काश आप कमीने होते !
उमानाथ लाल दास
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दुबारा शाम को भी सिन्हा जी उसी का प्रवचन सुनते हुए दफ्तर जाते। अखबार के दफ्तर में पांव पड़ते ही, दस मौडम और पांच ब्यूरो के फोन कान को चैन ही नहीं लेने देते। मुख्यालय के साथ वीडियो कांफ्रेंसिंग, डे प्लानर के हिसाब से आई खबरों की पड़ताल, डेस्क पर आई खबरों की स्टोरी लाईन, फिर कापी राइटिंग, वैल्यू एडीशन। ओहदा बढ़ने पर भी रोज कम से दो-तीन खबरों की कापी राइटिंग वह जरूर करते। जबकि इसकी जरूरत रह नही गई थी। जिम्मेवारी काफी बढ़ गई थी। इंटरनेट संस्करण के लिए खबर देना। खबरों को पढ़ने, संपादित करने के लिए बांटना। सेंट्रल डेस्क के काल्स पर ‘सर-सर’ करना सो अलग। इन सबके बीच खबरों को सूंघते रहना। किसी खबर के जरिए कोई खिचड़ी तो नहीं पकाई जारही। बावजूद इसके रात एक-डेढ़ बजे जब सब काम से निवृत्त होने लगते ; सभी अपनी टिफीन-बैग उठाने लगते ; कोई देखने के बहाने लिया हुआ अखबार समेटने लगता, तो वह मेज पर मगजपच्ची करने बैठ जाते। सर्वर के बंद होने से घनघनाहट मे कमी हो जाती। छपाई का भी शोर जैसे तब तक थम जाता। रात के सन्नाटे में विचार और घटनाओं की रफ्तार और आवाजाही सुगम हो जाती। इसी माहौल में दो-चार बार उसने इस स्टोरी को लिखने की जद्दोजहद भी की। यह वह समय था जब प्रेस पूरी तरह से कागज से होते हुए कंप्यूटर पर आ चुका था। डेस्क पर काम करनेवालों को अपने डेस्क पर कंप्यूटर मिल गया था। सभी की अपनी लागिंग थी। जो भी काम करते कंप्यूटर पर करते। बड़ी से बड़ी खबर पलक झपकते बनाने के लिए सिन्हा जी मशहूर थे। हेडिंग के मास्टर और स्टोरी लाईन तय करने में तो कोई उन्हें छू भी नहीं पाता। लेकिन इस स्टोरी को बनाने जब भी बैठते, सिर्फ इंट्रो बनाने में दो-तीन कागज फाड़ने पड़ते। सर्वर बंद हो चुकने के बाद करीब-करीब कंप्यूटर डिलिंक हो गया होता है तब तक। इसलिए सिन्हा जी इस वक्त कागज पर ही लिखने बैठते। उनके हिसाब से बेहद रोमांचक इंट्रो की मांग थी इस स्टोरी में। फिर स्टोरी की बाडी में आते और बेहद मानवीय और करुण शक्ल अख्तियार करती खबर बढ़ती जाती। शराब, व्यसन, तानाशाही, शोषण। सीलन भरे कमरे का जीवन। टूटते घर, मां की असहायता। छिनते बचपन, आदि-आदि। स्कूल के बजाए खेतों, बगानों में घूमना। धीरे-धीरे सवालों की बौछार और चीत्कार करती रिपोर्ट की लाईनें, धड़ाम-धड़ाम एक दूसरे पर गिरने लगतीं। लगता कि आसमान की चौकी पर बैठे जमीन की छत को निहार रहे हैं। और तारों की तरह सारे अक्षर बिखर जाते। चश्मे का कोई पावर काम न आता। पता नहीं चलता कि कागज उलटा है या वे ही उलट कर बैठ गए हैं। चश्मा निकाल कर बार-बार रूमाल से साफ करते, पर सब कुछ तब तक धुंधला-धुंधला हो चुका था। उनका सर चकरा जाता। और फिर कितने पन्ने फटते नहीं मालूम ! माथा ठनक जाता यह सोचकर कि स्टोरी तो मान लो छप जाएगी।कितने दिनों टालेंगे ? वे नहीं लिखते तो कोई ना कोई तो लिख ही सकता है। और स्टोरी की सफलता के तौर पर मान लो कि कार्रवाई भी हो गई। आजकल तो जबरन छोटी-मोटीखबर से, खबरहीन खबर से दबाव बनाकर कर्मी को दंडित कराकर ही नए पत्रकार दम लेते हैं। बार-बार बास को फोन कर फालो अप लेते। ‘हां तो, सर क्या हुआ उस औचक निरीक्षण के मामले में ?’ ‘कल वाली खबर में आपने क्या कार्रवाई की, थोड़ा बताइए ना ?’ रिपोर्टर के कान तो सिर्फ कार्रवाई सुनने के लिए बने हैं। अब अधिकारी भी क्या करे। कार्रवाई न करे तो कल के अखबार में हेडिंग छपती है – ‘किरानी कानून से ऊपर, बास भी भरते हैं पानी’, ‘एक किरानी ऐसा जिसके सामने घिघियाते हैं बास’। न जाने कैसी-कैसी खबरें, कैसे तो कैसे छपजाती है।
मसला लंबा खिचा तो डीसी की निगाह का उस पर जाने का डर। राजधानी से रोज किसी न किसी मंत्री का पदार्पण यहां के लिए आम बात थी। कभी किसी नाली-शौचालय या किसी चापाकल या पार्लर का उदघाटन करने या फिर हत्या के किसी खूंखार अभियुक्त के यहां आयोजित महामृत्युंजय यज्ञ, नवाह पारायण आदि निजी आयोजनों में शिरकत करने। नही हुआ तो लूट-मार के किसी चहेते आरोपी के घर ही मुंहझुट्ठी में आ टपकते। इस छोटे से राज्य में सत्ता के समीकरण में अपनी गोटी फिट करना किसी के लिए बड़ी बात नहीं रही अब। ऐसा लगता कि जिसकी इच्छा नहीं थी वही एमएलए नहीं बना है। सन दो हजार के आसपास तो बारह बजे, एक बजे रात में हाजिर देखा है उसने मेज दा नामधारी नेता को। देर रात तक चले कार्यक्रम से संबंधित फ्लापी और रिलीज लेकर मेज दा सिटी आफिस पधारे रहते। उनका खस्सी-भात का सालाना जलसा किसी पत्रकार को भूलता नहीं। साथ में सूट का कपड़ा भी होता। यह जैसे रस्म हो चुका था यहां के पत्रकारों के लिए। जो नहीं पहुंच पाते, उनका सूट घर पहुंच जाता। सभी प्रमुखता से छापते उनकी खबरों को। कहते हैं कि वे भी मंत्री बन गए हैं। मंत्री बनने से पहले मेज दा के लिए जन समागम आम बात थी। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आपकी पार्टी के खाते में दो एमएलए हैं या बीस। 80 एमएलए के प्रांत में बीस एमएलए वाली पार्टी विपक्ष में बैठ सकती है और दो एमएलए वाली पार्टी सत्ता में हो सकती है। अब प्रदेश की सरकार का ही ढांचा देखिए ना। सत्ता के लिए राज्य में झामुमो एनडीए नीत सरकार में भाजपा के साथ शामिल है, पर केंद्र में वह यूपीए (कांग्रेस) के साथ है। झामुमो का यह निर्णय किसी ऐरे-गैरे का निर्णय नहीं है, झामुमो सुप्रीमो और आदिवासियों के सर्वमान्य सबसे बड़े नेता शिबू सोरेन यानी दिशोम गुरू का है। यानी शादी (राज्य में) किसी से हनीमून (केंद्र में) किसी से। जाने और आने के सारे रास्ते खुले रहें।कुछ भी संभव हो जाता है यहां। बीस एमएलए वाली पार्टी के लोग आलाकमान को कोसते-गालियां देते रहते- काश हम भी सरकार में होते ! अपने तो किसी न किसी बोर्ड या समिति में होगे ही, पर हम जैसों को कौन पूछता है ! जनता ने भले ही अपने स्तर से पार्टी के प्रति खीझ उतारी हो, उसे किनारे करने की कोशिश की हो, पर पार्टी और सियासी आका इसे मानें तब तो! माजसू की ही बात लीजिए, एमएलए दो हों या पांच, सरकार किसी की भी हो, उप-मुख्यमंत्री तो इसके आलाकमान स्वदेश मंडल को होना ही है। ‘अच्छे लोग, अच्छा समाज, अच्छीसोच’ यह टैग लाईन है पार्टी की। सही बात, इससे ‘अच्छी सोच’ क्या हो सकती है कि आप हमेशा सत्ता में बने रहने की सोचते हैं। चाहे जिस किसी की सरकार हो। जिला में किसी भी पार्टी का कोई राजनीतिक कार्यक्रम हो, तो देख लीजिए गली-नुक्कड़ों पर लौंडियाबाजी करते चेंगड़ा टाईप लोगों की पहुंच। और ऐसे मौकों के बाद प्रशासनिक हलके में उनकी तूतीबोलने लग जाती। यही रास्ता था जिससे होकर गोविंदपुर-बलियापुर के एक यादव नामधारी युवक ने एक आला प्रशासनिक अधिकारी तक अपनी पहुंच आसान बना ली थी। ठेकेदार हो या अधिकारी, नेता हो या व्यापारी ; उस अधिकारी तक पहुंचने के लिए सबसे आसान रास्ता था वह। उन दिनों सुर, सुरा और सुंदरी पहुंचाने का सबसे शार्टकट और सेफेस्ट रास्ता माना जाता था वह।
एक बार आईएएस श्रेणी के उस अधिकारी की बीवी तक किसी दूसरे चालबाज भेदिए ने समांतर पहुंच बना ली थी। उसका कोई काम उस यादव युवक के कारण अटक गया था। उस दिन से वह भेदिया उससे खार खाए बैठा था। मौके की ताक तो थी ही उसे। एक बार की बात है। साहब की पत्नी को जानकारी थी कि पति महोदय क्षेत्र में दौरे पर हैं, फिर वहीं से राजधानी चले जाना है। लेकिन भेदिया का तोता कुछ और ही बांच रहा था। मोंछ पिजाए भेदिया एक अच्छी फिल्म के बहाने मैडम को शहर के सबसे अच्छी सिनेमा हाल की सैर कराने ले गया।
घुप्प अंधकार। फुल एसी। फिल्म शुरू हो चुकी थी। परदे पर बारिश में रोमांस का सीन चल रहा था – शायद ‘राजा हिंदुस्तानी’ जैसी कोई फिल्म थी। बालकोनी में वे धप्प से सोफानुमा सीट पर बैठ गए थे। भेदिया बैठेगा क्या, वह न तो बैठा था और न ही खड़ा था। जी-हुजूरी की मुद्रा लगातार बनी थी। पूरी तैयारी थी मैडम की खातिरदारी के लिए। पहले से बोल दिया गया था। मिनरल वाटर की कुछ ठंडी बोतलें। चिप्स के कुछ पाऊच, फ्राई काजू के कुछ पैकेट, मधुलिका की ब्रांडेड मिठाई। सभी कुछ बगल में हाजिर। बार-बार आकर कभी मैनेजर तो कभी मालिक का बेटा, कोई न कोई हाल-चाल ले रहा था।– ‘मैडम, कोई दिक्कत तो नहीं?‘ ‘सबकुछ ठीक है ना ?’ तब तक वाकी-टाकी टाईप मोटरोला का मोबाईल आ चुका था। मैडम से मोबाईल लेकर साहब का नंबर डायल कर मैडम को देने लगा। फोन का स्पीकर दाबकर बोला – ‘देखिए ना, कैसे-कैसे तो साहब का फोन लग गया है। अब, कुछ तो बात कर लीजिए।‘
उधर से आवाज आई – ‘हां, बोलो। क्या बात है? ‘
मैडम क्या बोले कि मैं हाल से बोल रही हूं! बोली – ‘अभी कहां हैं आप ? ड्राइवर को थोड़ा भेज देते गाडी लेकर। आज टामी को इंजेक्शन दिलाने का डेट था।‘ टामी उनके प्यारे कुत्ते का नाम था। ऐसे जिन घरों में कुत्ते होते हैं वे बाल-बच्चे की तरह होते हैं और कारींदे तो बस्स उन कुत्तों के सेवक।
साहब – ‘अर्रर्रेर्रे..., स्सारी-स्सारी। मैं तो टामी को भूल ही गया था। चिंपू, सुनो अभी तो मै रांची के रास्ते मे हूं। बोकारो पार कर रहा हूं।... अच्छा ठीक है, किसी को गाड़ी के लिए कहकर देखता हूं।‘
मैडम – ‘ठीक है देखिए। नहीं हो तो, परेशान होने की जरूरत नहीं। छोड़ दीजिएगा। मै किसी को कहकर देखूंगी। डेट तो फेल नहीं होने देना है ना।‘
भेदिया सबकुछ सुन रहा था। कहा – ‘मैडम हो गई ना आपकी बात ? अब जाइए, सबसे अगली पांत वाली सीट पर जाकर देखिए तो कोई आपका इंतजार कर रहे हैं।‘ यह कहकर वह थोड़ी दूरी बना लेता है।
अंधेरे में टटोलते हुए आगे जाती है। पहुंचते ही मैडम की आंखें फटी रह गईं। मैडम की आंखें देखकर लगा कि इतने अच्छे मंजर में जाने कहां से बिजली ठनक गई– ‘अच्छा तो यह है रांची का रास्ता !’
बगल की कुर्सी पर एक तरफ यादव तो दूसरी तरफ एक सुंदरी। उसके बाद की अगल-बगल की तीन-तीन कुर्सियां खाली। अंग रक्षक पीछे की सीट पर। मैडम को लगा - इन्हें क्यों नहीं पहले ही देख सका। लेकिन देखती कैसे ! एक तो अंधकार, ऊपर से पीछे बैठी थी।
अब साहब को काटो तो खून नहीं। ठीक है कि हाल में अंधेरा है, पर साथ के लोग तो सब कुछ देख-सुन रहे हैं। अब बोलें तो क्या बोलें, क्या सुनें! सोचा आज तो मिट्टी पलीद हो गई। सकपका गए-‘---खी-खी-खी-खी, बहुत अच्छी फिल्म लगी थी। सोचा देखकर जाऊं।‘
जिधर से गुजर जाएं पूरा इलाका उनसे सकपकाने लगता था, आईएएस जो थे। लेकिन अभी तो वही मन ही मन हनुमान चालीसा पढ़ने लगे। सोचा, अभी चखा भी नहीं, बगल में बैठी सुंदरी का क्या करें! मैडम तो लगी वहीं झोंटा खींचने - ‘हरामजादी की बच्ची। कमीनी। तुम्हें और कोई घर नहीं मिला था रंडी।‘ उसी रौ में यादव की ओर बढ़ती है – ‘तो चले आए ना, आखिर अपनी औकात पर। अरे लड़ाई थी तुम लोगों की तो मेरा घर क्यों उजाड़ने लगे?’ और यह कहकर कालर पकड़ने दौड़ पड़ी। इतने पर वह यादव चिरौरी करने लगा।‘नही-नहीं, मैडम सो बात नहीं.....आप गलत समझ रही हैं। वह औरत कौन है, सर को क्या क्या मालूम। हम भी तो नहीं जानते इसे। ‘
उस औरत की ओर मुंह करके ‘अरे मांग ले माफी, बोल दे गलती हो गई। नहीं देख सकी थी अंधकार में। साहब को क्या मालूम !‘ वह औरत तो हक्का-बक्का देखती रह गई। कुछ समझती तब तक तो भू चाल ही आ गया।
मै़डम का गुस्सा तो सातवें आसमान पर। कुर्सी उठाकर लगी फेंकने। लगा कि यादव को कच्चा चबा जाएगी। बोली - ओSह्हो, तो अब अनजान स्त्री के पास आपके साहब जी बैठने लगे हैं। इत्ती ही औकात है आपके सर की। है नाSS ?
किसी तरह बीच-बचाव करके लोग घर आए। और तबसे किचन कैबिनेट के उस दलाल की वह पहुंच आज तक बरकरार है। अभी प्रांत के किसी बड़े घपले के सरताज बने निलंबित बैठे हैं जेल में वह आईएएस अधिकारी। वह यादव तो कब का मारा गया। सबै दिन रहत न एक समाना...
अब भला कौन रिस्क ले ऐसे राज्य के किसी रिपोर्टर को जवाब दर जवाब देने का। हाल तो यह है कि अब कोई प्रशासनिक अधिकारी छुटभैये नेता से मुंह तक नहीं लगाते। नहीं मालूम किस की पहुंच कहां तक है, ना जाने किस मीटिंग में उनका मसला उठा या उठवा दिया जाए। क्योंकि रिपोर्टर-नेता का चोली दामन का रिश्ता किसी से छिपा नहीं है। आखिरकार विभाग के अधिकारी सोचते और खबर से बनाए गए अभियुक्त से समझौता कर ही लेते – ‘चलो दो दिन के लिए बैठ जाओ, क्या जाता है। लो ये शो-काज। रख लेना अपनी फाईल या पेटी में, जहां मन करे। इससे कुछ होता-जाता थोड़े ही है। यदि हमने अभी कुछ नहीं किया, तो ना जाने कल किस मामले में कहां तक घसीट देंगे-लपेंटेंगे ये, कोई ठीक नहीं! और फिर तब अपने हाथ में कुछ भी नहीं बचेगा।‘ एक ही साथ धमकी भी, समझौता भी। ‘सिरी गुरु चरन सरोज रज से लेकर गीता प्रेस गोरखपुर’ तक एक सांस में। राहतका अदभुत हनुमान चालीसा ! कल को खबर छपती ‘खबर का इंपैक्ट’ के साथ। फिर तो रिपोर्टर शहर भर में जीत की दुंदुभी पीटता फिरता। दो दिनों तक सीना का बटन खुला मिले, कालर और बांह उठी हुई हो तो समझ जाइए कि वह शहर का स्टार रिपोर्टर है। अभी-अभी उसकी किसी न किसी खबर ने तहलका मचाई है। और ‘तहलका’ ? मत पूछिए उस‘तहलका’ की ! पावर सेक्टर के 25 हजार करोड़ रु के किसी घपले-घोटाले की खबर लेकर गुप्ता साहब करीब छह माह तक पीछे पड़े रहे। पटना-रांची से लेकर दिल्ली तक का चक्कर काट लिया। पहले तो उन लोगों ने छापने की बात कहकर सारे जरूरी दस्तावेज ले लिए। बाद में छापने के नाम पर टें बोल गए। हो सकता है खबर में कोई तकनीकी कमी हो। - इस पर गु्ता साहब कहते हैं – आखिर स्टिंग आपरेशन में जो माहिर हैं वे इतना तो कर ही सकते हैं कि तकनीकी कमी को पूरा कर लें। और पत्रकारिता करते हैं तो सारी खबर पूरी करके ही दे दें तो कौन सा तिसमार खां का काम कर लिया! और इस तरह अंत में जाकर किसी ‘नंदीग्राम डायरी’ वाले पुष्पराज ने ‘परदाफाश ब्लागस्पाट डाट काम’ बनाया और पूरी खबर उस पर पोस्ट कर दी। फिर कुलदीप नैयर और दूसरे दिग्गज लोगों ने उसके हवाले ‘खबर’ की खबर सुनाई दुनिया को।
एक दिन रात को ढाई-तीन बजे सिन्हा जी स्टेशन पर थे। अलग राज्य के आंदोलन के अगुआ नेता सनोद बाबू की प्रतिमा के पास। इस प्रांत में यदि किसी एक व्यक्ति की सर्वाधिक प्रतिमा लगी है तो वह सनोद बाबू की प्रतिमा है। सैकड़ों स्कूलों-कालेजों में या तो सीधे इनका जुड़ाव है या फिर मददगार के रूप में। लोग ना जाने क्यों प्रतिमा प्रेम के लिए मायावती को इतना बदनाम कर रहे हैं। सिन्हा जी रात या दिन में कई बार सनोद बाबू की इन प्रतिमाओं के माथे की उस चोट के निशान को खोजते जो उन्हें कभी किसी के लाठी प्रहार से लगी थी। दरअसल एक बार एक आदमी बोकारो से किसी केस के सिलसिले में यहां आया था। उसकी कोई बात पहले हो चुकी थी और उसी मामले में वह नाराज चल रहा था। उन दिनों सनोद बाबू की वकालत की चांदी थी। सनोद बाबू की सदाशयता कहिए कि उन्होंने उस आदिवासी पर कोई केस नहीं किया। किसी से कुछ बताया तक नहीं। कितने सदाशयी-सहिष्णु नेता! आज के सबसे बड़े आदिवासी नेता तब उनके गुमाश्ता हुआ करते थे। उनके कई कामों में बोकारो में स्टील कारखाना से विस्थापित हुए लोगों के केस लाने का काम भी शामिल था। प्रदेश के किसी भी लिक्खाड़ लेखक-पत्रकार ने इस प्रसंग को नहीं छुआ है। बाद में जाकर हो सकता है यह निराधार लगे। सो उन्हें आज तक सनोद बाबू की किसी भी प्रतिमा के माथे से उस दाग का गायब रहना समझ से परे लग रहा था। स्टेशन पर सिन्हा जी उसी मोड़ पर एक मोटर साईकिल को टेककर खड़े थे। एक पैर बाईक के स्टैंड पर और हाथ से हैंडल हिलाते-डुलाते खड़े थे। अगल- बगल में कुछ साथी पत्रकार थे। यह वक्त होता है पत्रकारों के घर लौटने का। लगभग पत्रकार रात के डेढ़ से ढाई बजे तक स्टेशन से निकल जाते हैं। फिर भी किसी न किसी को वहां ढाई-तीन बजे देखा जा सकता है। सिन्हा जी जहां होते वहीं जुनियर पत्रकारों की टोली आ जाती। टोली की ओर से नमस्ते-पाती के बाद सभी वहीं जुटने लगते। कोई कहता – ‘भैया, तो चाय हो जाए।‘ सिन्हा जी इन पत्रकारों की नई टोली को क्या कहते। पिंड छुड़ाने के लिए छोटू को कह देते– ‘छोटू तीन का पांच ले आना।‘ इस बीच छोटू ठंडे की बोतल में पानी ला चुका था। रिपोर्टरों के जमावड़े के बीच सिन्हा जी ने यूं ही पूछ डाला था – ‘अच्छा भाई, आज क्या खास रहा अपने अखबार में? ..’बात बढ़ाते हुए कहते - .’ एक बात बताओ, भाई अपनी छोटी-बड़ी खबरों के इंपैक्ट के लिए तो फालो अप की चिंता में विभाग को नाकों चने चबवा देते हो। लेकिन आज तक कभी कोशिश की है यह जानने की कि सीबीआई या इनकम टैक्स वाले जो रेड करने के बाद लंबी फेहरिश्त सुनाते हैं, दारू की भट्ठी में धमकते हैं, फैक्ट्री में धमकते हैं, कल को उस विभाग या अधिकारी का क्या होता है, भट्ठी का क्या होता है, फैक्ट्री का क्या होता है? कितनों में मामले दर्ज होते हैं और कितना यूं ही रफा-दफा हो जाता है?‘ कोई पत्रकार कह पड़ता – ‘आप भी तो भैय्या लगे एकदम्मे बनाने।‘ कोई चाय की खाली ग्लास नीचे फेंकते हुए कह पड़ता – ‘भैय्या को आफिस में आज कोई नहीं मिला होगा चाटने के लिए। आप भी तो जानते हैं वह फालो अप अपना मीटर बढ़ाने के लिए जरूरी है। अब तो हमारे यहां स्टोरी इंपैक्ट को लेकर प्राईज दिए जाने लगे हैं। भले ही इसका इंक्रीमेंट से कोई लेना-देना नहीं, पर कभी तो यह काम जरूर करेगा।‘
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