दिलेराम ने अमर को देखा, बड़ी तेजी से हँसा और अमर की सहमति लिए मोटरसाइकिल को गियर में डालते हुए निकल गया। रेवती फिर अमर से मुखातिब हुई और बोली”एक लड़की को मना नहीं सके पब्लिक को कैसे मनाओगे बेटा। कैसे कामयाब नेता बनोगे मेरे माटी के महादेव “ ये कहते हुए रेवती अमर का हाथ पकड़कर उसे अपने घर की ओर चल पड़ी। रेवती को खिलखिलाते हुए देखकर अमर भी शर्माते हुए मन्द-मन्द मुस्करा रहा था।
समाप्त