आधी नज्म का पूरा गीत
रंजू भाटिया
Episode ७
मन की दीवारों के बंधन ( मर्द औरत का रिश्ता )
अमृता ने इमरोज़ का इन्तजार किस शिद्दत से किया, वह प्यार जब बरसा तो फ़िर दीन दुनिया की परवाह किए बिना बरसा और खूब बरसा.औरत की पाकीज़गी का ताल्लुक, समाज ने कभी भी, औरत के मन अवस्था से नहीं पहचाना, हमेशा उसके तन से जोड़ दिया। इसी दर्द को लेकर मेरे ‘एरियल’ नावल की किरदार ऐनी के अलफाज़ हैं, ‘‘मुहब्बत और वफा ऐसी चीज़ें नहीं है, जो किसी बेगाना बदन के छूते ही खत्म हो जाएं। हो सकता है—पराए बदन से गुज़र कर वह और मज़बूत हो जाएं जिस तरह इन्सान मुश्किलों से गुज़र कर और मज़बूत हो जाता है.’औरत और मर्द का रिश्ता और क्या हो सकता था, मैं इसी बात को कहना चाहती थी कि एक कहानी लिखी, ‘मलिका’। मलिका जब बीमार है, सरकारी अस्पताल में जाती है, तो कागज़ी कार्रवाई पूरी करने के लिए डाक्टर पूछता है तुम्हारी उम्र क्या होगी ?
मलिका कहती है, ‘‘वही, जब इन्सान हर चीज के बारे में सोचना शुरू करता है, और फिर सोचता ही चला जाता है.....’’
डाक्टर पूछता है, ‘‘तुम्हारे मालिक का नाम ?’’
मलिका कहती है, ‘‘ मैं घड़ी या साइकिल नहीं, जो मेरा मालिक हो, मैं औरत हूं....’’
डाक्टर घबराकर कहता है, ‘‘मेरा मतलब है—तुम्हारे पति का नाम ?’’
मलिका जवाब देती है, ‘‘मैं बेरोज़गार हूं। ’’
डाक्टर हैरान–सा कहता है, ‘‘भई, मैं नौकरी के बारे में नहीं पूछ रहा...’’
तो मलिका जवाब देती है, ‘‘वही तो कह रही हूं। मेरा मतलब है किसी की बीवी नहीं लगी हुई’’, और कहती है, ‘‘हर इन्सान किसी-न-किसी काम पर लगा हुआ होता है, जैसे आप डाक्टर लगे हुए हैं, यह पास खड़ी हुई बीबी नर्स लगी हुई है। आपके दरवाजे के बाहर खड़ा हुआ आदमी चपरासी लगा हुआ है। इसी तरह लोग जब ब्याह करते हैं—जो मर्द शाविंद लग जाते हैं, और औरतें बीवियां लग जाती हैं...’’
समाज की व्यवस्था में किस तरह इन्सान का वजूद खोता जाता है, मैं यही कहना चाहती थी, जिसके लिए मलिका का किरदार पेश किया। जड़ हो चुके रिश्तों की बात करते हुए, मलिका कहती है, ‘‘क्यों डाक्टर साहब, यह ठीक नहीं ? कितने ही पेशे हैं—कि लोग तरक्की करते हैं, जैसे आज जो मेजर है, कल को कर्नल बन जाता है, फिर ब्रिगेडियर, और फिर जनरल। लेकिन इस शादी-ब्याह के पेशे में कभी तरक्की नहीं होती। बीवियां जिंदगी भर बीवियां लगी रहती है, और खाविंद ज़िंदगी भर खाविंद लगे रहते हैं....’’
उस वक्त डाक्टर पूछता है, ‘इसकी तरक्की हो तो क्या तरक्की हो ?’’
तब मलिका जवाब देती है, ‘‘डाक्टर साहब हो तो सकती है, पर मैंने कभी होते हुए देखी नहीं। यही कि आज जो इन्सान शाविंद लगा हुआ है, वह कल को महबूब हो जाए, और कल जो महबूब बने वह परसों खुदा हो जाए....’’
इसी तरह-समाज, मजहब और रियासत को लेकर वक्त के सवालात बढ़ते गए, तो मैंने नावल लिखा, ‘यह सच है’ इस नावल के किरदार का कोई नाम नहीं, वह इन्सान के चिन्तन का प्रतीक है, इसलिए वह अपने वर्तमान को पहचानने की कोशिश करता है, और इसी कोशिश में वह हज़ारों साल पीछे जाकर—इतिहास की कितनी ही घटनाओं में खुद को पहचानने का यत्न करता है—उसे पुरानी घटना याद आई, जब वह पांच पांडवों में से एक था, और वे सब द्रौपदी को साथ लेकर वनों में विचर रहे थे। बहुत प्यास लगी तो युधिष्ठीर ने कहा था, ‘जाओ नकुल पानी का स्रोत तलाश करो !’’जब उसने पानी का स्रोत खोज लिया था, तो किनारे पर उगे हुए पेड़ से आवाज़ आई थी, ‘‘हे नकुल ! मेरे प्रश्नों का उत्तर दिए बिना पानी मत पीना, नहीं तो तुम्हारी मृत्यु हो जाएगी’’—लेकिन उसने आवाज़ की तरफ ध्यान नहीं दिया, और जैसे ही सूखे हुए हलक से पानी की ओक लगाई, वह मूर्च्छित होकर वहीं गिर गया था.…
और अमृता के नावल का किरदार, जैसे ही पानी का गिलास पीना चाहती है, यह आवाज़ उसके मस्तक से टकरा जाती है, ‘‘हे आज के इन्सान ! मेरे प्रश्नों का उत्तर दिए बिना गिलास का पानी मत पीना....’’
और उसे लगता है—वह जन्म-जन्म से नकुल है, और उसे मूर्च्छित होने का शाप लगा हुआ है...वह कभी भी तो वक्त के सवालों का जवाब नहीं दे पाया…
इसी नावल में उसे याद आता है, ‘‘मैंने एक बार जुआ खेला था। सारा धन, हीरे, मोती दांव पर लगा दिए थे, और मैं हार गया था मैंने अपनी पत्नी भी दांव पर लगा दी थी...’’
और हवा में खड़ी हुई आवाज़ उससे पूछती है, ‘‘मैं दुर्योधन की सभा में खड़ी हुई द्रौपदी हूं, पूछना चाहती हूं—कि युधिष्ठिर जब अपने आपको हार चुके, तो मुझे दांव पर लगाने का उन्हें क्या अधिकार था ?’’
मैं इस सवाल के माध्यम से कहना चाहती हूं, कि जब इन्सान अपने आपको दांव पर लगा चुका, और हार चुका है—तो समाज के नाम पर दूसरे इन्सानों को मजहब के नाम पर खुदा की मखलूक को, और रियासत के नाम पर अपने-अपने देश के वर्तमान भविष्य को दांव पर लगाने का उसे क्या अधिकार है ?
इन्सान जो है, और इन्सान जो हो सकता है—यही फासला ज़हनी तौर पर मैंने जितना भी तय किया, उसी की बात ज़िंदगी भर कहती रही....बहुत निजी अहसास को कितनी ही नज़्मों के माध्यम से कहना चाहा—
हथेलियों पर इश्क की मेंहदी का कुछ दावा नहीं
हिज्र का एक रंग है, खुशबू तेरे जिक्र की.…
एक दर्द, एक ज़ख्म एक कसक दिल के पास थी
रात को सितारों की रकम—उसे ज़रब दे गई...और वक्त-वक्त पर जितने भी सवालात पैदा होते रहे—उसी दर्द का जायज़ा लेते हुए कितनी ही नज़्में कहीं—
गंगाजल से लेकर, वोडका तक—यह सफरनामा है मेरी प्यास का.
सादा पवित्र जन्म के सादा अपवित्र कर्म का—सादा इलाज.…
किसी महबूब के चेहरे को—एक छलकते हुए गिलास में देखने का यत्न.…
और अपने बदन पर—बिलकुल बेगाना ज़ख्म को भूलने की ज़रूरत…
यह कितने तिकोन पत्थर है
जो किसी पानी की घूंट से—मैंने गले में उतारे हैं
कितने भविष्य हैं—जो वर्तमान से बचाए हैं
और शायद वर्तमान भी —वर्तमान से बचाया है....मर्द ने अपनी पहचान मैं लफ़्ज़ में पानी होती है, औरत ने मेरी लफ़्ज़ में...‘मैं’ शब्द में ‘स्वयं’ का दीदार होता है, और ‘मेरा’ शब्द ‘प्यार’ के धागों में लिपटा हुआ होता है... लेकिन अंतर मन की यात्रा रुक जाए तो मैं लफ़्ज़ महज अहंकार हो जाता है और मेरा लफ़्ज़ उदासीनता। उस समय स्त्री वस्तु हो जाती है, और पुरुष वस्तु का मालिक। मालिक होना उदासीनता नहीं जानता, लेकिन मलकियत उसकी वेदना जानती है। रजनीश जी के लफ़्ज़ों में ‘‘वेदना का अनुवाद दुनिया की किसी भाषा में नहीं हो सकता। इसका एक अर्थ ‘पीड़ा’ होता है, पर दूसरा अर्थ ‘ज्ञान’ होता है। यह मूल धातु ‘वेद’ से बना है, जिस से विद्वान बनता है—ज्ञान को जानने वाला। वेदना का अर्थ हो जाता है —जो दुख के ज्ञान को जानता है। ’’ सो इस वेदना के पहलू से कुछ उन गीतों को देखना होगा, जो धरती की और मन की मिट्टी से पनपते हैं।
लोकगीत बहुत व्यापक दुख से जन्म लेता है, वह उस हकीकत की ज़मीन पर पैर रखता है, जो बहुत व्यापक रूप में एक हकीकत बन चुकी होती है। इसी तरह कहावतें भी ऐसे संस्कारों से बनती हैं, जो पर्त दर पर्त बहुत कुछ अपने में लपेट कर रखती हैं। जैसे कभी बंगाल में कहावत थी—‘‘जो औरत पढ़ना लिखना सीखती है, वह दूसरे जन्म में वेश्या होकर जन्म लेती है। ’’*
हमारे देश की अलग-अलग भाषाओं के होठों पर ऐसी कितनी कहावतें और गीत सुलगते हैं। आम स्त्री की हालत का अनुमान कुछ उन्हीं से लगाना होगा…
अमृता प्रीतम की इस कृति दीवारों के साए से यह पंक्तियाँ जिस में संसार में नारी की स्थिति, पीड़ा, विडम्बना और विसंगतियों को बताया गया है। इसमें वास्तविक नारी चरित्रों पर लिखी अनेक कहानियां भी हैं। जिनमें अमृता ने समाज की और मन की दीवारों से आरंभ करके कारागार की दीवारों तक इन सभी में बंद स्त्री-पुरुषों का मार्मिक चित्रण किया है।
***