Tapte Jeth me Gulmohar Jaisa - 3 in Hindi Fiction Stories by Sapna Singh books and stories PDF | तपते जेठ मे गुलमोहर जैसा - 3

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तपते जेठ मे गुलमोहर जैसा - 3

तपते जेठ मे गुलमोहर जैसा

सपना सिंह

(3)

उन्होंने तैयार होते हुए शीशे मंे खुद को देखा है......

कितने कमजोर हो गये हैं.... आप। अपना अच्छे से ख्याल नहीं रखते.....? लगा अप्पी की आवाज है ये......पता नहीं कब से ऐसा होने लगा है वो अपने आप को अप्पी की नजर से देखने लगे हैं कोई कैसे अनुपस्थित रहते हुए भी हरदम उपस्थित रहता है।

वक्त भी न कभी कितनी तेजी से गुजरता है..... और कभी गुजरता ही नहीं। उन दिनोें कितने व्यस्त हुआ करतें थे वो हाॅस्पिटल ...मरीज...... जीवन इन्हीं में उलझा... कभी अप्पी फोन करती.....वो व्यस्त होते अपने मरीजों में...... फुरसत पाते ही काॅल बैक करने की बात करते......पर दिन खत्म हो जाता वह काॅल बैक नहीं करते...... अक्सर देर रात सोनेे जाते समय एक कचोट उठती नहीं, ये कचोट किसी अपराध बोध की उपज नहीं होती..... बरस यूॅँ ही...... अगला दिन फिर वही व्यस्तता भरा।

कभी वो अफसोस करते .... बात न कर पाने का......तो अप्पी उनके अफसोस को हवा में उड़ा देती, हमें पता है डाॅक्टर आप दुनिया का सबसे अच्छा काम कर रहे हो..... जाॅब सटिस्फेक्शन सबसे ज्यादा इसी पेशे में तो है..... कितने लोंगो की दुआयें मिलती हैं हर रोज. ।

कहाँॅ रह गया हैं अब वो जाॅब सटिस्फेक्शन। कैसी मकैनिकल होती जा रही है चिकित्सा की दुनियां...... सेवा कर्म से व्यवसाय में तब्दील होती हुई। शायद अभी शिक्षा प्राप्त कर रहे मेडिकल स्टूडेंटो में या फिर रेजिडेंट डाॅक्टरों में वे डेडिकेशन हो अपने काम के प्र्रति.....। ग्यारह बारह साल की पढ़ाई और उसके बाद अगर प्रायवेट काम शुरू किया तो जमने का प्रेशर। अगर पहले से माॅँ बाप इसी पेशे में है...... अपना नर्सिग होम है तो बच्चों को डाॅक्टर बनाना ऐसे परिवारांे का ऐजेन्डा होता है। उनकी विरासत को सभंालने वाला कोई तो हो। अन्यथा इतने वर्ष लगाकर रात दिन एक करके जो डाॅक्टर बनता है ...... वह चन्द रूपयों की सरकारी नौकरी में कतई संतुष्ट नही होता...... अब वो जमाना नही रहा कि डाॅक्टर ने एक कमरे में मेज कुर्सी रखी हरा पर्दा लगाया...... कुछ रंग बिरंगी शीशियाँ रख ली, गले मे आला और प्रिश्क्रीपशन पैड..... एक कम्पाउन्डर काम चल गया ......। अब तो दुनिया भर के इंस्टूªमेन्ट चाहिए। नब्ज पकड़कर मर्ज बताने का रिवाज कब का खप गया अब तो पहले टेस्ट होते हैं जिनके लिए पैथालाॅजी सेन्टर से डाॅक्टर से कट सेट होते हैं। मरीजों को ज्यादातर डाॅक्टर दवायें भी उपलब्ध करवातें हैं। उनका ही कोई भाई बन्धु क्लीनिक में या उसके अलग बगल मेडिकल स्टोर खोले रहता है।

जिन डाॅक्टरों ने प्रायवेट हाॅस्पिटल या डायग्नोसिस सेन्टर बनवाया है उनकी तो और फजीहत है करोडों की मशीने यूॅँ ही तो नहीं आ जाती, लोन लेना पड़ता है और फिर लोन की किस्तें भरनी पडती हैं.....ऐसे में चैरिटी कैसे मुमकिन है।

अप्पी ने एक बार सुविज्ञ से पूछा था डाॅक्टर आपके इस हाॅस्पिटल में गरीब मरीज तो दिखते ही नही..... जबाव सुविज्ञ ने नहीं बेटे तपन ने दिया था...... आॅन्टी कैसे दिखेगें। वो अफोर्ड ही नहीं कर सकते न। हमारा हाॅस्पिटल लखनऊ के टाॅप के हाॅस्पिटल में आ जायेगा कुछ दिनो में ..... आप देखियेगा फाइव स्टार होटल के सुइट जैसी सुविधा हम देते हैं अपने मरीजों को । अप्पी चुपचाप सुन रही थी एक डाॅक्टर के मुॅँह से एक परफेक्ट बिजनेस मैन की भाषा। बोलते बोलते अचानक तपन चुप हो गया था। वह अप्पी की बहुत इज्जत करता था..... उनको सेंट आंटी कहता.... अप्पी उसे बिल्कुल किसी संत जैसी ही लगती। वह जानता था उसने गलत व्यक्ति के समक्ष इन बातों को कहा। अप्पी इन बातों से प्रभावित नही होती। डाॅ0 सुविज्ञ के घर में सभी इस बात को जानतेें है। अप्पी के विशिष्ट मानवीय गुण बिना किसी विज्ञापन के सहज ही उजागर हो जाते हैं। पर इससे क्या..... किसी से प्रभावित होने..... उसकी इज्जत करने का मतलब ये कतई नही होता.. कि आप उस जैसे हो रहें। अप्पी जैसा बेलौस, फकीराना मिजाज चाह कर भी क्या पाया जा सकता हैं.....।

आदमी का जोर न स्वयं पर रह पाता है न परिस्थितियों पर.....डाॅँ गौड बहुत काबिल सर्जन थे...... पर उन्होंने कभी चैरिटी नही की। मैनेजमेन्ट कुछ ऐसा रहा कि उन्हें ओ.टी. मे अपना काम करने से वास्ता। पैसों की डिलिंग उन्होने कभी स्वयं नहीं की। आॅपरेशन टेबिल पर लेटा मरीज किस स्तर का है... उसने उनकी फीस चुकाने के लिए क्या क्या पापड़ बेले हैं .....उसके परिवार ने उसके इलाज के लिए क्या कैसा संघर्ष किया है...ये बातें उन तक नही पहुंचती थी..... हाॅँ उनका पूरा कंसनटंªेशन सिर्फ अपने पेशेन्ट की बीमारी पर होता...... उन्हें ये भी पता होता कि उन्हे उनकी तयशुदा फीस मिल चुकी है।

और अब ये उनका हाॅस्पिटल बेटा बहू दोनों इसे संभाल रहे हैं... अच्छा चला रहेें हैै। स्वयं वे पार्किसन की बजह से सर्जरी नही कर पाते। पर अपने चेम्बर में नियमित रूप से मरीज देखते हैं। फीस भी उनकी अनुभव और उम्र के हिसाब से बढ़ी है..... हां उम्र तो जैसे सारी गुजर ही गई..... सबकी गुजरती है पर अब रह- रह कर गहरी साँस लेनी पड़ती है उनको .... मानो सीने पर भारी सा कुछ रखा हो...... नहीं, रूपये पैसे का लेन देन तो उन्होंने किसी से बाकी नहीं रखा..... पर भावनाओं का लेन देन बाकी रह जायेगा लगता है। काश...... ये भी क्लीयर हो जाता। पर कुछ कर्जे कभी नहीं चुकते.....

मुझे नहीं चाहिए मोक्ष....फिर मुझे फिर आना है.... इसी काया में, ऐसे ही..... और आप को भी आना होगा..... मैं एक पूरा जीवन आपके साथ जीना चाहती हूॅँ..... यही इसी प्लेनेट पर...... जब तक मेरी ये इच्छा बाकी है..... मेरी गति नही होगी...... वह गहरी साँस लेकर अपनी हथेलियों को देखने लगते हैं..... ईश्वर ने उसेे उनकी किस्मत में कैसे बेतुके ढंग से नत्थी किया...... हाथों की लकीरों में वो नहीं है...... पर बिना उसके अपना बजूद उन्हे भुरभुरी मिट्ठी के समान क्यों लगता है? कैसे असंभव से तरीके से आयी थ़ी वो उनकी जिन्दंगी में..... और फिर कभी गई ही नहीं..... टिक गई..... बिना उनके चाहे .... बिना किस्मत के चाहे.....और शायद बिना ईश्वर के चाहे..... सिर्फ अपनी चाह..... अपनी जिद लिए वह टिक गई.....।

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