Kaash aap kamine hote - 7 in Hindi Fiction Stories by uma (umanath lal das) books and stories PDF | काश आप कमीने होते ! - 7

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काश आप कमीने होते ! - 7

काश आप कमीने होते !

उमानाथ लाल दास

(7)

प्रसाद जी ने एक विद्यालय संचालक शकर सर की दबंगई का राज खोलते हुए कहा- जानते हैं शंकर सर को इतना बड़ा छोकड़ीबाज बनाने में इन्हीं संपादक जी का हाथ है ! आपमें से बहुत कम लोग जानते हैं कि संपादक जी और शंकर सर लंगोटिया यार रह चुके हैं। सभी अवाक्। इतने दिनों यहां की पत्रकारिता में माथा खपा दी, पर राजधानी में बैठे संपादक जी के साथ यहां के शंकर सर के इस रिश्ते को कोई नहीं जान सका। प्रसाद जी ने कहा, यह तो शंकर सर की साफगोई है कि उन्होंने यह सारा प्रकरण खुद मुझसे सुनाया है।लड़कियों को बतौर स्टाफ टापने का यह नशा उसे अपने इसी संपादक साथी के पास उठने-बैठने से लगा। उन दिनों वह संपादक राजधानी स्थित मुख्यालय में बतौर कार्यकारी संपादक तैनात थे। एक दिन शंकर सर उनके कक्ष में थे, तभी की यह बात है। दोनों चाय पी रहे थे। जवानी के दिनों की याद से छेड़खानी चल रही थी। सन 74 के मजाकिया साल भी उसमें शामिल थे। एक पत्रकार जिसका चयन वह टाल नहीं पा रहे थे, उसे सामने बैठाकर फोन पर इधर – उधर की बात कर रहे थे। संकेत यह था कि चयन उसका भले हुआ हो तो हुआ हो, पर फाईनल करना तो उसे ही है। सो वह जब चाहेंगे तभी चयन होगा। प्रधान संपादक के एकदम चहेते थे वह। सो उस दिन उसे किसी और तारीख को आने की बात कहकर विदा कर दी। अब शंकर सर के सामने लगे वह अपने तामझाम के झिलमिल परदे उठाने – ‘क्या कहें यार। साली एक मालदार लड़की है। काफी अमीर घर की है। उसमें मैंने पत्रकारिता की ललक तो पैदा कर दी है, पर साली ज्वाइन ही नहीं कर रही। तुम भी स्साले उसे देखते ही सनसना जाओगे। दाना ही नहीं डाल रही।‘ तभी किसी फोन पर उसने इधर-उधर की बात की – ‘वो जो सर्वे आया है ना, उसपर केंद्रित करते हुए संडे सप्लीमेंट की मेन स्टोरी करवाओ। और प्रिंट में जाने से पहले एक बार खुद ही ले आऊट जरूर देख लेना। और सुन, अरे उस लड़किया को पटाओ ना। नहीं ज्वाइन करती है तो ना करे। उसे बस्स एक बार मुलाकात करने तो भेज ही सकते हो। थोड़ा इसमें जोर-शोर से लगना।...’ शंकर सर हक्का-बक्का ! प्रांत के सबसे प्रमुख अखबार के मुख्य संस्करण के आलीशान दफ्तर में यह बात हो रही थी। उसे अपने कानों पर जैसे भरोसा ही नहीं हो रहा था। एक आंदोलनकारी अखबार के रूप में देश भर में इसकी ख्याति थी। यहीं से वह निडर होने लगे। जैसे लगा कि साथी ने कहा – ‘जा स्साले, जो इच्छा हो कायदे से करो। मैं हूं ना।’ प्रसाद जी कहते – ‘पता है आज भी राजधानी से कोई भी धुऱंधर और लिक्खाड़ पत्रकार यहां आ जाए तो अपने इस आदर्श सपादक गुरु से मिलना नहीं भूलता।‘ उस अखबार के वह एकमात्र कार्यकारी संपादक हुए। दूसरे अखबार में उनके जाने के साथ पद भी खत्म। दूसरा तो उस लायक फिर मिला ही नहीं। यह वही संपादक जी हैं जो रहे कहीं भी पर उनकी आत्मा का एक हिस्सा यहीं चक्कर काटता रहा। जिस किसी भी राजधानी में रहे दीपक, प्रदीप जैसे डीलरों-कोयला व्यापारियों के दलाल पत्रकारों से यहां का हाल-चाल लेते रहते।

सिन्हा जी कहते - पत्रकारों से शुचिता की अपेक्षा करने से पहले अखबार के संपादकों को एक लकीर खीचनी होगी। क्या आप नहीं जानते कि एक संपादक के दिन भर का वास तो बाकायदा एक कर्मचारी के रनिवास में था। एक बार दोपहर की मीटिंग से संपादक जी नदारद थे। वहां से निकल कर साथीगण उस पत्रकार के यहां गए तो रनिवास से संपादक महोदय की हंसी-ठिठोली सुनाई पड़ी और वह पत्रकार महोदय घर में नहीं थे। कामरेड पत्रकारों के लिए यह दांतों तले उंगली चबाने की बात नहीं रह गई थी अब। बनारस में सनबीम कालेज में पढ़ा रहे जगदीश राव हों या जीएन कालेज में पढ़ा रहे संजय जी, इनके लिए यह सब पहेली नहीं रह गया था। लेकिन सैयद जी, अखबारों को लगता है कि शहर में कौन है जो भांपेगा हमारी चतुराई !

कई अखबारों में काम कर चुके ये जो सैयद खान हैं, इसी शहर में एक केबल न्यूज में 2012 की मई में चार हजार की पगार पर काम कर रहे हैं। तिल-तिल कर मरते इस साठ साला सैयद खान से कोई किसी खबर को लेकर, खबर के मैकेनिज्म को लेकर, राजनीति को लेकर, बाजारवाद को लेकर, दीन-दुनिया को लेकर, शेरो-शायरी-अदब की बात कर ले। सिन्हा जी और प्रसाद जी की सैलरी अब भले ठीक हो गई, पर सुकून के लिए सैयद जी का चक्कर जरूर लगा लेते हैं सप्ताह में एक-दो बार। सिन्हा जी सोचते हैं – अभी उन्हें जब बीस हजार मिलते हैं, तब तो महीना खत्म होने से पहले घर में कंगाली छा जाती है। हजार का नोट एक बार जेब से निकला नहीं कि अंगभंग के बाद कब वह खत्म हो जाता है, पता भी नहीं चलता। फोन पर सूचना नोट करने के बाद खबर का एंकर पार्ट तैयार करते हुए नीम अंधेरे कमरे में मेज की दूसरी ओर बैठे सिन्हा जी से सैयद जी कहते - जिसबाजारवाद के खिलाफ मीडिया को लड़ने की जिम्मेवारी निभानी थी, उसने तो अपने दांत को पूरी तरह भोथरा कर डाला है, बाजार द्वारा छोड़ी गई हड्डी को चबाने में। रखैल बने इस मीडिया ने ऐसे छिछोरे संपादकों को वजीफे पर रखा है जिनके कारण पत्रकारों की कई टोलियां आज सड़क पर हैं। मेरा तो मानना है कि झारखंड-बिहार में किसी मीडिया घराने की बंदी से जितने लोग नहीं बेकार हुए उससे कहीं अधिक घर तबाह हुए एक नई मैगजीन के शुरू होने से।

सिन्हा जी को जब आज बीस हजार मिल रहे हैं तो भी राजू जैसा कोई न कोई कमसीन दुखियारा उन्हें नींद में भी स्टोरी के लिए आटो से पीछा करते हुए परेशान कर रहा है। राजू तो बड़ा हो गया। और अब तो बात ही बदल गई। आटो चालकों के लिए ड्रेस कोड लागू हो गया, सभी को लाइसेंस साथ में लेकर चलना जरूरी हो गया, सभी आटो पर सामने रूट लिखा होता है। पहले जहां राजू की जगह सिन्हा जी को अपनी तस्वीर परेशान करने लग जाती, अब वहां उनके सामने सैयद खान की स्टोरी नाचने लगती है, पर सवाल है कि इसे छापेगा कौन! पत्रकारिता के कुछ खंडहर तो अभी दिल्ली, बनारस में मीनार बने हुए हैं। सिन्हा जी बोलते - काश थोड़ा कमीना हो जाते तो क्या होता सैयद जी। थोड़ा कमीना रमेंद्र जी को भी होना चाहिए था। कमलेश्वर की पत्रिका ‘गंगा’ में अंधविश्वास के खिलाफ ‘गंगास्नान’ का कालम रंगनेवाले इस रमेंद्र जी को जाननेवाला कौन है अब! दो दशक की नौकरी एक चुटकी मे चली गई, बहकावे में आने से। फिर तो आरा, पटना, रांची कहां-कहां की खाक नहीं छानी। नवल बिहार और 8-डेज ना जाने कैसे-कैसे अखबारों में नौकरी करनी पड़ी। पैसे के अभाव मे किडनी की मरीज बीवी का इलाज कायदे से नहीं करवा पाने के कारण उसे बचा नहीं सके। दयाल जी की बीवी इलाज के बिना कैंसर से मर गई। और सबसे बड़ी बात कि कब उनकी पत्नी कैंसर से ग्रस्त हो गई, पता भी नहीं चला। वह तो कहिए कि मरने का क्षण नहीं आता तो यह पता भी नहीं चलता। अंतिम क्षण में अस्पताल में भरती किए जाने पर न जाने क्या – क्या टेस्ट हुए। और मुंहफट, लेकिन ईमानदार पी चौबे की मौत भी भारी अखबारी अनदेखी का नतीजा ही थी। क्या आपने नहीं देखा कि किन हालातों में व्यापारी वंशज पत्रकार ने चौबे जी को किस तरह नौकरी से बैठा दिया था। रमेंद्र जी और दयाल जी की यह कहानी सैयद जी को सुना रहे सिन्हा जी अचरज में थे कि एक साथ न जाने कितनी हहराती हुई नदियां कब ठूंठ में तब्दिल हो सामने खड़ी हो गई थीं। अब उस बियाबान में ठूंट से बात नहीं की जा सकती थी, सिर्फ टकटकी लगाकर देखा जा सकता था। उसकी तपिश में जला जा सकता था। सिन्हा जी भी टकटकी लगाए झुलस रहे थे।

पत्रकारिता के पेशे मे अपनी व्यर्थता के अहसास से तिक्त हो चुके सैयद जी के पास यहां के मीडिया व राजनीति से जुड़े एक से एक अनुभव थे। प्रसाद जी को लगता कि यह जो सैयद हैं वह खबरों की कैसी कब्र हैं नहीं पता! इस शहर में और भी न जाने मीडिया के कितने खंडहर हैं जिनमें राजनीति-पत्रकारिता के कितने किस्से दफन हैं। इन्हीं सैयद जी से प्रसाद जी, सिन्हा जी को कई गूढ़ बातों-प्रसंगों का पता चला। वैसे सिन्हा जी और सुमन जी ने खुद ही देखा कि किस तरह इस नए राज्य में आज जो विधायक बनने लायक नहीं थे वे शिक्षा मंत्री बन गए तो कोई स्वास्थ्य मंत्री बन गया। शिक्षा मंत्री शिक्षक को ही लगा खुले मैदान में रगेदकर पीटने और स्वास्थ्य मंत्री अपने सगे संबंधी को सुविधा दिलाने के नाम पर मेडिकल कालेज व राज्य के सबसे बड़े अस्पताल के बड़े अधिकारियों की एमसी-बीसी करने। मन तो इतना बढ़ गया था कि एक बार स्वास्थ्य सचिव के कार्यालय में उन्हीं की कुर्सी पर बैठकर लगे उनकी क्लास लेने। इसी पर सैयद जी ने कहा था – जहां मीडिया में ऐसे लोगों के पूजक बैठे हों, भला वहां इस नए प्रदेश के लिए जिन लोगों ने वातावरण निर्माण का काम किया उसे कैसे जानेंगे! कितने लोगों को मालूम है कि रामदयाल मुंडा, बीपी केसरी का नाम एक साथ क्यूं लिया जाना चाहिए ? इनके साथ वीरभारत तलवार का नाम क्यों जुड़ता है ? सैयद जी खीझकर कहते - नई जमात के इन पत्रकारों को गरियाने वाले बताएं कि आखिर जिन तलवार साहब का नाम इन विचारकों में लिया जाता है उन्होंने ही कौन सा भला काम किया है अपनी बिरादरी के लोगों को इरादतन उपेक्षित कर। ‘एक एक्टिविस्ट के नोट’ जैसी मोटी किताब में पत्राचार जो दिखाते हैं मनमोहन पाठक व सीताराम शास्त्री के साथ, पर वही तलवार साहब इस राज्य के विचारक टाईप के लोगों का नाम जब गिनाते हैं ‘कथाक्रम’ के आदिवासी अंक में तो इन दोनों का नाम छोड़ देते हैं। अब यह संयोग पर कैसे छो़ड़ दिया जाए कि यह अनजाने में हुआ और उनकी नियत पर भी छोड़ने का मसला नहीं है यह। कुछ लोग तो सर्वाधिक जेनुइन नाम में सीताराम शास्त्री का नाम गिनते हैं।

एक बार इन्हीं सैयद जी ने सिन्हा जी व प्रसाद जी को किसी ‘चंदन’ नामधारी पत्रकार के दुखद अंत का किस्सा सुना रहे थे। किस्सा क्या था मीडिया पर कालेधन के साए के हावी होने से आई विकृति का त्रासद और भयावह चेहरा था। कभी-कभी तो अचरज होता कि क्या ऐसा भी होता है ! किसी जमाने में ‘चंदन’ जी बोकारो से ‘रश्मि’ नामक साप्ताहिक अखबार निकालते थे। कांख में अखबार दबाए विभाग-विभाग भटकते रहते। कर्मचारी कभी सौ, कभी पचास रु निकाल कर दे देते कहते – बाबा जाइए निकालिए अपना अखबार। कचहरी में भी लोग मदद करते। इस तरह अपना अखबार निकाल रहे थे बाबा। कहां से एक कोयला व्यवसायी का साया उनपर मंडराने लगा। एक दिन वह व्यापारी उनपर डोरे डालने में कामयाब हो ही गया। उस कोयला व्यवसायी ने ‘चंदन’ जी को अखबार मे हिस्सेदारी व प्रधान संपादक का पद देने का ख्वाब दिखाकर एक दैनिक निकालना शुरू किया। आदर से लोग उन्हें बाबा भी कहते। बाबा का मन मिजाज कुछ दिन तो प्रसन्न रहने लगा। लेकिन महीना भर भी नहीं बीता होगा कि वह कोयला व्यवसायी कहता – ‘बाबा आपके लिए यहां अधिक परेशान होने की बात नहीं। गौतम जी, विनय जी, झा जी, राकेश जैसे लोग हैं, ये लोग सब कुछ देख लेंगे। आप तो मालिक हैं, बस हमारे साथ बैठा कीजिए।‘अब धीरे-धीरे रूटिन बदल गया। व्यवसायी कहते – ‘अच्छा बाबा, तनी देखाईं ना फ्रेंच डांसं कैसन होखेला ?’ यह लालू के दौर से बहुत पहले की बात है जब कहा जाता है कि सांस्कृतिक कार्यक्रम की भरी सभा में लालू सेक्रेटरी से खैनी चुनवाते और अपनी पसंद की डांस करने को बाध्य करते। सो बाबा उस बुढ़ौती में एक हाथ कमर पर तथा दूसरा हाथ माथे पर ले लगते डांस करने। उनका ठुमकना शुरू होता कि बस प्रेस मे सारा कामकाज छोड़ कर लगता ठहाका। पेट पकड़कर झा जी, विनय जी, राकेश लगते लोटपोट होने। लेकिन किसी को रुलाई नहीं छूटती। कोई बाबा की आंखें नहीं देख पाता, उन आंखों मे उनके लिए कितनी हिकारत है, अपने लिए कितना आंसू है। और धीरे-धीरे बाबा संपादकीय लिखने से मुक्त कर दिए गए, फिर संपादक की कुर्सी से और फिर तो पता ही नहीं चला कि कब वह अखबार से बाहर हो गए। नाम जरूर बाबा का जाता रहा। सैयद ने कहा‘जानते हैं सिन्हा जी उस ‘चंदन’ जी का अंत कैसे हुआ। हम लोगों ने अपनी आंखों से देखा है - कपड़ा उतारकर बाबा कभी कुत्ते से लिपटते मिलते या कभी पोल से या कभी पुल की रेलिंग से लिपटे रहते। फिर एक समय आया जब बोकारो के रुद्रा, पांडेय जी ने बीएसएल के अधिकारियों की चिरौरी की कि बाबा किसी जमाने के नामचीन पत्रकार रहे हैं और उन्हें मदद की सख्त जरूरत है। किसी तरह उन्होंने बीजीएच मे उन्हें भरती करवाने का रास्ता निकाला। फिर ‘आईना’ मे त्राहिमाम छापा गया ‘ ‘चंदन’ जी बेहद अस्वस्थ हालत में बीजीएच में भरती हैं। उन्हें अभी नियमित देखरेख की सख्त जरूरत है। उनके कोई भी रिश्तेदार हों तो उनसे अनुरोध है कि वे बीजीएच जाकर उन्हें देखें।‘ बाद में उनके बेटों को जाकर उनसे चंदन जी को अपने यहां ले आने को कहा गया तो उन्होंने साफ कह दिया कि अब कोई उनकी जिम्मेवारी लेने की स्थिति में नहीं। बाद में भोजपुर स्थित अपने गांव में उनकी अनाम मौत हुई।

कहते हैं कि प्रेस में ही सोने का इंतजाम भी था। इन्हीं बाबा जी का एक किस्सा यह भी है कि एक बार उन्होंने किसी चाची टाईप के पत्रकार पर हाथ साफ करने की कोशिश की थी। बड़े ही रोचक किस्से हैं इस ‘चाची’ के भी दिग्गज पत्रकार बनने के। एक बड़े दबंग कोयला व्यवसायी से महंगी गाड़ी, विदेशी कैमरा हथियाया फिर रिपोर्टिंग के लिए बड़े राष्ट्रीय चैनल में सेंधमारी की। सिन्हा जी बोल उठे – सैयद जी आपने तो फिर भी लाज रख ली कोयला व्यवसायी कहकर। यहां तो पूरा मीडिया ही इस तरह ‘कोल किंग’ लिखता-बोलता है जेसे भाषा उसकी जागीर है। यह इलाका उसकी रियासत है, जिसे जो मन में आए पदवी-ओहदा दे दो। असल बात, देखिए लगता है ‘कोल माफिया’ कहते-लिखते नानी मरती है इनकी। थोड़ा सा मान-मोल रखना ही है तो कोयला व्यवसायी कहते, इतने भर से चलता। अब ‘कोल किंग’ कहते हैं जैसे उन्होंने ही राज्याभिषेक कराया है उनका।

सैयद जी कथा के सूत्र को आगे बढ़ाते हुए कहने लगे- उस कोल माफिया से चैनल के लोग भी उपकृत। धीरे-धीरे बड़े और बदनाम नेताओं के साथ बेतकल्लुफी रिश्ते बने। और यहीं से बना पूंजी का सुरंग। खोजते रहे सीबीआई और इनकम टैक्स कहां से क्या आया ! वही पत्रकार अब एक बड़े चैनल का कर्ताधर्ता बन बैठा और मशहूर हो गया ‘यहां की चाची, वहां का चाचा’के रूप में। उसने भी किसी का बुरा नहीं किया, सिर्फ एक सुनील नामधारी संपादक की नौकरी भर ले ली। उसके बहकावे में आकर इस सुनील जी ने बड़े और प्रतिष्ठित अखबार की अच्छी-भली संपादकी की नौकरी की तिलांजलि दे दी। सोचा बड़े चैनल में बड़ा ओहदा, यह क्या होता है संपादक-वंपादक। साथियों में विशेषकर प्रसाद जी जैसे चोट खाए लोगों ने काफी समझाया भी, पर तब तक बीवी का साया बुरी तरह ग्रस चुका था उन्हें। अब सुनील जी को लगने लगा है कि किसी की भी सलाह उनकी समझदारी की सीमा तक ही ग्रहण करना उचित है। कोई हमारे पिता हों या माता, पर समझदारी की जहां तक बात हो तो वहां श्रद्धा-प्रेम कुछ नहीं करता। वही हुआ इन संपादक जी का भी। न घर के रहे ना घाट के। ऐसी लड़ाइयों में वे ही टिकते हैं जो ऐसी लड़ाइयों में सूत्रधार की भूमिका में हों या फिर जिनके गाडफादर हों।

सिन्हा जी इस प्रकरण को याद करते ही सिहर जाते। ऐसे ही किसी अंतरंग क्षणों में मुंहफट सुमन जी ने सैयद जी से कहा – ‘कामरेड, हमारे पिछड़ने का सारा दोष व्यवस्था पर नहीं। देखिए लोग आपको मौका देना भी चाहते हैं तो एक मुसीबत आ जाती है कि कंप्यूटर आप जानते हैं नहीं। आज तो अखबारों में कुछ मामलों को छोड़ कंपोजीटर की कोई जगह बची नहीं। सिर्फ टुक-टुकाकर कंपोज करने के लिए दस-पंद्रह हजार क्यों बर्बाद किया जाए। अब हमीं लोगों को देखिए, पेज लगाने से लेकर ग्राफिक्स तक सभी कुछ बनाते हैं। अब ब्यूरो में रहकर खबरों की रिराइटिंग से लेकर उनका संपादन कंप्यूटर पर नहीं करने से कैसे काम चलेगा !’ सुमन जी केबल न्यूज के दफ्तर से निकलते हुए सिन्हा जी से कहते – ‘बास जानते हैं, सैयद जी का कंप्यूटर नहीं जानना उनके सभी कौशल पर भारी पड़ जाता है। इसमें हम-आप कोई क्या मदद कर सकते हैं। अब यदि उन्होंने सीखा भी तो वह बस इतना ही कि एक ऊंगली से इधर टुक उधर टुक करते हुए कंप्यूटर पर जितना वे कंपोज करेंगे या एडीट करेंगे उतनी देर में तो दस खबर की कंपोजिंग और पांच-छह खबरों की एडीटिंग हो जाएगी। वैसे भी साठ साल में हम-आप उनसे और कितने बदलाव की अपेक्षा कर सकते हैं? बास, हमीं जैसे कोई हों तो उनका कुछ हो सकता है, वरना नहीं लगता कि इस तरफ कोई देखे भी!’ सुमन जी कहते – औपचारिक शिक्षा के अभाव में उन्हें हमेशा छोटे-मोटे अखबार में शोषण की चक्की में पिसते रहने पड़ा। यह तो ट्रेजडी है। जिस अखबार को अपने खून-पसीने से सींचा, उसके आदशर्वादी संपादक के बेटा ने पूंजी खड़ा करके अपना काम निकाल लिया। सप्लाई का धंधा कर लिया। सैयद जी और उमेश जी जैसे पत्रकारों को बगैर पैसे के सालों-साल उसमें काम करने को मजबूर होना पड़ा। उस अखबार से कई बड़े पत्रकार निकले तो प्रभाष जोशी के कृपापात्र देश के नामी छली पत्रकार भी यहीं से निकले। अब आप ही कहिए सिन्हा जी हम लोग तो साथे ना काम करते थे उस अखबार में जब प्रसाद जी के पास सैयद जी का चिट्ठा आता था कि-‘साथी पोते के लिए हार्लिक्स खरीदनी है तो कल ईद है और चार माह से वेतन नहीं। कुछ कीजिए साथी।‘ कोई पत्रकार वह किताब लाकर देता प्रसाद जी को। और वे उसे पलटकर देखते कि क्या संदेश है। जब जो हो पाता करते। लेकिन यह निदान का रास्ता तो नहीं है। कभी सिंह जी कुछ कर देते हैं। कभी कृपा का सहयोग मिलता है। क्या बोलें, गुस्सा तो सैयद जी पर भी आता है कि वैसी जगह से चिपके क्यों रहे! उससे कम ही जो दे और नियमित दे, वहीं काम क्यों नहीं करते हैं। कभी-कभी तो लगता है यह कम्यूनिस्ट-वम्यूनिस्ट कुछ नहीं। पूरे भाग्यवादी हैं। कभी अपने संपादक को लेकर कोई क्षोभ या असंतोष नहीं दिखा उनमें। आखिर ऐसे थोड़े ना चलेगा।‘

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