काश आप कमीने होते !
उमानाथ लाल दास
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लोगों को क्या मालूम कि सिन्हा जी चाट रहे हैं या झेल रहे हैं कोई फोड़ा जो फूटने का नाम नहीं ले रहा। यह कोफ्त भी तो हो सकती है उनकी, मवाद के नहीं बहने की।
कामयाबी की पैमाइश इसी से होती है कि किस खबर का क्या इंपैक्ट रहा। ऐसे में उनकी राजूवाली ह्यूमन स्टोरी पर कहीं कार्रवाई. हो गई..तो स्साला ऐसे मे रोजी-रोटी के लिए तोमारा-मारा ही फिरेगा ना। कार्रवाई हो गई तो फिर तो राजू आईएसएम गेट के पासवाले गैरेज में न तो पंचर टायर बना सकता है और न ही स्टेशन की मोंछू चाय दुकान में कप-प्लेट ही धो सकता है। आटो हैंडल संभालनेवाले हाथ से यह सब कैसे होगा, ‘‘भोंसड़ी’ के जी भर के गाली देगा।‘ उसी की जबान में एक पंच लाईन चल पड़ती है उसके दिमाग की स्क्रीनपर। गाड़ी मालिक पर कार्रवाई होगी सो अलग। वैसे तो इस शहर में कानून की मुश्तैदी चार दिन की चांदनी है।
दीपक, शशि और अशोक की तरह स्टोरी पेलने में उन्हें य़कीन नहीं। आखिर खबर के इन पहलुओं को भी तो देखा जाना चाहिए। इतने सारे सवालों के बीच जब वह खुद को बंधुआ मजदूर की तरह, एक सवाल की तरह पाते तो उसकी सारी स्टोरी लाईन धरी की धरी रह जाती। सुमन जी और सिन्हा जी खुश हो गए तो आपस में कहते – का हाल है बंधुआ पत्रकार! हां, कोलफील्ड में बेहद जहीन पत्रकार की तरह लोग सिन्हा जी को देखते हैं। पटना के नवेंदु जी की भाषा में खालिस एक पत्रकार। उनका कहना है आजकल सभी तो जर्नलिस्ट बने-बने आ जाते हैं, कोई पत्रकार नहीं होता। आज के नए लड़के किसी न किसी संस्थान से जर्नलिज्म या मास काम का कोर्स करके आते हैं! और वे है कि मानने को तैयार नहीं कि पढ़ाई करके कोई पत्रकार बन जाए। वह जर्नलिस्ट बन सकता है, पर पत्रकार नहीं। जिन बुनियादी बातों के परिस्थिति के मेल से कौशल का विकास होता है वह पढ़ाई में कहां से आएगी? प्रोफेशन मे तटस्थता और व्यक्तित्व मे ईमानदारी अपने आप में कोई मूल्य नहीं। इनके साथ पेशागत सरोकार और व्यक्ति के साहस का होना बेहद जरूरी है। वे इससे ताकीद करते हैं, पर सोचते – फिर तो पत्रकार के लिए चरित्र का कोई मतलब नहीं रह जाएगा।
दो हजार हो या दो लाख, विज्ञापन के लिए किसी की भी जी हुजूरी करने में कोई हिचक नहीं। विज्ञापन एक तो सामान्य दिनचर्या का है सो अलग। मरण तो तब होता है जब संपादकीय विभाग को विज्ञापन के टार्गेट दे दिए जाते हैं। सिन्हा जी जैसों की हालत तो देखने लायक होती है दुर्गा पूजा, दीवाली, पंद्रह अगस्त, 26 जनवरी के मौकों पर। सभी को टार्गेट दे दिए जाते हैं। बीस हजार से कम तो किसी को नहीं लाना होता है। सिन्हा जी, प्रसाद जी ऐसे सभी मौकों पर फेल हो जाते। लेकिन अंतिम दिन तक रोज जान सांसत मे रहती। चुनाव के समय तो और भी हालत पतली। रोज शाम को मुख्यालय जब हिसाब मांगता तो सिन्हा जी, प्रसाद जी के नाम के आगे लिखा होता – प्रयास जारी है। बीस, उन्नीस, अट्ठारह, सत्रह, सोलह, पंद्रह दिन होते-होते जब तीन, दो.. होता तो बहुच झेंपते। लगता कि ब्लड प्रेसर नपवा लेना चाहिए। प्रेस में सीढ़ियां चढ़ते हुए हांफ जाते। नए से नए पत्रकार भी ना जाने तीस-चालीस हजार कहां से ला के दे देते। इन दोनों से कुछ भी नहीं होता। इसी तरह एक बार जब सभी संपादकीय सदस्यों को अखबार बेचने का टार्गेट दिया गया तो लगा कि अब अखबार की नौकरी अपने बस का रोग नहीं। यह तो भला हो मुख्यालय का जिसे अपने फैसले सिमट देने पड़े कस्बे के रिपोर्टरों तक। सबसे अधिक बलि होती कस्बे के रिपोर्टरों की ही। इन्हें पैसे के नाम पर दो सौ से डेढ़ हजार रु तक ही नसीब होते। लेकिन बाजार के सारे तामझाम इन्हीं की बदौलत होते। एक बार तो ऐसा हुआ कि यूनिट में एक बैठक कर रिपोर्टरों को फरमान दे दिया गया कि सभी तीन महीनें मे लैपटाप ले लें। रियायत दी गई कि दो साल तक पांच सौ रुपए की सब्सिडी सबको दी जाएगी। दो साल मे पांच सौ रुपए प्रति माह यानी 12 हजार रुपए। तीस हजार में 12 हजार रुपए की रियायत। लेकिन यह कौन सी रियायत। उन्हीं को मिलनेवाली रकम से ये पैसे दिए जाएंगे। लेकिन बास कहते है सब्सिडी, तो सब्सिडी है यह। स्टेशन पर राजगंज और टुंडी के पत्रकार सिन्हा जी से यह वाकया सुना रहे थे। सिन्हा जी जिज्ञासा करते – ‘और जो नहीं ले पाएंगे’, वे पत्रकार कहते – ‘तो उनके लिए रास्ता साफ है। एक जाएगा तो दस आएगा।‘ दरअसल संपादक के इस भरोसा की वाजिब वजह थी। सभी जानते थे रिपोर्टरों की कमी नहीं। मुफ्त सेवा देने को भी तैयार बैठे हैं लोग। रिपोर्टिंग के लिए सिर्फ कार्ड मिल जाए, देखिए भीड़ टूट पड़ेगी। वे सभी शर्तें झेलने को भी तैयार बैठे हैं। ऐसे मे सिन्हाजी, प्रसाद जी क्या करें। बस कहते – ‘झेलो। जहां तक झेल पाओ, झेलो। इसीमें कल्याण है।‘
सिन्हा जी का माथा ठनक रहा था यह सोचकर कि कहीं अखबार डिजिटल हो गया और कैलेंडर शेप में बाजार में आ गया तब तो न तो हाकर की इतनी जरूरत होगी और न ही फुटपाथ पर इतनी भीड़ अखबारों की। डेस्क का ढांचा भी तो ऐसा नहीं रहेगा। घरों में उस कलैंडरनुमा अखबार के ही नीचे कई बटन होंगे, जिसमें से एक बटन दाबकर अपनी ग्राहकी आगे के लिए बढ़ा लेंगे या खत्म कर लेंगे। बाजार के लटके-झटके अखबार के पेशे को पूरी तरह बदल देंगे। इवेंट की अहमियत बनी रहेगी। लेकिन मल्टीमीडिया न्यूजरूम तब तो कमाल दिखाने लगेगा। खबर विशेष हुई तो खबर के अंत में ‘रीड मोर’ या ‘व्यू मोर’ बटम क्लिक करके उसका वीडियो फार्मेट भी मिल जाएगा। तब तो केवल लिक्खाड़ों से काम न चलेगा। डेस्क पर काम करनेवालों में मल्टीमीडिया एक्सपर्ट ही चलेंगे। विशेषज्ञों का जमाना तो उदारीकरण के बाद से ही खत्म होने लगा। बाजार के विस्तारीकरण और स्पर्द्धा की धार ने औद्योगिक घरानों को विविधीकरण की ओर मोड़ दिया। विल्स और कैप्सटन के लिए मशहूर आईटीसी अब तेल से लेकर बिस्कुट, क्लासमेट की कापियां तक बेच रही हैं। कारपोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी के नाम पर बजट का एक पर्सेंट पैसा सोशल सेक्टर में कंपनियों को लगाना होता है। इस पैसे का बाहर फ्लो रोकने के लिए टाटा जैसी कंपनी तक ने टीएसआरडीएस नाम से अपनी एनजीओ कर रखा है। सभी बड़े अखबारों ने एक-एक एनजीओ इसी मकसद से बना रखी है। सिन्हा जी का माथा ठनक रहा है कि जितनी जल्द हो, मल्टीमीडिया का कोर्स कर लेना होगा। और सारे नए काम भी तो पत्रकारों में ही बंटेंगे। अभी जब उपसंपादकों और प्रभारियों को लैपटाप दे दिया गया है तो काम के घंटों का कोई मतलब नहीं रहा। जहां हैं वहीं से ड्यूटी बजाइए। लैपटांप किसी को सुविधा दिखी हो तो वह देख ले - किसकी सुविधा है और कितनी सुविधा है! ऐसे सिन्हा जी राजगंज या टुंडी के रिपोर्टर को क्या रास्ता सुझाएंगे !
शहर में फैलते प्रदूषण के खिलाफ फीचर सप्लीमेंट की लीड स्टोरी होती और दूसरी ओर पर्यावरण दिवस पर उन जैसे हार्डकोक भट्ठों से दस लाख का विज्ञापन। परिशिष्ट में उनकेसामाजिक सरोकारों को लेकर राइट-अप। आखिर वही कलम यह भी लिखतीं तो उन्हें खलनायक सिद्ध करती। जंगल से लकड़ी ले जाते अखबार मालिक के ट्रक को छुड़वाना हो या मालिक की फैक्ट्री में मजदूर की मौत पर बवाल की लीपापोती करवाना, पत्रकारों की सिद्धि और कौशल को सिद्ध करने का सबसे बेहतर पैरामीटर माने जाते। गेटिंग-सेटिंग में महारत का पैरामीटर। वैसे तो ऐसे दिनों में माडम से लेकर ब्यूरो, रिपोर्टर से लेकर संपादक तक सबके कान खड़े रहते और आंखें चौकस। अखबार की सारी इंद्रियां इस खबर को सूंघने में लग जाती कि कहीं इससे संबंधित कोई खबर न चल जाए। सिद्धि का पैमाना यह कि न तो थाने में एक धेला लगे और न ही मजदूर के आश्रित को कोई मुआवजा देना पड़े। भूल से किसी भी अखबार के डाक संस्करण में (यानी कस्बे के पन्नों में भी) थाने में पड़े ट्रक के सकुशल छूट जाने की या फैक्ट्री में मजदूर की मौत की छोटी भी खबर कहीं छप जाती तो एक साथ सबकी क्लास लग जाती। प्रभारी लाईन हाजिर, रिपोर्टर की छुट्टी। डेस्क के उप संपादक का ट्रांसफर। कोई चूं भी नहीं कर सकता। अखबार का स्टैंड गलत नहीं होता। नौकरी देने के वक्त जितने कागजों पर हस्ताक्षर लिए गए थे, उस समय कोई देखता भी नहीं कि इन्हीं कागजो के बीच इस्तीफे पर भी हस्ताक्षर लिया जा रहा है। पत्रकार से चौबीस घंटे की चाकरीलेनेवाला अखबार यह भी हलफनामा ले लेता कि आपका मुख्य पेशा पत्रकारिता नहीं, कि संस्थान को जरूरत पड़ने पर आप कहीं भी काम करने को तैयार हैं, कि आप अमुक रकम परस्वेच्छया काम करने को राजी हैं आदि-आदि। अब ऐसी स्थिति में संस्थान के हाथ तो ऊपर ही रहते। उसे जो इच्छा होती वैसी ट्रांसफर-पोस्टिंग करता।
ऐसे दौर में वह भी इसे एक हद तक सही मानने लगे। वह तो मानते हैं कि आपके सिद्धांत और विचारधारा के लिए थोड़े ही किसी ने अपनी पूंजी झोंकी है। सुमन जी का साफ कहना था – ‘आप अपने पैसे से एक अखबार लगाकर दस पत्रकारों को यदि नौकरी नहीं दे सकते हैं तो बुरी बातों से उनका दिमाग खराब करने का आपको कोई हक नहीं।‘
सो ढलना तो होगा ही, पर किस हद तक? यह सवाल तो है उनके लिए भी। क्या अखबार को यल्लो पेज बन जाने दिया जाए ! एक दिन मैनेजर ने सुमन जी और सिन्हा जी की बहस सुन ली थी – ‘ जानते हैं बास। चाहे जितने भी टोटके कर लिए जाएं, पर अखबार तो अखबार बनकर ही बचेगा। अब देखिए, विज्ञापनों की इस मारामारी में सत्यनारायण कथा एक न्यूज इवेंट तो है, पर जनतंत्र का पर्व कहे जानेवाले चुनाव की खबर के तौर पर इसकी कोई अहमियत नहीं रही। उनकी खबर तो तभी छपेगी जब आप उनसे सौदे कर लें।‘
‘आप सो कहते हैं सुमन जी! छुटभैये नेताओं की फर्जी रिलीज को दो कालम मे पसारने में धन्य-धन्य होनेवाले अखबारों में एक सिंगल कालम खबर के लिए तरसना पड़ता है चुनाव के दिनों में।’
सुमन जी कहते – बास, जानते हैं बाहर छुटभैया नेता भी बड़ा ही भद्दा मजाक करते हैं। चुनाव के दिनों में वे लोग हमलोगों को किसी भंड़ुए से कम नहीं समझते। और कभी-कभी तो दबी जबान से बोल भी देते हैं। अब पांडे जी को लीजिए। कभी पार्टी प्रवक्ता थे। अब पत्रकारिता और साहित्य-वाहित्य करने लगे हैं। ऐसे लोग तो घुट्टी-घुट्टी से परिचित हैं। पब्लिक प्लेस में वे तो और भी भद्द कर देते हैं। बस खून का ही घूंट पीकर रह जाना पड़ता है।
मैनेजर का यह सुनना था कि बस यह खबर नमक-मीर्च के साथ बहती – उड़ती चली गई राजधानी मुख्यालय तक। जीएम चटर्जी साहब से प्रबंधक ने फोन पर कहा – ‘सर। इस बार के चुनाव में टार्गेट हासिल करना थोड़ा टफ लगता है।‘
‘गौर, यह बात तुम कैसे कह सकते हो? कितना अच्छा तो पेस है अभी।’
‘सो तो है सर, पर यहां कुछ खिचड़ी पकने जैसा गंध मिल रहा है।‘
‘मतलब नहीं समझा!’
‘क्या बोलें सर। सर, मेरा नाम बाहर नहीं आने दें तो कुछ बताएं?’
‘ऐसा कभी हुआ है तुम्हारे साथ जो आज यह कहने लगे।‘
‘अपने ही कुछ प्रबुद्ध लोग पत्रकारों को भड़काने के काम में लगे हुए हैं।‘
फिर क्या था, उन दोनों के नाम से नोटिस ही आ गई। क्रांतिकारी बननेवाले दोनों की सिट्टीपिट्टी गुम। संपादक की सलाह पर दोनों ने लिखित माफी मांग ली। चाहते तो दो-दो हाथ कर सकते थे। एक हद तक जाकर नौकरी बच भी जाती। लेकिन सवाल था कि पानी में रहकर मगर से बैर कौन मोल ले। मामला रफा-दफा हो गया और इस तरह नौकरी बची। अब ऐसे में संपादक के प्रति वफादारी तो रहेगी ही।
सुबह के दो-तीन घंटे तो लोग डूबकर रुचि और जरूरी की खबरों के लिए अखबार में आंख गड़ाए मिलते हैं। बाद के घंटों में दुकानों में, चौक-चौराहों पर गुमटियों पर अखबारों में छपी प्रांत में मंत्री रह चुके एक्का, राय आदि के ठिकानों पर सीबीआई की छापेमारी की खबर को लेकर चर्चा होती। पान खाने के नाम पर किनारे चुपचाप इनकी बहस को सुन रहे थे सिन्हा जी और गुन रहे थे कि किस तरह भीड़ में खबर को ढूंढती आंखों को बहुत आसानी से खबर के अदृश्य पहलू दिख जाते हैं, पर अखबार तो यह मानने से रहा कि पाठक के पास भी एक चश्मा है। उन्हें याद आ रहा था कि कैसे उन्हें और प्रसाद जी को एक छोटी-सी बातचीत के लिए सस्पेंसन का मूंह देखना पड़ा। अब इसका टेप ले जाकर सुनाए तभी ना मानेंगे लोग।
‘जानते हो बुच्चन यह खबर जो हैं ना इसके पीछे कोई अखबार ही लगा हुआ है। नहीं तो फिर क्या बात है कि यही मंत्री लोग तो इनका हीरो हुआ करता था।‘ पान मूंह में चभर-चभर करते हुए बड़ा बाबू बोल रहे थे।
‘ऐसा आप कैसे कह सकते हैं ?’
‘हां बुच्चन, तुम भी तो यहां का सारा अखबार देख रहे हो। आखिर क्या बात है कि सभी इसको इस तरह नहीं छाप रहा है?’
‘सो तो मानेंगे। आप सही उचार रहे हैं बड़ा बाबू। लेकिन इसका मतलब थोड़े है कि अखबार ने ही खबर लांच किया है सीबीआई को टास्क पर लगाकर।
अरे भाई, ऐसे थोड़े ई सब काम होता है। पहले आशंका जाहिर करते हुए बड़ी-बड़ी खबर प्लांट करता है। फिर तरह-तरह की स्टोरी का सिरियल चलाता है। अब आप ही कहिए, आप कहीं ई सब देखे हैं, सिवाए ई वाला अखबार छो़ड़कर। इसके बाद तो अपने आप विभाग सक्रिय हो जाता है।‘
‘जब ऐसा बात है ना, तब तो देखना जरूर भंडाफोड़ होब्बे करेगा कि कैसे कोई डील लटक जाने के कारण अखबार इन लोग को बलि का बकरा बनाया है। पूरे राज्य में खाली ईहे लोग बेईमान है का?’
इस बीच तीसरा पत्रकार टाईप युवा उसी बातचीत में मुंह घुसेड़कर लटक जाता है। भीड़भरी चलती बस में जगह नहीं रहने पर कंडक्टर के मना करने पर भी इसी तरह जिद्दी लोग गेट पर लटक जाते हैं। वह मुंहाने पर ही फटफट बोलने लगता है – ‘सो तो है ही। और ई सबका किस्सा जानना है, पढ़ना है तो इंटरनेट पर जाकर सड़ास और गली-मोहल्ला को देखिए। पूरे देश में अखबार में जो भी मां-बेटी होता है, या कोई इधऱ से उधर होता है, सब के पेशाब-पाखाना की खबर उसमें देखिएगा।‘
‘अच्छा तो सो है !!’
2004-05 की बात होगी। सिंदरी के प्रसिद्ध पब्लिक स्कूल में एक शिक्षिका या छात्रा के शारीरिक शोषण के मामले में वहां के प्राचार्य थाना-पुलिस के फेरे में पड़ गए। रोज एक किस्सा छपता। किसी में पीडि़ता के पक्ष में तो किसी में स्कूल की साख बचाने को लेकर स्टोरी। और कोई चालबाजी करके ‘शिक्षामंदिरों में बढ़ते पेशेवराना रुख’ पर परिचर्चा आयोजितकरता। इसी स्कूल में यहां के जनधर्मी अखबार ने एक इवेंट किया। शाम को इवेंट मैनेजर संपादकीय केबिन में हांफते-हांफते आकर समाचार प्रभारी से बोलता है – ‘सार जी, इस खोबोर को थोड़ा ठीक जगह दिला दीजिएगा। सर्कुलेशन प्रोमोशन का इवेंट था। पीसीसी वालों ने किया है।‘ प्रभारी बोलता – हड़बड़ाने की क्या बात। आराम से बैठिए। चाय पीजिए। गोकुल चाय लाओ, साहब को चाय पिलाओ।
खी-खी-खी करते इवेंट मैनेजर कहता – सर, इसकी क्या जरूरत ?
पुड़िया खोलकर मुंह में पान की गिलौरी लेते हुए टेबल के नीचे पड़ी डस्टबिन को पैर से खीचकर बाहर लाया और उसमें पुड़िया डालकर उसे टेबल के नीचे ठेल दिया। समाचार प्रभारी ने फुले गाल से कहा – हौं., तो मुहूर्त निकौलकर तो औप हमौरे मौहल्ले में औए हैं। ओइसे कोइसे चलेगा!
अब आग्रह का दबाव था या पिक पड़ जाने का डर। बड़े सधे अंदाज में बैठ गया वह। लगता कि सामने वाले पर पिक पड़ जाएगा। पर सधे अंदाज में मुंह को ऊपर उठाकर कहा –‘हौं, हौं तो कौsहिएss, क्यौs कौह रोहे थे। इवौंट-विवौंट, क्यौss तो...’
मैनेजर ने फिर दुहराई अपनी बात।
लहजा था तो अनुरोध का, पर प्रभारी को लगा कि पोस्ट की हायरआर्की, आफिस का प्रोटोकाल, न्यूज मेकेनिज्म सबकी चिंदी उड़ रही है- संपादकीय विभाग से जुड़ा हुआ मामला और तय करेंगे मार्केट के लोग ! उसने मुंह को गोल-गोल करके थुथुन ऊपर कर पिक को संभालते हुए पूछा – ‘औपको इवौंट करनौ ही थौ तौ पौहले संपौदकीय से बौत तौss कौर लेते। रिपौटर दे दियौ जौता, फौटौग्रौफर चलौ जौता।‘ उस मैनेजर ने कहा – ‘सार हम लोगों ने आपको इस परेशानी से बचाने के लिए ही अपने स्तर से सबकुछ मैनेज कर लिया। बस्स, देखलीजिए।‘ अब क्या था। माथा तो भिन्ना गया।
अब तक पान का कचूमर निकल चुका था। फिर डस्टबिन पैर से खीचा और फिच्च से मार दी मुंह की पिचकारी। अब दोनों ओर थोड़ी राहत थी। मैनेजर थोड़ी अधिक राहत में था। समाचार प्रभारी ने मैनेजर से कहा – ‘दादा, ऐसा है कि उस स्कूल की जिला भर में भद्द पिट रही है। आप भी देख रहे हैं कि अखबारों में वह इन दिनों रंग गया है। बेहद बदनाम हुए उस स्कूल को इवेंट के लिए चुनने से पहले पूछ तो लेते। एक से एक जगह मिल जाती। आप वहां इवेंट करते। एक पन्ने पर स्कूल में जलसा करें और उसी पन्ने में या बगल के पन्ने में उसे खलनायक बनाकर खबर छापें तो पाठकों के पास क्या मैसेज जाएगा।‘ आखिरकार उसने यह खबर नहीं छापी तो नहीं छापी। उसने संपादक से सारा माजरा फोन पर बताया। संपादक ने कहा – हां, ठीक किया आपने। स्साले लोग को दिमाग है? होटल की खाता-बही करते-करते कहां से तो अखबार की मैनेजरी मिल गई। अब उसी दिमाग से काम करेंगे ना। ठीक है प्रसाद जी। कोई और परेशानी नहीं न ? हेड आफिस से फोन आए तो कह दीजिएगा, तबियत ठीक नहीं चल रही है। बाहर गए हैं इलाज में। बहुत बढ़िया चला रहे हैं आप अखबार। बेफिकर रहिए।
अपने हिसाब से उसने जो किया और जिन कारणों से किया, कल को यहां से लेकर मुख्यालय तक के किसी ने उससे जवाब तलब नहीं किया। लगा कि सचमुच संपादक तो बहुत बड़ी पूंछ वाला है। पहले से ही बड़ी उसकी नाक और दो इंच ऊपर हो गई। बात आई-गई हो गई। वह इन सबसे बेहैफ अपनी रौ में काम करता रहा। इस बीच एक आईटीआई के फर्जीबाड़े की खबर शहर के अखबारों में लहराई हुई थी। छात्रों की परीक्षा नहीं ली जा सकी थी। प्रमाणपत्र फर्जी पाए गए थे। सभी अखबारों ने प्रमुखता से इसे अपने-अपने अखबारों में जगह दी और इस अखबार ने भी। और इस बीच उसके संपादक ने अपने संरक्षण की किसी मैगजीन को उस संस्थान से एक लाख का विज्ञापन दिलवा दिया। इसके बदले में अपने अखबार में उसके पाप धो डालनेवाली एक मोटिवेशनल खबर प्राचार्य से इंटरव्यू की शक्ल में छापी गई। छात्रों के भविष्य से खिलवाड़ करनेवाले उसी संस्थान के बारे में बड़ी-बड़ी बातें। बड़े-बड़े दावे किए गए थे। प्रसाद जी के जिन हाथों ने इवेंट की खबर रोकी थी, उन्हीं हाथों ने अखबार के पन्ने पर उस खबर को संवारकर छापा। यहां कौन सा व्याकरण काम कर रहा था ? वह बेखबर था इन सब चीजों से !!
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