Surtiwala bhoot in Hindi Horror Stories by Devendra Prasad books and stories PDF | सुर्ती वाला भूत

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सुर्ती वाला भूत

बात दिनों की है जब हर गांव, बाग- बगीचों में भूत-प्रेतों,डायन-चुड़ैलों के विस्तृत साम्राज्य था। गांवों के अगल-बगल में पेड़-पौधे, झाड़-ताड़, बाग ( महुआनी,अमवारी, बँसवारी आदि) की बहुलता हुआ करती थी एक गांव से दूसरे गांव में जाने के लिए पगडंडियों का सहारा लेना पड़ता था। जो लोग दिल के कमजोर होते थे वो घने दोपहर या दिन ढलने के बाद भूत-प्रेत के डर से गांव के बाहर जाने से डरते थे या जाते भी थे तो इतना घबराकर की जो हिम्मती आदमी होता था वो दल का नेतृत्व करता था औऱ साथ ही अपने साथियों को चेताता था कि यदि पीछे से किसी भी तरह की आवाज आये तो भूल कर भी पीछे मुड़कर नहीं देखना। मन ही मन मे हनुमान की दुहाई देते हुए आगे बढ़ो।
उस वक़्त ग्रमीण क्षेत्र में वैधजी ही पाए जाते थे जो कई गांव के मरीजों का इलाज उसका नब्ज टटोलकर और अपने अनुभव से चुटकी बजाते ही कर देते थे।
एक बार अमावस की घनी काली रात थी और हमारे ही गांव में एक व्यक्ति पेट दर्द से परेशान था। परिवार वालों ने सोचा कि अपच की समस्या होगी तो कुछ घरेलू नुस्खें आजमा लेते हैं। परिवार के सदस्यों ने अजवाइन का चूर्ण गर्म पानी के साथ दे दिया। परन्तु वक़्त के साथ साथ दर्द बढ़ता ही जा रहा था। करीब दो घंटे बाद भी जब दर्द से राहत नहीं मिला तो सभी परेशान से हो गए। अब उस व्यक्ति को दर्द झेला नहीं जा रहा था, ऐसा लग रहा था मानो जान पे बन गई। जब दर्द असहनीय हो गया तो घर के ही बुजुर्ग ने सलाह दी कि पड़ोस के गांव से वैधजी को बुला लाओ। ये जिम्मेदारी मिली घर के बगल में रहने वाले बनिहार हिमांशू दास को जो कि वैधजी का घर अच्छी तरह से जानता था।
रात के करीब 11:30 बज रहे थे। हिमांशू दास पड़ोस के गांव ओसाँव गए। ओसाँव गाँव करीब हमारे गांव से 1 मील की दूरी पर ही है। परन्तु जैसे ही हिमांशू दास ओसाँव पहुँचें उनकी दिक्कत तो और बढ़ गयी जब उन्हें पता लगा कि वैधजी एक दिन पहले ही सीढ़ी से गिर गए थे औऱ अपनी दाई टांग तुड़वा बैठे थे। उन्होंने सरकारी अस्पताल जा कर ही दाईं पांव में प्लास्तर करवाया था।
वो कहीं भी आने जाने में असमर्थ थे। हिमांशू दास ने पेट दर्द वाली समस्या से अवगत करवाया यह सब सुनकर वैधजी बोले-" क्या हुआ मैं कहीं आ-जा नही सकता तो, मैं तुम्हे औषधि देता हूँ। तुम बस थोड़ी देर इंतजार करो।" यह कहकर वैधजी कुछ जड़ी बूटियों को मिश्रित कर के अपने इमामदस्ते से कूटने लगें। जब अच्छी तरह से कूट ली तो हिमांशू दास को देते हुए बोले-"इसे जाते ही गुनगुने पानी के साथ दे देना, भगवान ने चाहा तो इसे खाते ही दर्द छू मंतर हो जाएगा।"
हिमांशू दास औषधि ले कर खुशी खुशी अपने गाँव की तरफ निकल पड़ा। हिमांशू दास जिस रास्ते से जा रहे थे उसी रास्ते मे एक लकड़ी का बना हुआ पूल पड़ता था। जो कि अंग्रेजो के समय का बना हुआ तो था लेकिन आज भी उसी मजबूती के साथ नदी के ऊपर उसका प्रहरी बन कर तन के खड़ा था। उस नदी की वहां गहराई और धार ज्यादा होने की वजह से वहां बहुत से लोगों ने अपनी जान गवांई थी। वहीं नदी में डूबने की वजह से एक भूत का नाम "बूडांक" पड़ गया था। उसी पुलिया के नीचे वो भूत रहता था जिसकी मौत डूब जाने की वजह से हुई थी। उसका खौफ इतना था कि लोग रात को उधर से जाने से कतराते थे। यदि भूल वश चले भी गए तो वहीं पूल के दूसरे छोर पर सुर्ती का चढ़ावा चढ़ा कर जाते थे ताकि वो किसी का अहित न कर दे। ऐसा करने पर भूत किसी को परेशान नहीं करता था। यहां तक कि वहां से गुजरने वाले कोई भी व्यक्ति अंजाने में भी सुर्ती बना के ठोक दिया तो, वो भूत उस ताली की आवाज को ललकार समझ बैठता था और उस व्यक्ति को उठा कर पटक देता था। इसलिए लोग वहां सुर्ती, गांजा, भांग आदि चढ़ाते थे।
    अभी हिमांशू दास उस पूल से थोड़ी दूर पर ही थे कि अपनी आदत से मजबूर उन्होंने सुर्ती की डिबिया निकल ली औऱ अपने लिए सुर्ती बनाने लग गए। सुर्ती को निकालकर अभी हाथो में डाल रगड़ ही रहे थे कि भूत सुर्ती की खुश्बू से मचल उठा। जब हिमांशू दास बीच पूल पर पहुंच गए तो उन्होंने ये सोचा कि सुर्ती खा लिया जाए तब पूल को पार किया जाए। सुर्ती बनाने के चक्कर मे हिमांशू को ध्यान ही नहीं रहा कि पहले भेंट वहां चढ़ाना था और वो सुर्ती रगड़ते ही उसको ठोकनें की भूल कर बैठे। सुर्ती को थोक जैसे ही हिमांशू दास ने मुंह मे डाला कि वो "बूडांक" उनके सामने प्रकट हो गया।
अचनाक "बूडांक" को देखकर सारा माजरा समझ गए। उनको अपनी भूल पर बहुत पछतावा हुआ लेकिन अब वो कर भी क्या सकते थे। उन्होंने हाथ जोड़ कर "बूडांक" से निवेदन किया कि उसे जाने दिया जाए वो गांव में किसी व्यक्ति के लिए आवश्यक औषधि ले कर जा रहा है। लेकिन "बूडांक" ने उनकी एक बात भी नहीं सुनी। हिमांशू दास ने कहा कि वो हरकत उनसे भूलवश हुई है। लेकिन "बूडांक" ने उनकी एक ना सुनी और उसने हिमांशू दास के सामने एक प्रस्ताव रख दिया। वो प्रस्ताव ये था कि जब तक वो भूत (बूडांक) उनसे हार नहीं जाता तब तक उनको उस से कुश्ती लड़नी होगी नहीं तो वो उसको पूल से नदी में धकेल देगा। मरता क्या न करता इसलिए हिमांशू दास कुश्ती के लिए तैयार हो गए। उन्होंने औषधि को किनारे रखा औऱ "बूडांक" के पास सहमे से खड़े हो गए। थोड़ी देर में ही दोनो में पकड़म-पकड़ाई और उठा पटक शुरू हो गई। कभी हिमांशू दास भूत को आगे से पकड़ते तो कभी पीछे से लपकते लेकिन भूत ("बूडांक") बड़ी चालाकी से उनके टांगो के बीच अपनी टांग डालकर पटकनी दे देता। हिमांशू दास की हर कोशिश ही नाकाम हो रही थी। हर बार उनको मुंह की खानी पड़ी रही थी। न तो "बूडांक" पटका पा रहा था न हिमांशू दास थक कर हर मान लेने को तैयार थे। दोनो में भीषण मल युद्ध जारी था। लड़ते लड़ते वक़्त का पता ही नही लगा कि कब सूरज की लालिमा दिखने लगी। गांव में अब सभी लोग हिमांशू दास के लिए चिंतित हो चले थे। गांव के साहसी युवकों की टोली हाथ मे मशाल ले कर हिमांशू दास की खोज में निकल पड़ा। थोड़ी ही देर में उन युवकों की टोली पुल के करीब पहुंची तो सभी यह नजारा देख कर हस्तप्रभ थे। "बूडांक" की जब नजर उस टोली पर पड़ी तो वो घबरा गया और अचानक ही पुलिया के नीचे भाग पड़ा। देखते देखते ही देखते वो नदी में गायब हो गया। हिमांशू दास की नजर जब उनके गांव की टोली पर पड़ी तो जान में जान आई। फिर उन्होंने सारी घटना विस्तार से बताई। उस टोली से एक युवक ने बताया कि जिस व्यक्ति के पेट दर्द की औषधि लेने गए थे अब वो युवक भला चंगा हो गया है। हिमांशू दास के समझ नहीं आ रहा था कि वो उस टोली के वक़्त पर आने की खुशी मनाए या अपनी हिम्मत और इच्छाशक्ति पर गर्व महसूस करे। हिमांशू दास ने उन औषधियों को उठाया और उस टोली के साथ अपने गाँव चल पड़े। अब आधुनिकीकरण की वजह से उस पुलिया की जगह एक भव्य और मजबूत सेतु का निर्माण हो गया है लेकिन अभी भी उस गांव के लोग वहां से गुजरते वक्त सुर्ती, भांग औऱ गांजे का चढ़ावा करते हैं।







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