Afia Sidiqi ka zihad - 15 in Hindi Fiction Stories by Subhash Neerav books and stories PDF | आफ़िया सिद्दीकी का जिहाद - 15

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आफ़िया सिद्दीकी का जिहाद - 15

आफ़िया सिद्दीकी का जिहाद

हरमहिंदर चहल

अनुवाद : सुभाष नीरव

(15)

26 जून 2002 को अमजद और आफिया बच्चों सहित कराची एअरपोर्ट पर आ उतरे। वे घर पहुँचे तो घरवाले उनके आने पर काफ़ी ख़फा थे। रात के समय नईम खां ने अमजद के साथ बात शुरू की, “तू नहीं टला फिर ? अपने मन की करके ही हटा न। तुझे मैंने कितना कहा कि इस वक़्त करियर बीच में छोड़कर आना तेरे लिए ठीक नहीं है। पर तेरे दिमाग में कोई बात आए, तभी न।“

अमजद ने अपने अब्बा की ओर देखा और फिर लम्बा सांस लेता मायूस-सा बोला, “अब्बू मेरी वजह से नहीं है। अल्लाह खै़र करे, कहीं आगे चलकर मुझे इससे भी बड़े इम्तहान में से गुज़रना पड़ जाए।“

अमजद की इस एक ही बात से परिवार सारी बात समझ गया। नईम खां से रहा न गया तो वह बोला, “इस लड़की ने मेरे बेटे का भविष्य तबाह करके रख दिया...।“ नईम खां गुस्से में बोल रहा था तो उसकी पत्नी ने उसको चुप रहने का इशारा किया क्योंकि बाहर खड़ी आफिया चोरी-सी उनकी बातें सुन रही थी। नईम खां तो चुप हो गया, पर आफिया अंदर ही अंदर बल खा गई। वह उसी शाम बच्चों सहित अमजद को लेकर मायके चली गई। वहाँ जाकर उसने सबसे पहले तो अमजद को करीब बिठाकर कहा, “अमजद, अब मौका आ गया है कि तुझे कोई फै़सला करना पड़ेगा।“

“फै़सला ? फ़ैसला किसके बारे में ?“

“अब यह फै़सला कर ले कि तूने मेरे साथ रहना है या अपने घरवालों के साथ ?“

“आफिया यह तू क्या कह रही है। घरों में आपसी गुस्से-गिले तो होते ही रहते हैं। इसका मतलब यह तो नहीं कि मियाँ-बीवी अलग हो जाएँ।“

“नहीं, अमजद तुझे फ़ैसला करना ही होगा। तुझे पता ही है कि मैं आम औरत नहीं हूँ। मैं इस बीच के रास्ते को और ज्यादा बर्दाश्त नहीं कर सकती।“ वह क्रोध में काँपे जो रही थी। उसकी माँ ने आकर उसको शांत करने की कोशिश की, पर आफिया ने उसकी कोई बात न सुनी। आफिया चीखने-चिल्लाने लगी तो अमजद उठकर बाहर चला गया। अँधेरा होने पर घर लौटा तो बात ठंडी पड़ गई थी। लेकिन अगले ही दिन आफिया ने फिर से बवाल खड़ा कर दिया। उसकी वही मांग थी कि या तो वह उसको छोड़ दे या अपने घरवालों को। अमजद को आफिया और बच्चों से बहुत लगाव था, पर वह उसके व्यवहार से तंग आ चुका था। अब उसके शक पुख़्ता होते जा रहे थे कि यह ऐसा कुछ कर रही है जो कि सही नहीं है। और उसने यह सब किया भी उससे छिपकर है। आफिया का उस पर दबाव बढ़ता ही जा रहा था, साथ ही वह यह भी ज़ोर डालने लग पड़ी कि अब अवसर आ गया कि उन्हें जिहाद में शामिल हो जाना चाहिए। ख़ासतौर पर वह जैशे-मुहम्मद के कैम्प में जाने की जल्दी मचा रही थी। अमजद इतना ऊब गया कि उसने किसी मज़हबी रहनुमा की सलाह लेनी चाहिए। वह आफिया को लेकर पाकिस्तान के देवबंदी सम्प्रदाय के सबसे बड़े इमाम के पास चला गया। यह इमाम दोनों के परिवारों को भलीभाँति जानता था। इमाम ने उनकी बातें सुनीं। उसने आफिया का जिहाद में शामिल होने का नुक्ता बड़े ध्यान से विचाराते हुए पूछा, “आफिया बेटी, तू घरवाले सहित जैशे मुहम्मद के कैम्प में जाकर क्यों रहना चाह रही है ?“

“कैम्प में रहते हुए मैं यतीम बच्चों को पढ़ाऊँगी और अमजद वहाँ गरीबों के लिए अस्पताल चलाएगा।“

“देख बेटी, आजकल ज़माना बदल गया है। गरीबों की सेवा के लिए तुम्हें उजाड़-बियाबान जगहों पर जाने की ज़रूरत नहीं है। तुम यहाँ कराची में रहते हुए समाज सेवा के ये सारे काम कर सकते हो। बल्कि मैं तो कहूँगा कि तुमने जो अमेरिका में रहकर ऊँची तालीम हासिल की है, उसको लोगों में बाँटो। यही सबसे बड़ा दीन का काम है।“

“तो फिर जिहाद कौन लड़ेगा ?“ भड़कती हुई आफिया ऊँची आवाज़ में बोली तो इमाम हैरान रह गया। आज तक किसी ने उसके साथ इस तरह बात नहीं की थी। पर वह फिर भी शांत रहते हुए आफिया से मुखातिब हुआ, “आफिया बेटी, मैं एकबार फिर कहूँगा कि तुम्हारा पहला फ़र्ज़ अपना परिवार संभालना है। इसके बाद यदि तुम्हारे पास वक़्त बचता है तो उसे तुम समाज सेवा के लिए इस्तेमाल कर सकते हो। अगर तुम्हारे पास ज्यादा पैसा है तो वह तुम गरीबों में दान कर सकते हो।“

“पर जिहाद...।“ आफिया फिर से जिहाद के बारे में कुछ कहने लगी तो इमाम ने उसको हाथ का इशारा करके रोक दिया। फिर बड़े धैर्य से बोलने लगा, “सिर्फ़ लोगों को मारना ही जिहाद नहीं है। जो डॉक्टर कैंसर की बीमारी का इलाज करके मरीज़ की जान बचाते हैं, यह उनका जिहाद है कैंसर के खिलाफ़। तुम डॉक्टर लोगों की आँखों का आपरेशन करके उनकी आँखों की रौशनी उन्हें वापस देते हो, वह तुम्हारा जिहाद है - अंधेपन के खिलाफ़। इस तरह जितने चाहो उदाहरण ले लो। तू यह दृढ़-संकल्प ले ले कि तुझे अनपढ़ता के खिलाफ़ जिहाद लड़ना है और गरीब बस्तियों में जाकर बच्चों को मुफ़्त तालीम देना शुरू कर, यह तेरा असली जिहाद होगा।“

इसके बाद इमाम ने बातचीत बर्खास्त कर दी। अमजद और आफिया घर आ गए। अगले दिन वह अमजद के घर चले गए। पर इसके बाद उनके बीच सुलह न हुई। इस बात के दो दिन बाद अमजद ने देखा कि उसके बैंक में आठ हज़ार डॉलर कम हैं। उसने आफिया से बात की तो थोड़ी न-नुकर के बाद वह मान गई कि पैसे उसने ही निकलवाए हैं। अमजद ने जब पूछा कि उसने ये पैसे कहाँ खर्च किए तो आफिया ने कंधे उचकाते हुए कहा, “मुझे ज़रूरत थी, इसलिए मैंने वे कहीं इस्तेमाल कर लिए।“

“पर तूने मुझे तो बताया नहीं कि तुझे ऐसी क्या ज़रूरत आन पड़ी कि एकसाथ आठ हज़ार डॉलर निकलवा लिया।“

“क्यों तुझे हर बात बतानी ज़रूरी है ?“ आफिया भड़क उठी।

“मेरी भी बात सुन ले फिर...।“ अमजद का चेहरा भी लाल होने लगा। वह ज़रा रुकते हुए फिर बोलने लगा, “तेरा मेरा एकसाथ रहने का क्या फायदा जब तू हर बात मुझसे छिपाती है। जो तू सामने दिखती है, इसके अलावा तेरी एक दूसरी ज़िन्दगी भी है और उसमें पता नहीं तू क्या करती है। मैं ऊब चुका हूँ, तेरी ज्यादतियों को सहते सहते। अब हम एक छत के नीचे नहीं रह सकते।“

आफिया ने बिना किसी बात का उत्तर दिए बच्चों को उठाया और टैक्सी लेकर मायके चली गई। कई दिन इस तरह ही गुज़र गए। फिर दोनों परिवारों के बुजुर्गों ने साझे बंदों की मदद से एक मुलाकात का प्रबंध किया और उनके बीच सुलह करवाने का यत्न किया। यह बात सफल भी हुई। इस बीच फै़सला किया गया कि दोनों जन अपना अलग अपार्टमेंट लेकर कहीं और रहें। उनके लिए अपार्टमेंट का इंतज़ाम भी कर दिया गया और वे बच्चों सहित वहाँ जाकर रहने लगे। वहाँ एक सप्ताह ही बीता था कि एक दिन फिर झगड़ा शुरू हो गया। काफ़ी देर तक बहसबाज़ी होने के बाद अमजद ने ठंडी साँस भरते हुए कहा, “आफिया बस, अब हम और इकट्ठे नहीं रह सकते।“

“तू फिर क्या करना चाहता है ?“

“मैं तुझसे तलाक चाहता हूँ।“

उसकी यह बात सुनकर आफिया के मुँह का रंग उतर गया। उसने बच्चों को उठाया और अपने माँ-बाप के घर चली गई। अमजद चुपचाप अपने घर आ गया। दो सप्ताह बाद खान परिवार ने फिर से बड़े-बुजु़र्गों की बैठक बुलानी चाही, पर आफिया के परिवार वालों ने उनसे बात करने से इन्कार कर दिया। उन्होंने खान परिवार का फोन ही उठाना बंद कर दिया। वैसे तो अमजद तीन बार तलाक कहकर तलाक ले सकता था, पर अब सद्दीकी परिवार उसका फोन ही नहीं उठाता था और आफिया के साथ बात होनी तो दूर की बात थी। फिर उसने चिट्ठी लिखकर तलाक मांगने के बारे में सोचा। पर इसी बीच आफिया के पिता सुलेह सद्दीकी का निधन हो गया। हालाँकि सद्दीकी परिवारवाले अमजद को आफिया के पिता की मौत का ज़िम्मेदार ठहरा रहे थे और कह रहे थे कि वह बेटी का ग़म न सह सका और इसीलिए उसको दिल का दौरा पड़ गया। पर सब जानते थे कि यह बात सही नहीं थी। बल्कि अधिकांश लोगों का सोचना था कि वह एक नेक बंदा था जो कि आफिया और अमजद के बीच शायद एक और समझौता करवा सकता था। पर जब वह न रहा तो सब उम्मीदें ख़त्म हो गईं। इसी दौरान आफिया ने अस्पताल में बेटे को जन्म दिया। मगर उसने या उसके परिवारवालों ने अमजद को इस बच्चे की आमद की भनक न पड़ने दी। न ही उन्होंने पुनः अमजद को दूसरे बच्चों से मिलने दिया। इसी बीच सरकारी कारिंदे तलाक वाला काग़ज़ लेकर आफिया के पास गए तो उसने उस पर दस्तख़्त करने से इन्कार कर दिया। एक दिन शाम के वक़्त अमजद की माँ ने बात शुरू की, “अमजद बेटे, हमने हर जतन करने देख लिया, पर बात किसी किनारे नहीं लगती।“

“अम्मी, शायद आफिया को अक्ल आ जाए और वह तलाकनामे पर दस्तख़्त कर दे।“ वैसे वह दिल से यह चाहता था कि काश आफिया सुधर जाए और तलाक वाला मसला टल जाए। यह सोच उसकी आफिया के प्रति मुहब्बत में से उपजती थी।

“नहीं बेटे, हर मसले का एक वक़्त होता है। जब बात किसी ख़ास मुकाम से आगे निकल जाए तो फिर दुबारा से इकट्ठे रहने की कोई तुक ही नहीं रह जाती।“ उसकी माँ उसके मन के भाव समझती थी।

“ठीक है अम्मी, जैसे आपकी मर्ज़ी हो, वैसा कर लो।“ अमजद ने निराशा भरा जवाब दिया।

“अमजद बेटे, पिछली बार मुझसे गलती हुई थी जिसकी तुझे इतनी बड़ी सज़ा भुगतनी पड़ी। इस बार मैं रिश्ता अपने ही परिवार में से खोजूँगी।“

अमजद ने इस बात का कोई उत्तर न दिया और वह उठकर दूसरे कमरे में चला गया। इन्हीं दिनों वह कराची के एक अस्पताल में काम करता था। असल में, ज़ाहिरा खां ने अपने मायके वालो से जुड़े घरों में से किसी भाई की लड़की उसके लिए पसंद कर रखी थी। बस, वह अमजद की सहमति चाहती थी। यह मसला भी हल हो गया तो बात आगे चला दी गई। ज़ाहिरा खां और नई बहू का पिता चाहते थे कि यह निकाह वाला मसला जल्द हल हो जाए। उन्हें डर था कि कहीं आफिया फिर से अमजद के साथ प्यार जताकर वापस न आ जाए। जल्दबाजी में सादी-सी रस्म करके मंगनी कर दी गई। अमजद के घरवाले चाहते थे कि इसके साथ ही यदि आफिया के तलाक वाला काम भी निपट जाए तो फिर वे बिल्कुल निश्चिंत हो जाएँगे। मगर यही एक मसला उन्हें सबसे अधिक कठिन लग रहा था।

मंगनी वाली शाम को अमजद ने अपनी होने वाली नई बीवी को शाम के खाने के लिए कहीं बाहर लेकर जाना था। इसीलिए उसने शाम का काम शीघ्र समाप्त किया। तभी एक नर्स ने आकर उसको संदेश दिया कि कोई लड़की उससे मिलने आई है। उसने सोचा कि उसकी नई दुल्हन होगी। उसने डॉक्टरों वाला गाउन उतार दिया और अपने कपड़े वगै़रह ठीक किए। वह ज्यूँ ही बाहर आया तो देखता ही रह गया। सामने आफिया खड़ी थी। इस वक़्त वह उसको इतनी सुंदर लगी जितनी पहली मुलाकात के समय भी नहीं लगी थी। वहाँ आसपास के स्टाफ ने यही सोचा था कि यह अमजद की होने वाली बीवी है। आफिया की ओर देखते हुए अमजद ने अंदाज़ा लगा लिया कि यह तकरीबन महीनाभर पहले बच्चे को जन्म दे चुकी होगी। मगर फिर भी इस वक़्त उसकी खूबसूरती लाजवाब थी।

“जनाब किन सोचों में गुम हैं ?“ आफिया ने आगे बढ़कर बड़े मोह से अमजद की बांह पकड़ ली। अमजद की रूह को शांति मिल गई।

“मैं तो तुझे ही देख रहा था। कितनी खूबसूरत लग रही है। पर...।“

“पर... पर क्या, मेरे भोलेभाले डॉक्टर साहब ?“ आफिया ने उसकी ‘पर’ का मतलब समझते हुए गहरा मज़ाक किया।

“अब समझ गई हो तो खुद ही बता दे।“

“तेरा छोटा साहिबजादा एक महीने का हो चुका है।“ आफिया ने उसकी बांह पर हल्की-सी चिकौटी भरी।

“और मुझे पता भी नहीं ?“ अमजद ने नाराज़गी प्रकट की।

“मैं मानती हूँ यह बात। पर कईबार इन्सान के हाथ में कुछ नहीं होता। अब तू ही बता कि उस वक़्त मैं तो तुझे यह ख़बर देने की हालत में ही नहीं थी। घर के किसी दूसरे मेंबर ने तुम्हारे घर ख़बर भेजनी थी, पर मेरा ख़याल है कि हम दोनों के घरवाले हमें जोड़ने से ज्यादा तोड़ने की तरफ ध्यान दे रहे हैं।“ आफिया ने बहाने से नवजन्मे बच्चे के बारे में अमजद के घर ख़बर न देने के लिए अपने घर वालों को कसूरवार ठहराया। साथ ही, उसने उनकी आपसी अनबन के लिए पहली बार अपने मायके वालों को भी दोष दिया। अमजद कुछ न बोला तो आफिया ने उसकी ठोड़ी घुमाकर अपनी ओर करते हुए कहा, “चल, अब तो इस बात पर मुआफ़ कर दे। अब तो मैं खुद चलकर तुझे बताने आई हूँ।“ आफिया ने खूबसूरत अदा से कानों को हाथ लगाया। अमजद को आफिया का भोलापन अंदर तक भा गया। उसने उसका हाथ कसकर पकड़ लिया। वे वैसे ही चलते हुए बाहर आ गए।

“मेरा ख़याल है कि मेरा प्यारा प्यारा खाविंद इतना तो समझता ही होगा कि शाम का वक़्त है और मुझे भूख भी बहुत लगी होगी ?“

“ओह हाँ-हाँ। हम किसी नज़दीकी रेस्टोरेंट में चलते हैं।“ इतना कहते हुए अमजद आफिया को लेकर कार की ओर चल दिया।

“वैसे मैं जानती हूँ कि मेरे डॉक्टर साहब हद दरज़े के कंजूस हैं। पर जनाब, आज यह कंजूसी नहीं चलेगी। आज आपके साहिबजादे के जन्म की खुशी में यह डिनर मेरी पसंद का होगा।“

“बता फिर कहाँ चलें ?“

“होटल शैरेटन।“

“ठीक है, बैठ गाड़ी में।“ अमजद ने गाड़ी का दरवाज़ा खोलकर आफिया को संग बिठा लिया और चल पड़ा। शैरेटन होटल के रेस्टोरेंट पहुँचकर उन्होंने बड़ा शानदार डिनर किया। आफिया की उपस्थिति ने पिछले कितने ही दिनों से परेशान चले आते अमजद के कलेजे को ठंडक प्रदान की।

“कैसा रहा डिनर ?“ अमजद बिल चुकाकर चलते हुए बोला।

“अमजद, तेरे हाथ का तो ज़हर भी आब-ए-हयात है। यह तो फिर भी डिनर है।“ आफिया ने अँधेरे-से में पीछे होकर अमजद को अपनी बांहों में भर लिया। अमजद ने उसकी बांह पकड़कर अपने साथ लगा लिया।

“अब क्या प्रोग्राम है ?“

“आ जा, सामने वाले पॉर्क में चलते हैं।“ आफिया उसको पॉर्क की ओर ले चली। वह होटल के लॉन की कोने वाली एक नए-से पत्थर की बैंच पर बैठ गए। आफिया ने अमजद की बांह से सिर टिकाकर आँखें मूंद लीं और मन में सोचा कि काश वक़्त यही रुक जाए। अमजद, आफिया के बालों में हाथ फेरने लगा।

“अमजद, कितने अच्छे थे वे दिन जब हम बॉस्टन में हुआ करते थे।“

“उन सुहावने दिनों की याद बड़ा तड़पाती है आफिया, क्या बताऊँ।“ अमजद ने भी ठंडी आह भरी।

“हम लड़ते-झगड़ते भी थे, पर पलों में फिर से वैसे हो जाते थे।“

“मुझे तेरी लड़ने और मान जाने की अदा बड़ी प्यारी लगती थी।“

“और मुझे तेरी मुँह फुलाने की।“ आफिया ने अमजद की ओर मुँह फुलाकर नकल-सी उतारी तो दोनों हँस पड़े।

“काश कि वे दिन वापस आ जाएँ।“

“पुलों से गुज़रे पानी भी कभी लौटे हैं पगली। पर हम मौजूदा वक़्त को ज़रूर वैसा ही बना सकते हैं। बस, इन्सान के हाथ में इतना ही होता है।“

“अमजद, पिछले दिनों हमने लड़ने-झगड़ने की सब हदें पार कर दीं। कई बार मैं तेरे पर हद से ज्यादा गुस्सा हुई होंगी। पर क्या तुझे अभी भी मेरे से मुहब्बत है ?“

“आफिया, ऐसी बातों का मुहब्बत पर कोई असर नहीं पड़ता। एकसाथ रहते हुए गुस्से-गिले होना तो एक आम बात है।“

आफिया ने अमजद के गिर्द लपेटी अपनी बांहें और कस लीं। अमजद को भी इस वक़्त आफिया पर बेइंतहा प्यार उमड़ रहा था।

“मैंने तेरे पर कई ज्यादतियाँ की हैं अमजद...।“ इतना कहते हुए आफिया रोने लग पड़ी। अमजद से उसका रोना सहन न हुआ। उसने उसके कंधे पर हाथ फेरते हुए ढाढ़स देते हुए उसे फिर से बातों में लगा लिया। आफिया अमजद की गोद में सिर रखकर लेट गई।

“अहमद का क्या हाल है ?“ उसने उसका मन बहलाने के लिए बात बच्चों की ओर मोड़ ली।

“बिल्कुल ठीक। पर जब गुस्सा होता है तो माथे पर डाले बल बाप की तरह गहरे हो जाते हैं।“

“और माँ की तरह पीटने नहीं लगता ?“ अमजद ने आफिया का नाक पकड़कर हिलाया। आफिया ने हँसते हुए उसकी छाती में प्रेमभरी हल्की-हल्की मुक्कियाँ मारीं।

“मरियम कैसी है ?“

“वह भी ठीक है। पढ़ने में बहुत होशियार है।“

“बाप पर गई है न।“

“बाप पर नहीं, माँ पर गई है जनाब। याद है, यूनिवर्सिटी में टॉप करके मैंने सबको हैरान कर दिया था।“

“मुझे गर्व है तुझे पर आफिया पर...।“

आफिया ने अमजद के मुँह पर उँगली रखते हुए उसको आगे बोलने से रोक दिया और बोली, “ये प्यार के क्षण मुश्किल से मिले हैं। इन्हें हम कड़वाहट में बिल्कुल नहीं बदलेंगे।“

“चल ठीक है।“

“बल्कि मैं तो वे कड़वाहटें हमेशा के लिए ख़त्म करने आई हूँ।“

“अच्छा !“

“अमजद, बच्चों का तेरे बग़ैर दिल नहीं लगता।“ आफिया ने बात दूसरी ओर मोड़ ली।

“और बच्चों की माँ का ?“ अमजद हँसा।

“मछली पानी से बाहर रहकर कितना तड़पती है, ये पीड़ा तो सिर्फ़ वो बेचारी ही जानती है।“ आफिया ने आँखें पोंछी।

“आफिया, तुझे दुख पहुँचाने के लिए मैं तेरा गुनाहगार हूँ।“

“नहीं प्लीज़, ऐसी बातें न कर। पुराना सबकुछ भूल जा।“

“ठीक है पुराने सबकुछ पर मिट्टी डाली। अब फिर आगे बता क्या हुक्म है सरकार का ?“

“अमजद, तुझे बच्चे बहुत याद करते हैं। मुझसे उनकी तड़प देखी नहीं जाती।“ आफिया बच्चों की बात कर रही थी, पर अमजद आफिया की तड़प महसूस कर रहा था। गहरी आह भरते हुए वह बोला, “मैं कौन-सा सुखी हूँ तुम्हारे बग़ैर।“

“चल फिर अपने बच्चों के पास चल। क्यों हम एक-दूजे के बिना भटकते फिरते हैं।“

“चल तो पड़ता, पर कहाँ ?“

“मेरे घर, और कहाँ।“

“नहीं आफिया, वहाँ नहीं मैं जा सकता। तुझे पता ही है कि पीछे क्या कुछ होकर हटा है।“

“अमजद, उसके लिए हम दोनों ही कसूरवार थे। अब पुरानी बातों को भुलाने का फै़सला भी हम दोनों का ही है।“

“मगर फिर भी आफिया मैं मुआफ़ी चाहता हूँ उस घर में...।“ आगे उसने बात बीच में ही छोड़ दी।

“चल फिर यूँ करते हैं। न तेरे घर और न ही मेरे। हम अपार्टमेंट ले लेते हैं और अपनी ज़िन्दगी नए सिरे से शुरू करेंगे।“

“तेरी इस बात पर गौर किया जा सकता है।“

“गौर क्या करना है। हमें कौन-सा किसी से इजाज़त लेनी है। चल उठ, आज किसी होटल में रुक जाएँगे। कल मैं टैक्सी करके बच्चों को ले आऊँगी और तू तब तक कहीं अपार्टमेंट का इंतज़ाम कर लेना।“

“हाँ, यह बात तेरी बिल्कुल ठीक है।“

अमजद के हामी भरते ही आफिया ने उसके इर्द-गिर्द बांहें कस लीं। उसको लगा जैसे मन पर से एक भारी बोझ उतर गया हो। तभी अमजद के फोन की घंटी बजी। उसने आफिया को वैसे ही छाती से लगाए रखा और फोन ऑन करके ‘हैलो’ कही। उधर फोन पर उसकी माँ की आवाज़ उभरी, “बेटा अमजद, तू किधर रह गया ?“

“अम्मी मैं तो...।“ उसने आफिया को मुँह पर उँगली रखकर चुप रहने का इशारा किया और फिर आगे बोला, “अम्मी मुझे तो इधर किसी काम से आना पड़ गया था।“

आफिया जिसका मन अमजद की माँ का फोन आने पर ही खराब हो गया था, फोन में से उस तक धीमी आवाज़ में पहुँचती बात ध्यान से सुनने लगी। अमजद की माँ आगे बोली, “तुझे याद होना चाहिए था कि तुझे आज किसी को डिनर के लिए ले जाना था।“

“जी अम्मी। मैं आपको बाद में फोन करता हूँ।“

अमजद की माँ ने उसकी दुबारा फोन करने वाली बात सुनी ही नहीं और बोलती चली गई, “तेरी होने वाली दुल्हन तेरा इंतज़ार करती रही। तू न आया तो आखि़र वह घर लौट गई।“

‘होने वाली दुल्हन!’ ये लफ्ज़ सुनते ही आफिया के सीने पर आरी चल गई। पर फिर भी वह ज़ब्त में रही। उसको अमजद की माँ की बात फिर सुनाई देने लगी, “अभी यह हाल है तो बाद में क्या करेगा। दो दिन बाद तुम्हारी शादी है। तूझे कुछ तो सोचना था।“

अब आफिया से अपने आप पर नियंत्रण रखना कठिन था। वह उछलकर उठ बैठी।

“अमजद जनाब, प्यार के वायदे मेरे साथ किए जा रहे हो और उधर नया निकाह करवाने की तैयारी भी चल रही है। मैंने तुझे इतना कमीना नहीं समझा था।“ इतना कहते हुए आफिया ने झपटकर अमजद के गिरेबान पर हाथ डाल दिया। वह उसको इधर-उधर खींचती रही। फिर उसकी छाती पर मुक्के मारने लगी। मुक्के मार मार कर वह हाँफ गई तो अमजद की छाती से लगने के लिए बढ़ी जैसा कि वह हर झगड़े के बाद किया करती थी। पर फिर वह एकदम रुकी और पीछे हटती हाथों में मुँह छिपाती रोने लगी। अमजद की भी रूठी हुई आफिया को सीने से लगाने की चाहत मन में ही रह गई।

कुछ देर सिसकियाँ भरती आफिया संभली और उसने जाने के लिए अपना बैग उठा लिया।

“आफिया मेरी बात सुन...।“ अमजद ने उसको रोकना चाहा। पर आफिया ने उसकी ओर ध्यान न दिया।

“अभी कुछ नहीं हुआ। मैं सब संभाल लूँगा। तू मुझसे मुँह न मोड़।“

“अमजद, रस्सी टूट चुकी है। अब जितना चाहे ज़ोर लगा ले, यह दुबारा नहीं जुड़ेगी। मगर दुख इस बात का है कि मैं यूँ ही भ्रम पालती रही।“

“आफिया, पूरी बात सुन ले, यूँ ही बखेड़ा न कर।“

आफिया ने उसकी बात बीच में ही काट दी और बोली, “तेरी हाँ के बग़ैर तो यह निकाह नहीं हो रहा होगा ? मैं यह भी जानती हूँ कि मुझे मन से उतारने के लिए ही तूने अपनी रज़ामंदी दी होगी। फिर क्या फायदा, यूँ ही सफ़ाई देने का। अच्छा, तुझे नई दुल्हन मुबारक।“ आफिया उठकर चल पड़ी।

“आफिया, एक बार मेरी बात सुन ले। फिर चाहे...।“ अमजद कुछ कहने लगा तो आफिया ने रुकते हुए उसकी बात अनसुनी करके कहा, “क्या तुझे पता है कि मैं तेरे बार बार कोशिश करने पर भी तलाकनामे पर दस्तख़्त क्यों नहीं करती थी ?“

अमजद ने कोई जवाब नहीं दिया तो आफिया फिर बोली, “क्योंकि मुझे पता था कि तू मुझे बेहद चाहता है। और यह तलाक वाला यूँ ही एक डरावा है। मैं सोचती थी कि हम दोनों एक-दूसरे को इतनी मुहब्बत करते हैं कि एक-दूजे के बिना रह ही नहीं सकते। पर मुझे क्या पता था कि तेरे दिल में खोट है।“

आफिया खड़ी होकर अमजद के बोलने का इंतज़ार करती रही, पर जब वह कुछ न बोला तो वह मुड़कर अमजद की ओर आई और धैर्य के साथ बोली, “जिस वजह से मैंने यह तलाक वाला काम रोका रखा था, वह वजह अब रही ही नहीं तो मेरे यूँ ही अड़े रहने का क्या फायदा। आ मेरे साथ, अभी वकील के यहाँ चलकर तलाकनामे पर दस्तख़्त करवा ले।“

अमजद फिर भी कुछ नहीं बोला तो आफिया उसका हाथ पकड़कर खींचती हुई उसे बाहर ले आई। वहाँ से टैक्सी लेकर नज़दीक ही वकील के दफ़्तर पहुँचे। जहाँ जहाँ वकील ने कहा, आफिया ने दस्तख़्त कर दिए। काम खत्म हो गया तो आफिया जाने के लिए उठ खड़ी हुई। वकील फाइल समेटता बोला, “अमजद साहब, इस तलाकनामे के अनुसार तुम बच्चों का खर्चा हर महीने तब तक देते रहोगे जब तक वे बालिग नहीं हो जाते। और तुम मोहतरमा आफिया, अमजद साहिब को बच्चों से मिलने से नहीं रोकेंगी। ये कानूनी नुक्ते हैं, इसी कारण तुम्हें पढ़कर सुनाए हैं।“ वकील एक तरफ हो गया तो चलने से पहले आफिया, अमजद से हाथ मिलाते हुए बोली, “नई ज़िन्दगी मुबारक मिस्टर अमजद, यह शायद अपनी आखि़री मुलाकात है।“ आफिया ने बाहर से टैक्सी ली और चली गई। इसके कुछ दिनों बाद अमजद का निकाह हो गया।

(जारी…)