काश आप कमीने होते !
उमानाथ लाल दास
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जले-भुने प्रसाद जी एक दिन सिन्हा जी से कहते हैं – ‘जानते हैं बास, अब बहुत जल्द हम सभी संपादक शब्द सुनने को तरस जाएंगे। जब विज्ञापन संपादक, प्रसार संपादक, व्यवसाय संपादक जैसे पद चल गए हैं तो संपादक शब्द की अर्थवत्ता कहां रही ! फिर वैसे पद को रखने का क्या मतलब जिसका कोई अर्थ न हो? अब आप ही कहिए सही, मालिक अखबार के जरिए अपने व्यवसाय (हित) का संपादन करता हुआ बिजनेस एडीटर बना हुआ है और संपादक नाम का जीव अब खबरों को कारपोरेट इंटरेस्ट के हिसाब से मैनेज कर रहा है यानी संपादक मालिक के हित के हिसाब से खबरों का प्रबंधक यानी न्यूज मैनेजर बन बैठा है।
याद कीजिए प्रसाद जी, एक बार कोयला के काले कारोबारियों के खिलाफ अखबार में अभियान छिड़ा था। मैं तबतक पहला अखबार छोड़ दूसरे में आ चुका था। लगभग रोज ही शाम को कई अनाम फोन यह सूचना देने के लिए आते कि आज शाम सात बजे गोविंदपुर के इस्ट इंडिया रोड होकर तो, रात आठ बजे कतरास से फलां नंबर की गाड़ी से माल ले जाया जा रहा है। प्रसाद जी, एक रूटिन ही हो गई थी कि शाम को एक साथी सूचना नोट करने को तत्पर रहते और बीट वाला रिपोर्टर वक्त निकालकर उस खबर की पुष्टि में कभी क्षेत्र का दौरा करता तो कभी किसी संवाददाता से भेदिया का काम लेता। एक दम्म से, ऐसे कोयला व्यवसायियों में तो जैसे भगदड़ मच गई थी। इसी बीच क्या हुआ कि खबर का फंदा एसपी-डीसी तक पसरने लगा। लेकिन यह सब होता ही कि तब तक एक दिन मुख्यालय से फोन आया कि अब कोयला व्यवसाय के अभियान को थोड़ा सा विराम देकर स्वास्थ्य को लेकर ऐसा ही काम कराने की जरूरत है। जानते हैं प्रसाद जी, वह दिन फिर नहीं आया जब बोला जाता कि कोयला व्यवसाय के अभियान को जारी कीजिए। अब आप ही कहिए, क्या मतलब लिया जाए, इसका। एक गीत है ना – जितनी चाबी भरी राम ने, उतना चले खिलौना....
प्रसाद जी लगभग भुनभुनाते कहते - हां जब प्रसार प्रबंधक, विज्ञापन प्रबंधक को संपादक प्रत्यय से रिप्लेस कर दिया गया है तब तो यही होगा ना। मालिक तो सबसे बड़ा संपादक होगा ना। तो स्टोरी लाईन उसीकी चलेगी।‘ वीणा के तार को कितना कसना है कितना ढील देना है। संगीत पैदा होने के लिए यह ढील-खींच तो जरूरी है ना। और आपको तो दी हुई स्वरलिपि पर साज बजाना है। साज दे दिया गया है तो इसका मतलब थोड़े ही है कि साज को बाप की मान कर दीपक या मल्हार राग छेड़ दें। संपादक की नौकरी बस मालिक की चाकरी भर थी। दलाली करना, गोटियां फिट करना आदि। ग्लास की केबिन में बैठकर चारों तरफ निगाह रखना भर काम है। बहुत शक हुआ तो बुलाकर पूछ लिए क्या हो रहा था? उनके मुख्य एसाइनमेट हैं दलाली करना, गोटियां फिट करना आदि। सुमन जी कहते- ‘यह बाजारवादी दौर कई भ्रांतियों के खत्म होने का भी दौर है सिन्हा जी।
सिन्हा जी कहते – प्रसाद जी, यह गलतफहमी कभी मत पालें कि आप पत्रकार हैं और संपादक हैं। पीआरबी एक्ट तक ने संपादक को जैसे परिभाषित किया है – the person who controls the selection of news। तो बस संपादक इतना भर तो काम कर ही रहे हैं। यह जो बाबाओं ने जंतर-मंतर का अदभुत संसार रचा है, इसमे भी तो चैनल वालों का कम हाथ नहीं। श्रद्धा और अध्यात्म के नाम पर जो कुछ अनाप-शनाप प्रदर्शित हो रहा है चैनलों पर, जानते हैं यह पूरी तरह से केबल एक्ट का उल्लंघन है। उल्लंघन है तो है। इसके एवज में चैनल को जो मिलता है वह खास बात है ना। किसे पड़ी है जो इधर देखे। देखिएगा पत्रकारिता की गंध जहां-जहां से भी आएगी उसे धो-पोंछकर साफ कर दिया जाएगा।‘प्रसाद जी कहते है – ‘यही कारण है ना बास, कि हम अपना मनचाहा इस्तेमाल होने दे रहे हैं, तो अंततः प्रतिरोध की स्थितियां ही नहीं बचेंगी।‘
टूटती-बिखरती एक आवाज कहीं से आई – जानते हैं एक बात सिन्हा जी-प्रसाद जी, सोचिए कि कभी ऐसा हो कि मीडिया का सोशल आडिट हो। कहिए तो फिर क्या होगा ?
प्रसाद जी लगभग तमतमाए अंदाज में कहते – वही होगा जो नरेगा का हो रहा है। और क्या, उससे भी बुरा होगा। किन सामाजिक अपेक्षाओं और जिम्मेवारियों के बरक्स आपने यह हैसियत पाई है। और आपने जो हैसियत पाई है वह क्या गंवाकर, कितना चुकाकर। होना ही है सोशल आडिट तो, अखबारों समेत दिग्गज पत्रकारों का भी हो।
हां तो, अखबार से संपादक के निकलने के बाद अलग-थलग पड़ते हुए जहां से भी सलाह आती, आशीर्वचन मानकर ग्रहण करते समाचार प्रभारी प्रसाद जी। जिस दिन कहीं से कोई फटकारमूलक निर्देश या सुझाव नहीं आते, लगता कि दाल में कुछ काला है। खून के घूंट पीने की मजबूरी थी। सबकी सलाह सर-आंखों पर। ‘हां, सही कह रहे हैं आप।‘ ‘हां, अखबार को चलना है तो यह सब तो करना ही होगा।‘ आदि-आदि और इसी बीच में कोई कह देता, थोड़ा सप्लीमेंट में सेठों के बच्चे, उनके घरों में मनाए जा रहे त्यौहार, जन्मदिन आदि को भीजगह दीजिए। कोई एक पेज ही क्यों नहीं कर दिया जाता, जहां ऐसी गतिविधियों को लें। यह साहित्य-वाहित्य क्या कोई पढ़ता है। अब उसे तो यह पल्ले ही नहीं पड़ता कि इस सबके बीच असहाय, निरीह साहित्य कहां से टपक गया। साहित्य तो वह अखबार में भूले से भी नहीं जाने देता। हां, इतना जरूर करता है कि अवसर विशेष पर पढ़ने-लिखनेवाले जागरूक लेखकों-प्रबुद्धों से वह लिखवाता। अखबार में आने के बाद से तो जैसे साहित्य को वह भूल ही बैठा था। बाहरी पत्रिकाओं तक ही उसने इसे सीमित रखा हुआ था। फिर भी उसने कहा, ठीक है सप्लीमेंट को रिच करने की कोशिश करनी होगी। और इन्हीं कोशिशों के बीच उसे एडिशन इंचार्ज से सप्लीमेंट इंचार्ज बना दिया गया। स्थानीय संस्करण से लेकर मुख्यालय तक कहीं कोई पत्ता तक नहीं खड़का। नौकरी छोड़ने का विचार धमकते कि चार छोटे-छोटे बच्चे, उनके स्कूल की फीस, बूढ़े मां-बाप सब दस्तक देने लगे। पत्रकारिता में तो उसके जो भी कौशल हों, पर शहर भर में जहीन माने जानेवाले सिन्हा जी की हालत उसे बार-बार प्रेरित करती या समझौते को तैयार करती, नहीं मालूम। पर सिन्हा जी की हालत प्रसाद जी की जबान को कड़वी और तल्ख होने से रोकती रही जरूर। एक छोटे से अखबार से बड़े अखबार में सन 2002 में सिन्हा जी को पांच हजार रु की पगार पर आने का आफर मिला। कौन नहीं जाता, सो खुश-खुश वह भी चले गये।.पहले माह की पगार थोड़ी देर से क्या पांच माह देर से मिली। जिला मुख्यालय, राजधानी, फिर पटना और सबसे अंत में नोएडा का चक्कर लगाना पड़ता है प्रोपोजल को। और मंजूर होकर आने में भी इतनी ही गलियों की सैर करनी होती है। कहा जाता था कि यहां यदि संपादक को गाली भी दे दें या चप्पल मार दें तो कार्रवाई होते-होते कम से कम एक साल लग जाएंगे। और पहले माह की पगार मिली तो धड़ाम से गिर गए! अरे उस छोटे से अखबार में वेतन, तेल, अखबार-मैगजीन के भत्ते आदिकुल मिलाकर लगभग चार हजार तो मिल ही जाते, पर यहां तो तीन हजार ही मिले। अब उसे लें तो कैसे लें! यह क्या हुआ, कैसे हुआ! माथा हाथ लिए सिन्हा जी को देखकर प्रभारी संपादक ने समझाया – कोई बात नहीं। घबराने की कोई बात नहीं। ठीक हो जाएगा। कहीं कोई भूल हो गई होगी। मैं देख लूंगा।
जिस आसानी से प्रभारी ने कह दिया, उतना आसान नहीं था सिन्हा जी के लिए इसे झेल पाना। आखिर पांच माह से इसी दिन को देखने का इंताजर कर रहे थे क्या ? कहना भी मुश्किल था कि आपने ही यह प्रोपोजल दिया होगा। आखिर उन्हीं के प्रोपोजल पर तो कोई स्ट्रींगर से स्टाफर बन रहे थे। यह कैसे हो सकता है कि सीनियर स्ट्रींगर के रूप में आपने प्रोपोजल दिया हो और आ गया हो स्ट्रींगर की सैलरी।
सिन्हा जी समझ नहीं पा रहे थे-यह प्रसाद है या विष। आखिरी बात हुई थी, छह हजार की और होते-होते पांच हजार पर टूटी थी। विचारवर्द्धन जैसा कोई नामधारी प्रभारी था। उसने सिन्हा जी को राजी कर लिया था पांच हजार पर। वह आश्वस्त था। बड़े अखबार में होने का सुख इस संतोष को बड़ा कर दे रहा था। लेकिन यह तो तब की बात है जब पगार हाथ नहीं आई थी। अब इस हाल में क्या करे।
पाठक बाबा ने सलाह दी – ‘क्या देखते हैं सिन्हा जी, वापस हो जाइए। देखिएगा पैर पकडे़गा यह। नहीं तो मेरा नाम पाठक नहीं।‘
सुरंग कहता कि - ‘एक चिट्ठी दे डालिए। दवाब का काम करेगा।‘ ‘सुरंग’ हां, लोगों ने एक अच्छे-खासे पत्रकार को यह नाम दे डाला था। बड़े सियासी घराने से ताल्लुकात थे उसके। बड़े ही प्यार से जब जूनियर पत्रकार उसे कहते – ‘सुरंग भैया’, तो नहीं मालूम उसे खुशी होती होती या कोफ्त--- तो सिन्हा जी हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे कि उसी पुराने अखबार में फिर जाएं या...। इन पांच-छह माह में बहुत सारे तर्क और बहुत सारी बातें उस अखबार के विरोध में, उसके संपादक के खिलाफ मन में क्रमशः बस गई थीं। अपने पुराने अखबार में नहीं होने के पक्ष में ढेरों बातें गढ़ ली थीं जो सुखद थीं। ‘लौट के बुद्धू घर को आए’ की जो बात होगी सो अलग। पहले ही बीवी का आतंक कुछ कम नहीं था। एक हद तक वहजायज भी मानता था। वह मानने लगा था कि जरूरत और जिम्मेवारी को आप जुनून से बहुत देर और दूर तक नहीं ठेल सकते। जुनून का अंधापन वास्तविकताओं को झुठला नहीं सकता। जुनून जो है ना, वह जज्बात से चलता है। पत्रकारिता जवानी का नशा हो सकती है, पर जिम्मेवार परिवारशुदा तो इसे नौकरी की तरह लेता है। इस सबसे हटकर प्रमुख और एकमात्र सवाल था कि सिन्हा जी पगार की बात घर में कैसे बताएं। जब पांच माह टाल दिया तो, एक-दो माह और खींचा जा सकता है। घर पिता के पेंशन से चलना मुश्किल था। पहले ही बहुत बोझ डाल दिया था उन्होंने। उसके अलावे भी तो भाई-बहन थे। उनकी इच्छाएं और जिम्मेवारियां इसी पेंशन की बैलगाड़ी पर हिचकोले खा रही थीं।
सिन्हा जी सब्जी के लिए या खरीदारी के लिए घर से सूची लेकर जाते। लोगों की नजरें बचाने की कोई जरूरत नहीं पड़ती। भूखा नंगे का कौन सा कपड़ा नोंचेगा। सब्जी बाजार में आते ही टूटी-फूटी, बची-खुची सब्जी वाले को सिन्हा जी की निगाह तलाशती। ऐसी सब्जीवाली जहां दीखती, आंखें रौशन हो जातीं। कदम उधर खुद ब खुद बढ़ जाते। चुन-चुनकर आलू पांच की जगह चार किलो लेते। परवल थोड़ा पका हुआ लेते तो सस्ता मिलता। इसी तरह छंटनी का बाजार करके घर पहुंचते। घर की ओर जाना हमेशा ही उनके लिए पर्वतारोहण था। ड्यूटी से वापस जाओ या तनखाह के दिन या फिर बाजार से। घर जाना उसके लिए आसान नहीं था। बहुत कोफ्त होती शादी पर। किस फितुर में घिर गया था कि शादी कर ली। एक साथ कई जीवन दांव पर लग गए हैं। कई अरमान अलगनी पर धूप में सूख कर टटा रहे हैं। कोई उन्हें उलटने-पलटने वाला भी नहीं। इच्छाओं-जरूरतों के गर्भपात तो आम बात हैं।
यही सोचते बाजार से आते। थैला हाथ में आते ही बीवी सारा कुछ जमीन पसार देती है। और देखते ही खीझती – अजी, मैंने दो किलो परवल कहा था और यह क्या ले लिया आपने कुंदरी? क्या कटहल नहीं था बाजार में। और यह कौन सा साग है! मर्दों को खाना बनाकर, परोस कर दो। खाने और काम के अलावे तो इन लोगों कुछ आता ही नहीं। अच्छा बोलिए तो जी, इस दाल से महीना चला लेंगे। मुझे नहीं संभालना घर। आप ही चलाइए।
अब सिन्हा जी इसकी व्याख्या करते – देखो परवल इस गरमी में खाकर क्या होगा। दाल भी पतली बनाओगी तो बीमारी तो नहीं हो जाएगी। इस मौसम में कुंदरी से बेहतर सेहतमंद कोई सब्जी नहीं। बच्चों को आदत डलवाओ। कटहल अभी बाजार में आया ही है, अभी सिर्फ दर्शन कराने के लिए बाजार में कटहल महाराज अवतरित हुए हैं।
कुछ सब्जी तो कम वजन ही है। कैसे समझाते कि तुम्हारी फेहरिश्त जितनी गदराई और लंबी जेब नहीं। - ‘बस कुछ दिन ही चलाना है। फिर सब कुछ ठीक हो जाएगा।‘ यह कहकर तो पांच माह खेप गए। अब क्या दिलासा देना बचा है। एक तो तीन बजे रात में सोओ, ऊपर से साढ़े छह बजे बच्चे को स्कूल पहुंचाओ, सात बजे मार्केटिंग को बाजार जाओ। लेकिन यह खीझ कभी बाहर नहीं आने दी। सोचा कि इस रहम से कभी बीवी बरसेगी नहीं।
घर में हमेशा किसी न किसी बात को लेकर खिच -खिच मची ही रहती। बाहर में सिन्हा जी को नए-नए जर्नलिस्ट टाईप के लड़के कलमघिस्सू पत्रकार मानते। पत्रकारों की नई टोलीजिस रास्ते पर चल पड़ी हैं वहां ईमानदारी, भाषा, अध्ययन तो कोई पड़ाव ही नहीं। हर खबर में दस ऐब। भाषा बोध से लेकर समाचार संरचना तक विकलांग। लेकिन उन पत्रकारों और खबर को सजाकर परोसनेवाले डेस्क इंचार्जों का वेतन था कि मत कहिए! पंद्रह-बीस हजार से कम तो कोई नहीं। घर में भीगी बिल्ली बने रहनेवाले सिन्हा जी घर से बाहर सर उठाकर चलनेवाले। सबको उनपर नाज था। वे भी खुशमिजाज। लेकिन अखबार में आते ही लगता जैसे किसी ने हंसी छीन ली हो। आखिर जो डेस्क इंचार्ज होता, वही कहता – भैया,थोड़ा इस समाचार को देख लीजिए न। प्रभारी कहता – सिन्हा जी फुर्सत मिले तो थोड़ा देख लीजिएगा। मैंने कुछ लिखा है। कोआर्डिनेटर कोई होता, पर कोआर्डिनेशन का काम सिन्हा जी ही देखते। शहर के सभी पत्रकार यह जानते। मृणाल पांडेय की सैलरी का पचासवां हिस्सा भी सिन्हा जी का वेतन नहीं था। धीर-धीरे करके रास्ता निकला। परिशिष्ट में उनसे कुछ-कुछ लिखवाया जाने लगा। बारह-तेरह सौ इससे मिल जाते। उसके बाद सिन्हा जी वेतन घर ले जाने लगे।
सिन्हा जी की एक बहन की उम्र 27 साल हो गई थी। शादी का कोई रास्ता नहीं निकलता। कोई कायदे का लड़का भी नहीं दिखता कि उसीसे बात आगे बढ़ाई जाए। लेकिन उन्हीं के अखबार के शर्मा की बहन भी उदाहरण थी। वह शिक्षा की बीट देखता था। बहन ने कस्तूरबा गांधी विद्यालय मे शिक्षिका के लिए आवेदन भी दिया था। युद्धिष्ठीर नाम के किसी डीपीओ से जातिगत सांठगांठ बैठा ली थी। लिखित परीक्षा तक मे नहीं बैठी। शर्मा जैसे नए पत्रकार ने अपनी इस बहन को नौकरी दिला दी। पूरा शहर इसे जानता था, पर खबर नहीं बना यह मामला। बात-बात पर विभागों को पानी पिलानेवाले पत्रकारों की फौज को जैसे सांप सूघ गया। पांच साल मे छह घराने की सैर करनेवाले पत्रकारों की इस जमात के लिए ईमानदारी और निष्ठा क्या चीज है। वे मानते हैं बाजार मे निष्ठा का कोई मोल नहीं। सही भी तो, यदि मौका चूक जाएं तो कौन अखबार किसी को पूछने जाता है सिर्फ योग्यता के बल पर। उसकी निगाह मे तो जिला से लेकर राजधानी तक मे भगोड़े पत्रकार संपादक बना दिए गए हैं। इनमे से एक के बारे मे तो एक प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका तक मे ‘प्रधान संपादक के नाम खुला पत्र’ में एक पूरा चिट्ठा ही छप चुका है। और यह चिट्ठा किसी भगोड़े पत्रकार ने ही लिखा था। बाद मे वही भगोड़ा पत्रकार अपनी वेबसाईट मे उसी प्रधान संपादक की कई तरह से चिरौरी करने लगा।
सारा कुछ तो उसकी नजरों के सामने हुआ है। माथा भिन्ना जाता है ऐसी कारगुजारियों को देखकर। क्या करे। इतने दिनों जिस क्षेत्र में उम्र खपा दी कि अब कहीं जा नहीं सकते। औरयहां के उसूल को कबूल नहीं सकते। वह सोचता - आखिर अपनी नियति हम खुद ही तय करते हैं। ‘जो दिखेगा, वही बिकेगा’। यह टैग लाईन उसे अपने ऊपर फिट लगती। आखिर वह लाईन बदलने की सोचे तो किस आधार पर कोई उसे जगह देगा। जिन क्षेत्रों में वह दिख नहीं रहा, वहां किस तरह कोई नौकरी उसका इंतजार कर रही होगी! वह सिर्फ अखबारों में ही दिख रहा। और अखबारी दुनिया से तो रोजी-रोटी चलने से रही। इतने दिनों अखबार में चप्पलें घिसने के बाद वह किस मुंह से किसी और क्षेत्र में नौकरी के लिए प्रयास करे। वह किसी परिचित के पास इसके लिए जाना भी नहीं चाहता। अनुभव में सिफर होने के कारण दूसरे क्षेत्र मे नए सिरे से शुरू करने की नौबत होगी सो अलग। ‘जो दिखेगा, वही बिकेगा’के जवाब में भले वह तर्क दे देता कि ‘जो बिकेगा वह नहीं टिकेगा’। पर वह जानता है कि यह सिर्फ कहने की बात है। एक लेखक-कवि भले मान ले कि वह जो लिखता है और अखबार-पत्रिकाओं में छपता है, वह रचना है, सर्जना है, उत्पाद नहीं, माल नहीं। लेकिन किस लेखक-कवि के पास इसका जवाब है कि जब अखबार प्रोडक्ट हो गया तो उसमें छपनेवाली चीजें कैसे माल नहीं होंगी। और माल नहीं होंगी, तो लीजिए आपकी चीजें बिकेंगी नहीं। किताब छपाइए तो पैसे लगेंगे ही। चाहे प्रकाशक ‘बयां’ ही क्यों न हो। आखिर रूपलाल बेदिया की कहानियों का संकलन छापने के लिए बया ने पैसे मांगे ही तो। यहां तक कि लेखक संगठनों के कार्यक्रमों मे उनके राष्ट्रीय पदाधिकारी तक को लिफाफा चाहिए था। उसने तो अपनी आंखों से यह सब देखा है। यह कौन सी प्रतिबद्धता और बाजारवाद का संकट है यह, उसके भेजे मे कभी नहीं आय़ा। बाजार में टिकना है, रहना है तो उसकी लड़ाइयों के बीच रहनी होगी। और उसीके हिसाब से रणनीति बनानी होगी। यह मानता है यह।
एक बार इसी तरह स्टेशन पर रात में सिन्हा जी और सुमन जी में मीडिया में वर्गीय चेतना को लेकर बात शुरू हुई थी। धीरे-धीरे यह बहस का रूप लेता गया और वहां उपस्थित पत्रकार उसके सहभागियों में शामिल होते गए। सुमन जी का कहना था – ‘बाजार है अवसर को भुनाने का नाम। बाजार है निष्ठा, प्रतिबद्धता को माल बनाने का नाम। कोई मानव संसाधन जबतक अपनी माकेर्टिंग की संभावना नहीं दिखा दे तब तक उसे कहीं ठिकाना नहीं मिलता।‘
इस पर सिन्हा जी कहते – ‘मान लिया कि आपकी ही बात ठीक है। पर इससे कोई वर्गीय चेतना तो पैदा नहीं होती।‘
सुमन जी कहते – ‘ऐसा इसलिए है ना सिन्हा जी कि उत्पादन के औजार में हम-आप जैसे कलमघिस्सू पत्रकार से लेकर मार्केटिंग एक्जीक्यूटिव और मशीनमैन तक शामिल हैं। मशीनमैन की सैलरी हमसे-आपसे चौगुनी है। तो वे लोग कहां से हमारी जमात में अपने को मानेंगे। ऐसे में कहां से विकसित हो पाएगी कोई वर्गीय चेतना ?’
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