Him Sparsh - 49 in Hindi Fiction Stories by Vrajesh Shashikant Dave books and stories PDF | हिम स्पर्श 49

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हिम स्पर्श 49

49

“यह चोटी साढ़े चार सौ मिटर की ऊंचाई पर है। यह कच्छ का सर्वोच्च सूर्यास्त बिन्दु है।“ जीत बताने लगा।

वफ़ाई ने उसके शब्द नहीं सुने। वह पर्वत के चारों तरफ देख रही थी। वह मुग्ध थी, मोहित थी। उसे अपने ही पर्वत जैसे तरंग अनुभव हो रहे थे।

“हे पर्वत, मुझे यह कभी अपेक्षा नहीं थी कि सुनी मरुभूमि भी अपने अंदर इतना सौन्दर्य धारण कर के बैठी है।“ वफ़ाई ने दोनों हाथ छाती पर रख दिये तथा पर्वत को नमन किया।

गगन स्वच्छ था। एक-दो छोटे सफ़ेद बादल भटक गये थे जो गगन में विचर रहे थे। वफ़ाई एवं जीत पर्वत की चोटी पर चल रहे थे।

“पर्वत के आस पास देखने के लिए यह स्थान उचित रहेगा।‘ दोनों वहीं रुक गए।

वफ़ाई ने 360 अंश अपनी आँखें घुमाँई। सभी दिशाओं में सौन्दर्य अपने यौवन पर था। बांयी तरफ हरियाली से भरी घाटी थी, ज्यादा गहरी नहीं थी किन्तु आकर्षक थी। घाटी में अनेक घूमाव थे जो तीक्ष्ण थे।

दायीं तरफ पानी था, जिस में तरंगे थी।

“क्या यह समुद्र है?” वफ़ाई ने जीत से पूछा।

“हाँ, यह अरब सागर है। यहाँ खाड़ी है। समुद्र का पानी यहाँ तक घुस आता है।‘

“पर्वत के चरणों में सागर! यह तो अदभूत है जीत।“

“थोड़ा और दायीं तरफ घूमो, देखो तथा कहो क्या दिख रहा है?” वफ़ाई ने उस तरफ ध्यान किया।

“यह तो सफ़ेद मरुभूमि है।“ वफ़ाई नाच पड़ी।

“बिलकुल सही। उसे देखते रहो।“

वफ़ाई देखती रही। सूरज पश्चिम की तरफ गति कर रहा था। सूर्य किरणें सफ़ेद मरुभूमि पर प्रतिबिम्बित हो रही थी।

“सफ़ेद रेत पर पीली किरणें! वाह, जैसे सफ़ेद रेत पीला सोना हो गया हो। कैसा चमक रहा है!“ वफ़ाई मंत्र मुग्ध थी।

“थोड़ा और दाहिने घूमो, वहाँ देखो। पहाड़ियों की शृंखला दिख रही है?” जीत ने आदेश दिया।

“अरे हाँ। कितना सुंदर है। चलो वहाँ चलते हैं।“ वफ़ाई उत्तेजित थी।

“यह जानकार अच्छ लगा कि तुम अभी भी पर्वत से प्रीत करती हो। किन्तु यदि हमें वहाँ जाना हो तो हमारे पास पर्वतारोहण की क्षमता होनी चाहिए। तुम में है क्या?” जीत ने वफ़ाई की आँखों में चमक देखि। “तुम तो पर्वत कुमारी हो, तुम कर सकती हो।“

“हाँ। पर्वत पर रहने का इतना तो लाभ बनता है। वहाँ जाने का कोई मार्ग है क्या?”

“नहीं, वहाँ जाने का कोई मार्ग अथवा गली नहीं है।“

“ओह...।“वफ़ाई निराश हो गई।

“निराश ना हो। पर्वत का आनंद लेने के कई मार्ग है। वफ़ाई, तुमने ‘धोलावीरा’ का नाम सुना है, जो सिंधु संस्कृति का नगर था?”

“उत्खनन से मिला नगर?”

“हाँ, वही। भारत की प्राचीन नगर संस्कृति का नगर।“

“किन्तु यहाँ उस का उल्लेख क्यों?”

“यह पर्वत शृंखला के पार वह ‘धोलावीरा’ नगर स्थित है।“ जीत ने संकेत किया।

“क्या बात है? यदि ऐसा है तो वहाँ चलते हैं और देखते हैं? मुझे मेरे दैनिक के लिए कहानी मिल जाएगी।“

“ओ तस्वीरी पत्रकार, मैं इतिहास के प्रति तुम्हारे उत्साह तथा उस नगर के प्रति तुम्हारे स्नेह की प्रशंसा करता हूँ। किन्तु वफ़ाई, अभी वहाँ जा पाना संभव नहीं।“

“इस लिए कि सूर्यास्त होने को है? मैं अंधकार तथा मार्ग के एकांत से भय नहीं रखती।“

“तुम साहसी छोकरी हो।“

“अवश्य। विशेष में तुम मेरे साथ हो। मुझे किसी से कैसा भय?”

“धन्यवाद, मुझ पर विश्वास रखने के लिए। धोलावीरा तक जाने के लिए हमें दो सौ किलोमीटर की यात्रा करनी पड़ेगी। तो फिर कभी चलेंगे।“

वफ़ाई तृषा भरी द्रष्टि से पर्वत को देखती रही।

"यह एक स्थान है जहां समुद्र, मरुभूमि तथा पर्वत एक साथ बसे हैं। जीत, यह अनुपम है। मुझे इस स्थान से परिचय करवाने के लिए तुम्हारा धन्यवाद।“ जीत ने स्मित दिया। “क्या मैं यहाँ सूर्यास्त तक रह सकती हूँ?”

“नहीं। सूर्यास्त को अभी दो घंटे बाकी है और इतने लंबे समय तक हम यहाँ नहीं रुक सकते।“

“नहीं? जीत, पर्वत, गगन, यह सौन्दर्य तथा तुम। इन सब के साथ दो घंटे तो समय का केवल एक अंश मात्र है। हम सूर्यास्त तक रुकते हैं और इस सौन्दर्य का पान करते हैं। क्या इस घटना में तुम्हारी कोई रुचि नहीं है?”

“इन सब में मेरी सदैव रुचि रही है जो तुम जानती हो।“

“तो तुम लौटने को क्यों उतावले हो रहे हो?”

“हमारी प्राथमिकता कुछ और है। इस समय हमें यहाँ से चलना होगा।“

“प्रकृति के सिवा इस धरती पर हमारी कोई प्राथमिकता नहीं हो सकती, जीत।“

“इन बातों में व्यर्थ समय व्यय ना करो। तुम मेरा तथा मेरे शब्दों का अनुसरण करो। चलो मेरे साथ।“ जीत चलने लगा। वफ़ाई जीत के पीछे चलने लगी।

एक स्थान पर जीत रुका,”यहाँ से लगभग चार किलोमीटर का एक छोटा सा मार्ग है। यह मार्ग चक्रीय है जो पर्वत को अपने अंदर समेट लेता है। हमें उस पर चलना है, तुम आओगी?” जीत ने वफ़ाई को आमंत्रित किया।

“ओह, चार किलोमीटर लंबा मार्ग?”

“लंबा है तो छोड़ देते हैं। हम नहीं...।“

“नहीं, नहीं। मैं तो उस मार्ग पर चलने को उत्सुक हूँ। कहाँ से प्रारम्भ करना है?” वफ़ाई चलने लगी।

“वफ़ाई, इस तरफ से चलो।“ जीत एवं वफ़ाई मार्ग पर चलने लगे।

“यह मार्ग संकरा है। लगभग सात-आठ फिट चौड़ाई होगी इसकी। यह सीधा-सरल मार्ग नहीं है। यह पथरीला है। यह पत्थरों का रंग सोने जैसा पीला है। यह मार्ग असमान है। कहीं नीचे की तरफ जाता है तो कहीं फिर ऊपर की तरफ। यह धूल से भी भरा है।“ जीत वफ़ाई को मार्ग की जानकारी देने लगा।

“देखो यहाँ देखो। अनेक औषधीय वनस्पति यहाँ लगाई गई है। प्रत्येक पर उस वनस्पति के विषय में लिखा हुआ मिलेगा जो विद्यार्थीयों के लिए अत्यंत उपयुक्त है।” जीत कहे जा रहा था। दोनों ने उन वनस्पतियों को देखा। वफ़ाई ने कोई विशेष रुचि नहीं दिखाई।

“जीत, यह प्रकृति, घुमावदार घाटियां, खड़क, धूल, पथ्थर, गगन, यह मार्ग, यह शांति, यह मौन। सब कुछ अनूठे है। सुंदर है। मोहक है। आकर्षक है। हमें अपनी तरफ खींच रहे हैं। मन तो करता है कि इस मार्ग पर जीवन भर चलते रहें। इस मार्ग में विलीन हो जाएँ।“

जीत मौन ही चल रहा था। वफ़ाई भी मौन हो गई। अब दोनों मौन थे। सारा पर्वत मौन था।

वहाँ पूर्ण मौन था। पूर्ण शांति थी। इतनी शांति कि कोई भी व्यक्ति अपने हृदय की ध्वनि भी सुन सके।

वहाँ कोई ध्वनि थी तो वह पवन की थी। खड़कों की थी। घाटी की थी। वह प्रत्येक ध्वनि स्पष्ट थी। प्रत्येक ध्वनि का अपना संगीत था। अपना लय था। अपना ताल था। वहाँ शाश्वत शांति थी। दैवी मौन था। फिर भी प्रत्येक वस्तु उन दोनों से बातें कर रही थी, बिना शब्द के, बिना ध्वनि के।

डेढ़ घंटे चलने के पश्चात मार्ग पूर्ण हुआ। जहां से प्रारम्भ किया था वहीं आ गए दोनों।

मोहक मार्ग पूर्ण हो चुका था। मौन यात्रा पूरी हो गई थी। पर्वत से हो रही मौन बातें समाप्त हो गई थी। किन्तु दोनों अपने अपने जगत में खोये हुए थे। मूर्ति की भांति उस मार्ग को देखते खड़े थे। कई क्षण वह वहीं खड़े रहे। अब मार्ग उन दोनों के भीतर चल रहा था।

“देखो, सूर्यास्त हो रहा है...।”कोई चिल्लाया। इस ध्वनि ने दोनों का ध्यान भंग किया। दोनों ने पश्चिम की तरफ देखा। दोनों के अधरों पर स्मित था।

सूर्य स्वयं के अस्त की तैयारी कर रहा था। पीला, बड़ा गोला क्षितिज से कुछ फिट ऊपर था। वह तेजोमय था। क्षण प्रति क्षण वह समुद्र के प्रति गति कर रहा था।

“जीत, यह सूर्य समुद्र में आत्महत्या करने जा रहा है अथवा स्नान करने?”

जीत ने उत्तर नहीं दिया।

“सूरज बिलकुल भयभीत नहीं है, अत: मोहक लग रहा है। गगन भी रंग बदल रहा है। श्वेत से पीला, पीले से नारंगी। कहीं कहीं गुलाबी भी। रंगीन किन्तु बादल रहित गगन।“ वफ़ाई मन ही मन बोली, मौन हो गई।

वफ़ाई सूर्यास्त की क्षणों में मग्न हो गई। वह जीत, आसपास, लोग, पर्वत, घाटी, सब कुछ भूल गई। वह सूर्यास्त की उस घटना का आनंद ले रही थी जो उस के पर्वतीय गाँव में कवचित ही होती थी। जीत उसे बिना व्यवधान के निहारता रहा।

सूर्य, क्षितिज तथा वफ़ाई के बीच तादात्म्य रच गया जो कई क्षण तक रहा। अंतत: सुरज अस्त हो गया। लाल तथा नारंगी गगन काले रंग में बदलने लगा। अंधकार प्रवेश करने लगा। दोनों घर लौट आए। वापसी यात्रा अर्थपूर्ण मौन के साथ सम्पन्न हुई।