नुत्फ़ा
मालूम नहीं बाबू गोपी नाथ की शख़्सियत दर-हक़ीक़त ऐसी ही थी जैसी आप ने अफ़्साने में पेश की है, या महज़ आप के दिमाग़ की पैदावार है, पर मैं इतना जानता हूँ कि ऐसे अजीब-ओ-ग़रीब आदमी आम मिलते हैं....... मैं ने जब आप का अफ़्साना पढ़ा तो मेरा दिमाग़ फ़ौरन ही अपने एक दोस्त की तरफ़ मुंतक़िल हो गया.......सादिक़े की तरफ़....... आप के बाबू गोपी नाथ और उस में बज़ाहिर कोई मुमासिलत नहीं है....... लेकिन मैं ऐसा महसूस करता हूँ कि उन दोनों का ख़मीर एक ही मिट्टी से उठा है....... आप के बाबू गोपी नाथ को दौलत विरासत में मिली है। मेरे सादिक़े को अपनी मेहनत-ओ-मशक़्क़त और ज़हानत के सिले में। दोनों शाह ख़र्च थे। आप का बाबू गोपी नाथ बज़ाहिर बुद्धू था। लेकिन दर-अस्ल बहुत होशियार और बाख़बर आदमी था। मेरा सादिक़ अंदर बाहर से बिलकुल एक जैसा था। वो बुद्धू था न चालाक.......दरमियाने दर्जे की अक़्ल-ओ-फ़हम का आदमी था। अपने कामों में आठों गांठ होशियार। हसब का पक्का। लेकिन दीन के मुआमले में बड़ा बा-उसूल। आप के बाबू गोपी नाथ को लुट जाने में मज़ा आता है। उसे दूसरों को लूटने में। बाबू साहब को पीरों फ़क़ीरों के तकियों और रन्डियों के कोठों से रग़्बत थी। सादिक़ को उन से कोई दिलचस्पी नहीं थी....... मगर इन तमाम तफ़ावुतों के बावजूद मैं जब भी बाबू गोपी नाथ को सादिक़ के साथ खड़ा करता हूँ तो मुझे उन के ख़द-ओ-ख़ाल एक जैसे नज़र आते हैं, जैसे वो जुड़वां हैं।
मैं तज्ज़िया नहीं करना चाहता....... हो सकता है आप, जब सादिक़ का हाल मुझ से सुनें तो उस को इंसानों की किसी और ही सफ़ में खड़ा कर दें। जिस में बाबू गोपी नाथ की मूंछ का एक बाल भी ना आ सका हो, लेकिन मैं समझूंगा कि आप के तज्ज़िये में ग़लती हुई है और मैं आप से दरख़ास्त करूंगा कि उसे उस सफ़ से निकाल कर उस सफ़ में शामिल कर दीजिए जिस में आप का बाबू गोपी नाथ मौजूद है।
मैं अफ़्साना निगार नहीं....... मालूम नहीं बाबू गोपी नाथ के हालात आप ने मिन-ओ-अन बयान किए हैं इन में कुछ रद्द-ओ-बदल किया है.......बहरहाल जो कुछ भी है बहुत ख़ूब है। और कुछ इस अफ़्साने में है। अगर इस के मुताबिक़ बाबू गोपी नाथ नहीं चला तो लअनत है इस पर....... और अगर वो ऐसा ही था जैसा कि अफ़्साने में है तो उस पर ख़ुदा की रहमत हो....... यक़ीन मानिए ऐसे लोग परस्तिश के क़ाबिल होते हैं....... और सादिक़ का शुमार भी ऐसे ही लोगों में होता है।
उस से मेरी मुलाक़ात दिल्ली में हुई। जंग का ज़माना था। ठेकेदारियां बड़े ज़ोरों पर थीं। सादिके की पांचों उंग्लियाँ घी में थीं और सर मुहावरे के मुताबिक़ कड़ाहे में। मेल मिलाप और असर रुसूख़ काफ़ी था और शाह ख़र्च था ही। दस बीस पुर-तकल्लुफ़ दावतें करता और एक कंट्रैक्ट अपनी जेब में डाल लेता।
एक बात है....... बेशक उस ने बहुत कमाया.......दोनों हाथों से गर्वनमेंट का माल लूटा। लेकिन उस में इस ने उन लोगों को बराबर का हिस्सा दिया जिन के ज़रीये से उस को इस लूट के मवाक़े-बहम पहुंचे थे....... इसी दौरान में उस का गुज़र उन वादीयों में हुआ जिन का बाबू गोपी नाथ एक बहुत बड़ा ज़ाइर था। लेकिन वो उन में भटका नहीं। दूसरों के साथ महेज़ रवा-दारी की ख़ातिर जाता रहा और वापस घर आ कर अपने जूतों की गर्द झाड़ कर बैठ जाता रहा। उस ने बोतल से भी तआरुफ़ हासिल किया। मगर मुआफ़िक़े की नौबत न आने दी। एक दो घूँट पी। सिर्फ़ दूसरों का साथ देने के लिए।
उन कोठों पर जहां आप के बाबू गोपी नाथ के क़ौल के मुताबिक़ धोका ही धोका होता है....... सादिके ने ख़ुद को धोका देने की कभी कोशिश न की। एक दो बार उसे अपने साथियों की ख़ुशी के लिए रन्डियों का मुँह चूमना पड़ा था और चंद वाहियात हरकतें भी करना पड़ी थीं, मगर उस ने उन से कोई लुत्फ़ हासिल नहीं किया था।
वो रंडी के मुतअल्लिक़ कभी सोच ही नहीं सकता था....... लेकिन अगर मिल्ट्री के नौजवानों के लिए रंडियां फ़राहम करने का ठेका उसे मिल जाता तो वो यक़ीनन उन के मुतअल्लिक़ बड़े ग़ौर-ओ-फ़िक्र से सूचना शुरू कर देता....... वो कार-ओ-बारी आदमी था।
लेकिन एक दम हालात ने कुछ ऐसा पलटा खाया कि सादिक़ वो सादिक़ ही न रहा जंग ख़त्म हुई तो ठेके भी ख़त्म हो गए। फिर मुक़द्दमों का कुछ ऐसा तांता बंधा कि सादिक़ कचहरियों के चक्कर में फंस गया। जो दौलत पैदा की थी, सब मुक़द्दमों की नज़र हो गई मोटर के बजाय अब सादिक़ टांगे पर होता था या साइकल पर। पहले नए सानिया सूट इस के बदन पर होता है। अब उसे कपड़ों से कोई दिलचस्पी ही नहीं रहती थी पहले उस के ख़ुशामदी दोस्त उसे नवाब साहब कह कर पुकारते थे। अब वो सिर्फ़ “सादिका.......” ओए “सादिका।” रह गया था। मगर उन की इस तब्दीली तख़ातुब को सादिक़ ने क़तअन महसूस नहीं किया था। उस को अपने मुक़द्दमों की इतनी फ़िक्र थी कि वो ऐसी फ़ुरूआत के बारे में सोच ही नहीं सकता था।
कचहरियों के इस चक्कर में उस ने अपनी मर्ज़ी से बोतल की तरफ़ हाथ बढ़ाया और थोड़े ही अर्से में बड़े धड़ल्ले का शराबी बन गया....... इसी दौरान में उस की मुलाक़ात सरहद के एक ख़ान से हुई जिस को वहां की हुकूमत ने सूबा-बदर कर रखा था। ये मुलाक़ात रंडी के एक कोठे पर हुई। ज़िंदगी में सादिक़ पहली मर्तबा किसी इंसान के ख़ुलूस से मुतअस्सिर हुआ।
ये ख़ान अपने इलाक़े का बहुत बड़ा रईस था। बिलकुल अन-पढ़ मगर जाहिल नहीं था। उस का दिल-ओ-दिमाग़ क़ौम की फ़लाह-ओ-बहबूद के लिए पूरी तरह रोशन था। वो एक बहुत बड़ा इन्क़िलाब चाहता था जो ज़ुल्म-ओ-सितम को ख़स-ओ-ख़ाशाक की तरह बहा कर ले जाए। वो चाहता था कि सरमाए की लानत से दुनिया आज़ाद हो जाये.......दुनिया आज़ाद न हो तो कम अज़ कम उस का सूबा आज़ाद हो जाये....... इन ख़यालात की पादाश में वो अपने वतन से बाहर निकाल दिया गया।
मैं आप की तरह अफ़्साना निगार नहीं हूँ। मुझ से हाशिया-आराई नहीं होती.......ख़ान का कैरेक्टर भी कम दिलचस्प नहीं। किसी ज़माने में वो बड़ा पुरजोश सुर्ख़ पोश था। उस तहरीक से वाबस्ता हो कर उस ने कई मर्तबा जेल देखी। अपनी जायदाद में से हज़ारों रुपये ख़र्च किए.......जब बटवारा हुआ तो वो मुस्लिम लीगी बन गया। क़ाइद-ए-आज़म मुहम्मद अली जिन्नाह से उस को वालहाना इश्क़ हो गया। मुस्लिम लीग की तंज़ीम के लिए उस ने काबिल-ए-क़द्र ख़िदमात सर-ए-अंजाम दीं, लेकिन फिर कुछ ऐसे हालात हुए कि वो जो तालीम-याफ़्ता थे, उस से आगे बढ़ गए और बड़े बड़े मंसबों पर जा बैठे....... ख़ान झुँझला गया। इस झुंझलाहट में उस ने अपने ग़ैज़-ओ-ग़ज़ब का बड़ा ख़ाम मुज़ाहिरा किया और नतीजा ये हुआ कि आप को कान से पकड़ कर बाहर निकाल दिया गया।
जिस ज़माने में सादिक़ की उन से मुलाक़ात हुई, आप की हालत बिलकुल बच्चों की सी थी। उन बच्चों की सी जिन को मामूली सी शरारत पर सख़्त गीर मास्टर ने बेंच पर खड़ा कर दिया हो या मुर्गा बना कर क्लास के एक कोने में कान पकड़ने का हुक्म दे दिया हो....... सादिक़ जब भी मुझ से उन की बात करता तो कहता। “बड़ा बीबा आदमी है.......”
कुछ मैं भी उस ख़ान के मुतअल्लिक़ जानता हूँ। ये वाके है कि सिर्फ़ “बीबा” ही एक ऐसा लफ़्ज़ है जो उस की शख़्सिय्यत को पूरे तौर पर अपने अंदर समेट लेता है....... वतन से दूर था। सैंकड़ों मील दूर। मगर वतन की याद उसे कभी नहीं सताती थी....... अपने गांव में एक छोड़ दो बीवियां थीं, मगर उन के मुतअल्लिक़ उस ने कभी तरद्दुद का इज़हार नहीं किया था। इस लिए कि उस को इस तरफ़ से कामिल यक़ीन था कि ज़मींदारी से जो कुछ वसूल होता है, उन के इख़राजात के लिए काफ़ी से ज़्यादा है। सात आठ सौ रुपया माहवार उस का मैनेजर वहां से रवाना कर देता था। जो उस की वॉक्सहॉल मोटर के पेट्रोल और उस की शराब पर उठ जाता था।
घर उस का हीरा मंडी के एक कोठे पर था। सूबा-बदर होने के बाद उस ने कुछ देर उस मंडी के मुख़्तलिफ़ कोठों पर झक मारी। आख़िर कार एक कोठा मुंतख़ब कर के वहां मुस्तक़िल तौर पर अपने डेरे जमा दिए। डेढ़ दो महीने के बाद ख़ान साहब को महसूस हुआ कि आप को उस कोठे की रंडी से इश्क़ हो गया है। आप ने सादिक़ को उस राज़ से बड़े बेबे पन के साथ आगाह किया। “सादिक़.......वो रंडी जिस के कोठे पर तुम से पहली मुलाक़ात हुई थी, हमारे दिल के अंदर घुस गई है....... उस को बदर करने की कोई तरकीब तुम्हारे दिमाग़ के अंदर आती हो तो हम को बताओ।”
सादिक़ ने उस को बहुत सी तरकीबें बताएईं। जिन पर ख़ान साहब ने अमल भी किया मगर वो अपने दिल के अंदर से उस रंडी को “शहर बदर” न कर सके। आख़िर कार उन्हों ने एक बार फिर उसी बेबे पन के साथ सादिक़ से कहा। “सादिक़....... वो रंडी हम पर सवार हो गई है....... हम उस को अपनी बीवी बना ले गा।”
सादिक़ ने उन को बहुत समझाया बुझाया। मगर ख़ान साहब इश्क़ के हाथों मजबूर थे। रंडी को भी वो पसंद आ गए थे। चुनांचे एक दिन वो मियां बीवी बन गए। रंडी के घर वालों को ये रिश्ता बिलकुल पसंद ना आया। बड़ी गड़बड़ हुई। आख़िर समझौता हो गया....... रंडी वहीं कोठे पर रही और ख़ान साहब उस के शौहर की हैसियत से उस के साथ रहने लगे।
सादिक़ ने मुझ से कहा। “ख़ान अजीब-ओ-ग़रीब आदमी है....... इतने ऊंचे घराने से तअल्लुक़ रखता है। अख़्बारी और सियासी दुनिया में नाम रखता है, लेकिन उसे कभी इतना ख़याल नहीं आता कि वो एक बदनाम मोहल्ले में रहता है। एक रंडी जिस के हज़ारों गाहक थे, उस की बीवी है....... मुझे बअज़ औक़ात हैरत होती है कि पठान हो कर उस की ग़ैरत कहाँ सो रही है....... सरहद में दो बीवियां पड़ी हैं। औलाद मौजूद है मगर वो किस इतमिनान से हीरा मंडी के कोठे में एक चिचोड़ी हुई हड्डी चूसता रहता है....... उस से इस बारे में कुछ कहता हूँ तो उस के बे-रिया चेहरे पर बे-बी सी मुस्कुराहट पैदा होती है और वो मुझ से कहता है.......सादिक़....... वो लोग इधर राज़ी ख़ुशी है....... हमें कोई तरद्दुद नहीं....... और ये रंडी बहुत अच्छा है.... हम से मोहब्बत करता है....... जो औरत उधर होता है ना, मोहब्बत करना नहीं जानता.......नाज़-नख़रा नहीं जानता....... और मुझे यक़ीन आ जाता है....... मुझे उस की हर बात का यक़ीन आ जाता है।”
और ये वाक़िया है कि सादिक़ जिस को पहले किसी बात का यक़ीन नहीं आता था, अब उस ख़ान के कहने पर चलता था....... जब वो मुक़द्दमों से फ़ारिग़ हुआ तो उस के कहने पर उस ने मिल्ट्री की छोड़ी हुई बारकीं ढाने और उन का मलबा उठवाने का ठेका ले लिया। इस काम से उसे नफ़रत थी, मगर ख़ान साहब के मशवरे को वो कैसे टाल सकता था, चुनांचे एक बरस तक वो कुम्हारों और उन के गधों और मलबे के धूल गुबार में फंसा रहा। लेकिन इस में उस ने काफ़ी कमाया। ख़ुशामदी दोस्त यार, फिर उस के गर्द जमा हो गए। मेरा ख़्याल था कि वो उन्हें मुँह नहीं लगाएगा, लेकिन उस ने उन को धुतकारने की कोई कोशिश न की। पहले सिर्फ़ दस्तर-ख़्वान पर उन की शुमूलीयत होती थी। अब बोतल में भी वो उस के शरीक होने लगे। ख़ान ने उस को बताया था कि शराब बहुत अच्छी चीज़ है ख़ुसूसन उस आदमी के लिए जो सूबा-बदर कर दिया गया हो। बोतल से मुँह लगाते ही एक नया सूबा उस के दिल-ओ-दिमाग़ में आबाद हो जाता है। जिस में वो एक कोने से दूसरे कोने तक जहां चाहे स्टूल पर खड़ा हो के बाग़ियाना से बाग़ियाना तक़रीर कर सकता है। सरमाए की तमाम लअनतों से उस को पाक कर सकता है....... और फिर रंडी का कोठा....... उस से बेहतरीन घर तो और कोई हो ही नहीं सकता। बीवी घरेलू और सगी क़िस्म की हो तो आदमी उसे गाली नहीं दे सकता। अगर रंडी हो तो गंदी से गंदी गाली भी उसे दी जा सकती है....... उस की माँ के सामने। उस की फूफी के सामने। उस की चची के सामने....... और अगर उस का कोई बाप मौजूद हो तो उस के भी सामने....... फिर वो उसे अपने मख़सूस ख़ाम और बेबे अंदाज़ में रोज़मर्रा ज़िंदगी में गाली की अहमियत बयान करने लगता और उसे बताता कि ये बहुत ज़रूरी चीज़ है.......अगर आदमी इसे वक़्तन फ़वक़्तन अपने अंदर से बाहर न निकाले तो तअफ़्फ़ुन पैदा हो जाता है जो बिलआख़िर दिल-ओ-दिमाग़ पर बहुत बुरा असर करता है....... रंडी का कोठा....... और घरेलू घर.......ज़मीन-ओ-आसमान का फ़र्क़ है....... वहां सौ बखेड़े होते हैं। इतना साज़ो सामान और इतने रिश्ते होते हैं कि आदमी उन से छुटकारा हासिल करना चाहे तो पूरी ज़िंदगी उसी कोशिश में बसर हो जाये मगर यहां रंडी के कोठे पर ऐसी कोई मुश्किल नहीं....... अपना होल्डॉल और ट्रंक उठाओ, उचकन कांधे पर डालो और किसी होटल में जा कर बड़े इतमिनान से तलाक़ का काग़ज़ लिख कर रवाना कर दो....... एक बात और भी है.......रंडी को समझने में अगर दिक़्क़त महसूस हो तो उस को इस्तेमाल करने वाले ऐसे कई आदमी मौजूद होंगे जिन के तजुर्बों से फ़ायदा उठाया जा सकता है.......फिर गाना बजाना मुफ़्त....... अय्याशी की अय्याशी, शादी की शादी....... जी उकताया तो छोड़ के चलते बने....... कोई एतराज़ नहीं करेगा। कोई बुरा नहीं कहेगा....... बल्कि वो जो शरीफ़ हैं मरहबा कहेंगे कि सुबह का भूला शाम को घर लौट आया....... रंडी को लानती कहेंगे जो चिमट गई थी और ख़ुदा-वंद-ए-करीम का शुक्र बजा लाएँगे कि उस ने इस से निजात दिलाई....... और रंडी की ज़िंदगी में भी कोई ज़लज़ला नहीं आता....... उस के लगे बंधे गाहक मौजूद होते हैं....... तुम्हारी ठेकेदारी ख़त्म होती है तो वो इतमिनान का सांस लेते हैं कि चलो हमारा रास्ता खुला।”
सादिक़ को ख़ान रंडी से शादी के फ़वाएद अक्सर बताता रहता था....... बोतल से बड़े ख़ुलूस के साथ मुँह लगा कर अब उस ने रन्डियों के कोठों पर भी आना जाना शुरू कर दिया था....... मगर उस ने उन में वो बात अभी तक नहीं देखी थी के जिन के मुतअल्लिक़ वो अक्सर अपने पठान दोस्त से सुना करता था।
ख़ान को सादिक़ के दिल का हाल अच्छी तरह मालूम था। उस को पता चल गया था कि वो हीरा मंडी से उकता गया है। कारोबार अच्छा है। आमदन की माक़ूल सूरत पैदा हो गई है। इस लिए वो अब अपना घर बनाना चाहता है जिस में उस की एक अदद बीवी हो। दस अदद बच्चे हों.......कलोट हों, पोतड़े हों। चूल्हा हो। चिमटा हो। तवा हो....... वो फल ख़रीदे तो सीधा घर पहुंचे। शराब की बोतलों के बजाय, दूध की बोतलें ख़रीदे। मीरासियों और भड़ुओं के बजाए शरीफ़ शरीफ़ लोगों से मिले। शुरू शुरू में तो ख़ान अपने मख़सूस अंदाज़ में उसे ऐसे वाहियात इक़्दाम से रोकने की नर्म-ओ-नाज़ुक कोशिश करता रहा। लेकिन जब उसे मालूम हुआ कि उस ने अपने मोहल्ले में किसी से कोई मुनासिब-ओ-मौज़ूं रिश्ता ढ़ूढ़ने के लिए कहा है तो उस को बहुत कोफ़्त हुई।
“सादिक़....... ये तुम क्या हिमाक़त करने वाला है....... शादी वादी हरगिज़ मत करना....... ये दुनिया ऐसी है जहां किसी वक़्त भी तुम को सूबा-बदर या शहर-बदर कर दिया जा सकता है....... मैं इतने बरस कांग्रेस में रहा हूँ....... सुर्ख़ पोश तहरीक चलाने में इतना काम मैं ने किया है कि तुम को उस का अंदाज़ा ही नहीं हो सकता....... मैं ने अपनी पॉलिटिकल लाईफ़ में सिर्फ़ ये सीखा है कि ज़िंदगी में तुम जिस को भी शरीक बनाओ, अटैची-केस की तरह होनी चाहिए। जिस को तुम हाथ में उठा कर चलते हो....... या उसे वहीं छोड़ दो....... वो ज़्यादा क़ीमती नहीं होनी चाहिए....... क़ीमती चीज़ों को छोड़ देने का बुरा ग़म रहता है....... सो बिरादर, तुम शादी न करो.......बाज़ आओ इस ख़याल से.......वो रंडी जिस के पास तुम जाते हो, क्या बुरी है....... उस से इश्क़ करना शुरू कर दो....... ये कोई मुश्किल काम नहीं....... थोड़ी सी प्रैक्टिस कर लो तो सब ठीक हो जाएगा।”
सादिक़ ने घरेलू किस्म की औरत से शादी के हक़ में अपने दलायल पेश किए मगर ख़ान के सामने उन की कोई पेश ना चली।
“सादिक़, तुम उल्लू है....... ख़ुदा की क़सम उल्लू है....... तुम हमारी बात नहीं मानता, जिस के पास दो बीवियां हैं। अपने क़बीले की....... तुम हमारी बात मानो....... हम तुम्हारा दोस्त है। पठान है। ख़ुदा की क़सम खा कर कहता है कि हम झूट नहीं बोलता....... ये दुनिया जिस में हम जैसे मुख़लिस आदमी को सूबा-बदर करने वाले हाकिम मौजूद हैं, इस में रंडी के कोठे ही को अपना घर बनाना चाहिए....... हम को तो यहां बहुत आराम है....... तुम भी हीरा मंडी में अपना घर बना लो और आराम करो।”
सादिक़ अजीब मख़मसे में गिरफ़्तार था। मुझ से मिल कर वो घंटों बातें करता रहता। वो हीरा मंडी के सख़्त ख़िलाफ़ था मगर थोड़ी देर के बाद मैं ने महसूस किया कि वो इस का क़ाएल होता जा रहा है, क्यूँ कि अब वो ख़ान की कही हुई बातें यूँ सुनाता था जैसे उस के दिल को लग चुकी हैं। चुनांचे एक रोज़ उस ने मुझ से कहा:
“मैं ने सारी उम्र ठेकेदारी की है....... और ठेकेदारी से बढ़ के बे-ईमानी का और कोई कारोबार नहीं हो सकता। इस का अव्वल खोट, उस का आख़िर खोट....... ये ऐसा बाज़ार है जिस में कोई खरा सिक्का नहीं चल सकता....... सुना है विलायत में ऐसी मशीनें बनी हैं जिन में अगर खोटे सिक्के डाले जाएँ तो वो बाहर निकाल देती हैं....... लेकिन ठेकेदारी ऐसी मशीन है जिस में अगर खरे सिक्के डाले जाएं तो क़ुबूल नहीं करेगी....... फ़ौरन बाहर निकाल देगी....... मुझे सारी उम्र यही कारोबार करना है कि मुझे सिर्फ़ यहाँ आना है....... तो क्यूँ न मैं हीरा मंडी में ही अपना घर बनाऊं.......वहाँ खरे सिक्के चलते हैं, लेकिन उन के इवज़ जो माल मिलता है उस में सिर्फ़ खोट ही खोट होता है....... मैं समझता हूँ, मेरी रूहानी तस्कीन के लिए वहाँ की फ़ज़ा अच्छी रहेगी।
फिर एक रोज़ उस ने मुझे बताया। “ख़ान बहुत ख़ुश है....... उसकी दोनों बीवियां वहाँ सरहद में उस के घर में ख़ुश हैं। उस की औलाद भी ख़ुश है.......उन की ख़ैर ख़ैरियत को अपने मैनेजर के ज़रिये से मालूम होती रहती है....... यहां हीरा मंडी उस की रंडी भी ख़ुश है....... उस की माँ भी ख़ुश है। उस की फूफी भी ख़ुश है, उस के मीरासी भी ख़ुश हैं....... और सब से बड़ी बात तो ये है कि ख़ान ख़ुश है। कभी कभी उन हाकिमों के ख़िलाफ़ एक बयान अख़बारों में शाए कर देता है जिस ने उस को सूबा-बदर किया था और अपनी रंडी को सुना देता है....... वो भी ख़ुश हो जाती है....... उस रात गाने बजाने की महफ़िल गर्म होती है और ख़ान मस्नद पर गाव तकिए का सहारा ले कर यूँ बैठता है जिस तरह एक तमाशबीन....... उस्ताद साहब और मीरासियों से इस तरह बातें करता है जैसे उस ने नई नई तमाश-बीनी शुरू की है....... उस की रंडी मुजरा करती है और वो जेब में हाथ डाल कर उस को दस रुपये का नोट देता है फिर पाँच का। फिर दो का फिर एक रुपय वाला....... इस के बाद वो महफ़िल बरख़ास्त कर देता है और उस रंडी के साथ सो जाता है और उस मनकूहा औरत के साथ ऐसी रात बिस्तर करता है जो गुनाह आलूद हो....... मैं तो समझता हूँ, ये बड़े मज़े की चीज़ है.......”
लेकिन जब उस रंडी से शादी का सवाल पैदा हुआ। यानी ख़ान साहब ने सब मुआमला तैय्यार कर दिया और सिर्फ़ ईजाब-ओ-क़ुबूल की रस्म बाक़ी रह गई तो सादिक़ पीछे हट गया। ख़ान आग बगूला हो गया। मेरे सामने उस ने सादिके को बहुत लअन-तअन की।
“तुम्हारी समझ पर पत्थर पड़ गए हैं सादिक़....... तुम उल्लू के पट्ठे हो। शरीफ़ औरत से शादी कर के ख़ुदा की क़सम तुम पछताओगे....... ये दुनिया ऐसी नहीं है। पर्वरदिगार की क़सम, जिस में शराफ़त से शादी की जाए...... उस में रंडी अच्छी रहती है....... तुम शरीफ़ मत बनो। याद रखो अगर तुम शरीफ़ बिन गए तो सूबा-बदर कर दिए जाओगे....... तुम हीरा मंडी में रहो। यहां सिर्फ़ एक सूबा है जिस में से तुम बदर नहीं किए जा सकते इस लिए कि इस के साथ कोई हाकिम अपना रिश्ता क़ायम नहीं करेगा....... तुम गधे हो....... अपना घर यहीं बनाओ....... इस से बेहतर जगह तुम्हें और कोई नहीं मिल सकती।”
सादिक़ ने अपने मुहल्ले में एक जगह बात पक्की करली थी। जब ख़ान ने उस को समझाया बुझाया तो उस ने अपना इरादा तर्क कर दिया लेकिन वो रंडी से शादी करने पर आमादा न हुआ। उस ने मुझ से कहा। मैं ने अब शादी का ख़याल ही छोड़ दिया है....... मैं ख़ान का कहना ज़रूर मान लेता मगर मेरा दिल नहीं मानता....... मैं अब ऐश करूंगा....... एक रंडी के पास नहीं कई रन्डियों के पास जाया करूंगा।”
और उस ने मुतअद्दिद रन्डियों के हाँ जाना शुरू कर दिया। उसे अब कई ठेके मिल गए थे....... उस के पास दौलत की फ़रावानी थी। हीरा मंडी से जब वो मोटर में गुज़रता तो चारों तरफ़ कोठों पर रंगीन मुस्कुराहटें तीतरियों की तरह उड़ने लगतीं....... अब वो फिर नवाब साहब था....... हीरा मंडी का नवाब साहब।
पूरे तीन बरस तक वो खेल खेलता रहा, मेरा ख़याल है, ये ग़ालिबन ख़ान की उस कोशिश का रद्द-ए-अमल था जो उस ने सादिक़ को अपने क़ालिब में ढाने के लिए की थी। वो चाहता था कि अपने तजुर्बात का निचोड़ उस के हलक़ में डाल कर उस को अपने जैसा बना ले, मगर उस का नतीजा ये निकला कि सादिक़ इधर का रहा न उधर का। वो पूरा औबाश बन गया....... जिस रास्ते उस को नफ़रत थी, वो उसी का अंथक मुसाफ़िर बन गया।
मैं ने उस को बारहा समझाया कि देखो सादिक़ बाज़ आओ। अपनी जवानी, अपनी सेहत और अपनी दौलत यूँ बर्बाद न करो। लेकिन वो न माना। मेरी बातें सुनता और मुस्कुरा देता। “मेरी दुनिया, खोट की दुनिया है। इस में एक-बटा-सौ हिस्सा सीमेंट होता है। बाक़ी सब रेत....... और वो भी जिस में आधी मिट्टी होती है....... मेरी ठेका-दारी में जो इमारत बनती है। उस की उम्र अगर काग़ज़ पर पच्चास साल है तो ज़मीन पर दस साल होती है....... मैं अपने लिए पुख़्ता घर कैसे तामीर कर सकता हूँ....... रंडियां ठीक हैं....... मैं ने सोसाइटी के उस मलबे का भी ठेका ले रखा है....... हर रोज़ एक न एक बोरी ढोकर ठिकाने लगा देता हूँ।”
वो बोरियां ढो ढो कर अपनी दानिस्त में ठिकाने लगाता रहा....... मैं ने उस से मिलना-जुलना बंद कर दिया। वो बहुत बदनाम हो चुका था....... उसको मालूम था कि मैं उस से नाराज़ हूँ। लेकिन उस ने मुझे मनाने की कोशिश न की।
डेढ़ बरस के बअद एक दिन अचानक वो मेरे पास आया। ऐसा लगता था कि वो बहुत ज़रूरी बात कहना चाहता है मगर नहीं कह सकता। मैं ने उस से पूछा। “कुछ कहने आए हो।”
उस ने जवाब दिया। “हाँ....... मैं शादी कर रहा हूँ।”
“किस से?”
“एक रंडी से?”
मुझे बहुत ग़ुस्सा आया। “बको नहीं।”
उस ने बड़ी संजीदगी से कहा। “मैं मजबूर हो गया हूँ।”
मैं चिड़ गया। “मजबूरी कैसी।”
सादिक़ ने सर झुका कर कहा। “उस के नुतफ़ा ठहर गया है।”
ये सुन कर मैं ख़ामोश हो गया। उस से क्या कहूं। कुछ समझ में नहीं आता था। सादिक़े ने अपना झुका हुआ सर उठाया और कहना शुरू किया। “मैं मजबूर हो गया हूँ.......शादी के सिवा अब और कोई चारा नहीं।”
सादिक़ ने उस रंडी से शादी कर ली....... मगर उस के कोठे को उस ने अपना घर न बनाया....... उन लोगों ने, ये रंडी जिन की रोज़ी का ठीकरा थी, बहुत दंगा फ़साद किया। मगर उस ने कोई परवाह क़ुबूल न की। हज़ारों रुपये पानी की तरह बहा दिए और आख़िर कामयाब हो गया....... उस रंडी के बतन से एक लड़की पैदा हुई। उस की पैदाइश के छः महीने बाद सादिक़ के दिल में जाने क्या आई कि उस ने रंडी को तलाक़ दे दी और उस से कहा। “तुम्हारा असल मुक़ाम ये घर नहीं....... हीरा मंडी है.......जाओ उस लड़की को भी अपने साथ ले जाओ....... उस को शरीफ़ बना कर मैं तुम लोगों के कारोबार के साथ ज़ुल्म करना नहीं चाहता....... मैं ख़ुद कारोबारी आदमी हूँ....... ये नुकते अच्छी तरह समझता हूँ....... जाओ, ख़ुदा मेरे इस नुतफ़े के भाग अच्छे करे....... लेकिन देखो इसे नसीहत देती रहना कि किसी से शादी की ग़लती कभी न करे....... ये ग़लत चीज़ है।”
मालूम नहीं, जो कुछ मैं ने बयान किया है, सादिके के मुतअल्लिक़ ज़्यादा है या ख़ान के मुतअल्लिक़....... बहरहाल मुझे ये दोनों उसी सफ़ के आदमी मालूम होते हैं जिस में आप का बाबू गोपी नाथ मौजूद है....... और इस दुनिया में जहां सूबा-बदर और शहर-बदर किया जा सकता हो, ऐसे आदमी ज़रूर मौजूद होने चाहिएँ जिन को सोसाइटी अपने और अपने बनाए हुए क़वानीन के मुँह पर तमाँचे के तौर पर कभी कभी मार सके।