सड़कछाप
(14)
इस बार वो गाड़ी पर बैठा तो चेहरे पर चिंता का कोई लक्षण नहीं था अलबत्ता जेब में पैसे होने का एक महानगरीय आत्मविश्वास से वो लबरेज था। पैंट, शर्ट, चश्मा, रुमाल, हाथ में पॉकेट रेडियो, खिली रंगत उसके चेहरे पर आत्मविश्वास ला रही थी। रॉयबरेली स्टेशन पर जब वो उतरा तो उसने दाढ़ी बनवाई, मसाज कराया हालांकि उसके चेहरे पर कुछ खास दाढ़ी नहीं थी। उसने मिठाई खरीदी और फिर रिक्सा बुक कराके गांव पहुंचा।
गाँव जो उसे अतीत मान चुका था अपने सामने देखकर स्तब्ध था। राह में मिलने वालों से दुआ-सलाम करते और उनके नजरिये में आये परिवर्तन को ताड़ते वो घर पहुंचा। अमरेश घर पहुंचा तो घर वाले उससे और वो घरवालों से बहुत प्यार-मोहब्बत से मिला। उसने डरते-डरते दादा रामजस के पैर छुए तो उन्होंने अमरेश को लिपटाते हुए कहा”मेरा कुलदीपक, मेरा लल्लन लौट आया है”।
चाचा-चाची के पांव छुए उन्होंने मन भर आशीष दिया। अखिल, महेश, विशाखा भी भावविभोर थे अपने भाई के आने पर। समय के मलहम ने दिलों की दूरियों के घाव को भर दिया था। अब वहाँ सिर्फ प्रेम नुमायां था । रामजस ने अपने जीवन में अंग्रेज़ी का सिर्फ एक वाक्य सीखा था और हँसते हुए वो बोले”ब्लड इज ब्लड, वाटर इज वाटर” फिर अमरेश के कंधे पर हाथ रखकर वो बोले”समय बदले तीन नाम, परसू, परसा, पराशुराम”।
उस दिन उसने खाना चाचा-चाची के ही घर खाया। अगले दिन उसने अखिल की मदद से अपना कमरा खोला और अपना घर-द्वार दुरुस्त किया जिसे रामजस ने भूतों का डेरा बना रखा था। साफ-सफाई के दौरान अखिल ने उससे कहा”अमरेश, जानते हो ठाकुर नन्हे सिंह पाँच सौ रुपये में पास कराने का ठेका ले रहे हैं। तुमको कुछ नहीं करना है बस खाली अपनी कॉपी सादी छोड़ देना बाकी सब वही देख लेंगे। नहीं तो पास होना मुश्किल है । नकल नहीं हो सकेगी। क्योंकि बैच आता है सब नकल का सामान छीन लेता है। कैसे लिखोगे तुम, हम तो पास हो जाएंगे, तुम्हारा पास होना मुश्किल है”।
अमरेश को अखिल की श्रेष्ठता के दम्भ से थोड़ी चोट पहुंची उसने धीरे से कहा”हूँ, सोच कर बताता हूँ”। वो ये बात जानता था कि उसका गणित में पास होना मुश्किल है और अंग्रेज़ी में पास होना असंभव । उसके मन में अचानक मास्टर रणविजय सिंह के प्रति एक खिन्नता भर गयी जो पूरे साल सिर्फ हिंदी की कविता रटवाते रहते थे। जो ना खुद कभी अंग्रेज़ी की किसी पुस्तक को हाथ लगाते थे बल्कि यदि कोई छात्र अंग्रेज़ी के विषय में कुछ पूछ ले तो उसको डांटने-फटकारने लगते थे और कहते कि बड़ी मुश्किल से हम अंग्रेजों की ग़ुलामी से आज़ाद हुए हैं, पढ़-लिखकर फिर अंग्रेजों का गुलाम बनना है क्या?उनको ये नहीं पता था कि अंग्रेज़ी के बिना इस देश में तरक्की पाना बहुत मुश्किल है।
अमरेश ने इंटर कालेज में जाकर पाँच सौ रुपये ठाकुर नन्हे सिंह को दे दिये। उसने कक्षाध्यापक को तीस रुपये का फाइन भी दे दिया क्योंकि उसके लिखने से अमरेश का प्रवेश-पत्र रुक सकता था। परीक्षाएं चलती रहीं । उसे सख्त निर्देश थे कि नाम और रोल नंबर के अलावा वो अपनी कॉपी में कुछ ना लिखे मगर तीन घंटे कॉपी और पर्चे में ही खोया रहे ताकि किसी को शक ना हो। वो निर्देशों का पालन करता रहा। ठाकुर नन्हे सिंह ने उसके जैसे करीब पचास और लोगों का ठेका ले रखा था। लड़के पास हो जायें तो विवाह-गौना सब आसानी से हो जाता है वरना बिना पढ़े-लिखे इस युग में ब्राम्हण के लड़के की कोई पूछ नहीं होती।
रामजस को उसने नया कुर्ता -धोती और गमछा खरीद दिया था और उनके दो सौ रुपये भी वापस कर दिया था जो उसने चुराया था। रामजस कपड़ा और पैसा पाकर निहाल हो गये। उन्होंने अमरेश को दिल से क्षमा कर दिया था। अमरेश के दिये पैसे जेब में रखते हुए रामजस हर्षित होते हुए बोले”सौ अवगुण लक्ष्मी हरें”। अमरेश ने इसका पालन करते हुए सभी का मुंह पैसे से भर दिया था। अमरेश ने छंगा बनिया से भी भेंट की और उसे सौ रुपये दिये जो कि उधारी के अलावा अनुग्रह राशि भी थी।
अमरेश की परीक्षा के पर्चे चल रहे थे। वो एक दिन परीक्षा देकर लौट रहा था तो उसने देखा कि उसके खेत से गेँहू की फसल कटकर गट्ठर-दर-गट्ठर खेत के कोने से सटे खलिहान में रखा जा रहा था। खलिहान में उसके दादा रामजस और उसके चाचा हनुमन्त छंगा बनिया से बातें कर रहे थे। अमरेश सायकिल से उतर कर उनके पास पहुंचा तो सबने बातें करनी बंद कर दी, सभी को मानों सांप सूंघ गया हो। अमरेश ने हनुमन्त को इशारे से छंगा को चुप कराने का उपक्रम देख लिया था। उनके इशारे पर छंगा तत्काल चल पड़ा बिना एक शब्द कहे। अमरेश हैरान कि मेरे आते ही क्या मुसीबत आ पड़ी कि ये लोग चुप हो गये। अमरेश कुछ बोलता इससे पहले रामजस वहाँ से खिसकते हुए बोले, ”मैं जा रहा हूँ मुझे नहाना है अभी दिशा-मैदान भी फारिग होना है”ये कहते हुए रामजस वहाँ से निकल लिये। हनुमन्त उसे पुचकारते हुए बोले”पेपर कैसा हुआ बेटे, गर्मी बहुत है जाओ आराम करो, बहुत थक गये होगे”।
अमरेश ने सहमति में सिर हिलाया। हनुमन्त वहाँ से चले गये मगर अमरेश वहीं खड़ा रहा। उसने वहाँ पर अनाज की राशि देखी। बड़ी देर तक वो सोचता-विचारता, अंदाज़ा लगाता रहा। काफी देर बाद वो घर लौट आया । पूरी दुपहरी उसे चैन ना रहा। दुपहरिया के बाद जब धूप की तपिश कम हुई तो उसने रामजस की टूटी फूटी सायकिल उठायी और पहुंच गया छंगा के पास। छंगा उसे देख कर मुस्कराया और कहा”आओ अमरेश, मैं जानता था कि तुम ज़रूर आओगे”।
अमरेश ने हैरानी से कहा”कैसे जानते थे, अंतर्यामी हो का, वहाँ क्या बात हो रही थी जो मेरे पहुँचते ही बंद हो गई और तुम खिसक लिये”।
छंगा ने कहा”अब तुमसे क्या छिपाना, देर-सबेर तुमको जानना ही है । तो छुपाये से का फायदा?जो फसल कट कर खलिहान में रखी है उसी का तुम्हारे चाचा लोग एडवांस माँग रहे थे मुझसे। मैंने साफ कह दिया कि मैं एडवांस नहीं दूंगा। अमरेश आ जायेगा तब उसी के सामने गल्ला भी लूंगा और पूरा पैसा भी दूंगा। तीनों की जमीन है तीनों लोग के सामने रुपया दूंगा। तुम परदेश थे तब बात दूसरी है अब तुम आ गए हो अब ऐसा हो तो अन्याय है तुम्हारे साथ”।
अमरेश ने कहा “मेरी पूरी जायदाद पर तीन सालों में कितनी फसल हुई होगी । मेरा आठ बीघे का लुम्म-सम्म बताओ जोड़कर कि कुल कितने हजार का गल्ला हुआ होगा”।
छंगा ने अंदाज़ा लगाते हुए कहा”कम से कम आठ-नौ हजार का तो हुआ होगा। लेकिन ये तुम्हारे सामने कह रहा हूँ, अपने चाचा लोगों के सामने पूछोगे तो मैं पलट जाऊंगा कि ऐसा कुछ मैंने कहा है”। ।
अमरेश ये बात सुनकर बहुत बेचैन और हैरान हुआ। उसने सोचा कि ये दुनिया वाकई बहुत खुदगर्ज़ और ज़ालिम है। जो रास्ता उसकी माँ ने दिखाया उसी के पीछे-पीछे उसके दादा और चाचा चल रहे हैं। उसने एक गंदी सी गाली अपनी माँ को देनी चाही मगर फिर खुद को जब्त करते हुए बुदबुदाने लगा’जब उसने अपना रंडापा इतने साल काट लिया था तो कुछ बरस और नहीं रुक सकती थी क्या?मैं कुछ सालों में बड़ा हो जाता तो सब ठीक कर देता। रामजस दादा सही कहते हैं कि नारी नरक का द्वार होती है। मैं अपनी मेहरारु को पीट-पाट कर दुरुस्त रखूंगा। कहने को ये सब मेरा परिवार है। भाई-बंधु है वैसे ही हैं जैसे कि विभीषण, रावण का भाई था और उसे मरवा दिया था। वैसे ही मेरे चाचा लोगों को मरे हुए भाई के अनाथ बेटे का पैसा खा गये। रामजस दादा तो नशेड़ी हैं मगर हनुमंत चाचा?दिन भर शिशु मंदिर में नीति-ज्ञान का उपदेश देते हैं मगर घर में बेईमानी करते शर्म नहीं आयी। हज़ारों का ग़ल्ला दबाये बैठे हैं मेरा मगर फॉर्म भरवाने के लिये साठ रुपये की चिट्ठी लिखते शर्म ना आयी इनको। पांच सौ रुपये ठाकुर नन्हे सिंह को देने के लिये ठग लिये मुझसे। क्या पता उसमें भी कुछ कमीशन खाये हों। और वो अखिल, सांप का संपोला निकला। हमको खूब भाई-भाई कहकर चिट्ठी लिखा और कमीने ने अपना फॉर्म साइंस साइड से और हमारा आर्ट साइड से भरा। वो साहब बनेंगे और मैं चपरासी । और वो कमीनी विशाखा, ख़ुद को मेरी बहन कहती है। नागिन है बिल्कुल, बिंदेश्वरी पंसारी के लड़के से फंसी है, दिन भर चिट्ठी-पत्री चलता है। कुल की इज़्ज़त गँवायेगी किसी दिन। और दादा, इस चरसी की क्या बात करूं जिसका अपना ही होश नहीं वो दूसरे का क्या ख्याल करेगा। जब अपना माल खोट, तब परखिया का कौन दोष”इन्ही सब विचारों ने उसके दिमाग को मथ डाला और परिवार के मोह के धागे छिन्न-भिन्न हो गए।
अमरेश ने फ़िर से अपने को बहुत अकेला पाया । रात भर वो अपने हालात पर विचार करता रहा कि तीन बरस की हाड़-तोड़ मेहनत के बाद वो बमुश्किल दस हजार रुपये बचा पाया वो भी दूसरे का नौकर बनकर और यहाँ आठ-दस हजार रुपये उसके चाचाओं ने मार लिये वो भी दूसरे के धन पर मालिकाना करके। फ़िर क्यों वो परदेस जाये दूसरे की मजदूरी करने। अब वो यहीं रहेगा, जैसे भी दिन आयें, अब पूँजी भी उसके साथ है। गाँव में सब सही कहते हैं कि परदेस जाने वाले की जोरू -जमीन सब कब्ज़ा हो जाती है। जोरू तो उसकी है नहीं, मगर कभी तो लायेगा। आखिर कब तक चूल्हा फूंकेगा वो?और ज़मीन ना रही तो मेहरारु भी ना मिलेगी सो उसने एक ठोस निर्णय ले लिया।
अपने बटाईदारों से उसने अपने हिस्से का ग़ल्ला लिया फिर अपना और दादा का ग़ल्ला मिलाकर डेहरी में रखवा दिया। डेढ़ महीने तक इम्तिहान चला उसके बाद उसने ये बताया कि अब वो पक्का मकान बनवाना चाहता है खपरैल की जगह। उसने दोनों चाचाओं से कहा कि अब उसे जमीन का भी बंटवारा करना है और मकान का भी। हनुमन्त ने घर से निकलकर नया घर अवश्य बना लिया था मगर पुश्तैनी घर में उनका भी हिस्सा था और पूरी ज़मीन में बंटवारा ऐसे ही था कि जो कुछ पैदा हो गया आधा-आधा गल्ला बांट लो, अधिकांश खेती बटाईदारी पर ही होती थी।
गाँव में नये बटाईदार वैशाख में ही तय होते हैं, गेंहू की कटाई के बाद और धान की बेरन लेने से पहले। रामजस को क्या हर्ज था वो तो अमरेश के साथ ही थे मगर चाचा-चाची ने आनाकानी की। अमरेश ने विगत तीन वर्षों के अपने खेत के गल्ले का हिसाब मांगा जो अनाज छंगा बनिया को बेचा गया था। रामजस ने अपना पल्ला झाड़ते हुए पैसों की हेरा-फेरी का इल्जाम हनुमंत पर आयद कर दिया। हनुमंत खुद तो चुप रहे मगर मैना ने रामजस को झूठा, मक्कार, और फरेबी कहा। रामजस ने मैना को अवधी में प्रचलित सबसे गंदी गालियां दी और मारने के लिये फरसा निकाल लिया। अमरेश और गांव के लोगों ने बीच-बचाव कराया वरना अनर्थ हो जाता क्योंकि इस बार मैना, रामजस के डर से भागी नहीं थी बल्कि हंसिया लिये मुकाबला करने को तैयार थी।
पंचायत निपटाने के लिये पंच बुलाये गये, उसने तीन दिन की मोहलत पंचों से मांगी और काफी सोच-विचार करने के बाद अपने ननिहाल से नाना को बुला लाया। उसके नाना लोकपाल तिवारी घर में पिलपिले मगर बाहर प्रखर व्यक्ति थे। लम्मारदार बांके सिंह, ग्रामप्रधान मिसिर और गाँव के एक अन्य बुज़ुर्ग पंचायत में बैठे। छंगा बनिया भी तलब हुआ। वो आया तो अमरेश ने उससे अपने फसल के पैसों की गवाही माँगी। ब्राम्हणों के कोप से बचने के लिए छंगा इस बात से मुकर गया कि उसने ऐसा कुछ अमरेश को बताया था या उसने ही विगत तीन सालों से ग़ल्ला खरीदा था। अमरेश को लगा था कि उस दिन छंगा ने ऐसे ही कह दिया था लेकिन ऐन मौके पर वो सच बोलेगा। मगर छंगा ने वैसा ही किया जैसा उसने कहा था।
छंगा के बात पलटने पर अमरेश बहुत नाराज हुआ, दांत पीस कर रह गया, मगर छंगा के उस पर बहुत एहसान था इसलिये कुछ कहा नहीं उसने छंगा को। पंचायत किसी के खास प्रभाव में ना थी। पंचायत के सामने रामजस और हनुमन्त दोंनो की बोलती बंद रही। बीस बीघे ऊंची उपजाऊ जमीन का बंटवारा, सात बीघे कच्चे खलिहार जमीन का बंटवारा, बाग, घर और घारी के तीन हिस्सों का बंटवारा हुआ। रामजस ने अमरेश से मिलने का प्रस्ताव दिया जिसे पंचायत की मौजूदगी में रामजस और अमरेश दोनों ने स्वीकार कर लिया।
अमरेश ने अपना नया घर बनाने के लिये दोनों भाइयों से ज़मीन मांगी पुश्तैनी मकान में। जिसे दोनों भाइयों ने स्वीकार कर लिया। रामजस और हनुमन्त इस जन्म में साथ मिलकर नहीं रह सकते थे। रामजस और मैना में घोड़ा-भैंसा का बैर था। मैना जहां रामजस को चरसी, गंजेड़ी, बेईमान और नारी से ईर्ष्यालु कहती थीं । वहीं रामजस मैना को कुल्टा, कुलक्षणी और अपलक्षी कहते थे जिसके अंश से उसका एक भाई मर गया और दूसरे को भी खा जायेगी। हनुमंत और मैना ने इस बात पर संतोष व्यक्त किया कि रामजस अब अकेले नहीं हैं। वरना अपना सब कुछ बेच-बाच कर खा जाते। अगर अमरेश से वो मिल भी गये हैं तो भी घर की संपत्ति घर में ही रहेगी। बाद में रामजस मर-मरा गये या बूढ़ा गये तब संपत्ति का मामला देखा जायेगा। अमरेश का क्या है लौंडा है यहां रहे कि दिल्ली, फिर खेत-घर तो यहीं रहेंगे। फिर इन दोनों में कोई मर-मरा गया तो?अमरेश के सर पर चोट का निशान बताता है कि वो कहीं मरते-मरते बचा है, पंचायत है ये कोई बैनामा नहीं। दोनों में कोई एक भी मर गया तो संपत्ति तो आधी-आधी ही बंटेगी।
पंचायत के जाने के बाद अमरेश और लोकपाल तिवारी ने गुफ्तगू की। अमरेश ने कहा”दसवीं की परीक्षा हो गयी है। अब मैं दो कोठरी घर बनवा कर यहीं रहना चाहता हूं। दस-ग्यारह हजार रुपयों का इंतजाम है मेरे पास। पुराने घर को मैं उलझ दूंगा तो कहाँ रहूँगा। अब मैं दिल्ली नहीं जाऊंगा। नाना तुम भी अब अपनी जायदाद का बंटवारा बराबर-बराबर अपनी बेटियों में कर दो”। अमरेश के नाना ने उसकी बात को अनसुना करते हुए कहा”अब अगर तुम पक्के तौर पर कह रहे हो कि परदेस नहीं जाओगे और दो कोठरी घर भी पक्का बनवा लोगे तो अगले साल मैं तुम्हारा विवाह कर दूंगा। वैसे भी बाम्हन का लड़का अगर उम्रदराज हो जाये तो उसके शादी-विवाह में मुश्किल हो जाती है “।
अमरेश ने अपने विवाह की बात सुनी तो उसके शरीर में एक मीठी सी सिहरन हुई और उसके चेहरे पर शर्म की लालिमा छा गई। लोकपाल तिवारी ये बात ताड़ कर हँस पड़े।
अगले दिन जब वो लोकपाल तिवारी को बस पर बैठाने गया। तो अपने नाना से अलग होते समय उसने कहा”नाना, इंतजाम रखना, मकान बनाते वक्त मुझे शायद कुछ पैसों की जरूरत पड़े। उधार ही रहेगा, वापस कर दूगा। मौसी लोगों से कहना मन छोटा ना करें, हजम नहीं करूंगा”।
अमरेश की बात पर लोकपाल तिवारी ने सिर हिलाकर सहमति दी मगर मुंह से आश्वासन का कोई शब्द नहीं कहा। अमरेश को खटका हो गया क्योंकि उसके नाना ने मुंह से हामी नहीं भरी थी। अमरेश ये बात समझता था कि उसके नाना, नानी और शहजोर मौसियों से पूछे बिना कुछ भी आश्वासन नहीं दे सकते। अमरेश घर लौट आया, रात को वो दादा के पास ही लेटा तो उसने पूछा”दादा दुवारे और घारी पर वो तुम्हारे हिस्से को घेर कर अगर घर बनवाएं तो तुम्हें कोई दिक्कत तो नहीं है, तुम भी सोना टांग चौड़ी करके। दो तीन गाय ले आएंगे उसका दूध भी होगा और फिर गोबर गैस लगवा देंगे, अब चूल्हा नहीं फूंकना पड़ेगा। भगवान चाहेंगे तो अगले साल तक इस घर में हम बियाह करके चूल्हा-चौका करने वाली भी ले आएंगे, नाना तय कर दिये हैं विवाह कहीं”। अमरेश ये कहकर मुस्कराने लगा तो रामजस ने बिना कुछ कहे हरिओम, हरिओम कहकर मुँह दूसरी तरफ फेर लिया।
थोड़ी देर बाद रामजस ने अमरेश की तरफ करवट ली। अमरेश अपने विवाह, गोबर गैस, और मकान की परिकल्पनाओं में खोया था। रामजस ने खाँसते हुए कहा”अमरेश मेरे हिस्से का तुम जो चाहो वो करो, मेरे रहते और मेरे बाद मेरा सब तुम्हारा है मगर घारी के जिस हिस्से पर तुम दीवाल उठाना चाहते हो और घर के कमरे बनाओगे वो हिस्सा हनुमन्त के नाम पट्टा है। इसलिये उससे एक बार पूछ लो, ना माने उसे उतनी जमीन के बदले कहीं जमीन देकर बदल दो। वैसे वो है बहुत चालू, पुश्तैनी जमीन में तीसरी हिस्सा लिया और फिर पुरखों की जमीन का पट्टा भी जोर जुगाड़ से खुद के नाम कर लिया। तुम ही बात कर लो मामला तभी निपटेगा। मैं कहूंगा तो पहली बात तो हनुमन्त मानेगा नहीं और एक बार वो मान भी जाये तो वो नागिन मैना मेरे प्रस्ताव को उलट-पुलट कर रख देगी। तुम लड़िका हो देख लो एक बार, सोच -समझ कर ही करना। हमारा जो फ़र्ज़ था तुमको बता दिया बेटा, राम जानत हैं हमारे लिये जैसे लल्लन वैसे तुम दोनों को गोद में पाला है”।
आमरेश को उनकी वात्सल्यपूर्ण बातें सुनकर तसल्ली मिली उसे अपनेपन का संतोष हुआ। लेकिन उसे चिंता हो गयी कि हनुमन्त चाचा बड़े मीठे आदमी हैं जमीन देंगे या नहीं देंगे इसका कुछ पता नहीं। अगली सुबह अमरेश फिर अपने चाचा-चाची के पास पहुंचा, बिना किसी भूमिका के उसने कहा”चाचा, जहाँ हम घर बनवाने जा रहे हैं सुना है उसका पट्टा आपके नाम है। हमको ये बात मालूम नहीं थी अब पता चली। अब जैसा तुम कहो, कहो तो बनायें, कहो तो नहीं, ”।
“जो मन हो वो करो, ”, ये कहकर हनुमन्त उठ गये।
“मैं नहाने जा रही हूं, अब बाकी क्या है?नाक तो हमारी तुम काट लिये बेटा, अब जो मन में आये वो करो, हमसे कोई मतलब नहीं है ना धन से ना जायदाद से”ये कहकर मैना भी वहां से उठ ली। अमरेश अपने भाइयों, बहन और वो सब अमरेश को टुकुर-टुकुर देखते रहे, कोई कुछ नहीं बोला। अंत में अखिल ने कहा”अमरेश, तुमने पंचायत करके गाँव में हमारी बहुत बेइज्जती की। मम्मी कहती हैं कि गाँव भर उनके ऊपर थूक रहा है कि उन्होंने एक अनाथ के हिस्से का धन-जायदाद बेईमानी कर लिया है। इसी से दोनों नाराज हैं। तुम जाओ जो बनाना है वो बनाओ मैं मम्मी-पापा को मना लूंगा”। अमरेश वहाँ से बेनतीजा लौट आया।
हनुमन्त और मैना अपमानित तो हुए ही थे, मगर उनके दुख का एक और कारण था कि अमरेश अब मकान बनवा रहा है तो यहीं रहेगा, उनकी छाती पर मूँग दलने। उसके हिस्से का जो थोड़ा बहुत मिल जाता था वो भी गया।
विवाह की संभावना ने अमरेश में एक नई ऊर्जा का संचार कर दिया उसने युध्दस्तर पर मकान को बनवाने का काम शुरू कर दिया। उसने मिर्ज़ा भट्ठा पर सात सौ रुपये के दर से हजार ईटों का सौदा तय कर लिया और दस हजार ईंटों का एडवांस जमा कर दिया । भट्ठे के मालिक से उसने चिरौरी-मिनती करके उसे इस बात पर राजी कर लिया कि यदि ईंटें घटेंगी तो वो उधार दे देंगे जिसका पैसा वो अगली छमाही में धान की फसल बेचकर दे देगा। व्यापारी मान गया, जहां एडवांस है वहां उधारी से क्या डर?
सवा सौ रुपये की दर से नदी की कछार से बैलगाड़ी से बालू गिराने की बातचीत गांव के ही निर्मोही पांडे से हो गयी। निर्मोही पांडे को भी हाथ-पांव जोड़कर अमरेश ने राजी कर लिया कि वो मकान का काम पूरा होने तक वो बालू की कमी नहीं होने देंगे और अगली छमाही में वो उनका भी बकाया चुका देंगे। उसने निर्मोही पांडे को पांच सौ रुपये एडवांस भी दे दिये। निर्मोही पांडे को कोई आपत्ति ना थी वैसे भी उन्हें कौन सी बालू की रॉयल्टी चुकानी थी बस अपनी बैलगाड़ी से बालू भर ही लाना था।
अब बचे राजगीर, तो गुलगाई ज़िंदाबाद थे। जो कि लल्लन शुक्ल के साथ नौटंकी का पाठ खेला करते थे। उन्होंने अमरेश को आश्वासन दिया कि वो पूरा मकान बना कर लल्लन से अपनी दोस्ती का फर्ज निभाएंगे चाहे मज़दूरी मिले या ना मिले और मज़दूर का बंदोबस्त भी वही करेंगे।
वैसाख की फसल का कुछ गेंहू अमरेश ने छंगा को दिया और धान की फसल की गारंटी पर उधार ले लिया उससे। छंगा की ही गारंटी पर उसने एक बनिये की दुकान पर सरिया-सीमेंट का दो हज़ार जमा कर दिया और मकान का काम चालू हो गया”वीरों की है वसुंधरा”।
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