तपते जेठ मे गुलमोहर जैसा
सपना सिंह
(7)
‘‘ तो क्या हुआ.....? अभी हुई तो नहीं......‘‘ सुविज्ञ की आवाज में दृढ़ता थी।
‘‘ सच, आज मझे इस बात का विश्वास तो हो ही गया...... के मैनें एक सही और बेहद प्यारे इन्सान से प्यार किया है...... आप कितने नर्म दिल के हैं न..... चलिए अब...... वरना कही मैं सचमुच न आपसे शादी रचा बैठू......‘‘ कहकर अप्पी उठ गई.....नीरू पर नजर पड़ी तो हंसते हुए उसे छेड़ने लगी.....
‘‘आपने क्यों मुंह लटकाया हुआ है भाई..... शाॅक्ड होने की जरूरत नहीं हैं..... अपने भाई साहब की शादी का प्लान आपने जो बनाया है..... मेरा कोई इरादा उसे चैपट करने का नहीं है।’’ चलिये.....
सुविज्ञ हैरान हो उसे देख रहा...... कैसी अजीब लड़की है...... जरा भी संकोच नहीं... कुछ भी अटपटा नहीं महशूश कर रही है...... अंदर बाहर से एक दम साफ-स्वच्छ......हृदय की सच्चाई आँखों से झिलमिलाती..... होंटो से खिलखिलाहट झरती..... कितनी शांत निश्छल औिर प्यारी सी। कितने लोग होते हैं जो.... जो कुछ महसूस करते है उसे उतनी ही सरलता से व्यक्त कर देते हैं...... कोई दुराव नहीं..... कोई आडम्बर नहीं...... बस्स जो है सो है..... वह सम्मोहित सा होता जा रहा है!
कैसी रोशनी सी फूट रही है इसके चेहरे से। किसी निहायत साधारण चेहरे को भी अन्दर की ताकत किस तरह असाधारण बना देती है.....वह यह पहली बार देख रहा था। उसे महसूस हो रहा था.... उसके साथ सब कुछ बदल रहा है। क्षण मात्र में उसे अपने भीतर तो परिवर्तन महसूस हुआ ही बाहर भी सब कुछ सा बदला सा लगा। जैसे कुछ बहुत महत्वपूर्ण घट चुका हो......अजीब सी थकान...... अजीब सा हल्कापन......थोड़ी सी उदासी..... तो थोड़ी सी खुशी भी...... एकदम से लगा उसने कुछ कीमती कुछ बडा़...... पा लिया है..... पर फिर एक दम से कुछ खो देने जैसा..... भी लग रहा है...... एक साथ ही उसे बंधापन भी लग रहा था और खुलेपन का एहसास भी हो रहा था.....।
कार में भी खामोशी पसरी थी! अप्पी कार से बाहर देख रही थी..... दुकानों में जलती बत्तियां..... सड़कों पर व्यस्त चेहरे..... कार ओवर ब्रिज से गुजरी है..... ‘ रेलवे स्टेशन के पास बगल वाली सड़क से होती हुई..... गोल घर वाली सड़क पर मुड़ी गोल घर की चमक दमक...... हज हज..... इंदिरा बाल बिहार वाली सड़क..... और ये रहा हाॅस्टल......क्या कर रही होगी इस समय रीमा जया..... अप्पी सोच रही थी......कुछ खा रही होगी या पढ़ रही होगी......या फिर जो परसों फिल्म देखी थी....‘कयामत से कयामत’ तक....
उसके हीरो की बातें चल रही होगी। रीमा तो पूरी तरह फ्लैट हो गई थी आमिर खान पर.... हाय, कितना क्यूट है न......।
अब वह मोहद्वीपुर वाले रोड पर हंै...... ये सुविज्ञ इतना घुमाकर क्यों लाये..... विजय चैराहे से मुड़ते तो एकदम सीधा पड़ता।
घर पहुँचने तक तीनों सहज हो चुके थे! मौसी बाहर बरामदे में ही खड़ी थी ‘‘ इतना देर लगा दी?.....सुविज्ञ बाथरूम में घुस गया था। अप्पी और नीरू बेड में रजाई में दुबक गयी।
‘‘ अम्मा चाय बनवा दो...... खूब अदरक डलवा देना.... नीरू ने कहा और ऊन सलाई उठाकर स्वेटर बिनने लगी ‘‘ किसके लिए बिन रही हो दीदी..... अपने उनके लिए!’’... अप्पी ने छेड़ा ‘‘ हट्..... ऐसा रंग वो पहनेगें..... ये तो मीना दीदी के बेटे के लिए है.....।‘‘
अप्पी बड़ी दिलचस्पी से नीरू को बीनते देख रही थी। सुविज्ञ भी आकर रजाई
में ही घुस गया...... ‘‘ ओ माई गाॅड..... किसका पैर है ये......?’’
इतना ठंडा..... ‘‘ सुविज्ञ चैक कर बोला था। अप्पी ने हड़बड़ा कर अपने पैर सिकोड़ लिए थे
‘‘ ये अप्पी महारानी जी के हाथ पैर ऐसे ही सर्द हुए रहते हैं..... नीरू बोली थी
टी.वी पर समाचार आ रहा था...... सुविज्ञ उधर व्यस्त हो गया! अप्पी ने हाथ में एक पत्रिका उठा ली! पर उसका ध्यान तो न ही टी.वी. पर था न ही पत्रिका में......वह तो सिर्फ सुविज्ञ को देख लेना चाहती थी.....अपनी आँखों को फैला- फैलाकर!
खाने की मेज पर भी वह चुप चाप थी मौसी ने उसकी मनपसंद टेंगर मछली बनाई थी..... मछली चावल उसका फेवरेट खाना था। आज कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था..... गले मे अटक सा रहा था खाना..... मौसा मौसी. नीरू दी और सुविज्ञ के मध्य ही बातचीत चल रही थी! वही शादी के इन्तजामात से सम्बन्धित। बारात कहाॅँ से जायेगी..... रहने का क्या इंतजाम है......? रिसेप्शन के लिए कौन सा होटल बुक है...... वीडियो रिकार्डिंग किधर से होगी अप्पी प्रकट तो तटस्थ थी..... पर हृदय की व्याकुलता का क्या करे वो ?उससे और नहीं सुना गया..... इन बातों के बीच अपना अस्तित्व एक दम फिजूल जान पड़ रहा था‘ एक्सयूज मी‘ कहकर वह उठ गयी..... और कमरे मंे आ गयी..... बातों की आवाजें कमरे में भी आ रही थी..... अप्पी ने एक पत्रिका उठा ली..... काफी देर बाद वो सब भी....वहीं आ गये...... फिर वहीं बातों का सिलसिला! अप्पी को अपने भीतर खूब गुस्सा, निराशा जैसी चीज़ उभरती महसूस हो रही थी
.....उनसे बातों से ध्यान हटाकर टी.वी. पर लगा दिया। अंग्रेजी समाचार चल रहे थे वह बीच-बीच में सुविज्ञ पर भी नजर डाल लेती! उसे लगता वह सारी उम्र यूॅँ बैठे गुजार सकती है...... उन्हे देखते हुए...... उनको सुनते हुए! सुविज्ञ की शादी को लेकर सभी खासे उत्साहित थे ..... लेकिन नीरू और सुविज्ञ के दिल में..... रह रह कर एक कचोट सी उभरती..... और उनकी आँखे अप्पी के चेहरे पर कुछ ढूढने लगती.....पर उसके चेहरे पर कोई भाव न देखकर वे हकबका उठते...... कुछ देर बाद मौसा-मौसी भी उठकर बाहर चले गये...... नीरू अप्पी बैठी रहीं। सुविज्ञ अप्पी से बतियाने लगा ‘ किस सब्जेक्ट में एम.ए. कर रही हो ?‘‘
फिलाॅसफी.....‘‘
‘‘ आगे का क्या इरादा है......?‘‘
‘‘ पी.एच.डी.‘‘ ज्वाइन करूँॅगी!‘‘
‘‘ तुम कुछ लिखती विखती भी हो न.....क्या लिखती हो.....?
‘‘ ऐसे ही कुछ..... अप्पी को अपने लिखने पर बात करने में बड़ी उलझन होती थी..... ऐसा कुछ बड़ा उसने अभी तक लिखा नही था..... जिसके बारे में बात की जा सके।
सुविज्ञ की आॅँखे झपकने लगी थीं.... नीरु और अप्पी बगल वाले कमरे में आ गईं। नीरू के साथ चारपाई पर लेटते वक्त अप्पी की आँखों में नींद जरा सी भी नहीं थी..... नीरु ने उसके हाँथों को अपने हाँथों में थांमा और बोल उठी..... कितने ठण्डे हैं तुम्हारे हाँथ! मुंह से सी-सी की आवाज निकालते हुए उसने अप्पी को अपने से लिपटा लिया...... सो जाओ सुबह जल्दी उठना है।
अप्पी अविचल लेटी रही.... नीरु के शरीर की गर्मी से उसके शरीर की ठंड भाप बनकर उड़ गई थी। अकेले सोने पर तो अक्सर उसे एक दो घंटे रजाई को अपने इर्द गिर्द कसकर ठंड़ भगााने में ही बीत जाते थे...... एकाएक उसे गर्मी और घुटन महसुस होने लगी...... नींद न आने पर भी नींद का नाटक करना उसे तकलीफ दे रहा था...... बेवजह लेटकर नींद का इंतजार करना कितना बेतुका है...... वह उठकर बैठ गई। रजाई हटाते ही सर पर ठंडा सा महसूस हुआ...... उसे झुरझुरी आई और वह बिस्तर से उतर गई।..... पैरों में स्लीपर डाला...... शरीर पर कसकर शाॅल लपेटा और बेआवाज कमरे से बाहर निकल आयी..... दूसरे कमरें में सुविज्ञ सो रहा था..... सर से पाँव तक रजाई ओढ़े..... वह बाहर आँंगन में आ गई चारों ओर बरामदा अंधेरे में डूबा हुआ था। जाड़े में मौसम का अंधेरा शायद कुछ ज्यादा ही गाढ़ा और खामोश होता है। दांयें ओर वाले बरामदे में बीड़ी की हल्की सी कौंध..... छोटे चाचा थे..... अप्पी ने आंगन में टहलते हुए उधर देखा..... इन्हें भी क्या नींद नहीं आती.....?
’’अप्पी बाहिनी.....।’’ छोटे चाचा के स्वर में हल्का आश्चर्य था......’’ का नींद नहीं आ रहा......’’ अप्पी ने धीरे से हाँ कहा और टहलना जारी रखा! कोई और वक्त होता तो अप्पी आराम से बैठकर उनसे बतियाती! वो भी कहीं अपनी सोचों के अंधरे में गुम थे...... अप्पी अपनी गुत्थियों में मुब्तिला। अप्पी टहलते हुए बीच-बीच में सिर उठाकर तारो भरे आकाश को देखती....। ठंड उसके शरीर से उतरती हुई..... होंठो को छूती गर्दन से दौड़कर पीठ के रास्ते नीचे ऐंड़ी तक जा पहुँची थी..... लगा जैसे हिम हो गई है वो। उन्हीं बर्फीले कदमों से चलकर वह सुविज्ञ के कमरे में आई और उसके पलंग के पास धरी कुर्सी में बैठ गई। नाइट क्लब की रोशनी में उसे दीवाल पर लटकी घड़ी एक राक्षस की तरह लग रही थी..... उसे देखते-देखते उसके चेहरे पर खौफ छाता गया..... सब मेरे दुश्मन बन गयेे हैं...... ये घड़ी भी। क्या यें रुक नहीं सकती.....?
किसी खटके से या यूँ ही सुविज्ञ की नींद उचट गई थी। रजाई से सिर निकालकर उसने समय देखना चाहा.... ढ़ाई बज रहे थे...... अचानक निंगाह कुर्सी पर गई लगा कोई बैठा है! अप्पी! वह चैंक कर बिस्तर से उतर गया पास जाकर देखा, अप्पी ही थी। नाइट क्लब की रोशनी में चेहरा निर्जीव और सूखा। हाथ पैर सिकोड़ उसने किसी तरह शाॅल में लपेट रक्खा था..... गाल पर सूखे हुए आंसुओं की तमाम रेखा...... अप्पी.... ’’सुविज्ञ ने उसके कंधों को धाीरे से पकड़ कर हिलाया.... अप्पी हड़बड़ा गई.... सुबह हो गई क्या.... लेकिन....!’’ कैसी कातर आवाज थी अपने पास सुविज्ञ को खड़ा देख वह चैंकी, ’’क्या आप जाने के लिये तैयार हो गये हैं......’’ सुविज्ञ का दिल भर आया।
’’नहीं.... अभी तो ढ़ाई ही बजा है..... तुम जाकर सो जाओ वरना तबियत बिगड़ जायेगी।’’ उसने अप्पी का हाथ पकड़कर उठाना चाहा.... कुर्सी से उठते-उठते अप्पी लड़खड़ा कर फिर से कुर्सी पर गिर पड़ी..... लगा दांया पैर अपनी जगह पर है ही नहीं देर से पैर सिकोड़ कर बैठने से सुन्न हो गया लगता था। सुविज्ञ समझ गया था..... उसकी आंखों में हंसी तैर गई। अप्पी के कुम्हलाये चेहरे पर भी झेंपी सी हंसी उभर आई थी! सुविज्ञ बैठ गया...... सहज ही उसने अप्पी के दांये पैर को पकड़ा..... ‘यही वाला’!...... अप्पी ने असमंजस में ही सिर हिला दिया। सुविज्ञ ने एक झटके से पैर को सीधा कर दिया अप्पी को लगा एक गुदगुदाता हुआ दर्द पिडंलियों से बहता हुआ..... रीढ़ की हड्डी तक आ पहुंचा हो...... कुछ क्षण वह आंख बंद किये रही.... फिर उसने क्षपाक से आंखें खोल दी.... अजीब सी नजरों से सुविज्ञ को देखा और एक क्षटके में ही खड़ी हो गयी..... पैर में फिर दर्द उठा था..... पर उसने व्यक्त नहीं किया और सिर झुकाये नीरु के कमरे में चली गई। सुविज्ञ उसे जाता देखता रहा..... एक आह निकली होंठो से..... उसने दोनो हाथ सिर के बालों में फंसाये.... हल्का सा खिंचवा दिया और बिस्तर पे आ गया।
शायद तुरंत ही आंख लगी थी उसकी .....कि जगा दिया गया.... क्या मुसीबत है...। उनींदी आंखों से उसने मुंह घुमाकर देखा, अप्पी थी .. हाथ में चाय का प्याला लिए...... एक दम उसकी नींद भाग गई! अप्पी के मुंह से सू ऽ सू की आवाज आ रही थी.... तुरंत नहाकर ही आ रही थी शायद वह..... आॅरेंज कलर की प्लेन साड़ी...... से झांकता उसका सुकुमार शरीर उसके देंह की गठन ठोस और कसी नहीं थी लेकिन उसमे शहद जैसी कोमलता थी...... आमंत्रण देती उत्तेजना उसमे बिल्कुल नहीं थी..... लेकिन तब भी उसे बांहों में भरने का मन हो रहा था.....।
’’चाय लीजिए,’’ अप्पी की आवज स्थिर थी...... सुविज्ञ ने अचकचा कर प्याला थाम लिया..... नजरें अप्पी के चेहरे पर थोड़ी देर के लिये अटकी थीं..... रतजगे का असर सिर्फ आंखों में था...... बाकी का चेहरा शान्त! उसने वहाँ से नजरे हटाकर चाय से उठते भाप पर टिका दिया...... अप्पी जाने के लिये मुड़ गयी... उसने उसे कमरे से बाहर जाते हुए देखा और एका-एक उसे ध्यन आया कि, अरे जाना भी है! सहसा वह व्यस्त हो गया! दस मिनट बाद जब वह सूटकेस से कपड़े निकालने दूसरे कमरे में गया तो ठिठक ही गया। उसी कमरे में एक किनारे पर पूजा का स्थान था...... अप्पी ध्यान मग्न बैठी थी.... कैसी अपूर्व शांति थी उसके चेहरे पर..... कुछ क्षण बाद उसने आंखें खोली...... आरती के पात्र में घी की बत्ती डालकर दीपक जलाया और ज्यों ही मुड़ी सुविज्ञ को देखकर अचकचा गई। अनायास सुविज्ञ के होंठो पर बारीक मुस्कान खिंच गई। पास आकर अप्पी के कान के पास मुंह ले जाकर हठ्ात बोला ’ब्यूटीफुल’ अप्पी के मांथेे पर बल पड़ गये।
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