परेशानी का सबब
नईम मेरे कमरे में दाख़िल हुआ और ख़ामोशी से कुर्सी पर बैठ गया। मैंने उस की तरफ़ नज़र उठा कर देखा और अख़बार की आख़िरी कापी के लिए जो मज़मून लिख रहा था उसको जारी रखने ही वाला था कि मअन मुझे नईम के चेहरे पर एक ग़ैरमामूली तबदीली का एहसास हुआ मैं ने चश्मा उतार कर उस की तरफ़ फिर देखा और कहा। “क्या बात है नईम। मालूम होता है तुम्हारी तबीयत नासाज़ है।”
नईम ने अपने ख़ुश्क लबों पर ज़बान फेरी और जवाब दिया। “क्या बताऊं, अजीब मुश्किल में जान फंस गई है। बैठे बिठाए एक ऐसी बात हुई है कि मैं किसी को मुँह दिखाने के क़ाबिल नहीं रहा।”
मैंने काग़ज़ की जितनी पर्चियां लिखी थीं जमा करके एक तरफ़ रख दीं और ज़्यादा दिलचस्पी लेकर उस से पूछा। “कोई हादिसा पेश आगया....... फ़िल्म कंपनी में किसी ऐक्ट्रस से।”
नईम ने फ़ौरन ही कहा। “नहीं भाई, ऐक्ट्रस वेक्र् स से कुछ भी नहीं हुआ। एक और ही मुसीबत में जान फंस गई है। तुम्हें फ़ुर्सत हो तो में सारी दास्तान सुनाऊं।”
नईम मेरा दोस्त है। जब से वो बंबई से आया है उस से मेरी दोस्ती चली आरही है। वो यूं कि बंबई आते ही उस ने मेरे अख़बार में काम किया और ख़ुद को बहुत सी अहलीयतों का मालिक साबित किया। फिर आहिस्ता आहिस्ता जब मुझे उस के आला ख़ानदान का पता चला और इसी क़िस्म की दूसरी वाक़फ़ियतें निकलती आईं तो मेरे दिल में उसकी इज़्ज़त और भी ज़्यादा होगई, चुनांचे छः महीने के मुख़्तसर अर्से ही में वो मेरा बेतकल्लुफ़ दोस्त बन गया।
नईम ने मेरे अख़बार को दिलचस्प बनाने के लिए मुझ से ज़्यादा कोशिशें कीं। हर हफ़्ते जब उस ने एक नई कहानी लिखना शुरू की और मैंने उस की तैय्यार चार कहानियां पढ़ीं तो मुझे इस बात का एहसास हुआ कि अख़बार में अगर नईम पड़ा रहा तो उस की तमाम ज़कावतें तबाह हो जाएंगी, चुनांचे मैंने मौक़ा मिलते ही एक फ़िल्म कंपनी में उसकी सिफ़ारिश की और वो मुकालमा निगार की हैसियत से फ़ौरन ही वहां मुलाज़िम होगया।
फ़िल्म कंपनी की मुलाज़मत के दौरान में नईम ने वहां के सेठों और डाइरेक्टरों पर कैसा असर डाला, इस के मुतअल्लिक़ मुझे कुछ इल्म नहीं। मैं बेहद मसरूफ़ आदमी हूँ। लेकिन नईम से एक दो बार मुझे इतना ज़रूर मालूम हुआ था कि वहां उस का काम पसंद किया गया है। अब इका ईकी न जाने क्या हादिसा पेश आया था जो उस का रंग यूं हल्दी की तरह ज़र्द पड़ गया था।
नईम बेहद शरीफ़ आदमी है। उस से किसी नामाक़ूल हरकत की तवक़्क़ो ही नहीं हो सकती थी, मैं सख़्त मुतहय्यर हुआ कि ऐसी कौन सी उफ़्ताद पड़ी जो नईम किसी को अपना मुँह दिखाने के काबिल न रहा। मैंने उस से इजाज़त लेकर जल्दी जल्दी आख़िरी कापी के लिए मज़मून का बक़ाया हिस्सा मुकम्मल किया और तमाम पर्चियां कातिब को देकर उस के पास बैठ गया। “भई माफ़ करना मैं फ़ौरन ही तुम्हारी दास्तान न सुन सका.... लेकिन मैं पूछता हूँ ये दास्तान आख़िर बनी कैसे.... तुम.... तुम.... ख़ैर छोड़ो इस क़िस्से को, तुम मुझे सारा वाक़िया सुनाओ।”
नईम ने जेब से सिगरेट निकाल कर सुलगाया और कहा। “अब मैं तुम्हें क्या बताऊं, जो कुछ हुआ, मेरी अपनी बेवक़ूफ़ी की बदौलत हुआ। हमारी फ़िल्म कंपनी में एक ऐक्टर है। आशिक़ हुसैन अव़्वल दर्जे का चुग़द है। चूँकि दूसरों की तरह मैं उसे सताता नहीं हूँ इस लिए वो मुझ पर बुरी तरह फ़रेफ़्ता है, ये फ़रेफ़्ता मैंने इस लिए कहा है कि वो मुझ से इसी तरह बातें करता है जिस तरह ख़ूबसूरत औरतों से की जाती हैं।”
मैं हंस पड़ा। “पर तुम इतने ख़ूबसूरत तो नहीं हो।”
नईम के पीले चेहरे पर भी हंसी की लाल लाल धारियां फैल गई। “कुछ समझ मैं नहीं आता कि वो किया है। दरअसल वो अपने इख़लास और अपनी बेलौस मोहब्बत का इज़हार करना चाहता है और चूँकि उसे ऐसा करने का तरीक़ा नहीं आता इस लिए उसका प्यार वही शक्ल इख़्तियार कर लेता है जो उस को ग़ालिबन अपनी बीवी से होगा....... हाँ तो ये आशिक़ हुसैन साहब जो अव़्वल दर्जे के रक्कास हैं और रक़्स के सिवा और कुछ भी नहीं जानते। परसों शूटिंग के बाद मुझे मिले। सीट पर मैंने उन के मकालमे दरुस्त करने में काफ़ी मेहनत की थी। इस का हक़ अदा करने के लिए उन्हों ने फ़ौरन ही कुछ सोचा और कहा। “नईम साहब, मैं आप से कुछ अर्ज़ करना चाहता हूँ।” मैंने कहा। “फ़रमाईए।” उन्हों ने फिर कुछ सोचा और कहा। “दिन भर काम करने के बाद में थक गया हूँ आप भी ज़रूर थक गए होंगे। चलीए, कहीं घूम आएं....... ” अब मैं यहां अपनी एक कमज़ोरी बता दूं। मौसम अगर ख़ुशगवार हो तो मैं उमूमन बहक जाता हूँ। शाम का झुटपुटा था। हल्की हल्की हवा चल रही थी और फ़िज़ा में एक अजीब क़िस्म की उदासी घुली हुई थी। जवान कुंवारे आदमियों के दिल में ऐसी उदासी ज़रूर मौजूद होती है जो फैल कर ऐसे मौक़ों पर बहुत वुसअत इख़्तियार कर लिया करती है। मेरे बदन पर एक कपकपी सी तारी होगई जब मैंने जोहू के समुंद्री किनारे का तसव्वुर किया जहां शाम को नम-आलूद हवाएं यूं चलती हैं जैसे भारी भारी रेशमी साड़ियां पहन कर औरतें चलती हैं....... मैं फ़ौरन तैय्यार होगया। “चलीए, मगर कहाँ जाईएगा।” अब आशिक़ हुसैन ने फिर सोचा और कहा। “कहीं भी चले चलेंगे....... यहां से बाहर तो निकलें.... ” हम दोनों गेट से बाहर निकले और मोड़ पर बस का इंतिज़ार करने लगे।
यहां तक कह कर नईम रुक गया। इस के चेहरे की ज़रदी अब दूर होरही थी। मैंने उस के पैकेट से एक सिगरेट निकाल कर सुलगाया और कहा। “तुम दोनों गेट से बाहर निकल कर बस का इंतिज़ार करने लगे।”
नईम ने सर हिलाया और शामत-ए-आमाल उधर से आशिक़ हुसैन के एक मारवाड़ी दोस्त का गुज़र हुआ। वो मोटर में जा रहा था कि अचानक आशिक़ हुसैन की नज़र उस पर पड़ी। फ़ौरन ही उस ने मारवाड़ी ज़बान में अपने दोस्त को ठहरने के लिए कहा। मोटर रुकी आशिक़ हुसैन ने उस से मारवाड़ी ज़बान में चंद बातें कीं फिर दौड़ कर मेरे पास आया और कहने लगा चलीए, काम बन गया। मोटर मिल गई इसी में चलते हैं।” मैं चल पड़ा। मोटर में दाख़िल होने से पहले आशिक़ ने अपने मारवाड़ी दोस्त से जो शक्ल-ओ-सूरत के एतबार से ड्राईवर मालूम होता था तआरुफ़ कराया और हस्ब-ए-मामूल मुबालग़े से काम लेते हुए कहा। “ये मारवाड़ के बहुत बड़े सेठ हैं। यहां एक कारोबार के सिलसिले में आए हैं। मेरे बहुत मेहरबान दोस्त हैं।” और मेरे मुतअल्लिक़ अपने दोस्त से कहा। “ये हिंदूस्तान के बहुत बड़े स्टोरी रायटर हैं। हिंदूस्तान के बहुत बड़े स्टोरी रायटर और मारवाड़ के बहुत बड़े सेठ ने हाथ मिलाए।” दोनों अपनी अपनी जगह रस्मी तौर पर ख़ुश हूए और मोटर चली.... ये सुन कर में मुस्कुराया। “नईम, इस मारवाड़ी सेठ के मुतअल्लिक़ तुम्हारी राय बहुत ख़राब मालूम होती है। क्या आगे चल कर ये विलेन का पार्ट अदा तो नहीं करेगा।”
“तुम पहले पूरी दास्तान सुन लो। फिर सोचना कि विलेन कौन है और हीरो कौन। लेकिन इस में कोई शक नहीं कि इस कहानी की हीरोइन ज़ुहरा है....... ज़ुहरा जिस को मैंने अपनी ज़िंदगी में पहली मर्तबा कल। दावर की एक फ़ौजदारी अदालत में देखा है.... एक मुजरिम की हैसियत में।”
ये कहते हुए नईम के कान की लवें शर्म के बाइस सुर्ख़ होगईं। दास्तान सुनने के दौरान में पहली मर्तबा ज़ुहरा के अचानक ज़िक्र से मुझे सख़्त तअज्जुब हुआ मैं ने कहा। “नईम। ये तो बिलकुल अलगज़नडरपो का अफ़साना मालूम होता है। ये ज़ुहरा बिलकुल पू के अफ़सानों के ग़ैर मुतवक़्क़े अंजाम की तरह इस दास्तान में आई है। ये औरत कौन है?”
“मैं क़तअन नहीं जानता, यानी अगर मुझे इस औरत के मुतअल्लिक़ कुछ इल्म होतो मुझ पर लानत। ख़ुदा मालूम कौन है, पर अब में इतना जानता हूँ कि उस ने हम लोगों पर फ़ौजदारी मुक़द्दमा दायर कररखा है। जुर्म डाका और चोरी है।”
मैंने तअज्जुब से पूछा। “डाका और चोरी।”
नईम के लहजा ने ऐसी मितानत इख़्तियार कर ली जिस में रुहानी अज़ियत की झलक साफ़ दिखाई देती थी। कहने लगा। “हाँ, डाका और चोरी। मुझे दफ़आत अच्छी तरह याद नहीं मगर इन का मतलब यही है कि हम ने मुदाख़िलत बेजा की, ज़ुहरा के घर पर डाका डाला। और उस की चंद क़ीमती अश्या चुरा कर ले गए, लेकिन ये तो दास्तान का अंजाम है। पहले के वाक़ियात तुम्हें सुना लूं फिर इस तरफ़ आता हूँ....... मैं क्या कह रहा था?”
मैंने जवाब दिया। “ये कि तुम उस मारवाड़ी की मोटर में बैठ गए।”
“हाँ मैं आशिक़ हुसैन के कहने पर उस मनहूस मारवाड़ी की मोटर में बैठ गया। मोटर वो ख़ुद चला रहा था। उस के साथ ही अगली सीट पर एक और आदमी बैठा था जो उस से कम मनहूस नहीं था। आशिक़ हुसैन ने शायद उसके मुतअल्लिक़ कहा था कि वो मोटरें बनाने का काम करता है। ख़ैर मोटर मुख़्तलिफ़ बाज़ारों से होती हुई दावर की तरफ़ जा निकली। ज़ाहिर था कि हम जोहू जाऐंगे, चुनांचे में बहुत ख़ुश था। जोहू की गीली गीली रेत से मुझे बेहद प्यार है कभी कभी उधर जा कर मैं गीली रेत पर ज़रूर लेटा करता हूँ और देर तक खुले आसमान की तरफ़ देखा करता हूँ जो इतना ही पुरासरार और नाक़ाबिल-ए-रसा दिखाई देता है जितना कि एक अजनबी औरत का तसव्वुर....... सामने रात की सुरमई रोशनी में समुंद्र करवटें लेता है, ऊपर गदले आसमान पर तारे यूं चमकते हैं जैसे अनहोई बातें किसी जवान आदमी के दिल में टिमटिमा रही हैं। एक अजीब कैफ़ीयत होती है। दूर, उस पार जहां आसमान और समुंद्र कोई वाज़ेह ख़त बनाए बग़ैर आपस में घुल मिल जाते हैं, एक ऐसी धुनदली रोशनी नज़र आया करती है जो ख़ूबसूरत शेअरों की तरह मस्नूई होती है....... मैं जोहू की सैर के ख़याल में मगन था कि आशिक़ हुसैन ने मोटर को दावर ही में एक जगह ठहरा लिया और मुझ से कहा। “चलीए, कुछ पी लें।” जैसा कि तुम्हें मालूम है, बेअर मुझे प्यारी है। आशिक़ हुसैन को ख़ुदा मालूम कहाँ से इस बात का पता चला था कि मैं पिया करता हूँ....... ख़ैर, हम चारों यार बार में दाख़िल हूए। एक बोतल बीअर की मैं ने पी और एक आशिक़ हुसैन ने। मारवाड़ी सेठ और मोटरें बनाने वाले ने कुछ न पिया। हम जल्दी ही फ़ारिग़ होगए। फिर मोटर में बैठे और जोहू का रुख़ किया मगर फ़ौरन ही आशिक़ हुसैन को एक काम याद आगया। “ओह मुझे तो अपनी शागिर्द ज़ुहरा के हाँ जाना है। आज इस से मिलने का मैंने वाअदा किया था....... नईम साहब अगर आपको एतराज़ न हो तो पाँच मिनट लगेंगे। उस का मकान बिलकुल क़रीब है।” मुझे क्या एतराज़ हो सकता था, चुनांचे उस ने मोटर एक गली में ठहरा ली और अकेला सामने वाले मकान की तरफ़ बढ़ा।
मैंने पूछा। “ये गली किस तरफ़ है।”
नईम ने जवाब दिया। “दावर ही में है.... उधर जहां पार्सियों के बेशुमार मकान हैं, ग़ालिबन उस मुहल्ले को पार्सी कॉलोनी कहते हैं।”
“.... हाँ तो आशिक़ हुसैन मोटर से निकल कर सामने मकान की तरफ़ बढ़ा। एक छोटा सा दोमंज़िला मकान था। बगीचा तय करके आशिक़ ने दरवाज़ा पर दस्तक दी। जब किसी ने दरवाज़ा न खोला तो आशिक़ ने दूसरी बार ज़ोर से दस्तक दी। अंदर से किसी औरत की आवाज़ आई “कौन है।” आशिक़ हुसैन ने बुलंद आवाज़ में जवाब दिया। “आशिक़।” अंदर से ख़इमआलूद आवाज़ आई। “आशिक़ की....... ” आशिक़ हुसैन ने ये गाली सुन कर हमारी तरफ़ देखा और ज़ोर से दरवाज़ा खटखटाया और ये कहना शुरू किया। “दरवाज़ा खोलो.......दरवाज़ा खोलो।”
ये सुन कर मैंने कहा। “उस औरत ने शायद आशिक़ का ग़लत मतलब समझा, वर्ना जैसा कि तुम अभी कह चुके हो वो आशिक़ की शागिर्द थी।”
“जाने बला, क्या थी और किया है। हो सकता है कि आशिक़ हुसैन ने झूट ही बोला हो और बीअर की एक बोतल पीने के बाद ज़ुहरा का ख़याल उसके दिमाग़ में आगया हो। किसी ने उस से कभी कहा होगा कि फ़ुलां नंबर के फ़्लैट में एक औरत ज़ुहरा रहती है.... लेकिन इस से किया बेहस है....... आशिक़ हुसैन ने ऊधम मचाना शुरू करदी। अंदर से गालियां आती रहीं और पेशतर इस के कि मैं उसे मना कर सकता, तीन चार धक्के मार उस ने दरवाज़ा तोड़ा और ज़बरदस्ती अंदर दाख़िल होगया। जब ये शोर हुआ तो आस पास के रहने वाले पार्सी इकट्ठे होगए। मैं बेहद परेशान हुआ, चुनांचे इसी परेशानी में मोटर से बाहर निकला और आशिक़ को बाहर लाने की ख़ातिर उस मकान में दाख़िल होगया। मेरे पीछे पीछे आशिक़ के दोनों साथी भी चले आए। मैंने उस फ़्लैट के तीनों कमरे देखे मगर न आशिक़ नज़र आया न उसकी शागिर्द ज़ुहरा। ख़ुदा मालूम कहाँ ग़ायब होगए थे। घर के परली तरफ़ दूसरा रास्ता था, मुम्किन है वो उधर से बाहर निकल गए हों। मैं चंद मिनट इन तीन कमरों में रहा। जब कोई सुराग़ न मिला तो बाहर निकल कर मोटर में बैठ गया। वो पार्सी जो गली में जमा होगए थे घूर घूर कर मेरी तरफ़ देखने लगे। मैं और ज़्यादा परेशान होगया। बीअर का सारा नीम जो दिमाग़ में था उतर कर मेरी टांगों में चला आया। मेरे जी मैं आई कि आशिक़ उस के साथीयों और उन की मोटर को वहीं छोड़कर भाग जाऊं मगर.... अजब मुश्किल में मेरी जान फंस गई थी। अगर भागने की कोशिश करता तो यक़ीनन वो पार्सी जो मुझे चिड़ियाघर का बंदर समझ कर घूर रहे थे पकड़ लेते....... दस बारह मिनट उसी शश-ओ-पंज में गुज़रे। इस के बाद आशिक़ और उसके दोनों दोस्त मकान में से बाहर निकले और मोटर में बैठ गए। मैंने आशिक़ से कोई बात न पूछी। मोटर चली और जब दादर का हल्क़ा आया तो मैंने इस से कहा। “मुझे यहीं उतार दो, मैं बस में घर चला जाऊंगा।” आशिक़ के दिमाग़ से जोहू की सैर का ख़याल निकल गया था, उस ने अपने मारवाड़ी दोस्त से मोटर रोकने के लिए कहा, चुनांचे मैं उन से रुख़स्त लेकर घर चला आया और इस वाक़िया को भूल गया।
नईम ने एक सिगरेट और सुलगाया और कुछ देर के लिए ख़ामोश होगया। मैंने पूछा। “इस के बाद क्या हुआ?” “मुझे गिरफ़्तार करलिया गया।” नईम ने बड़ी तल्ख़ी के साथ कहा। इस बेवक़ूफ़ के बच्चे आशिक़ हुसैन से जब पुलिस वालों ने पूछा कि तुम्हारे साथ और कौन था तो उस ने अपने मारवाड़ी दोस्त, उस मोटर बनाने वाले का और मेरा नाम ले दिया....... हम तीनों एक घंटे के अंदर अंदर गिरफ़्तार कर लिए गए।”
मैंने पूछा। “ये कब की बात है?....... तुम ने मुझे इत्तिला क्यों न दी।”
नईम ने जवाब दिया। “कल दो ढाई बजे के क़रीब हमारी गिरफ्तारियां अमल में आईं। मैंने तुम्हें टेलीफ़ोन पर ज़रूर मत्तला क्या होता अगर मेरे हवास बजा होते। बख़ुदा मैं सख़्त परेशान था। पुलिस इन्सपैक्टर टैक्सी में हम सब को थाने में ले गया। वहां बयानात क़लमबंद हुए तो मुझे पता चला कि आशिक़ हुसैन के वो मारवाड़ी दोस्त जो किसी कारोबार के सिलसिले में यहां आए थे ज़ुहरा का पंखा उठा कर अपने साथ ले आए थे। बिजली का ये पंखा पुलिस ने उन से हासिल कर लिया था।
ये सुन कर मैंने तशवीशनाक लहजा में कहा। “इस से तो चोरी साफ़ साबित होती है।”
“चोरी साबित होती है जभी तो मैं इस क़दर परेशान हूँ और सच्च पूछो तो अगर ये साबित न भी होती तो मेरी परेशानी उसी क़दर रहती। थाने और अदालत में जाना बेहद शर्मनाक है, पर अब क्या किया जाये। जो होना है हो चुका है। इस ख़िफ़्फ़त से छुटकारा नहीं मिल सकता जो मुझे उठाना पड़ेगी और उठाना पड़ रही है। मैं बिलकुल बेगुनाह हूँ यानी ज़ाहिर है कि ज़ुहरा को मैं बिलकुल नहीं जानता, उस के मकान पर में अगर गया तो महज़ आशिक़ हुसैन की वजह से, उस चुग़द के कहने पर जो एक बोतल बीअर भी हज़म नहीं कर सकता।
नईम के चेहरे पर नफ़रत और ग़ुस्से के मिले जुले जज़्बात देख कर मुझे बे इख़्तियार हंसी आगई। “भई, बहुत बुरे फंसे।”
नईम ने उसी अंदाज़ में कहा। “हंसी में फंसी इसी को कहते हैं.... कल.... अपनी ज़िंदगी में पहली मर्तबा मैंने अदालत का मुँह देखा और ज़ुहरा भी पहली मर्तबा मुझे नज़र आई।”
मैंने फ़ौरन ही पूछा। “कैसी है?”
नईम ने बेपर्वाई से जवाब दिया। “बुरी नहीं, यानी शक्ल सूरत के एतबार से ख़ासी है.......बैज़वी चेहरा है जिस पर कीलों और मुहासों के दाग़ नज़र आते हैं। लंबे लंबे काले बाल हैं। पेशानी तंग है। जवान है। ऐसा मालूम होता है कि हाल ही में उस ने ये धंदा शुरू किया है।”
मैंने बग़ैर किसी मतलब के यूं ही पूछा। “कैसा धंदा?”
नईम शर्मा सा गया। “अरे भई, वही जो औरतें करती हैं....... ज़ुहरा के चेहरे पर उस की छाप दूर से नज़र आसकती है.... मुझे उस औरत पर इतना ग़ुस्सा कभी न आता मगर जब मजिस्ट्रेट ने मेरी तरफ़ इशारा करके पूछा। “तुम इसको पहचानती हो।” तो ज़ुहरा ने मेरी तरफ़ अपनी बड़ी बड़ी धुली हुई आँखों से देख कर कहा। “हाँ साहब पहचानती हूँ। इसी ने मेरा चांदी का टी सेट उठाया था।” जब उस ने ये झूट बोला तो ख़ुदा की क़सम जी में आई मलाइना के हल्क़ में कटहरे का एक डंडा निकाल कर ठोंस दूं। “इतना बड़ा झूट!!”
इस पर मैंने कहा। “भई झूट तो बोलेगी....... इस के बग़ैर काम कैसे चलेगा उसे अपना केस मज़बूत भी तो बनाना है....... अब तो तुम्हें क़हर दुरवेश बरजां दुरवेश सब कुछ सुनना पड़ेगा।”
“ठीक है।” नईम ने बड़ी परेशानी के साथ कहा। “जो कुछ होगा उसे हर हालत में सहना ही पड़ेगा मगर.... मगर.... मैं क्या बताऊं मैं किस क़दर परेशान होगया हूँ, कुछ समझ में नहीं आता.... अगर किसी मर्द ने मुझ पर ऐसा मुक़द्दमा दायर क्या होता तो मुझे इतनी परेशानी न होती मगर ज़रा ग़ौर तो करो, वो औरत है....... और मैं औरतों की ताज़ीम करता हूँ।”
मैंने पूछा। “क्यों?”
नईम ने बड़ी सादगी से जवाब दिया। “इस लिए कि मैं औरतों को जानता ही नहीं। किसी औरत से मिलने और उस से खुल कर बातचीत करने का मुझे कभी मौक़ा ही नहीं मिला। अब ज़िंदगी में पहली मर्तबा औरत आई है तो मुद्दई बन कर।”
मैंने हंसना शुरू कर दिया। नईम ने इस पर बिगड़ कर कहा। “तुम हंसते हो मगर यहां मेरी जान पर बनी है....... दो दिन से मैं कंपनी नहीं जा रहा.... वहां ये बात ज़रूर पहुंच चुकी होगी। सेठ साहब के सामने मैं क्या मुँह ले के जाऊंगा। उन्हों ने अगर कुछ पूछा तो मैं क्या जवाब दूंगा।”
मैंने कहा। “जो असल बात है उन को बता देना।”
“वो तो मैं बता ही दूंगा मगर ख़ुदा के लिए सोचो तो सही कि मेरी पोज़ीशन किया है....... मैं सेठ साहब की बेहद इज़्ज़त करता हूँ इस लिए कि वो मेरे आक़ा हैं, अगर उन्हों ने मुझे बद-किर्दार समझ कर बरतरफ़ कर दिया तो उम्र भर के लिए मैं दागदार हो जाऊंगा। मुलाज़मत खोने का मुझे इतना अफ़सोस नहीं होगा मगर यहां सवाल इज़्ज़त-ओ-नामूस का है। वो ज़रूर बद-गुमान हो जाऐंगे। मैं उन की तबीयत से अच्छी तरह वाक़िफ़ हूँ, मेरी सच्ची बातों को भी वो झूटा ही समझेंगे। फ़िल्म कंपनी में हर शख़्स झूट बोलता है। वो ख़ुद भी हमेशा झूट बोलते हैं....... अब मैं क्या करूं....... कुछ समझ में नहीं आता।”
मैंने हर मुम्किन तरीक़े से नईम की अख़लाक़ी जुर्रत बढ़ाने की कोशिश की मगर नाकाम रहा। वो बेहद डरपोक है। ख़ासकर औरतों के मुआमले में तो उस की बुज़दिली बहुत ही ज़्यादा है। दरअसल मुआमला भी संगीन था, अगर बर्क़ी पंखा बरामद न होता तो केस बिलकुल मामूली रह जाता। मगर पुलिस इस मारवाड़ी से पंखा हासिल करचुकी थी इस लिए ज़ाहिर है कि ज़ुहरा एक हद तक सच्ची थी।
नईम ज़्यादा देर तक मेरे पास न ठहरा और चला गया। दूसरे रोज़ शाम को वो फिराया। उस की परेशानी और भी ज़्यादा बढ़ी हुई थी। आते ही कहने लगा। “भाई एक मुसीबत में तो जान फंसी थी, अब एक और आफ़त गले पड़ गई है।”
मैंने तशवीश के साथ कहा। “क्या हुआ!....... क्या कोई और केस खड़ा होगया।”
“नहीं, केस वही है, मगर एक ऐसी बात हूई है जो मेरे वहम-ओ-गुमान में भी न थी।” नईम ने कुर्सी पर बैठ कर इज़्तिराब के साथ टांग हिलाना शुरू की। आज सुबह सेठ साहिब ने मुझे बुलाने के लिए मोटर भेजी। मुझे जाना ही पड़ा हालाँकि मैं इरादा करचुका था कि कभी नहीं जाऊंगा। बख़ुदा फ़िल्म कंपनी में दाख़िल होते वक़्त मेरी हालत वही थी जो हस्सास मुलज़िमों की होती है। शर्म के मारे मेरा हलक़ सूख रहा था। सर भारी होगया था। नीची नज़रें किए जब में सेठ साहब के कमरे में दाख़िल हुआ तो वो उठ खड़े हुए। बड़े तपाक के साथ उन्हों ने पहली मर्तबा मेरे साथ हैंड शेक किया और हंस कर कहने लगे। “मुंशी साहब, आप ने कमाल कर दिया। आप तो छुपे रुस्तम निकले। बीठीए तशरीफ़ रखीए।”
मैं नदामत में ग़र्क़ कुर्सी पर बैठ गया। वो भी बैठ गए। फिर उन्हों ने ऐसी बातें शुरू कीं कि मेरे औसान ख़ता होगए। कहने लगे। “आप घबराते क्यों हैं, सब ठीक हो जाएगा आप बताईए कि ये ज़ुहरा है कैसी?....... कुछ अच्छी है?.... भई आप ने तो कमाल कर दिया। मैं सुनता हूँ कि आप ने पी कर वो धमाल मचाई कि पार्सी कॉलोनी के सब आदमी इकट्ठे होगए। किसी ने मुझ से कहा था कि आप ज़ुहरा की साड़ी उतार कर ले गए.... पहले भी तो आप उस के हाँ आते जाते होंगे, फिर हरामज़ादी ने पुलिस में रिपोर्ट क्यों लिखवाई, पर क्या पता है आप ने बहुत ज़्यादा शरारतें की हों....... ऐसी ही बेशुमार बातें उन्हों ने मुझ से कीं। मैं ख़ामोश रहा। इस के बाद उन्हों ने चाय मंगवाई। एक पियाला मेरे लिए बनाया और फिर वही गुफ़्तुगू शुरू कर दी। “चांदी का टी-सेट जो आप उठा कर ले गए थे, मुझे अगर आप परीज़ेन्ट करदें तो मैं अभी आप को अपने वकील के पास ले चलता हूँ, ऐसी अच्छी वकालत करेगा कि ज़ुहरा की तबीयत साफ़ हो जाएगा....... मैं सुनता हूँ ज़ुहरा शक्ल सूरत की अच्छी है, तो भई इस मुक़द्दमे के बाद उसे ले आओ न अपनी फ़िल्म में उसे कोई छोटा साल रोल दे देंगे....... और हाँ, ये आप ने अच्छा किया कि उसी की शराब पी और उसी की चीज़ें उड़ा कर ले गए!.... पर आप एक दर्जन आदमी अपने साथ क्यों ले गए थे? बेचारी इतने आदमी देख कर घबरा गई होगी। बात बात पर वो हंसते थे जैसे गुफ़्तगु के लिए उन्हें एक निहायत ही दिलचस्प मौज़ू मिल गया है। तअज्जुब है कि इस से पहले उन्हों ने कभी मेरे सलाम का जवाब भी नहीं दिया था।”
मैंने कहा। “तो क्या हुआ। तुम्हें ख़ुश होना चाहिए कि वो तुम पर नाराज़ न हूए।”
नईम बिगड़ कर कहने लगा। “ये भी तुम ने ख़ूब कहा कि मुझे ख़ुश होना चाहिए। वो मुझे मुजरिम समझ रहे थे जो कि मैं नहीं होऊं....... मैं क्या कह सकता था। ख़ामोश रहा। थोड़ी देर के बाद उन्हों ने ख़ज़ानची को बुलाया और मुझे सौ रुपय ऐडवान्स दिलवाए हालाँकि दो महीने से किसी मुलाज़िम को तनख़्वाह नहीं मिल रही।
मैंने कहा। “तो क्या बुरा हुआ?”
“अरे भई तुम सारी बात तो सुन लो।” नईम खिच गया। “सौ रुपय दिलवा कर उन्हों ने कहा ये आप अपने पास रखीए आप को मुक़द्दमा के लिए ज़रूरत होगी। वकील का बंद-ओ-बस्त मैं अभी किए देता हूँ। टेलीफ़ोन पर उन्हों ने फ़ौरन ही वकील से बात की। फिर मुझे अपनी मोटर में बिठा कर उसके पास ले गए। सारी बातें उस को समझाएं और कहा। देखिए, इस मुक़द्दमा में जान लड़ा दीजीएगा....... बात बिलकुल मामूली है, इस लिए कि मुंशी साहब से ज़ुहरा के तअल्लुक़ात बहुत पुराने हैं....... ” मैं क्या कहता। वहां भी ख़ामोश रहा।
मैंने हंस कर नईम से कहा। “अब भी ख़ामोश रहो। तुम्हारा क्या बिगड़ गया है?”
नईम उठ खड़ा हुआ और इज़्तिराब के साथ टहलने लगा। “अभी कुछ बिगड़ा ही नहीं। अदालत में मुझे बयान देना पड़ेगा कि ज़ुहरा मेरी दाश्ता है और मैं उसे एक मुद्दत से जानता हूँ.... और.... और.... सेठ साहब ने आज शाम मुझे मदऊ किया है। कहते थे ग्रीन चलेंगे। वहां कुछ शगल रहेगा....... मेरी जान अजब मुसीबत में फंस गई है.... समझ में नहीं आता क्या हो रहा है.... ”