Kaash aap kamine hote - 8 in Hindi Fiction Stories by uma (umanath lal das) books and stories PDF | काश आप कमीने होते ! - 8

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काश आप कमीने होते ! - 8

काश आप कमीने होते !

उमानाथ लाल दास

(8)

और इधर शहर के पत्रकारों रमेंद्र जी, दयाल जी, पी चौबे आदि की सारी रामकहानी सुमन जी से सुनकर - जानकर तो असहाय से हो गए सैयद जी के रगों मे ज्वार आ गया था उस दिन। लगता था कि उनका बस चले तो अभी उन छिछोरों को गोली मार दें। गोली उनके जहन में यूं ही नहीं कौंधती है। उन्हें याद है कि जवानी के दिनों में लघु पत्रिका ‘वाम’में छपी आलोकधन्वा की कविता ‘गोली दागो पोस्टर‘ को प्रदीप मुखर्जी के साथ मिलकर झरिया की दीवारों पर किश्तों में लिखा था, यहां-वहां। प्रसाद जी, सुमन जी, सिन्हा जी को उन्होंने इस कामरेड प्रदीप की ट्रेजेडी सुनाई थी कि कैसे 20-22 साल का वह युवा दास कैपीटल, घोषणापत्र, एंटी ड्यूहरिंग... आदि को छान कर पी गया था। कैसे अभी शहर में उपन्यासकार बने फिरनेवाले रिटायर्ड प्रशानिक अधिकारी ने उसके घर में पहुंच बना ली थी। उसकी बहनों से हंसी-मजाक चलने लगा। घर में आता और चाय-पान होता। युवा प्रदीप यह सब देखता तो उसके भीतर का भाई उबाल खाता। और एक समय तो उसकी ज्यादतियों के खिलाफ उबाल को दाबते-दाबते वह नशेड़ी हो गया। नशा में भी उसने सिर्फ भांग का ही सेवन किया। सैयद जी कह रहे थे – प्रसाद जी आप विश्वास नहीं करेंगे प्रदीप की मूंछें भी तब नहीं आई थीं तब वह मुक्तिबोध की कविता ‘अंधेरे में’ का ऐसा विश्लेषण करता कि लोग दंग रह जाते। मार्क्सवादी चिंतन के क्षेत्र में जिस राय दा का रुतबा और लोहा देश भर में लोग मानते हैं, उसी दौर में वह उन्हें व्यक्तिवादी मार्क्सवादी कहने लगा था। उसी समय उसका कहना था कि इस क्षेत्र के लोगों के दबे आक्रोष को राय दा मार्क्सवाद की चादर से तोप करके मंद कर रहे हैं। वह जो कुछ कहता उसका तथ्यों के साथ पूरा तार्किक विश्लेषण उसके पास होता था। जो लोग उस दौर के होंगे और जिनका उससे संपर्क रहा होगा, वे इस बात को जानते होंगे। जीते जी जो लोग रामविलास शर्मा को पूजते रहे आज वही लोग उन पर केंद्रित करके ‘आलोचना’ का ‘इतिहास की शवसाधना’ का अंक निकालते हैं। कितनी विचित्र बात है कि यह प्रदीप उसी दौर में, नहीं कुछ तो कम से कम 30 साल पहले, इन्हीं रामविलास शर्मा को अपरिपक्व मार्क्सवादी कहता था।‘ गीली आंखें लिए भावुक हो उठे सैयद जी कहते – ‘क्या कहें प्रसाद जी, एक बार तो मेरे यहीं बनियाहीर के घर में विनोद मिश्र के सामने बहुत बुरी स्थिति ला दी थी उसने। वह जो बोलता, बड़े ही बेलाग अंदाज में मुंह पर बोलता था। तो उसने उस दिन विनोद मिश्र से क्या कहा था जानते हैं ? – कामरेड, आप उसी रास्ते पर चल रहे हैं जो रास्ता ख्रुश्चेव का था। और कामरेड समझौतावादी और संशोधनवादी रास्ता पूंजीवाद की ओर जाता है। आज न कल उसकी परिणति वही होती है। कुछ लोगों से कामरेड विनोद मिश्र ने कहा कि कामरेड प्रदीप अभी जहां पहुंच गया है, वह बहुत खतरनाक जगह है। और ऐसी जगहों से वापिस आना बहुत मुश्किल होता है। जैसे लगता है विनोद मिश्र को मनोविज्ञान की गहरी जानकारी थी। इसीलिए कामरेड विनोद मिश्र ने किसी और प्रसंग में प्रदीप से एक बार कहा भी था - प्रदीप तुम घर के कामकाज में थोड़ा हाथ बटाओ। बागान में पानी पटा दो। सब्जी ला दो, घर में कभी बिछावन कर दो। कभी पानी भर दो।’ अब क्या देखा था कामरेड ने क्या नहीं, नहीं मालूम! पर इसी के कुछ दिनों बाद उसने खुदकुशी कर ली थी। उम्र यही कोई 25 वर्ष की रही होगी।

उसी सैयद को यदि लग रहा है कि वह छिछोरे संपादकों को गोली मार दें तो अचरज क्या! सामने होने पर गाली-गुप्ता तो जरूर करते। अभी-अभी सैयद जी कह रहे थे - जीने का कोई मकसद नहीं दिखता प्रसाद जी। लगता है कि जंगल चले जाएं या फिर खुदकुशी कर लें। बेटा बेकार बैठा है। फेरी लगाने को पूंजी नहीं। पूंजी जुटती भी है तो चली जाती है;कभी बीमारी में तो कभी घर में। कभी मेहमानवाजी में घुस जाती है। पूंजी है कि बिल्ली, पता नहीं! थोड़ी-सी भी जगह मिली नहीं कि चट से कड़ाही चाटकर भाग जाती है। पोती स्कूल जाती है, उसे किताब अभी तक नहीं मिली है। एक ही फ्राक पहनती है। रोज रात को धोकर सुखाती है, फिर दूसरे दिन पहनती है। इन पोता-पोती की निश्छल और पवित्र आंखें, पुतोहू की निष्काम सेवा, बहन का अनन्य स्नेह, बेटा की अथक भक्ति देखकर लगता है जीवन अभी बाकी है। अभी इनके लिए जीना बाकी है। अपने हिस्से का जीवन तो कब खत्म हुआ पता नहीं। जीवन अपना था भी, इसका भी पता कहां चला सैयद जी को। और अभी जब प्रसाद जी से यह सब सुनकर उनकी आंखों में खून तैरने लगा तो बोल उठे - ‘कहिए सालों ने हमारे साथियों को मार डाला। क्या हम इतने गए बीते हो गए कि उनकी खबर नहीं ले सकते।‘ तपती दुपहरी में आग बनी धूप से बचने जब लोग ठौर खोजते तो किसी जमाने में सैयद अपने पागल साथियों के साथ कम्यूनिस्ट प्रत्याशी के समर्थन में झरिया की दीवारों पर नारे लिखते मिलते। आज तो इतने भर से तैश में आ गए इसी सैयद जी के सर में चक्कर आने लगा। आंखों के आगे अंधेरा छाने लगा। माथा धरते ही लोगों को लग गया कि वे अब गश खाकर गिर जाएंगे। लोगों ने उन्हें संभाला। पास में बैठे साथियों ने कहा – सैयद जी प्रेशर के मरीज को खामखाह तनाव में आने से बचना चाहिए। डाक्टरों ने कहा है कि तनाव का थोड़ा भी पल उन्हें बहुत पीछे ले जाएगा। अरे आप भी तो यह सब जानते हैं। कोई आपके पीछे थोड़े ना डाक्टरों ने किसी को सलाह दी थी। सैयद जी का कहना तो था कि काम के चक्कर में टिफिन करना भूल गए, लेकिन टिफिन घर से लाए ही नहीं हों, यह भी तो हो सकता है।

सिर्फ बर्फ ही पिघलकर पानी नहीं बनता है, आग भी बर्फ में ढल जाती है। यह सैयद जी को देखकर सिन्हा जी-प्रसाद जी आपस में बुदबुदाते। और बुदबुदाते वक्त लगता कि उनके भीतर लय से भटका हुआ कोई मरसिया जैसे ठौर पाना चाहता हो अपने राग-धुन में। लेकिन वह टूट-टूट कर ध्वनियों में, हवा में विलीन हो रहा है। हवा में उड़ते उस बेराग मरसिया को पकड़ने के पीछे सिन्हा जी, सुमन जी, प्रसाद जी पागल हो जाते कि क्या होता, पता नहीं चलता! ऐसे कई मौकों पर ये सभी माथा थामे रहते।

इस जिले में एसयूसीआई की जमीन बनाने में सैयद खान की बड़ी भूमिका रही है। लेखक संगठन की एक इकाई का सारा दारोमदार रहा है इनके कंधे पर। इसे कौन नहीं जानता है। सियासी नजरिया तो इतना साफ कि कभी-कभी लगता है कि सैयद जी ने अपने साथ, अपने परिवारवालों के साथ, अपने साथियों के साथ अन्याय किया। उन्हें राजनीति में होनी चाहिए थी। लेकिन फिर सवाल होता है कि क्या वहां यही हरकत नहीं होती उनके साथ। होती क्या, हो रही है! उनके पार्टी वाले तो मीडिया से भी गए-बीते गरजमंद निकले। वे जिसमार्क्सवादी पार्टी से संबद्ध संगठन से जुड़े रहे उसने भी तो इंसाफ नहीं किया, जो कहा जाए कि राजनीति में वे होते तो उनका भला होता। बहुत कुरेदने पर प्रसाद जी को बताया कि अब पार्टी ने उन्हें होल टाईमर नहीं रखा है। अब बुद्धिजीवियों के किसी कोषांग में हैं वह। इसीलिए अब पार्टी ने कुछ भी देना बंद कर दिया है। उनका कहना है कि जनवादी विचारधारा की बात करते हैं तो चरित्र भी तो जन का होना चाहिए। जनता के बीच आप काम करते हैं तो कम से कम यह होना ही चाहिए कि जनता को आपका चरित्र भरोसे का लगे। नहीं तो शेष पार्टियों और वामपंथी पार्टियों के बीच क्या फर्क। उनका इशारा कामरेड बंधुओं की आलीशान जीवनशैली की ओर था शायद। लोग पचा नहीं पाते उनकी बातें। राजनीति की भेड़चाल में शामिल पार्टी वालों को पार्टी लाईन से वे भटके दीखते। इन्हीं मतभेदों को देखकर पार्टीवालों ने भटक गए सैयद से किनारा कर लिया है। लेकिन नहीं, कह सकते हैं कि पार्टी वालों ने सैयद जी को अकेला कर दिया है। कमाल की बात, कि जिस वामपंथी पार्टी को यहां बमुश्किल 10 हजार वोट नही मिलते, उसका ही एक नेता सिर्फ और सिर्फ ट्रेड यूनियन की बदौलत पार्टी की केंद्रीय कमेटी का मेंबर बना दिया गया है। प्रसाद जी कन्फर्म होना चाहते है सैयद जी से कि क्या यह वही दादा हैं जिन्होंने किसी शिक्षिका से शादी रचाई है। क्योंकि् बचपन में उन्होंने कोलियरी स्कूल में दीदीमुनी (बंगाली में शिक्षिका को यही संबोधन देते हैं) के साथ दादा को प्रेम की पेंग बढ़ाते देखा था। प्रसाद जी को अब पता चला कि दीदीमुनी तब विवाहिता थीं। क्योंकि जैसी गतिविधियां उनके जहन में ताजा हो रही हैं वह किसी नेता की हो ही नहीं सकती। एक मजदूर नेता विद्यालय में बच्चों को पढ़ाती शिक्षिका का चक्कर क्यों लगाएगा। प्रसाद जी के जेहन में दीदीमुनी की जो छवि अंकित है वह क्लास में स्वेटर बुनती मास्टरनी की है। सैयद जी कहते हैं – हां, प्रसाद जी, आप सही हैं। यह दादा की पहली और मास्टरनी की दूसरी शादी है। पार्टीवाले बखूबी इसे जानते हैं। लेकिन कहते हैं ना, दुधार गाय की लताड़ भली, सो ही हुआ, इस मामले में।

साल 1999 में बीवी जब मरी तो इस पार्टी ने खबर तक नहीं ली। और 2009 में मां जब मरी तो संपादक दीपक जी का सहारा काम आया। जिसको कहते हैं एक टांग पर खड़े होना, सो उनके लोग पूरे इंतजाम में लगे रहे। तीन साल पहले खून की उल्टी होने पर आनन-फानन में एक नर्सिंग होम में भरती कराया गया इन्हीं सैयद खान को। दौड़े-दौड़े बहन कामरेड दा के यहां फरियाद लेकर गई थी। परछाई की तरह हमेशा रहनेवाली बहन। सुध-बुध खोई बहन को न तो केश का खयाल था और न ही कपड़े का होश। बदहवास सी लगी रामकहानी सुनाने। कुर्सी पर बैठे-बैठे सबकुछ स्थिर से सुनकर कामरेड दा ने दो टुक कहा – ‘त्तो-त्तो, हम इसमें क्या करेगा ?’ अब वह तो हक्का-बक्का रह गई। लगा कि टूटे-फूटे ढह रहे घर में दिनदहाड़े कोई सेंध मार गया। विश्वास की बची हुई अमानत जाती देख भोकार पार कर लगी रोने। लगा जैसे कुछ लुट गया। हां, उसे बहुत भरोसा था कि वहां से कुछ मदद होगी ही। सुनकर उल्टे पैर दोड़ पड़ेंगे। दवा-दारू के लिए हाथ में कुछ थमा देंगे और कहेंगे चलो तुम, हम आता है। तब तक इंतजाम करो। घबराने का कोई बात नहीं। अपना सैयद कामरेड है। हिम्मतवाला है। संभल जाएगा मामला। चल पड़ेंगे दादा अपने कामरेड का दुख हरने। लेकिन यह क्या, यह तो सरेशाम डाका है, डाका ! उसके सामने नाचने लगा वह नजारा जब सैयद भाईजान ने झरिया की जनवादी नारी समिति बनाने मे दिन रात एक कर दिया था। एंड़ी-चोटी एक कर दी थी इसी सैयद ने। क्या तो बोलते हैं‘समारिका’, उसमें दादा की ओर से संपादकीय लिखना हो या अखबारों में खबरें छपानी हो, लगता था कि जैसे बाल-बच्चे का कोई काम हो। आज वे ही लोग, इस तरह मुंह मोड़ लेंगे, उसे अब भी अपने कानों पर भरोसा नहीं हो रहा था। वह जकथक वहीं खड़ी रही रोते-रोते अवाक्! शायद उसी से सुनने में कुछ भूल हुई हो। देख लें थोड़ी देर और। लेकिन दादा ने जब कहा – ‘देखता क्या है, हमारे पास कुछ नहीं। हम कुछ नहीं कर सकता है। देखो उधर।‘ लगा जैसे दरवाजे पर आए भिखारी को टरकाया जा रहा है। सोचती है - देखा जाए स्साले को, छाती पर तो चढ़ ही सकती हूं। दे धुरमुस-दे धुरमुस, स्साले बंगाली, लगा भाव दिखाने। मन तो हुआ कि सारी ऊंच-नीच यहीं कर दें, पर अभी इसका वक्त नहीं। देखा जाएगा फिर कभी। उसे लगता है कि सुहाग लुटने पर भी तो इतना बड़ा सदमा नहीं पहुंचा था उसे। दादा के विश्वासघात के ताप ने जैसे सारी संवेदना सोख ली। जिस पीड़ा से वह दादा के पास गई थी, अब भाई सैयद पर खालिस गुस्सा ही आ रहा था। जिस वेग से गई थी फरियाद करने, उससे भी तेज गति से उल्टे पांव भाई को उलाहना देने लौट गई। बिछावन पर पड़े भाई जान सैयद को एक तरफ सेलाइन की बोतल चढ़ रही थी और दूसरी तरफ से लगी खरीखोटी सुनाने – ‘और जाओ, लाल झंडा ढोओ। सुनोगे, तुम्हारे उस दादा ने क्या कहा? –‘ कालीमाई बनी उस चंडी-सी बहन को यह भी होश नहीं रहा कि अपने नेता के प्रति यह खीझ सुनकर भाई पर क्या बीतेगी- ‘ऐसे ही लोगों के पीछे भूत बने थे ना। और जाओ, ढोओ झंडा। देखो वे किसको देते हैं। तुम्हें क्यों देंगे ? ‘ और यही शहर है जहां से इस वामपंथी पार्टी की केंद्रीय कमेटी का मेंबर भी मिला। आखिर क्या 19-20 हजार वोट की बदौलत या ट्रेड यूनियन की मालदार राजनीति है इसके पीछे। आखिर कहीं तो इतनी बड़ी हासिल का कोई रिफ्लेक्शन होगा ना? पूरे बिहार-झारखंड से इकलौते ... आखिर कोई तो आधार होगा ना.. फिर भी सैयद नेता की वकालत करने से बाज नहीं आते। सैयद कहते हैं – ‘प्रसाद जी, वोट देखकर थोड़े ही यह हस्ती दी जाती है। पूरे प्रदेश में माले का सिर्फ एक विधायक है बगोदर (गिरिडीह) से, तो ऐसे में राज्य कमेटी में माले के सारे नेता गिरिडीह के ही होंगे ना ? प्रसाद जी ऐसी बात नहीं। कामरेड दा ने पार्टी के कार्यक्रमों को जनता के बीच ले जाने का जो काम किया है, उसका कोई सानी नहीं।‘ सैयद खान की इस बात में पार्टी के प्रति कहीं कोई तीखापन या उपेक्षा का दर्द नहीं झलकता।

प्रसाद जी कहते – ‘हां, सैयद जी, लेकिन जिन श्रमिक संघों की राजनीति की बात आप या आपके लोग कर रहे हैं ना, आखिर उस ट्रेड यूनियन के मेंबर को वोटर कहां बना सकेआपके दादा लोग? कोलियरी से, खदानों से गैंता-कुदाल- हंसुआ-हथौड़ा लेकर निकला वह मजदूर बूथ तक आते-आते किसी और ही रंग का हो जाता है! हंसुआ-हथौड़ा कौन छीन लेता है उसके हाथ से ? क्या केंद्रीय कमेटी को यह सब नहीं चाहिए ?’

अभी जब शूगर, प्रेशर ने अपने पूरे औजारों के साथ हमले किए हैं सैयद जी पर तो भी इस पागल की कोई फिक्र किसी को कहां! बाजार की आवारगी में पली बाईक पर उड़ते पत्रकारों और कार पर उधियाते (हवा के प्रवाह में बहे जा रहे) नेताओं की नई पौध जब सैयद को देखती है तो उन्हें लगता है कि कोई उन्हें लाठी से कोंच रहा है। झरिया के उस छोर से शहर में केबल न्यूज के दफ्तर आने-जाने मे रोज भाड़े के तीस रुपए निकल जाते हैं। चार हजार में से एक हजार तो ऐसे निकल जा रहे हैं जैसे बिछावन पर सेलाईन लगे मरीज से सिरींज लगाकर रोज कोई एक बोतल खून निकाल ले रहा हो। सैयद कराहते हैं - न सेलाईन छुड़ा रहा है कोई और न ही कोई सिरींज निकाल रहा है। रोज वह चुपचाप जैसे बिछावन पर पड़े देखते रहते हैं उस दैत्याकार होती जा रही सिरींज को। रोज और पैनी होती सिरिंज उनकी बांह पर जबड़े गड़ाती है, पथराई आंखें अवश देखती रहती हैं। आफिस में या चौराहों पर अपने चारों ओर ठहाका लगाती आंखें जैसे बिल में धकिया रही हो उन्हें। वे नहीं निकाल पा रहे जीने का कोई रास्ता और न ही बांह में लगी दैत्याकार पैनी सिरींज। एक तरफ खून निकाला जा रहा है तो दूसरी तरफ खून का घूंट गटक रहे हैं! लहूलुहान सैयद जी खून ही तो पी भी रहे हैं!

उपाख्यान में क्षेपक –

दिल्ली से पढ़-लिखकर व देश विदेश से कई उपाधियों को लादकर कोलकाता आए प्रसिद्ध इतिहासकार रामचंद्र गुहा, परंजय गुहा ठाकुरता व चंदन मित्रा तब कोलकाता में अपनी-अपनी रोजी रोटी कमा रहे थे। गुहा पढ़ा रहे थे, परंजय गुहा ठाकुरता बिजनेस इंडिया में शायद काम कर रहे थे और चंदन मित्रा तब दि स्टेट्समैन में थे। (इस सूचना की पुख्ता गारंटी मैं नहीं दे सकता।) सन 85 के आसपास की बात है। वे चित्तरंजन एवेन्यू के पास चुंगवा रेस्टोरेंट में खाना खा रहे थे। ठाकुरता अपनी परेशानी का जिक्र कर रहे थे कि वे शहर से बाहर स्थित एक बड़े औद्योगिक घराने के कारखाने से हो रहे प्रदूषण पर रिपोर्टिंग करना चाहते हैं। चंदन मित्रा का कहना था कि जब हम दोनों के मीडिया घराने ऐसी कंपनियों के विज्ञापन से चलते हैं तो ऐसे में अपने संपादक को नाराज करने का क्या फायदा ? रामचंद्र गुहा अब भी अपने प्रतिरोधी विचारों और सक्रियताओं के लिए जाने जाते हैं। ठाकुरता नें पेड न्यूज को लेकर प्रेस काउंसिल आफ इंडिया के लिए रिपोर्ट तैयार की तथा कर्नाटक में खनन माफिया को लेकर बनी डाक्यूमेंट्री से जुड़े। और चंदन मित्रा रिलायंस के अखबार से होते हुए फिलहाल दि पायोनीयर के सर्वेसर्वा बने बैठे हैं। हिंदी पायोनीयर के शानदार परिशिष्ट को सिमटकर उसके पिछले पन्ने पर एक महिला के ज्योतिषीय ज्ञान को समर्पित कर दिया गया है। अच्छा आप भूल तो नहीं रहे हैं। शशि थरूर के परम मित्र तथा कभी उनके प्रचार प्रबंधक रहे मित्रा अब दुबारा भाजपा के कोटे से मध्यप्रदेश से राज्य सभा सदस्य हैं। पाठको, पिछले मई माह में एक बड़े औद्योगिक घराने के अखबार में श्री गुहा ने प्रेस की आजादी को लेकर जो लेख लिखा था, उसी पर ये आधारित है। हां, उस लेख में कहीं भी उन दोनों मित्रों के नाम का जिक्र नहीं किया था, जिसका खुलासा मैंने अपने रिस्क पर किया है। चाहे तो तीनों इसे नकार दें। और आप चाहें तो उक्त कहानी में इन आत्माओं को ढूंढ सकते हैं।

प्रिय पाठको,

यह कहानी अभी अधूरी है। इस कहानी की कोशिका, ऊतक, अस्थि-पंजर तैयब खान, बनियाहीर, धनबाद; देवेंद्र गौतम, अशोक नगर, रांची; धनबाद; जयप्रकाश मिश्रा, गोविंदपुर, धनबाद; महेंद्र दयाल, रांची में पसरे हुए है। आपको कहीं भी, किसी भी शहर में ये मिल जाएं तो मानो कहानी पूरी हुई।

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