तपते जेठ मे गुलमोहर जैसा
सपना सिंह
(9)
सुविज्ञ की शादी से लौटकर नीरू जब बड़े उत्साह से अप्पी से मिलने हाॅस्टल गई तो अप्पी को गर्दन तक रजाई लपेटे पड़े पाया। नीरू को देख वह थोड़ी चेती थी .... मुस्कुराई भी थी... पर बोल एक शब्द भी नहीं पाई थी। भयंकर सिरदर्द और तेज बुखार ने उसे पस्त कर दिया था।.... शाम को ही मौसाजी और मौसी जी भी आये ... वार्डन से बातें की और जब वो लोग लौटे तो कार की पिछली सीट पर अप्पी भी मौसी की गोद में सिर धरे पड़ी थी ...। एक-एक करके अप्पी का सारा समान भी हाॅस्टल के कमरे से मौसी की कोठी में आता जा रहा था ... अप्पी आश्चर्य प्रकट करती ... आखिर तबियत संभालते ही उसे हाॅस्टल चले जाना था।
नीरू उसे छेड़ती ... आखिर भाभी जी अपने ससुराल आ ही गई। वह उसके पास हमेशा बनी रहती। धीरे-धीरे वह स्वस्थ हो रही थी। बीच में एक बार वह घर भी गई ... मम्मी,पापा, भाई-बहनों के साथ हफ्ता गुजार कर मन थोड़ा स्वस्थ हो गया था। मौसी जी की कोठी में अप्पी की उपस्थिति की छाप जहाँ तहाँ नज़र आने लगी थी .. ऊपर के एक कमरे में अप्पी और नीरू ने अपना कमरा बना लिया था। अप्पी और नीरू देर रात तक बातें करती ... कभी नीरू सो जाती... अप्पी पढ़ती रहती ... कभी नीरू भी जगकर बुनाई करती या कोई कशिदाकारी......।
महराजिन अब तक ये जान चुकी थी .....अप्पी बहिनी चाय बहुत पीती है ..... चाय के लिए वह कभी नहीं नहीं करती और खाने के लिए कभी हाँ नहीं ..... छोटे चाचा भी अप्पी बहिनी के लिए हर वक्त मुस्तैद रहते। अप्पी को ये व्यक्ति भी अजीब ही लगते। इतने दिनांे में वह जितना उनके विषय में जान पायी थी .... उसपर तो एक अलग ही कहानी कही जा सकती थी। जाति के नाऊ थे। मौसाजी के पूर्वजों ने उनके .... पूर्वजों को कुछ जमीने दी थीं। सो सहज ही वह उनके मालिक अनन्न्दाता हो गये थे। छोटे चाचा का असली नाम कोई नहीं जानता था। छुटपन में ही घर से भाग गये थे। चोरों, डाकुओं के गिरोह में रहे ... तो साधु संतों के झंुड में शामिल होकर पूरा उत्तर भारत दक्षिण भारत की खाक छान आये। मौसाजी तो जब कभी उन पर गुस्सातें तो कहते..... अरे छोटुआ बड़ा गुरू धटांल है ऐके कम न समझिए लोगन ... जरूर कउनों के खून ... खच्चर करिके आबा होई...... जबे इहाॅँ छुपल बा ....।
छोटे चाचा, ‘‘का बाबूजी.... रौउरो का कहत हई’’... कहकर हंसते। मौसाजी जो कुछ भी कह दें ....कभी नकरते नहीं। अप्पी के लिए ये सब नया सा ही है। उसका साबका ऐसे वर्ग से नहीं पड़ा था ... जहाँ आदमी को अन्नदाता समझा जाय ... पर मौसाजी थे अन्नदाता। उनके गाँव में कोई भी उनसे आँख मिलाकर बात नहीं करता था।
अप्पी ने मम्मी लोगों की बातों में एक बार सुना था ....। मौसाजी ने गुस्से में आकर चमार जाति के किसी आदमी को गोली मार दिया था। ‘तबै त उन कर वंश नाहि चल पायी ... मझली मामी जी कह रही थीं। ब्राम्हमण और चमार की हत्या वर्जित है। शास्त्रों के अनुसार दोनों मरकर बरम बनते हैं।
‘उहै बरमवा त दीदी जी के बंश नाही चले दे ता ... नाही त दू-दू ठो बेटा का सउरीये में मर जाते ... मामी कहतीं ... मामी की बातों पर अप्पी को हैरत होती ... इतने स्नेही मौसाजी भला किसी की जान कैसे ले सकते हैं। पर मौसाजी का क्रोध भी देखा था उसने....। किसी न्यौता से लौटे थे उस दिन। घड़ी और पर्स नहीं था.... उनके खाने पीने, बिस्तर बिछाने, दातुन कुल्ला कराने, पखाने में पानी रखते .... आदि कामों के लिए। मौसाजी उसी पर फिरंट थे ... और जितना ही वह कहता ... हम नाहीं जानेनी बाबू ....उतने ही गुस्से में उसे दो चार हाथ जड़ देते । मौसी और दीदी लोग बराबर उसे चुप रहने को कह जा रही थीं पर वह नीरीह लड़का बार-बार न जानने की बात करता और मार खाता जाता।
अप्पी ने अपने घर में ऐसी मारपीट नहीं देखी कभी। पापा के चपरासी जो घर के काम करते अप्पी और उसके भाई-बहन उन्हें जी और आप के साथ ही सम्बोधित करते ...
मार्च और अप्रैल में अप्पी .... इम्तहान की तैयारी में व्यस्त रही। जाड़े के सारे दिन और रात चुपचाप बीत गये थे। दिन फैल रहे थे। अप्पी सुविज्ञ के विषय में बिल्कुल नहीं सोचती थी... ये तो नहीं कहा जा सकता, पर अब उसका दिल डगमगाता नहीं था। बस दिल में एक नाम उभरता होंठ उसे बुदबुदाते और आॅँखों के आगे सुविज्ञ का चेहरा खिंच जाता ... वह प्रफुल्लित हो उठती इस बीच सुविज्ञ के पिता ने विवाह का विडियों कैसेट भेजा था। सबके साथ बैठकर अप्पी ने भी देखा-सगाई से लेकर एटहोम तक की विडियों रेकार्डिंग।
सगाई सुविज्ञ के बनारस स्थित घर में हुई थी। ड्रांइगरूम का दृश्य, कैमरा दीवारों पर से गुजरता है.... और एक पोस्टर पर रूक जाता है.... एक छोटा सा बच्चा जो कुत्ते के तीन-चार बच्चों से घिरा था ... इफ यू लव समबड़ी, यू शो इट... अरे ये पोस्टर तो वह पिछले जाड़ों में लाई थी, और फिर उससे अरूण ने ले लिया था इसे मैं अपने कमरे में लगाऊँगा। वह अपराजिता से डेढ़ साल छोटा था और इलाहाबाद विश्वविद्यालय में बी.एस.सी. द्वितीय वर्ष का छात्र था। अप्पी और उसकी खूब पटती थी और झगड़ा भी खूब होता था।
सगाई के समय गाना बज रहा था मेरी बन्नों को कोई मत देखो ... नजरिया ल जइहैं ...’ सुविज्ञ का चेहरा बिल्कुल वैसा ही था जैसा कि किसी भी ऐसे व्यक्ति का हो सकता है जिसकी सगाई हो रही हो ..... और वह मन ही मन आश्वस्त हो कि ... हर कहीं सबकुछ ठीक है।
तिलक की रस्में ... विवाह की रस्में विदाई.... गृहप्रवेश ... नई दुल्हन को देखने की होड़ ... द्वार छिकाई... मुँह ..... दिखाई की रस्म ... अप्पी सोचने लगी लाख वह इन सबमें अविश्वास करती फिरे, लाख उसे ये सब उठक बैठक लगे ... पर कितना खींचता है ये सबकुछ अपनी ओर ... कितना पवित्र आकर्षण गुंथा हुआ है .... कितना गरिमामयी है ये सबकुछ... सुविज्ञ के मम्मी पापा बहन-बहनोई का सुरेखा को खींचकर चूम लेना ... आर्शिवाद देना। मम्मी बार-बार उसपर से निछावर कर रूपयों कर रूपयों की गड्डी लुटा रही है .... ओह। क्या ये सब उसके हिस्से में नहीं आया... इसलिए वह इन सबसे घृणा करने लग पड़े ... ये तो अपने आप को कुंठित कर लेना हुआ ...।
कैसेट खत्म होने पर अप्पी कमरे से निकल कर जब बाहर खुले में आई तो सिर झटककर ऊपर आसमान की ओर देखते अप्पी के दिमाग में सिर्फ दो-तीन बाते ही थीं...... सुरेखा जी बेहद खूबसूरत हैं .... शादी वाकई शानदार थी .... चलो ये भी ... गुजर गया।
जैसे तैसे इम्तहान के धुकपुकी वाले दिन भी बीत गये। अप्पी में प्रतिस्पर्धा की भावना का खासा अभाव था। कुछ बड़ा कर गुजरने की महत्वाकांक्षा भी नहीं थी ...... बस्स ठीक-ठाक नम्बर मिलते रहे.... और चाहने पर वह आगे कुछ कर सके।
इम्तहान से फुरसत पाते ही फिर नीरू दी की शादी की तैयारियों में व्यस्त। जब देखो तब, गोलघर, उर्दू, गीता प्रेस के चक्कर लग रहे हैं। नीरू और अप्पी बैठी कभी साड़ियों में फाॅल लगातीं ... कभी दर्जी के पास ब्लाउजों की डिजायन को लेकर माथापच्ची करतीं ... कभी सिलाई मशीन पर पेटिकोटों की सिलाई में बारी-बारी से जुटी होतीं। घर की व्यवस्था धीरे-धीरे अप्पी के हाथों में आ रही थी ... जैसे पहले हर काम के लिए नीरू की पुकार मचती थी वैसे अब अप्पी को पुकारा जाने लगा था एक डायरी और पेन लिए वह मौसाजी के पास तो कभी मौसी के पास बैठी हिसाब-किताब लिख रही होती। मन ही मन अपनी इस भूमिका पर उसे आश्चर्य होता ... कभी सोचा भी नहीं था कि रूपये पैसे ... अनाज दाल की व्यवस्था भी वह कर सकेगी। इन मामलों में तो वह हमेशा से ही लद्धड रही थी। पर अब देखो कैसे सबकुछ आता जा रहा है।
उधर यूनिवर्सिटी में टूर का प्रोग्राम बन गया था। लम्बा टूर था हफ्ता दस दिन से कम क्या लगते। अप्पी चेंज के लिए जाना चाहती थी। यूँ भी उसे पर्यटन का शौक था .. फिर उसके क्लसमेट्स भी इनसिस्ट कर रहे थे। अप्पी पशोपेश में थी एन शादी के समय कौन जाने देगा उसे। सबसे अधिक पीछे तो अभिनव पड़ा था। मौसाजी के पुराने परीचित का बेटा था। बड़े अच्छे लोग हैं कि तर्ज पर अभिनव साहब को जब तब घर आने की छूट थी ... ये तो गनीमत थी कि अप्पी को उसके पास बैठकर बतियाने की फुरसत नहीं थी।
..... वह आता, मौसा मौसी जी, नीरू दीदी से ही बतियाता, कभी-कभी अप्पी भी बातचीत में शामिल हो जाती ... ज्यादातर तो यही होता कि वह ऊपर कमरे में किसी पेटिंग में व्यस्त होती या कुछ पढ़ रही होती.. और जब नीचे आती तो पता चलता अभिनव आये थे ....
अजब पीछे पड़ गये हैं जनाब .. अच्छे खासे इलाहाबाद युनिवर्सिटी से इकनाॅँमिक्स फस्र्टक्लास एम.ए. थे ... अब दुबारा एम.ए. करने गोरखपुर आने की क्या जरूरत थी। और करना ही था तो फिर क्या फिलाॅसफी ही रह गई थी। फस्र्टईयर तक तो जनाब हाय हैलो तक ही रहे। शुरूआत हुई थी अपराजिता जी से ... अब सिर्फ अपराजिता कहा जाता है ... आप और जी को छोड़कर सीधे तुम पर आ गये। यूनिवर्सिटी में अप्पी का कोई काम हो अभिनव जी हाजिर रहते। पता चला अपराजिता को पढ़ने का शौक है तो बातचीत में साहित्य को जरूर घसीटे रहेंगे... हर महीने किताबों से लदे फंदे दरवाजे पर हाजिर हो जायेंगे। वल्र्ड क्लासिक्स की अच्छी जानकारी थी अभिनव को ... पता नहीं खुद वह पढ़ता था या नहीं .... पर अप्पी के लिए वह ढूढ़ ढूढ़ कर बेहतरीन किताबें लाता। पर ये सब वह करता बड़े कायदे से ... अपना ऐंठूपन बनाए रखकर और बगैर किसी लल्लों चप्पों के। अप्पी उससे वैसे ही मित्रवत व्यवहार करती जैसाकि अपने ग्रुप के .... लड़कों से। पर ये जरूर था कि उनका जो आठ-दस लड़के लड़कियों का ग्रुप था ..... जो किसी भी खाली पीरियड में साथ बैठते थे .... साथ ही पिकनिक का प्रोग्राम बनाते थे या विभाग के अन्य प्रोग्राम में साथ ही हिस्सा लेते थे ... उसमें सहज ही अभिनव शामिल हो गया था ... और ज्यादातर जब ग्रुप के अन्य लोग आपसी चुहल में व्यस्त होते ..... अपराजिता और अभिनव किसी गूढ़ विषय पर बहस कर रहे होते । अप्प्ी के तर्क और जवाबों का जब अभिनव कोई प्रति उत्तर नहीं दे जाता तो वह गुस्से में चुप्पी साथ लेता। अप्पी का हर बात में तर्क करना उसे आहत कर देता। अन्य लड़कियों की तरह चलो क्या फायदा बहस करने से..... की तर्ज पर उसे चुप्प लगा जाना आता ही नहीं। जिस बात का जवाब उसके पास है तो ये तो हो ही नहीं सकता कि वह जवाब न दे .... और ऐसा तो बहुत कम होता था कि किसी बात का जवाब उसके पास हो ही नहीं। अभिनव का यूॅँ बात बेबात मुँह फुलाकर अबोला कर लेना... कुुछ देर तो अप्पी की जान में जान लाता... और मन ही मन वह गर्व से तनती पर एकाधिन गुजरते उसका मन ललकने लगता कि वह आकर उससे बात करे। दरअसल अभिनव की आँखों में उसे अपने लिए एक खास चमक दिखाई देती। अभिनव जब भी उसके अलग-बगल से चल रहा होता .....तो उसे अजब सा एहसास होता। लगता जैसे उसके भीतर कुछ अंकुआ रहा हो ... कुछ नया सा.....अपरचित सा ....
आखिरकार अप्पी को टूर में जाने की इजाजत मिल गई। दक्षिण भारत का टूर था... एक हफ्ते बाद वह लौटी। स्टेशन पर अभिनव ने रिक्शा किया और चलो तुम्हें छोड़ दॅँंू कहकर बगल में बैठ गया। अप्पी के मन में खूब सुगनुगाहट मची थी। अब तक तो सुविज्ञ जी आ गये होंगे। खूब चहल-पहल मची होगी मौसी के यहाँ। कल ही तो नीरू दी की शादी है। अब तक तो उसके मामा मामी सभी आ गये होंगे। मझली मामी तो अप्पी के टूर पर जाने के दो दिन पहले ही आ गयी थी। यो भी तीनों मामी में से कोई न कोई अपनी ननदों के घर कार्य प्रयोजन मंे तुरंत पहँुच कर सब संभाल लेती थीं। मझली मामी के आ जाने से मौसी भी निश्चित थीं।
अभिनव ने टूर भर अप्पी का खूब ख्याल रखा था। अप्पी को चिंता हो गई थी कि अब दोनों को लेकर उल्टे-सीधे गेसेज लगने शुरू हो जायेंगे। रिक्शा जब रूका अप्पी चैतन्य हुई। लगा जैसे रिक्शे में बैठे-बैठे ऊंघ गई थी ... उसे अजब सी थकन अपने पूरे वजूद पर हावी होती लगी। लगा पूरी देह सुन्न हो गयी है। खाली-खाली निगाहों से उसने कोठी को देखा .... एकदम लकदक ... खूब हजहज मची थी .... मन हुआ अभिनव से कहे ..... यहाँ नहीं.... कहीं और छोड़ दो मुझे ..... हाॅस्टल। अभिनव ने उसे हिलाया ... उतरो ... सोने लगी क्या ....? अप्पी अचकचा कर रिक्शे से उतरी ... अभिनव रिक्शे वाले को पैसे देकर समान नीचे उतारने लगा। तभी छोटे चाचा आ गये .... अभिनव समान उठाने लगा तो उन्होंने मना कर दिया और काम करने वाले एक लड़के को आवाज़ देकर बुलाया ... वह हाथ का काम छोड़कर इन लोगों की ओर भागा आया....।
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