आधी नज्म का पूरा गीत
रंजू भाटिया
Episode ५
सच जो कडवे होते हैं (सेज के गहरे अँधेरे )
नारी डराती नहीं है मगर पुरुष डरता है. डरे हुए पुरुषों का समाज हैं हम. किसी ना किसी उर्मि का डर हमारे समाज में हर पुरुष को है. जीती जागती हंसती खेलती उर्मि नहीं, उर्मि के मरने के बाद भी वो उर्मि से डरता है. उर्मि का पिता उर्मि के मरने के बाद उसका जिक्र करने से भी डरता है. उर्मि का पिता उर्मि का जिक्र सुनने से भी डरता है. मगर अमृता उर्मि का ही जिक्र करतीं जाती हैं. उनके उपन्यास का हर महिला पात्र उर्मि है. मुझे तो हर तरफ उर्मि ही दिखती है. मुझ में, आप में, हर उस रूह में जो स्वतंत्र हो के जीना चाहती है. मगर उर्मि तो मर गयी है. पूरे उपन्यास में उर्मि कहीं नहीं है. पूरे समाज में उर्मि हर कोई है. यहां मैं बात कर रही हूँ आक के पत्ते उपन्यास की उर्मि की जो कि वास्तव में उपन्यास में है ही नहीं.
उर्मि का कसूर यह था कि वह एक औरत थी. उर्मि का कसूर यह था कि वह किसी से प्यार कर बैठी थी. उर्मि का कसूर यह था की वह जिससे प्यार कर बैठी थी वह उसका पति नहीं था. उर्मि के पति का प्यार पैसा था जिसे पाने वह कीनिया चला गया. उर्मि का प्यार गौतम था जिसे पाने वह पढ़ने के बहाने गाँव से शहर आ गयी. उर्मि को तो मरना ही था. उसके सगे पिता और ससुर ने मिल कर रात के अँधेरे में खुद ही उर्मि को मार दिया और क़ानून को पैसे की खुशबू से अंधा कर दिया.
आक के पत्ते में उर्मि और गौतम की कहानी उर्मि का भाई सुना रहा है.
पिताजी उत्तर नहीं देते!
मेरी जीभ को एक बल…सा पड़ जाता है, पर फिर भी कहता हूँ, "राजाहरिश्चचंद्र सत्यवादी था. आप चाहे फिर कभी सच न बोलना, पर एक बार सच बता दो…उर्मि कहाँ है?”
पिताजी खटिया की अदवायन को इतने जोर से खींचते हैं कि अदवायन टूट जाती है…
माँ मूढे पर एक गठरी की तरह बैठी हुई है. गाँव का हकीम उस की रीढ की ह्रडूडी पर रोज़ लेप करता है, और कहता है कि उसे कभी ढीली खाट पर न सुलाना। इसी लिए पिताजी रोज उस की खाट कसते हैं.
पिताजी खटिया की अदवायन को गांठ लगाने लगते हैं, तो मूढे पर पडी हुई गठरी धीरे से रोने लगती है, "हाय री बेटी, कौन टूटी को जोडे.
गठरी ही कहूँगा...मां होती तो जोर-जोर से विलाप न करती. सोचता हूँ - उर्मि अगर एक सुंदर-सजीली लडकी न होती, किसी खाट की खुरदरी अदवायन होती, तो उस की उम्र को गाँठ लग जाती.....
फिर कमरे का आला मेरी तरफ़ देखता है और मैं कमरे के आले की तरफ़.उस की भी छाती में किसी ने ऐसे बुटका भरा है, जैसी मेरी छाती में. वहां आले में - एक तसवीर थी, मेरी और उर्मि की. एक बार पिताजी, हम दोनों की उँगली पकडकर, एक मेले पर ले गये थे.उर्मी तब कोई सात बरस की थी, और मैं पाँच बरस का. और वहाँ मेले में हम दोनों बहन-भाई की तस्वीर उतरवायी थीं। पर आज वह तसवीर वहाँपर नहीं रही. मैं और यह आला, दोनों मिलकर पूछते हैं, "पिताजी, वह तसवीर कहाँ चली गयी?”“तुझे क्या करना है उस का?" पिताजी गुस्से में अदवायन को इस तरहखींचते हैं, मुझे लगता है कि अदवायन फिर टूट जायेगी.
कहता हूँ, "उस की एक ही तो निशानी थी!"
पिताजी’ खीझकर बोलते हैं, "निशानी अब सिर से मारनी है?”
मैं ढीठों की तरह कहता हुँ, "आप को नहीं जरूरत थी तो न रखते, मुझे दे देते, मैं शहर वाले कमरे में लगा लेता."
“डूब जाये तेरा शहर.... " पिताजी का सारा बदन खुरदरी अदवायन की तरह कस जाता है और शायद उन के अपने बदन को छिललरें उन के हाथों में चुभ आती हैं, वह हाथों को मलते…से मेरी तरफ़ देखते हैं.
जानता हुँ…-मैं शहर में कमरा लेकर जब कॉलेज में पढने लगा था, तो उर्मि ने अपने पीहरियों और ससुरालियों के आगे हाथ जोड़े थे कि उसका आदमी अगर कुछ अगर कुछ बरसों के लिए कमाने चला गया है, तो वह गाँव में पडी क्या करेगी, उसे 'शहर जाकर आगे पढ लेने दें। और वह शहर जाकर आगे पढने के लिए काँलिज में दाखिल हो गयी थी । हम बहन-भाई दोनों शहर में कमरा लेकर रहते थे.
वही शहर जहां उर्मि का प्यार गौतम भी रहता था. उर्मि ने वह कर लिया उसे जो नहीं करना था. यह बात उसके पिता के दिल में छिलदर की तरह लगी और पिता ने उसकी साँसों की डोर को अदवायन की ही तरह तोड़ दिया.
मूझे नहीं पता था कि वह सिर्फ गौतम के लिए शहर आयी थी ।
फिर मैं कभी हंस कर कहता था, 'उर्मिये ! अगर तेरा कूछ लगता फिर तो तुझे अपने साथ ही केन्या ले जाता?’
"राह में समुद्र आता है न?’ उर्मि हंस पड़ती
‘हाँ । ' मैं कहता
‘बस, फिर समुद्र में डूबकर मर जाती । ' उर्मि कहती
उर्मि की यह बात एक बार गौतम ने भी सुन ली, कहने लगा, ‘तू समुद्र में भी खो नहीं पाती, मैं सारा समुद्र मथकर तुझे ढूंढ लेता..’
तब अचानक मेरे मुँह से निकला…”गौतम!"
गौतम ने उर्मि की मौत के सच का जहरीला समंदर जो कि आक के पत्ते की तरह कडवा था, पी लिया.
गौतम कहने लगा, "मंदिर में बहुत भीड थी. में भीड़ ये से लांघकर जल्दी से मूर्ति के पास जाना चाहता था, पर लोग मुझे लांघने नहीं दे रहे थे. फिर उन्हींने मूर्ति के आगे आग जला दी, और उस के गिर्द खडे होकर कोई मन्त्र पढने लगे. मैं आग के पास से गुजरकर आखिर मूर्ति के पास पहुँच ही गया. पर इतनी देर में आग के पास किसी ने ज़िंदा लड़की को ला कर खडा कर दिया. और मिझे पता नहीं किस ने धीरे से बताया कि आज के दिन पूनम की रात, इस देवी के मंदिर में बलि दी जाती है...”
‘तू आजकल बलि का इतिहास पढ़ रहा है ना इसलिए ऐसा सपना आया है.’ मैंने कहा.गौतम ने भी सर हिलाकर ‘हाँ’ कहा, पर साथ ही कहा, “जब मैंने आग के पास खडी उस लड़की की तरफ देखा तो मेरी चीख़ निकल गयी, उर्मि थीं उर्मि पत्थर की देवी भी थी, और उर्मि उस के आगे दी जाने वाली बलि भी थी..."
दोगली दुनिया है हमारी. उर्मि को देवी बना कर उसकी पूजा भी करते हैं. उर्मि की बलि भी लेते हैं. कभी ऑनर किल्लिंग के नाम पर उर्मि की बलि तो कभी बेटों की चाह में पैदा होने से पहले ही....! कभी उर्मि को स्कूल ना भेज कर और कभी उर्मी की सोच को बाँध कर...!
उर्मि जब अपने और गौतम के बच्चे का इंतजार कर रही थी तो उसके पिता ने उसको ही मार दिया. कुछ अरसा ही सही उर्मि अपनी जिंदगी गौतम के साथ जी गयी. मगर उसके बाद उर्मी का पिता अपनी जिंदगी कैसे जी सकता था? पिता को अब हमारे समाज की ही तरह सुनाई देना बंद हो गया था. जिस नदी में उर्मी को मार डुबोया उस की मिटटी से भी डरता है.
सूना हुआ था कि शिव की मूर्ति नदी की मिटटी से बनानी चाहिए, मैंने एक कागज़ ढूढ़ कर उस पर पेन्सिल से लिखा, “आओ चलें! नदी पर जा कर मिटटी ले आयें, नदी की पवित्र मिटटी से ही शिव की मूर्ति बन सकती है, ” और कागज पिता जी के आगे रख दिया.
पिता जी सुन नहीं सकते थे पर बोल सकते थे. पर यह कागज़ पढ़ कर वे बोले नहीं – सिर्फ उनका सर ‘नहीं नहीं’ में कांपने लगा...!
आनर किलिंग आज भी हमारे समाज में ख़त्म नहीं हुई है, आज भी इस उपन्यास की उर्मी की तरह कई उर्मियाँ घर के आलों से तस्वीर की तरह गायब है.
एक लेखिका के रूप में अमृता जी को बहुत प्रतिरोध का सामना करना पड़ा, उनका बहुत विरोध भी हुआ, उनके स्पष्ट, सरल और निष्कपट लेखन के कारण और उनके रहने सहने के ढंग के कारण भी। लेकिन उन्होंने कभी भी अपने विरोधियों और निन्दकों की परवाह नही की !उन्होंने अपने पति से अलग होने से पहले उन्हें सच्चाई का सामना करने और यह मान लेने के लिए प्रेरित किया की समाज का तिरिस्कार और निंदा की परवाह किए बिना उन्हें अलग अलग चले जाना चाहिए, उनका मानना था की सच्चाई का सामना करने के लिए इंसान को साहस और मानसिक बल की जरुरत होती है एक बार एक हिन्दी लेखक ने अमृता जी से पूछा था की अगर तुम्हारी किताबों की सभी नायिकाएं सच्चाई की खोज में निकल पड़ी तो क्या सामजिक अनर्थ न हो जायेगा ?
अमृता जी ने बहुत शांत भाव से जवाब दिया था कि यदि झूठे सामजिक मूल्यों के कारण कुछ घर टूटते हैं तो सच्चाई की वेदी पर कुछ घरों का बलिदान भी हो जाने देना चाहिए !!जीवन का एक सच उनकी इस कविता में उस औरत की दास्तान कह गया जो आज का भी एक बहुत बड़ा सच है। एक एक पंक्ति जैसे अपने दर्द के हिस्से को ब्यान कर रही है।
मैंने जब तेरी सेज पर पैर रखा था
मैं एक नहीं थी--- दो थी
एक समूची ब्याही
और एक समूची कुंवारी
तेरे भोग की खातिर।
मुझे उस कुंवारी को कत्ल करना था
मैंने, कत्ल किया था --
ये कत्ल
जो कानूनन जायज होते हैं,
सिर्फ उनकी जिल्लत
नाजायज होती है द्य
और मैंने उस जिल्लत का
जहर पिया था
फिर सुबह के वक़्त --
एक खून में भीगे हाथ देखे थे,
हाथ धोये थे --
बिलकुल उसी तरह
ज्यूँ और गंदले अंग धोने थे,
पर ज्यूँ ही मैं शीशे के सामने आई
वह सामने खड़ी थी
वही.जो मैंने कत्ल की थी
ओ खुदाया !
क्या सेज का अँधेरा बहुत गाढा था ?
मुझे किसे कत्ल करना था
और किसे कत्ल कर बैठी थी। ??
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