तपते जेठ मे गुलमोहर जैसा
सपना सिंह
(11)
नीरू ने अप्पी को देखकर उत्साह दिखाया।टूर की बाते पूछीं ..... क्या-क्या शाॅपिंग की ... क्या - क्या देखा। कुछ ही देर अप्पी का मन उकता गया .... जी चाहा अभी उठ कर यहाँ से इस भीड़ भाड़ हज हज से ... इस घर से भाग खड़ी हो.... अच्छा नीरू दी ... मैं सोने जा रही हँू ..... शाम को बात करेंगे ..... ’’ कहकर वह उठ गई। भन्नाई हुई ही वह ऊपर कमरे में पहुँची। जाने कैसी चिड़चिड़ समा गई सुविज्ञ को अपने कमरे में देखकर। .... अजीब सी उलझन हो आयी। उसे लगा जैसे शरीर का सारा खून सिर पे इक्कट्ठा हो रहा है .... सुविज्ञ उसकी बदहवासी देखकर अचकचा गया था .... बिस्तर पर से पत्रिकायें उठाते उसने अप्पी को स्नेहसिवत नजरों से देखा और धीरे से कहा...’’ मिल आई सबसे।’’
अप्पी ने कोई जवाब नहीं दिया ... इस समय सुविज्ञ की इस कमरे में उपस्थिति जाने क्यों उसे इतनी बेतुकी लग रही थी ... जाने क्यों वह उस पर चीख पड़ना चाह रही थी .... उसे देख अपने आप से उसके जबड़ों में किटकिटाहट मच रही थी .... मन हो रहा था इस आदमी को जगह जगह से नोच कर लहूलूहान कर दे ... कि उसके कपड़ों को चीथ-चीथ कर उसके पूरे शरीर पर अपने नाखूनों के निशान बना डाले ... कि ...कि..... उसके सीने को अपनी मुट्ठियों से पीटकर टुकड़े-टुकड़े कर डाले ....।
‘‘क्या बात है अप्पी ?’’ सुविज्ञ अब तक खड़ा हो चुका था।
‘‘अब आप प्लीज कहीं और जाकर ‘‘अप्पी ने अस्त व्यस्त भाव से कहा ।
‘‘तुम्हारी तबियत ठीक है न ...।’’ अप्पी के इस अप्रत्याशित व्यवहार से सुविज्ञ असुविधा महसूस रहा था। ’’पता नहीं.....थकान के मारे ... मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा .... सोना चाहती हॅूँ कुछ देर ....’’ अप्पी के चेहरे के भाव पूर्ववत थे .... पर आवाज अपेक्षपाकृत समान्य थी ....
‘‘ ठीक है .... सो जाओं ....’’ कहकर सुविज्ञ नीचे चला आया।
बिस्तर पर पड़ते ही अप्पी को नींद ने धर दबोचा ... सोकर उठी तो शाम घिर आई थी ..... वह अपने को काफी बेहतर महसूस कर रही थी। सिर झटककर उसने सारे अगड़म सगड़म विचारों को दीमाग से परे हटाने को कोशिश की। बिस्तर से उतरकर एक भरपूर अगड़ाई ली ... लिखने की मेज के पास जाकर खिड़की का पर्दा हटा कुछ देर बाहर घिरती सांझ को देखती लम्बी लम्बी सासें लेकर ताजी हवा फेफड़ों में भरी .... मुॅँह घुमाकर भरपूर नजर पूरे कमरे में डाली मानों .... पहली बार देख रही हो .... आकर कुर्सी पर बैठ गई, निरूदेश्य मेज पर धरी किताओं को पलट कर खोलकर देखा .... बेमतलब दराजं खोलती बंद करती रही ... और तब उसे ध्यान आया कि अभी तक बाल तो सुलझाया ही नहीं। कंघा लेकर वह आइने के सामने चली आयी .... एकबारगी उसे अपना वजूद बेहद अपहचाना लगा।
एकदम सोकर उठने पर पूरा व्यक्तित्व ही शायद एक अलग आभा से युक्त हो जाता है ... धुले उलझे बाल..... आँखों में खुमारी.....। धीरे-धीरे गुनगुनाते हुए उसने बाल सुलझाये और ढीली चोटी गूंथ ली .... ऐसा करते हुए वह शीशे में अपने चेहरे को निहारती भी...... जा रही थी। अपनी बड़ी आँखों में फैली भोलेपन को चमक उसे आश्चर्यचकित कर रही थी .... उसने आँखें कई बार झपकायीं ..... ये खड़ी धारदार नाक ... और बिजली की तरह लाइट देती लौंग ... हल्के से खुले होंठ। अपनी ही छवि पर मुग्ध होती हुई अप्पी नीरू दी के पास आ गई ...फिर तो बहुत सा समय सबको शाॅपिग की चीजें दिखाते ही बीत गया .... जिसके लिए जो लाई थी उसे दे दिया। इस सबसे फुरसत पाकर ... वह फिर अन्य कार्यों में व्यस्त हो गयी। कुछ ही देर में मौसा मौसी मामी सभी हर बात के लिए उसे ही पुकारने लगे ... कौन सा सामान कहाँ रखना है ..... किसे क्या देना है ....। बाहर से कोई आदमी आता फंला समान चाहिए .... मौसी तुरंत उसे अप्पी से पूछने बताने को कहती। नीरू का कुछ घटा बढ़ा हो उसे भी अप्पी को देखना पड़ता। रीमा को साथ लेकर दो बार वह बाजार के चक्कर भी लगा आई .... सुरेखा ने कहा नीरू की ज्वेलरी लहगें के साथ मैच नहीं करती .... मोतियों का जड़ाऊ सेट अच्छा लगेगा ... उसे साथ ले फिर ब्यूटी पार्लर गई .... सुरेखा ने ज्वेलरी पसंद की।
रात में ऊपर नीचे चढ़ती उतरती अप्पी का सामना फिर सुविज्ञ से हो गया था। सुविज्ञ अधीर हो उठा था। उसने अपने को नजर अंदाज कर निकल जाती अप्पी का हाथ पकड़ एकाएक अपनी ओर खींच लिया था ... अप्पी इस खिचांव मंे अधिकार की भावना महसूस कर सिहरी ...... थी। सुविज्ञ ने तुरंत ही उसका हाथ छोड़ भी दिया। ...सुना .... बहुत खरीदारी की है .... मेरे लिए नहीं लाई कुछ ...?’’
..... ऐसा कुछ है भी .... जो आपके पास न हो ... अप्पी ने हल्के स्वर में कहा।
‘‘जब तुम सामने होती हो ..... तब जाकर लगता है कि मैं पूरा का पूरा कंगाल हॅूँ... सबसे कीमती चीज तो मैं खो चुका हॅँू....’’
‘‘लगे डायलाॅग झारने ... इतने दिनमें एक बार भी अप्पी याद न आई होगी .... और आप क्या लाये हमारे लिए...।’’
‘‘बिल्कुल लाया हॅूँ मैं .... भला ये भी कोई भूलने की बात है....।’’
क्या लाये हैं...’
पहले आंखे बंद करो ...’
अप्पी ने अपनी आँखे मंूद ली ... मूंदी आँखों से ही उसने सुविज्ञ का अपने करीब आना महसूस किया .... उसके हाथों की पकड़ को अपनी बाहों पर महसूसा और हाथ धीरे-धीरे चेहरे की ओर बढ़ा .... अपने चेहरे पर बेहद अस्थिर सासों का उफान महसूस कर अप्पी ने झट आंखे खोलनी चाही पर, अधमुंदी आँखों पर ही सुविज्ञ के होठ टिंक गये। ‘‘मैं समझता हॅँू यही एक चीज है जो तुम्हारें पास नहीं ....’’ फुसफुसाहट ... फिर होठों का स्पर्श सारे चेहरे पर यहाँ वहाॅँ फैलता ठुड़ठी के छोर को छूता नीचे पतली गर्दन पर से गुजरते गर्दन के पिछले हिस्से पर बायीं ओर स्थित बड़े से तिल पर जाकर रूक गया .... एक लौ सी दौड़ती चली गई..... एड़ियों तक ... लगा जैसे वह अस्तित्वहीन हो गई है। आँख पनिया आई .... उसने सुविज्ञ के सीने में से मुंह उठाकर उसे देखा .... वह मुस्कुरा रहा था। अप्पी के .... भरे गले से सिर्फ एक शब्द निकला ... ‘‘थैक्स।’’ वह मुड़ी और भागती चली गई... वह छत का पिछला हिस्सा था ... वहाॅँ जाकर अप्पी ने ठहर कर गहरी सांस ली और ऊपर आकाश को देखा ... ढेरो ढेर तारे और उन सब के बीच खिलखिलाता चाँद .... लगा मानों सब के सब उसकी इस प्राप्ति पर उसे बधाई दे रहे हैं- हे ईश्वर .... वह बुदबुदाई।
अगले दिन शादी की व्यस्तता ... अप्पी का मन रह रह कर उचट सा जा रहा था ...... कहाँ तो नीरू दी की शादी का कितना चाव था उसे ..... अब हाल ये है कि जी चाहता है.... इस सबसे कहीं दूर भाग जाए ..... कुछ है जो उससे बरदाश्त नहीं हो रहा...... शायद सुरेखा का अस्तित्व .... सुविज्ञ के साथ इसका रिश्ता ... सूखी नदी में कश्ती डालेगी तो मंजिल मिलना तो दूर.... कश्ती तो हिलेगी भी नहीं .... कुछ पानी होता तो कश्ती हिलती तो ... हिल डुल कर सफर में होने का.... बने रहने का एहसास तो रहता। ये कौन से मंजिलों की तलाश में उसने अपनी कश्ती सूखी नदी में छोड़ी है।
सुविज्ञ का परिवार सबसे बाद में गया। अप्पी ने सुविज्ञ से कोई बात नहीं की ... बस्स चुपचाप उसे और उसके परिवार को जाते हुए देखती रही। सारा घर भायं -भायं कर रहा था। मम्मी पापा के साथ चली जाती तो ठीक था ... पर मौसाजी नाराज होने लगे थे - पूरा घर खाली हो गया - अब तुम भी चली जाओ ...।
... मम्मी ने फिर उसे रोक दिया ..... कुछ दिन बाद आ जाना .... कह के! अब घर में सिर्फ मौसा-मौसी .... मझली मामी और अप्पी।
अपने ही मन की दशा अप्पी की समझ से बाहर है। अब तक तो वो समझे बैठी थी .... उसको अपने मन पर पूरा नियंत्रण है .. पर अब सब छूटता सा लग रहा है ... एक बिखराव सा ... महसूस होता है ... किसी काम में मन नहीं लग रहा .... हर वक्त पड़े रहने को जी चाहता। सिर्फ एक दृश्य मानों दिल में कहीं अटक सा गया था ... सुविज्ञ सुरेखा के कार में बैठकर जाने का दृश्य ... उफ उन्हें तो जाना ही था ... वह क्यों इतनी हताशा महसूस कर रही हैं। ऐसा क्या अप्रत्याशित घटा था .... सब कुछ वैसा ही था ... जैसा होना था.... जैसा होना चाहिए था।
हर दिन जब बीतता ... लगता कल सब ठीक हो जायेगा ... वह पहले जैसी हो जायेगी पर अगला दिन फिर वैसा ही होता .... उतना ही उदास ... वैसा ही लो....। लाइबे्ररी जाकर खूब सारी किताबे ले आई। लगा था दूसरों के जीवन की दुख दर्द की कथा में खुद को डुबो देना शायद उसे मन की इस दारूण अवस्था से उबरने में मदद करे पर वह तो और इसमें फंसती जा रही है .... अपना आपा इतना कमजोर ... उसे खुद बरदाश्त नहीं हो रहा था। जीवन की जो चमक उसकी आँखों में कौंधती थी ... उसकी जगह एक विराने ने ले ली थी ... मौसा - मौसी उसकी अन्यमनस्कता देख कर ..... सोचते ... वह नीरू को मिस कर रही है। अभिनव कई बार आया ... जो अप्पी कभी उसके पास बैठती नहीं थी .... अब वहीं बैठती जहाँ वह मौसा मौसी .... सब बैठे होते। उनकी बाते सुनती ... पर कहा क्या जा रहा है ... कुछ समझ नहीं आता .... अभिनव को भी उसकी उदासी खल रही थी ...
‘‘अप्पी ... चल मूवी चलते हैं. ..... उस दिन आते ही अभिनव ने प्रस्ताव रखा ... फिल्में अप्पी की कमजोरी थी। मूड होने पर वह कैसी भी फिल्म देख लेती थी पर परेशानी ये थी कि खराब मूड में वह फिल्म नहीं देखती थी। फिल्म देखना उसके लिए एक पूरे मन का काम होता था ... बकायदा सेलीब्रेशन।
‘‘कौन सी फिल्म...?’’ अभिनव खुश हो गया था उसके पूछने पर....।
‘‘दीवाना। ... वो सर्कस वाला हीरो है ...... शाहरूख खान।’’ उन दिनों अप्पी शाहरुख के पोस्टर ढूढती थी। ’चलो’ ...। कहकर अप्पी तैयार होने चली गई....। शायद इस समय अभिनव कहीं और भी कहता चलने को तो अप्पी चली जाती ... अभिनव नहीं कोई और दोस्त होता .... उसके साथ भी चली जाती।
फिल्म में उसने मन लगाना चाहा .... पर यही तो बात थी कि मन किसी भी ... मन के काम में भी नहीं लग रहा ... इन्टरवल के बाद उससे और बरदाश्त नहीं हुआ ... उसने अभिनव के कंधे पर सिर टिका दिया.... और निःशब्द रोती रही। अभिनव एक पल को चैंका था... अप्पी के इस कमजोर रूप की उसने कभी कल्पना भी नहीं की थी ... पर उसने कुछ कहा पूछा नहीं सिर्फ अपनी बाॅँह को भीगता महसूस करता रहा .... और अप्पी की हथेली अपने हाथ में ले ली।
***