Him Sparsh - 40 in Hindi Fiction Stories by Vrajesh Shashikant Dave books and stories PDF | हिम स्पर्श - 40

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हिम स्पर्श - 40

40

वफ़ाई चित्रकारी के अभ्यास में व्यस्त थी। जीत क्या करूँ क्या ना करूँ की दुविधा में झूले पर बैठा था।

लाल, गुलाबी, नारंगी भाव जो जीत ने वफ़ाई के मुख पर देखे थे उसने जीत के मन पर नियंत्रण कर लिया था। जीत उस से मुक्त होने का प्रयास करता रहता, विफल होता रहा।

सब कुछ छोड़ दूँ। कुछ भी विचार ना करूँ। कुछ भी ना करूँ। खाली हो जाऊं। शून्यता में विलीन हो जाऊं।

जीत संघर्ष करता रहा। वह गगन के किसी बिन्दु में विलीन हो गया। बादल, तारें, पंखी, हवा, रंग, इंद्रधनुष, सब कुछ था वहीं। इन सब के बीच था जीत। वफ़ाई भी थी वहीं। जीत ने आँखों पर हथेली रख दी।

जब आँखें खोली तब वफ़ाई वहाँ नहीं थी। इंद्रधनुष, रंग, तारें, पंखी, हवा, एक एक करके सब अलोप हो गए। वहाँ गगन था बाकी कुछ भी नहीं। उसने गगन को पकड़ना चाहा, विफल रहा।

गगन का आकार नहीं होता। कद नहीं होता, भार नहीं होता। अत: गगन का अस्तित्व नहीं होता। गगन होता भी है क्या? अथवा कोई भ्रमणा है? गगन होता ही नहीं है, अन्यथा मैं उसे पकड़ पाता, मेरी हथेली में उसे जकड़ सकता, मुट्ठी में बंध कर पाता, किन्तु मैं नहीं कर पाता हूँ। गगन का अस्तित्व नहीं होता...।

जीत ने गगन को आलिंगन देने के लिए अपने हाथों को पसार दिया। गगन कुछ कदम पीछे हट गया, दूर हो गया। पुन: पुन: जीत प्रयास करने लगा, गगन से आलिंगन करने को। जीत विफल रहा।

निश्चित ही यह एक भ्रमणा ही है। गगन एक भ्रमणा है, भ्रमणा ही है...। जीत बोले जा रहा था।

वफ़ाई ने जीत के शब्द सुने, वह जीत के समीप गई। वफ़ाई के हाथ से तूलिका गिर गई, किन्तु वफ़ाई उससे बेध्यान थी।

वफ़ाई ने झूले को रोक दिया। जीत की कल्पना टूट गई। एक झटके से जीत भ्रमणा के प्रदेश से वास्तविक देश में लौट आया। जीत को यह देश अपरिचित सा लगा।

“हे प्रभु, जीत किस जगत में चला जाता है। जीत, तुम तुम्हारी कल्पना के जगत में, सपनों के विश्व में बार बार क्यों चले जाते हो? याद रखो कि तुम जिस प्रदेश में चले जाते हो वह सब भ्रांति है, मिथ्या है, मोह है। यह जगत ही सत्य है।“

“सत्य जगत, मोह, माया, मिथ्या, भ्रांति, कौन जानता है कि कौन सा जगत सत्य है और कौन सा भ्रांति? मुझे दोनों विश्व पसंद है, दोनों मुझे आकृष्ट करते हैं, दोनों बुलाते हैं, दोनों आमंत्रित करते हैं, दोनों आलिंगन दे रहे हैं। कभी कभी वह मेरे में विलीन हो जाते हैं जो मेरे अस्तित्व को छिन्न भिन्न कर जाते हैं। मुझे रेत में मिला देते हैं। रेत का एक ऐसा कण, जिसका इस विराट जगत में कोई अस्तित्व नहीं है।“ जीत ने रेत के एक कण को हाथ में उठा लिया,” इस कण की भांति। वफ़ाई तुम जानती हो? मैं रेत बनता जा रहा हूँ, दिन प्रति दिन, घंटे प्रति घंटे, क्षण प्रति क्षण। शीघ्र ही मैं इस कण की भांति हो जाऊंगा। यह रेत का कण, यही सत्य है। इस के विषय में कोई भ्रांति नहीं है, यह मिथ्या नहीं है।“ जीत हंसने लगा। वह स्मित सहज नहीं था, विचित्र था।

वफ़ाई जीत का यह नया अवतार समझ ना सकी।

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चित्रकारी करते करते जीत कुछ क्षण के लिए रुका। उसने देखा कि वफ़ाई भी चित्रकारी में व्यस्त थी। उसने वफ़ाई को मस्तिष्क से पैर तक देखा। पहली बार जीत वफ़ाई को भिन्न अनुराग से, भिन्न अभिगम से, भिन्न धारणा से, भिन्न भाव से देख रहा था। जीत ने इस अनुभव को समझने का प्रयास किया। उसके हृदय में स्नेह उभर आया। उसने स्वयं से कहा,”यह नई बात नहीं है। यह तो पहले भी हुआ था। किन्तु कहाँ? कब? किसके लिए?”

जीत को याद आया, हाँ वह तो उस यौवना के लिए था, एक साँवली सी सुंदर युवती।

नहीं, नहीं। कभी नहीं। उन दिवसों में मत सरक जाना। वह दिवस व्यतीत हो गए हैं। मैं वर्तमान में हूँ। लौट आओ, लौट आओ इस मरुभूमि में जहां तुम वफ़ाई के साथ हो। उन स्मरणों को वहीं छोड़ दो। हृदय के इस कक्ष के द्वार बंध कर दो जिसमें यह सब कैद है।

जीत भूतकाल से बच निकला। समय के उस बिन्दु से भाग आया वर्तमान में, वफ़ाई के सामने।

वफ़ाई! वफ़ाई को ज्ञात नहीं था की जीत उसे देख रहा है, अनिमेष द्रष्टि से।

वफ़ाई, एक यौवना। जीत उसे निहारने लगा।

खुल्ले, मध्धम लंबे, काले, घने, सीधे बाल वफ़ाई के माथे पर चमक रहे हैं। उसके ऊपर पड़ती सूर्य की किरणें उन बालों को जीवंत बना रही है। क्या यह वर्षा से भरे काले बादल है?

नहीं, बाल तो बाल होते हैं। बाल कभी बादल नहीं होते। कवि, लेखक एवं कहानीकार किसी युवती के बालों को बादल की उपमा क्यों देते होंगे? काले बादल में तो वर्षा भरी होती है। किन्तु युवती के बालों में वर्षा कहाँ? बालों में आकर्षण होता है, वर्षा नहीं।

बिना पानी के बादल तो सफ़ेद होते हैं और सफ़ेद बाल तो युवती के नहीं किसी वृद्धधा के होते हैं।

वफ़ाई तो वृद्धधा नहीं युवा है।

यदि युवती के बालों को कोई उपमा देनी ही हो तो उन लोगों को कोई नयी उपमा खोजनी होगी। जैसे... जैसे...।

कोई उपमा नहीं सूझ रही। छोड़ो, मैं कहाँ कवि हूँ? मैं तो बस देखता रहूँ इन बालों को।

काले सीधे बालों में अनेक घुमावदार लटें भी है। सभी लटें कान के पीछे ही क्यों है? वो लट थोड़ी छोटी है, वह कान के पीछे जाने को तैयार नहीं लगती। जब जब हवा की नटखट लहर उस लट को उडाती हुई गालों तक ले जाती है तब तब वफ़ाई तुम उसे अपनी उँगलियों से पकड़कर कान के पीछे रख देती हो। किन्तु शीघ्र ही वह लट कान के पीछे से निकल आती है। क्या वह लट जिद्दी है? जिद्दी लट है नटखट किन्तु रसप्रद। आँखों के सामने जाकर यह लट क्या करती होगी? यहाँ से तो वफ़ाई की पूरी आँखें नहीं दिख रही। हाँ दाहिनी आँख का थोड़ा कोना दिख रहा है। खींचे हुए किसी तीर जैसी आँखें। घुमावदार आँखें, तीक्ष्ण आँखें। किसी चाकू जैसी धारदार आँखें। कवियों को यह उपमा रखनी चाहिए, किसी युवती की आँखों के लिए।

वफ़ाई, वैसे तो मैंने तुम्हारी आँखें अनेक बार देखि है किन्तु मुझे ज्ञात नहीं कि वह कैसी दिख रही है। वह बड़ी है अथवा छोटी? काली है अथवा नीली? किसी सागर की भांति गहरी है? क्या वह सुंदर है? क्या वह घातक है? कैसी है यह आँखें? अनेक बार देखि है तुम्हारी आँखें किन्तु, एक बार पुन: देखनी है तुम्हारी आँखें मुझे।

इस बार ध्यान से देखुंगा, सदैव याद रखूँगा। बस एक बार देख लूँ। इस बार चूक नहीं करूंगा।

जीत, तुम वफ़ाई से प्रीत नहीं करते इस किए चूक गए हो।

बंध करो यह सब। कितना बालिश विचार करते हो तुम। मैं कोई प्रीत ब्रित नहीं करता।

तो उन आँखों में इतनी रुचि क्यों ले रहे हो? क्यों उन आँखों को याद रखना चाहते हो? एक बार पुन: उन आँखों को क्यों देखना चाहते हो?

मैं तुम्हारे सभी विचारों से असहमत हूँ, तथापि उनकी आँखों को देखने की इच्छा रखता हूँ।

तुम वास्तविकता से भाग रहे हो, तुम स्वयं से भाग रहे हो।

यह तुम्हारी चिंता का विषय नहीं है। मैं केवल उसकी आँखें देखना चाहता हूँ, उसकी आँखों में देखना चाहता हूँ। बस इतनी सी बात है, सुना तुमने, ओ मेरे अन्तर्मन। अब तुम जाओ यहाँ से।

जीत, तुमने मुझे दुखी किया है। किन्तु मैं तुम्हारा साथ नहीं छोड़ूँगा। तुम्हें मेरी आवश्यकता है। मैं नहीं जाऊंगा, यहीं रहूँगा, मौन रहकर। समय आने पर तुम्हें रोक भी लूँगा।

तुम यहीं रहो मेरे प्रतिबिंब। मैं तो चला वफ़ाई के सामने जहां से मैं उसकी आँखें देख सकूँ।

किन्तु वह ठीक नहीं होगा। यह अविवेक है।

तो क्या? मैं तो देखुंगा उन आँखों को।

तुम विद्रोह कर रहे हो, जीत।

क्यों? कैसे? किसके सामने?

तुम मेरी बातों को नहीं मान रहे हो। तुम मुझ से विद्रोह कर रहे हो, तुम्हारी ही आत्मा से, तुम्हारे ही अन्तर्मन से। तूम स्वयम से ही विद्रोह कर रहे हो।

यह सब से मेरा कोई संबंध नहीं। मुझे बस इतना ज्ञात है की मैं उसकी आँखें देखना चाहता हूँ और उसके लिए मैं कुछ भी करूंगा।

जीत ने वफ़ाई की तरफ बढ़ने के लिए प्रथम कदम उठाया। जीत दूसरा कदम उठाता उससे पहले वफ़ाई जीत की तरफ घूमी।

वफ़ाई की आँखें जीत के सामने थी जिसे देखने की जीत के मन में तीव्र अभिलाषा थी। जीत स्तब्ध

हो गया, रुक गया। उसका उठा हुआ कदम अधूरा रह गया। बांया पैर हवा में अटक गया। जीत के दोनों हाथ हवा में थे, खुले हुए।

मूर्ति की भांति जीत इसी मुद्रा में स्थिर हो गया। उसकी आँखें वफ़ाई की आँखों पर स्थिर थी।

“जीत इस मुद्रा में क्यों है?” वफ़ाई ने जीत को ऊपर से नीचे तक देखा। जीत चोरी करते पकड़े गए चोर की भांति लज्जित हो गया। उसने आँखें झुका दी।

“जीत, क्या कर रहे हो? तुम क्या और कहाँ देख रहे थे?“

जीत कुछ कहना चाहता था किन्तु कह नहीं सका। वह अभी भी उसी लटकती मुद्रा में था।

“वाह। कितनी अनुपम मुद्रा में हो तुम, जीत। मैं इस मुद्रा का चित्र रचूँगी। उस चित्र को नाम दूँगी। नाम होगा ‘एक अपूर्ण कदम’। कैसा रहेगा श्रीमान चित्रकार?”

जीत अभी भी उसी मुद्रा में स्थिर था। उसे समझ नहीं आ रहा था कि क्या किया जय अत: वह वैसे ही खड़ा रहा।

वफ़ाई खुलकर हंस पड़ी।

“जब मैं ‘एक अपूर्ण कदम’ नामक मेरा चित्र रचूँ, तब तुम इसी मुद्रा में खड़े रहोगे? मुझे मेरे चित्र के लिए जीवित प्रतीक मिल गया।” वफ़ाई जीत के समीप गई। जीत भयभीत हो गया, स्थिर सा खड़ा रहा। उसके हृदय की गति तीव्र हो गई।

व्रजेश दवे