भीगे पंख
12. मोहित और रज़ि़या - 2
‘‘मोहित तुम मौसी को तो भूल ही गये?’’
मौसी के शब्दों में उलाहना थी परंतु उनकी आंखें आनंदातिरेक से झर रहीं थीं। वह अपने घर के आंगन में मोहित को सीने से लगाये खडी़ं थीं। इतने वर्षों बाद मोहित को देखकर उनका तन-मन पिघल रहा था।
आज बीस बरस बाद मोहित उनके यहां अचानक आ धमका था- सांकल खोलने पर पहले तो वह सामने खडे़ व्यक्ति को पहचान ही नहीं सकीं थीं और बाहर कार के पास खडे़ वर्दीधारी ड्ाइवर और चपरासी को देखकर हतप्रभ थीं, पर जैसे ही पैर छूने को झुकते हुए मोहित बोला था ‘मौसी!’, वैसे ही उसके स्वर ने उनके कर्णपट को झंकृत कर विस्मृति की खोह से मोहित के बचपन वाले भोले भाले चेहरे को उनके समक्ष लाकर खडा़ कर दिया था। मोहित के मूंछ वाले चेहरे में बचपन की लुनाई अभी भी विद्यमान थी और पहचानते ही मौसी ने मोहित को उसी तरह बांहों में भर लिया था जैसे बचपन में भर लेतीं थीं। संतानविहीन मौसी को मोहित से सदैव अपनत्व रहा था- उसमें उन्हें अपने जीवन के खोखलेपन को भरने का साधन दिखाई देता था। मोहित को भी मौसी में बडा़ अपनापन लगता था और उसे प्राय ममतामयी मौसी की याद आती रहती थी, परंतु कुछ व्यस्ततावश, कुछ परिस्थितिवश और मुख्यत अपने संकोची स्वभाव के कारण मोहित इस बीच मौसी से मिलने नहीं आया था। मोहित के विवाह के कुछ दिन पहले ही उसके मौसा की मृत्यु हो गई थी, अत मौसी मोहित के विवाह में भी नहीं पहुंच सकीं थीं। अपनी सेवानिवृत्ति से पूर्व मोहित के मौसा ने फ़तेहपुर तहसील परिसर के निकट ही एक मकान बनवा लिया था और सेवानिवृत्ति के उपरांत सरकारी मकान छोड़कर उसी में रहने लगे थे।
सहज होने पर मौसी मोहित का हाथ पकड़कर उसे अंदर कमरे में ले गईं थीं, परंतु ममतावश उसका हाथ नहीं छोड़ पा रहीं थीं। मौसी का दो कमरे का साफ़ सुथरा मकान था। मौसा का पलंग आज खाली पडा़ था, जिसे देखकर मोहित के नेत्र छलछला आये थे। मोहित का मुंह देखकर मौसी उसके मन का दुख भांप गईं थीं, पर मौसा की मृत्यु के विषय पर बोलकर वातावरण को बोझिल बनाना ठीक न समझकर मोहित को सामने रखी कुर्सी पर बैठने का इशारा कर स्वयं सामने पलंग पर बैठ गईं थीं। फिर बोलीं थी,
‘‘बेटा, तुम्हारे मौसा ने रिटायर होने से पहले यह घर बनवा लिया था और रिटायरमेंट के बाद हम लोग सरकारी घर छोड़कर इसमें आ गये थे। तुम आजकल कहां तैनात हो? तुम्हारे आई. ए. एस. में चुने जाने की खबर जिज्जी से मिली थी, उसके बाद तुम्हारी खबर कभी कभी अखबार सें मिल जाती थी, पर इधर काफी दिन से आंख में तकलीफ़ होने के कारण अखबार पढ़ना भी बंद सा हो गया है अत तुम्हरेे बारे में कुछ नहीं पता चला।’’
मोहित ने उत्तर दिया,
‘‘मौसी, मैं आप के ही जिले में कलेक्टर के पद पर तैनात हो गया हूं और मैने कल ही कार्यभार संभाला है।’’
यह सुनकर मौसी गदगद हो गईं और बोलीं,
‘‘बेटा, तब तो तुमसे मिलना होता रहेगा।’’
मोहित हामी में मुस्करा दिया। फिर मौसी मोहित के लिये चाय बनाने लगीं और उससे उसके बीते जीवन के विषय में पूछतीं रहीं। मोहित उन्हे अपनी पढा़ई, आई. ए. एस. में चयन, प्रशिक्षण एवं विभिन्न पदों पर नियुक्ति के विषय में बताता रहा। जब मौसी ने चाय का प्याला मोहित के हाथ में थमा दिया और स्वयं भी सामने बैठकर चाय पीनेे लगीं, तब मोहित ने झिझकते हुए पूछा था,
‘‘मौसी! रज़िया अब कहां है?’’
यह पूछते हुए मोहित का लज्जा से लाल होता हुआ चेहरा मौसी की निगाह से छिपा न रह सका था। उन्हें मोहित के रज़िया के प्रति बचपन के आकषर््ाण का भान तो था, परंतु अब स्वयं का विवाह हो जाने पर और कल्ेाक्टर के पद पर आसीन हो जाने के पश्चात भी रज़िया के विषय में पूछने पर उसे झिझक का अनुभव होगा, ऐसा उनके अनुमान से परे था। मोहित की हिचकिचाहट से मौसी को उसमें अभी भी बाल-स्वरूप मन होने का आभास हुआ और उसके प्रति और प्यार उमडा़, पर उसको प्रकट न करके वह मोहित से बोलीं थीं,
‘‘रज़िया तो अब तालुकदारिन बन गई है। एक दिन यहां के तालुकदार सलाहुद्दीन की नज़र उस पर पड गई थी और उन्होंने रज़िया के पिता को पैगा़म भेजकर उससे निकाह कर लिया।’’
यह सुनकर मोहित के हृदय में एक अनचाही टीस सी उत्पन्न हुई थी क्योंकि उसे लगा था कि हो सकता है कि रज़िया इतने बडे़ आदमी से विवाह कर उसे भूल गई होगी, परंतु तभी मौसी आगे कहने लगीं थीं,
‘‘रज़िया विवाह से पूर्व बहुत रोती रही थी, पर न तो उसके मन की बात जानने की इच्छा उसके घरवालों की थी और न रज़िया कभी खुली कि उसके मन में क्या था।’’
फिर अपने अनुमान को अप्रत्यक्ष ढंग से बताने के इरादे से मौसी आगे कहने लगीं थीं,
‘‘हर साल गर्मी आने पर रज़िया तुम्हारे आने की आस में बार बार मुझसे पूछने आती थी और तुम्हारा कोई समाचार न पाकर बुझी बुझी सी हो जाती थी। कहते हैं कि अपनी षादी में रज़िया ने काज़ी के सामने अपने होंठों से शादी कुबूल भी नहीं की थी पर नक्कारखाने मे तूती की आवाज़ की कौन परवाह करता है- उसके बिना बोले ही सबने उसकी हामी मान ली थी और उसके मौन को मुबारकों के शोर में डुबो दिया था। तालुकदार साहब का रज़िया से विवाह करने का मुख्य उद्देश्य उससे संतान पा लेना था क्योंकि पहली बेगमों से उनको कोई औलाद नहीं थी और किसी फ़कीर ने उन्हें बताया था कि किसी कमसिन से षादी करो तो संतान ज़रूर होगी। पर षादी को कितने साल बीत चुके हैं, अभी तक सतिया की गोद नहीं भरी है।’’
यह सब सुनकर मोहित का मन न जाने कैसा कैसा हो रहा था। परंतु अब रज़िया के विशय में मौसी से और पूछने का उसका साहस बढ़ गया था; मौसी के रुकने पर वह बोला था,
‘‘क्या विवाह के बाद रज़िया कभी आप से मिलने आई थी?’’
‘‘नहीं विवाह के बाद तालुकदार साहब ने रज़िया को कभी मायके आने की इजाज़त नहीं दी- यहां तक कि मीरअली की मौत पर भी नहीं। अब तो उसके भाई लोग भी वह घर छोड़कर न जाने कहां चले गये हैं।’’
यह सुनकर मोहित का मन निराषाग्रस्त हो रहा था क्योंकि ऐसी परिस्थिति में रज़िया के विशय में अन्य कोई जानकारी सम्भव प्रतीत नहीं हो रही थी। फिर मोहित और मौसी के बीच कुछ क्षण तक मौन का साम्राज्य छाया रहा- जैसे दोनांे रज़िया की चिंता में खो गये हांे। मौन असह्य हो जाने पर उसे तोड़ते हुए मौसी कहने लगीं थीं,
‘‘तालुकदार साहब के ज़नानखानें की बात बाहर किसी को पता तो चलती नहीं है- कहा नहीं जा सकता कि रज़िया किस हाल मे ंहै?’’
कुछ देर के उपरांत मोहित जब मौसी से विदा लेकर जाने लगा था तो उसको तीव्र उत्कंठा हुई कि वह उस तलैया की ओर जाये जहां वह रज़िया के साथ खेला करता था और रज़िया का घर भी देख ले जहां उसे देखकर रज़िया की अम्मी की बुझी बुझी आंखों में प्रसन्नता की एक लहर आ जाती थी, परंतु वह तहसील वालों को अपने वहां आने की जानकारी नहीं कराना चाहता था। वह उन्हें बिना ख़बर किये चुपचाप मौसी से मिलने आया था। तहसील के और निकट जाने पर कलेक्टर के आने की बात जानकर वहां भीड़ लगने लगती, और वह ज़िले का कलेक्टर होकर अन्यों की उपस्थिति में अपनी इस सामान्य मानवों वाली कामना का प्रदर्षन कैसे कर सकता था?
घर्र की ध्वनि के साथ स्टार्ट होकर उसकी कार तलैया वाली उस दिशा की विपरीत दिशा में चल दी थी, जिस ओर जाने को मोहित का मन व्याकुल हो रहा था।
‘‘आदाब, कलेक्टर साहब।’’- कहते हुए तालुकदार सलाहुद्दीन मोहित के ड्ा़ंइंग रूम में घुसे थे।
‘आदाब’ कहकर मोहित ने उठकर उनसे हाथ मिलाया था और साथ ही उनके मुख पर गहन दृष्टि डाली थी। तालुकदार के सिर के बाल सफे़द हो रहे थे और उनके चेहरे पर झुर्रियां पड़ने लगीं थीं। उनकी शेरवानी से उनकी तोंद बाहर निकलने केा आतुर थी। मोहित को उनकी आयु पचास से अधिक लगी थी। तालुकदार को देखकर वह सन्न रह गया था क्योंकि उसके अनुमान से रज़िया तो अभी तीस के आस पास ही होगी। उस पर तालुकदार के चेहरे पर मोहित को एक अजीब कांइयांपन झलकता दिखाई दिया था। उनके होंठ तिरछा करके बोलने पर उनकी अधपकी मूछों के हिलने डुलने में भी उनकी मक्कारी उद्भासित होती थी। मोहित को उनके हाथ का स्पर्श भी केंचुए के स्पर्श सम लिजलिजा लगा था और उसने तालुकदार की पकड़ ढीली होते ही अपना हाथ खींच लिया था। तब तक चपरासी एक ट्े में दो गिलासों में कोल्ड ड्ंिक ले आया था और पहले तालुकदार साहब को पेश किया था। वह एक गिलास उठाकर उसे ऐसे पीने लगे थे जैसे किसी सुंदरी के होंठ का रस पी रहे हों। मोहित के मन में वितृष्णा का एक ऐसा भाव जाग्रत हो रहा था कि उसकी इच्छा साथ पीने की नहीं हुई थी और उसने जु्काम होने का बहाना बनाकर कोल्ड ड्ंिक लेने से मना कर दिया था। उसे तालुकदार साहब में एक ऐसा प्रतिद्वंद्वी दिखाई दे रहा था जिसने न केवल मोहित के क्षेत्र को जीत लिया था वरन् उसे बेरहमी से तहस नहस भी कर रहा था। जल्दी छुट्टी पाने के निहित उद्देश्य से वह बोल पडा़ था,
‘‘कहिये तालुकदार साहब, कैसे तकलीफ़ की?’’
तालुकदार साहब अपनी जु़बान में चाशनी घोलते हुए बोले थे,
‘‘हर साल मेरे ग़रीबखा़ने पर अलविदा की नमाज़ वाले जुमे पर रोजा़ इफ़तार होता है जिसमें जिले के कलेक्टर और दूसरे हुक्मरान शिरकत करते हैं। आप से गुजा़रिश है कि अगले जुमे को शाम सात बजे तशरीफ़ लायें।’’
मोहित के ‘वाइब्ज़’ तालुकदार से बिल्कुल नहीं मिल रहे थे और उसका मन हुआ कि कोई बहाना बना कर मना कर दे, परंतु रज़िया के मिल जाने अथवा उसके विषय में कुछ ज्ञात हो जाने की आशा ने मोहित केा निमंत्रण स्वीकार कर लेने केा विवश कर दिया था।
फिर दो दिन पष्चात तालुकदार सलाहुद्दीन के यहां रोजा़ इफ़तार में मुख्य मंत्री महोदय के सम्मिलित होने का कार्यक्रम मोहित को प्राप्त हो गया था। अब उसे औपचारिकतावश भी उसमें सम्मिलित होना आवष्यक हो गया था। जब मोहित तालुकदार साहब के यहां पहुंचा, तो वहां के प्रबंध देखकर दंग रह गया था। एक अच्छा खा़सा जलसा था। मुख्य मंत्री महोदय के आने पर उसने देखा कि वह तालुकदार साहब से बडे़ धुलमिलकर बात कर रहे थे- इससे उपस्थित व्यक्तियों पर तालुकदार साहब का रोब गाालिब हो रहा था और मोहित भी प्रभावित हुए बिना न रह सका था।
परंतु मोहित के नेत्र जिसके दर्शन को आकुल हो रहे थे, उसकी झलक भी नहीं मिल पा रही थी। पर्दा प्रथा इस सीमा तक लागू थी कि उपस्थित सैकडो़ं लोगों की भीड़ मे एक भी स्त्री नहीं थी। रज़िया के बारे में किसी से कुछ भी पूछने पर तो हजा़र सवाल खडे़ हो सकते थे। रोजा़ इफ़तार का प्रबंध कोठी के बाहर स्थित विशाल चबूतरे पर था जहंा से कोठी की छत के कंगूरे दिखाई पड़ते थे। पूर्णत निराशाजनक परिस्थिति होने पर भी मानव मन में एक आशा लगी ही रहती है- इस दौरान मोहित की भी निगाह छत पर बने कंगूरों पर इस आशाा में जाती रही थी कि रज़िया उनके बीच कहीं दिखायी पड़ जाय, पर हर बार उसे छत पर वीरानगी ही मिली।
मुख्यमंत्री महोदय अन्यत्र व्यस्त होने के कारण शीघ्र चल दिये थे, तब तालुकदार साहब ने विशेष आग्रह कर मोहित को रोक लिया था और बैठक में लाकर उसकी आवभगत में अपना पूरा ध्यान देने लगे थे। मोहित के मन में फिर आशा जागी थी कि शायद वह अब रज़िया को बुला लें, परंतु रज़िया अथवा तालुकदार की केाई बेगम सामने नहीं आई थीं। मोहित का ध्यान इस तथ्य पर विश्ेाष रूप से आकृष्ट हुआ था कि तालुकदार साहब उसकी तो बडी़ आवभगत कर रहे थे, परंतु अपने नौकरों और अपनी रियाया से ऐसे व्यवहार कर रहे थे जैसे वे उनके क्रीतदास हों। एक नौकर को उन्होंने मोहित के सामने ही माॅ-बहिन की गालियंा सुना दीं थीं और उस बेचारे ने उन्हें ऐसे स्वीकार कर लिया था जैसे वे उसकी दिनचर्या का एक अंग हों। मोहित को इससे बडी़ वितृष्णा हुई थी और रोजा़-इफ़्तार से लौटने पर मोहित को अपने पर गहरा क्षोभ हो रहा था कि उसने तालुकदार का निमंत्रण क्यों स्वीकार किया था। यह सोचकर भी वह अवसाद के सागर में गोते लगा रहा था कि अब इस जीवन में रज़िया से मुलाकात की कोई आशा नहीं है।
एक दिन मोहित अपने कार्यालय में बैठा उस दिन की डाक देख रहा था। सरकारी डाक के साथ पोस्ट आफ़िस में बिकने वाले लिफ़ाफ़े में रखी एक लम्बी सी चिटठी मोहित को मिली। चिटठी भेजने वाले ने अपना नाम और पता लिफाफे़ के उूपर नहीं लिखा था, परंतु उस पर यह लिख दिया था कि यह प्रायवेट है और इसे सिर्फ़ कलेक्टर साहब ही खोलें। उस दिन माह का दूसरा शनिवार होने के कारण शासकीय छुट्टी थी और मोहित अपने आवासीय कार्यालय में ही आवश्यक काम निबटाने हेतु बैठा था। विशिष्ट व्यक्तियों को छोड़कर आज के दिन साधारण मुलाकातियों का आना मना था। अत मोहित और दिनों की अपेक्षा फु़र्सत में था। मोहित ने अपने स्टेनो-बाबू को आदेश दे रखा था कि यदि कोई लिफा़फा़ उसका व्यक्तिगत लगे अथवा किसी लिफाफे़ पर मोहित को स्वयं खोलने का आग्रह किया गया हो, तो उसे बिना खोले ही उसके समक्ष प्रस्तुत किया जावे। लिफ़ाफा़ खोलकर पत्र में ‘मोहित जी’ सम्बोधन देखकर उसे बडा़ अनोखा लगा था क्योंकि उसके सम्बंधियों के पत्रों में अनौपचारिक सम्बोधन हुआ करते थे और फ़रियादी प्राय हुजू़र, श्रीमान, सर, सरकार, माई-बाप, आदरणीय जैसे सम्बोधन लिखते थे। इसलिये उर्दू मिली हिंदी में लिखे उस पत्र को पढ़ने से पहले मोहित को जिज्ञासा हुई कि प्रेषक का नाम देख ले। उसने पत्र के अंतिम पृष्ठ को खोलकर जब अंत में रज़िया लिखा देखा, तो उसका हृदय बल्लियों उछलने लगा। तालुकदार साहब की कोठी का मंज़र देखकर मोहित ने इसकी कल्पना भी नहीं की थी कि रज़िया उसे पत्र लिखेगी। उसका रोम रोम उस पत्र में लिखे एक एक शब्द को पढ़ने को बेचैन हो उठा था।
‘‘मोहित जी,
रोजा़ इफ़्तार की पार्टी में आप कोठी पर तशरीफ़ लाये और चले भी गये। मुझे तो आप के आने का इल्म भी न होता, अगर घर की नौकरानी अल्लाहरक्खी बिस्तर लगाते वक्त अचानक न बोल पड़ी होती कि इस बार के कलेक्टर साहब तो बिल्कुल छोकरे जैसे हैं। उससे बात करने के इरादे से मेरे मुंह से निकल गया था ‘अच्छा! उनका नाम क्या है?’। इस पर उसने कहा कि लोगों के मुंह से मोहित शर्मा कहते सुना है। यह नाम सुनकर मेरा दिल धड़का और आप का ख़याल आया, पर फिर मन में शुबहा हुआ कि आप के नाम का कोई और भी हो सकता है। रात में सोते वक्त असलियत जानने को दिल में बेचैनी बढी़, और दूसरे दिन सबेरे मैने वह काम कर डाला जिसके खुल जाने पर पता नहीं मेरी कौन सी दुर्गति की जा सकती है। मैने इस कोठी में दाखिल होने के पंद्रह साल बाद पहली बार अल्लाहरक्खी से गुपचुप इल्तिजा की कि वह आप की मौसी के पास जाकर आप के बारे में पूछ आये। उसी ने आकर बताया कि आप ही इस ज़िले के कलेक्टर हैं और उनसे मिलने आये भी थे। आप की शादी हो जाने और एक बच्चा होने की बात भी बताईं। कलक्टरी और शादी दोनों आप को मुबारक हों।
मैं अपने बारे में क्या बताउूं? अपनी ज़िल्लत भरी ज़िन्दगी की दास्तान कहने में झिझक तो लगती है पर फिर भी इस उम्मीद पर बयां कर रही हूं कि आप ने चाहे मुझे भुला दिया हो, पर फिर भी आप की हमदर्र्दी की हकदार तो मैं हूं ही। एक हमदर्द से अपना ग़म बांट लेने पर शायद धधकते जिगर को कुछ सुकूं मिल सके। आखिरी बार मज़हबी दंगे के दौरान गर्मियों की छुट्टियेंा में जब आप आये थे और जल्दी लौट गये थे, उसके बाद पांच गर्मियां और आईं और हर बार आप के आने की आस जागी थी। उसी आस को लेकर मैं मौसी से मिलने चली जाती थी। एक बार गर्मियां आने पर आप के आने के ख्यालों में खोई हुई मैं मौसी के यहां जा रही थी कि पीछे से आते तालुकदार साहब के घोडे़ की टाप न सुन सकी थी और रास्ता खा़ली किये बिना बीचोबीच चलती रही थी; वही बेअदबी मेरी ताज़िंदगी कैद का सबब बन गई। तालुकदार साहब को घोडे़ की रफ़्तार धीमी करनी पडी़ थी और उन्होने मुझे घूरकर देखा था। फिर मेरे अब्बा पर चुग्गा डालकर शिकार फांस लिया था। मैं क्या करती? किसके बूते पर लड़ती? कांटे में फंसी मछली सी तड़पती रही और थक-हार कर चुपचाप इस कोठी में चली आयी थी। ग़रीब और बेसहारा होने की वजह से यहां मैं दूसरी बेगम बनकर कम आई हूं बल्कि लौंडी बनकर ज़्यादा- इस बात का एहसास मुझे लम्हां लम्हां कराया जाता रहा है। पहले दिन से ही मुझे वह खरीदी हुई इस्तेमालिया चीज़ समझते रहे हैं और मैं भी अपने को इंसानियत से ठुकराई हुई कोई ऐसी चीज़ समझने लगी हूं कि जिसके दिल को धड़कने भर की इजाज़त है, महसूस करने की नहीं।
शुरू से मैं उनके लिये एक बहिशियाना नोंच खसोट की चीज़ रही हूं- इंसानी जज़्बात की नहीं। पता नहीं उनमें किसी के लिये इंसानी जज़्बात हैं भी या नहीं? क्योंकि जज़्बातों के मामले में बडी़ बेगम की दास्तान मुझसे अलग नहीं है, बस बडे़ घर की होने की वजह से उनकी खुलेआम तौहीन नहीं की जाती है। मेरी तो दो बार हड्डियां भी तोडी़ जा चुकी हैं- उनकी नोंच खसोट में ना-नुकुर करने पर। अपनी जान पर बन आने पर मैने कई बार तलाक की इल्तिजा भी की है पर इस पर वह और आगबबूला हो जाते हैं। इस कोठी में एक अल्लाहरक्खी ही ऐसी है जो मुझसे हमदर्दी रखती है- एक दिन वह रोते हुए कहने लगी थी,
‘बेगम आप तो फिर भी किस्मत वालीं हैं- आप के आने के पहले मेरी बेटी एक रात उठा ली गई थी, और उसी रात वह दुनियां जहान के सुख-दुख से बरी हो गई थी। और मैं अभागिनी अपनी बेटी के जल्लाद की गुलामी करने को मजबूर हूं।’
अब तक उन्हें मुझसे औलाद की उम्मीद थी, पर अब वह भी ख़त्म हो गई है और वह तीसरी बेगम की तलाश में ंहैं। तब से नौकरानियों के सामने भी मुझे ज़लील किया जाने लगा है।
हो सकता है कि जल्दी ही किसी दिन आप को मेरी इस जहां से रुख़्सती की ख़बर मिले, तो मेरी मय्यत पर ज़रूर आइयेगा। मेरी रूह को तसल्ली मिलेगी।
अगर कुछ ज़्यादा लिख गई होउूं तो माफ़ कीजियेगा।
-रज़िया’’
पत्र पढ़कर मोहित की आंखों में आंसू आ गये थे और तालुकदार के प्रति उसके हृदय में क्रोध का ज्वार उमड़ पड़ा था। कलक्टरी की अधिकार-भावना ने भी जो़र मारा था और उसके मन में आया था कि वह तालुकदार के विरुद्ध अभियोग दर्ज़ करा दे और उसके यहां रेड डलवाकर रज़िया को आजा़द करा दे। परंतु कुछ कर गुज़रने से डरने की मानसिकता ने उसकी इन उडा़नों पर लगाम लगा कर उसके समक्ष कई भीमकाय प्रश्न खडे़ कर दिये थे- क्या तालुकदार साहब के ज़नानखा़ने में पुलिस के घुसने से बखेडा़ नहीं खडा़ हो जायेगा, खा़सकर तब जब कि तालुकदार को सत्तादल का समर्थन प्राप्त है?, क्या मुस्लिम पर्सनल ला के अंतर्गत तालुकदार के विरुद्ध कोई कानूनी कार्यवाही वैध भी होगी?, और क्या रज़िया को आजा़द कराके वह उसे समाज में सम्मान के साथ जीने का अवसर दिला पायेगा? दो दिन तक उधेड़बुन में पडे़ रहने के बाद वह मुख्यमंत्री से मिलने इस आशय से चला गया था कि अल्लाहरक्खी की बेटी की हत्या और बेग़मों की प्रताड़ना की बात से उन्हें अवगत कराकर उन्हें विश्वास में लेकर आगे की कानूनी कार्यवाही की जावेगी। मुख्यमंत्री महोदय उसकी बात सुनकर कडु़़आ सा मुंह बनाकर बोले थेे,
‘‘तुम्हें किसी की बहू बेटियों में इतनी रुचि क्यों हैं? क्यों किसी के घरेलू मामलों में टांग अडा़ते हो? हमारे पास और हज़ारों समस्यायें नहीं हैं क्या?’’
मोहित को यह सुनकर गहरा आघात लगा था और वह साहस कर कह बैठा था,
‘‘पर सर पत्नी पर इस प्रकार का अत्याचार और अल्लारक्खी की बेटी की हत्या तो गम्भीर अपराध हैं?’’
यह सुनकर मुख्यमंत्री महोदय का मुंह लाल हो गया था और उन्होने इतना कहकर बात खत्म कर दी थी,
‘‘जाओ, अपना काम करो।’’
दूसरे दिन जब मोहित अपने ज़िले में पहुंचा, तो उस जनपद के कलेक्टर के पद से सचिवालय में संयुक्त सचिव, गजे़टियर के पद पर अपने स्थानांतरण का आदेश अपनी मेज़ पर रखा हुआ पाया था।
यद्यपि ऐसी सम्भावना कम ही थी कि रज़िया के पत्र का उत्तर मोहित द्वारा उसके पास पहुंचाया जा सकेगा, परंतु मन की प्रकृति है कि असम्भव परिस्थिति में भी आस नहीं छोड़ता है- रज़िया द्वारा मोहित को पत्र लिख देने के बाद उसके मन में भी एक आस बन गई थी कि मोहित उसके लिये कुछ न कुछ करेगा अथवा किसी न किसी प्रकार उस तक अपना संदेश अवश्य पहंुचायेगा। लम्बी प्रतीक्षा के पष्चात भी मोहित की कोई प्रतिक्रिया न प्राप्त होने पर रज़िया गहन अवसाद की स्थिति में जाने लगी थी। रज़िया ने एक ऐसे व्यक्ति के समक्ष अपना दुखडा़ रो दिया था, जिसकी आत्मीयता पर उसेे अटूट विश्वास था परंतु उस व्यक्ति से कोई सहायता तो दूर किसी प्रकार की सम्वेदना भी न प्राप्त होने पर रज़िया के घायल मन में असह्य चोट लगी थी। मोहित की आत्मीयता पर विश्वास का आधार उसके बचपन की स्मृतियां थीं, जिन्हें मोहित से बिलग होने के पश्चात भी रज़िया सदैव एक रुचिकर स्वप्न के समान संजोये रही थी और उस स्वप्न के नायक को रज़िया अपने सर्वस्व का नायक मानती रही थी- उस नायक पर से उसकी श्रद्धा कभी भी कम नहीं हुई थी। इसी विश्वास के कारण उसने मोहित को वह पत्र लिख दिया था और अब उसके द्वारा लिखा प्रत्येक शब्द उसकी स्मृति में बार-बार आकर उसके अहं को कचोट रहा था।
ऐसी अवसाद की स्थिति में एक सायं रज़िया बरामदे में देर से अन्यमनस्क बैठी थी। डूबते सूरज का प्रकाश जो आकाश को अभी तक विभिन्न रंगों में भरता रहा था अब लुप्त हो रहा था। आकाश में प्रकट हो रहे तारों की झिलमिलाहट के अतिरिक्त सर्वत्र अंधेरा छा रहा था। अल्लारक्खी नौकरों वाले अपने कमरे में खाना बनाने चली गई थी। बरामदे की छत से लटकता लम्बी सी जंजी़र से बंधा पिंजडा़ शांत था क्योंकि उसमें बंद हीरामन तोता अमरूद को कुतर कुतर कर खाने के बाद दिवले में रखे पानी को पीकर उूंघने लगा था। बडी़ बेगम तालुकदार के तिरस्कार से रूठ कर अपने मायके चली गईं थीं और काफी़ दिनों से वापस नहीं आईं थीं। अत उनका कमरा बंद था और भुतहा सा लग रहा था। मानसिक अवसाद की स्थिति में रज़िया उस कमरे को एकटक देखे जा रही थी, परंतु उसके विचारों में वह कमरा नहीं था। वह ऐसी मनस्थिति में थी जिसमें मनुष्य स्थान विशेष पर उपस्थित होते हुए भी अपने आस पास घटित होने वाली घटनाओं से तब तक अनभिज्ञ रहता है जब तक उसे झकझोर कर वर्तमान में वापस न लाया जावे।
‘‘हाय मरा। बचाओ, बचाओ!’’
रज़िया को पहले लगा कि किसी लम्बी सुरंग के दूसरे कोने से आर्तध्वनि आ रही है, परंतु वह जैसे जैसे स्थितिप्रज्ञ होती गई, वैसे वैसे वह समझ गई कि यह अल्लाहरक्खी के बेटे जु़बेर की हृदयविदारक चीखें हैं और रज़िया के कमरे से ही आ रहीं हैं। जु़बेर बड़ा सीधा साधा सम्वेदनशील बच्चा था- रज़िया को अवसाद की स्थिति में देखकर प्राय वह उसके पास आकर खड़ा हो जाता था और उसे चुपचाप घूरा करता था। रज़िया के मन को उसकी मूक सम्वेदना से बड़ी राहत मिलती थी।
‘‘अम्मी बचाओ, बचाओ....... छोडो़, छोडो़...’’ जु़बेर की पुकार क्षीण होती जा रही थी जैसे कोई उसका मुंह बंद कर रहा हो। रज़िया को परिस्थिति समझते देर न लगी और उसे जु़बेर की ये चीखें वैसी ही लगीं जैसी उसके मुंह से उसकी सुहागरात पर निकलीं थीं और जिन्हें बरबरता से दबा दिया गया था। आज वह अपने आपे में न रह सकी और उठकर जो़र जो़र से अपने कमरे का दरवाजा़ भड़भड़ाते हुए तालुकदार के लिये गालियां बकने लगी,
‘‘दरवाजा़ खोल हरामी के पिल्ले! देखती हूं तू जु़बेर की कैसे लेता है...आज मैं तेरी में डंडा घुसेडू़़ंगी।......’’
आज रज़िया की जु़बान पर अपने अब्बा का भूत बैठ गया था और उसके अब्बा शराब के नशे में धुत होकर जो जो गालियां घर में बका करते थे वे सभी गालियां फर्राटे से उसके मुंह से निकल रहीं थीें। उसका मुंह अपने अब्बा के मुंह की तरह लाल हो रहा था और उसने अपने हाथ में अपनी जूती ले रखी थी। यह हंगामा सुनकर अल्लारक्खी भी अपने कमरे से आ गई थी और रज़िया की गालियां सुनकर समझ गई थी कि उसका छोटा बेटा तालुकदार के कब्जे़ में फंसा है। आज वह भी डर से सिसकने के बजाय रज़िया के साथ कमरे का दरवाजा़ भड़भड़ाने लगी थी और अपनी जूती लेकर तालुकदार से भिड़ने को तैयार हो गईं थी।
‘‘क्या हंगामा मचा रखा है?’’- दरवाजा़ खोलते हुए तालुकदार साहब ने दोनों को अपने रोब में लेना चाहा। परंतु वह जब तक सम्हल पाते, उनके मुंह और सिर पर जूतियों की जडा़पड़ मच गई थी। तब तक अन्य गुमाश्ते भी आ गये थे और उन्होने रज़िया और अल्लाहरक्खी को बड़ी कठिनाई से खींचकर अलग किया था।
तालुकदार सलाहुद्दीन की कोठी पर ऐसी नाकाबिलेबरदाश्त हरकत पहली बार घटित हुई थी।
दूसरी सुबह तालुकदार साहब की कोठी के सामने सैकडों़ की भीड़ इकट्ठा थी। मुंहअंधेरे सेे जैसे जैसे यह ख़बर फैल रही थी कि कोठी की पीछे की गली में दीवाल के किनारे छोटी बेगम बेहोश अवस्था में और अल्लाहरक्खी मृत अवस्था में पडी़ पाई गईं हैं, भीड़ बढ़ती जा रही थी। दोनेां को उठाकर अंदर लिटा दिया गया था। आने वाले लोग तालुकदार साहब से अफ़सोस जा़हिर कर रहे थे और कुछ सम्भ्रांत दिखने वाले व्यक्ति घटना को अल्लाह का लिखा मानकर सहने हेतु उन्हें दिलासा भी दे रहे थे; परंतु घटना का कारण पूछना बेअदबी न समझा जाये, यह मानकर कुछ पूछने का साहस कोई नहीं कर रहा था। वैसे भी तालुकदार साहब अत्यंत ग़मगीन लग रहे थे और किसी की बात का उत्तर केवल सिर हिलाकर ही दे रहे थे। सरकारी अस्पताल के डाक्टर अन्सारी और थाने के बडे़ दरोगा जी भी आ चुके थे। डा. अन्सारी ने दोनों का परीक्षण करने के पष्चात अल्लाहरक्खी को मृत घोषित कर दिया था और सिपाही लोग उसका पंचनामा तैयार करने लगे थे। छोटी बेगम की चोटें गम्भीर पाकर डा. अन्सारी ने उन्हें तुरंत मेडिकल कालेज ले जाने की सलाह दी थी। तालुकदार साहब पुलिस की जांच-पड़ताल हेतु रुक गये थे और बेग़म साहब को अपने खा़स आदमियों के साथ कार से मेडिकल कालेज भेज दिया था। बडे़ दरोगा जी ने काग़जी़ खानापूरी के उद्देश्य से घर के कुछ लोगों से पूछा कि बेग़म साहिबा और अल्लारक्खी छत से कैसे गिरीं थीं परंतु कोई कुछ भी नहीं बता रहा था। उस भीड़ में जु़बेर भी मौजूद था पर वह बदहवास सा अपनी अम्मा की क्षतविक्षत लाश और उसके आस-पास उपस्थित पुलिसवालों को देख रहा था- पिछले दिन तालुकदार साहब ने उसकी जो हालत बनाई थी उस भय से उसकी बोलने की शक्ति ही समाप्त हो गई थी।
कुछ देर बाद तालुकदार साहब ने थानेदार साहब को अलग बुलाकर कहा,
‘‘आप जानते हैं कि मै एक सियासी शख्सियत हूं और ऐसे हादसे का सियासी फा़यदा उठाने में मेरे दुश्मन नहीं चूकेंगे। इसलिये आप जल्दी ही इस मामले को निबटा दें, तो मेहरबानी होगी। जो सबूत ज़रूरी हो, मिल जायेगा।’’
तभी तालुकदार साहब के एक कारिंदे ने थानेदार साहब को अलग ले जाकर एक मोटी सी नोटों की गड्डी उनके हाथ मंे थमा दी थी। फिर एक खा़स नौकरानी सब के सामने यह बताने के लिये उपस्थित हो गई थी कि छोटी बेग़म ने मुंह अंधेरे अल्लारक्खी को अपने साथ उूपर छत पर हवा में टहलने के लिये बुलाया था। इस बयान से थानेदार साहब को यह प्रकरण आकस्मिक दुर्घटना का होना साबित करने के लिये वह वांछित सबूत मिल गया था जिसे पाने के लिये पुलिस इतनी देर से कसरत कर रही थी।
पुलिस की कार्यवाही पूरी होने पर तालुकदार साहब छोटी बेग़म की ‘देखभाल’ हेतु मेडिकल कालेज के लिये रवाना हो गये थे। वहां यह जानकर कि छोटी बेग़म की बेहोशी यथावत बनी हुई थी और डाक्टर की इस राय पर कि बेग़्ाम के दिमाग़ में इतनी गहरी चोट है कि उनके होश में आने या बचने की सम्भावना अधिक नहीं है, उन्हें दिली तसल्ली हुई थी। परंतु प्रकटत वह डाक्टर से बोले थे,़
‘‘सब अल्लाह मालिक है। इंसान तो बस कोशिश ही कर सकता है।’’
वहां कुछ देर रुककर तालुकदार साहब अपने गुमाश्ते को यह हिदायत देकर चले आये थे,
‘‘बेग़म साहब को सिर में चोट है और ठीक होने के लिये आराम की सख़्त ज़रूरत है, इसलिये किसी भी मुलाकाती को उनके पास न जाने दिया जाये। अगर बेग़म साहब के होश में आने के इम्कान हों तो सबसे पहले उन्हें इत्तिला की जाय।’’
‘‘मोहित, तुम्हें पता चला कि सलाहुद्दीन की छोटी बेग़म मेडिकल कालेज में भर्ती हैं?’’- मोहित सचिवालय में अपने कार्यालय में एक पत्रावली को पढ़ रहा था जब उस कलेक्टर, जिसे अपने स्थानांतरण पर वह जनपद का चार्ज देकर आया था, ने उसे फोन पर यह सूचना दी थी। चार्ज देते समय मोहित ने अपने उत्तराधिकारी को सलाहुद्दीन की करतूतों के विषय मे संक्षेप में अवगत करा दिया था और अपने स्थानांतरण का कारण सलाहुद्दीन की राजनैतिक पहुंच होना बता दिया था। इसी कारण से उसे सलाहुद्दीन की कोठी में घटित इस घटना के विषय में मोहित को बताने का ध्यान आया था। मोहित का हृदय एक क्षण को धक से रह गया था। रज़िया के साथ अघट के घटने की आशंका उसके मन में पहले से बैठी हुई थी, उसके मन में यह चोर भी छुपा हुआ था कि रज़िया द्वारा अपनी व्यथा कथा उस तक पहुंचाने पर भी वह रज़िया के लिये कुछ भी नहीं कर पाया था। तमाम नौकरीपेशा लोगों की मनोवृत्ति की भंाति ज़िला कलेक्टर के पद से स्थानांतरण कर दिये जाने पर वह यह सोचकर चुप बैठ गया था कि इस राजनैतिक माहौल में वह इससे अधिक कर भी क्या सकता है। अपनी मनोग्रंथियों के कारण कोई क्रांतिकारी कदम उठा लेना उसके साहस की सीमा के बाहर की बात थी और फिर प्रशासकीय सेवा के नियम एवं प्रलोभन ऐसे होते हैं कि किसी क्रांतिकारी व्यक्ति को भी लकीर का फ़कीर बना दें। मोहित इस पारिवारिक एवं सामाजिक भय से भी ग्रस्त था कि छोटी बेग़म में अधिक रुचि दिखाने पर कोई उनके सम्बंधों पर उंगली न उठा दे। फोन सुनकर अपने को संयत रखने का प्रयास करते हुए मोहित ने कहा,
‘‘क्यों क्या हुआ?’’
‘‘कल सुबह छोटी बेग़म और अल्लाहरक्खी कोठी के पीछे की गली में छत से गिरी हुई पाई गईं थीं। अल्लारक्खी तो पहले ही दम तोड़ चुकी थी, पर छोटी बेगम को बेहोशी की हालत में मेडिकल कालेज ले जाया गया है। यद्यपि पुलिस की रिपोर्ट में रात में छत पर टहलते समय अंधेरे में गिर जाने का मामला बताया गया है, परंतु आप ने तालुकदार साहब के विषय में जो बातें मुझे बताईं थीं, उससे मुझे दाल में काला लगता है। पर आप जानते ही हैं कि तालुकदार के विरुद्ध कोई गवाही मिलना कितना कठिन है।’’
फोन के तार पर तरंगित हर स्वर के साथ मोहित का हृदय कम्पित हो रहा था। वह थोडी़ देर की चुप्पी के बाद बोला,
‘‘यार फिर भी सही बात पता लगाने की कोशिश करना। ज़रूर यह उस साले तालुकदार की ही करतूत होगी। ऐनीवे थैंक्स फार दी इन्फ़ार्मेशन।’’
टेलीफोन को वापस क्रैडिल पर रख देने के पश्चात रज़िया की चोट की गम्भीरता का आभास मोहित के मानस में समाने लगा- रज़िया जो उसके बचपन की साथी है, रज़िया जो मोेहित की किशेारास्था में उसकी स्वप्नसंगिनी रही है, रज़िया जो मोहित केा सदैव अपना मानती रही है, रज़िया जिसने उस पर भरोसा कर अपने दैन्य को उसके समक्ष उजागर कर दिया था, आज मोहित की अकर्मण्यता के फलस्वरूप जीवन और मृत्यु के बीच झूल रही है। फिर यह सोचकर कि कोई कुछ कहे देखा जायेगा, उसने मेडिकल कालेज जाने का निश्चय कर डा्इवर को गाडी़ लगाने को कह दिया।
सचिवालय से मेडिकल कालेज के रास्ते में प्रतिदिन की भांति काफी़ भीड़ थी- बसें, कारें, रिक्शे, स्कूटर, सायकिलें और गायें-भैंसें सड़क पर अपना एकछत्र प्रभुत्व मानकर हार्न, घंटी आदि बजाते हुए अथवा सामने वाले को ठेलते हुए चले जा रहे थे, परंतु उस समय मोहित के लिये ये सब अस्तित्वहीन थे। वह बस रज़िया के उस साहचर्य में खोया हुआ था जो उसने बचपन में उसके साथ भोगा था। गर्मियों में मोहित के आने पर मोहित की मौसी तलैया किनारे जामुन के पेड़ की डाल पर झूला डलवा दिया करतीं थीं। एक दिन रज़िया को उस पर बिठाकर मोहित पंेग से पेंग बढा़ रहा था। पेंगांेेें के बढ़ने के साथ रज़िया खिलखिलाकर हंसती थी और मोहित उसकी खिलखिलाहट पर उतने अधिक जो़र से पेंग बढा़ता था, कि तभी एक पेंग के साथ रज़िया झूले से खिसककर नीचे गिर गई थी। मोहित ने झूला रोककर देखा कि रज़िया के घुटने से ख़ून निकल रहा है और आंखों से आंसू। उसको रोता देखकर मोहित का हृदय भर आया था और उसके नेत्र छलछला आये थे। मोहित रज़िया को चुप कराने लगा था और अपनी उंगलियों से उसके आसू पोंछने लगा था। फिर उसे सहारा देकर मौसी के पास ले गया था जिन्होनें रज़िया का घाव धोकर उस पर मलहम लगा दिया था। उस दिन मोहित बडा़ दुखी रहा था, और उसे सांत्वना तभी मिली थी जब दूसरे दिन उसने रज़िया को मुस्कराते हुए अपने सामने पाया था.....‘आज जब रज़िया को इतने बडे़ बडे़ घाव लगे हैं तब उसके आंसू पोछने वाला उसके पास कौन होगा? वहां पहुंचकर भी वह उसे क्या सांत्वना दे सकेगा? पता नहीं वह रज़िया के निकट जा पायेगा भी या नहीं.......रज़िया को कितनी गहरी चोटें लगीं हैं और पता नहीं कि वह बचेगी भी या नहीं?.......यह ज़रूर उस साले तालुकदार की ही करतूत होगी, उसी ने रज़िया को छत से ढकेल दिया होगा........पर मैने भी उसकी क्या सहायता की? हो सकता है कि मेरी ओर से कोई आश्वासन न पाकर उसी के जीने की इच्छा समाप्त हो गई हो और वह छत से कूद पडी़ हो तथा अल्लारक्खी उसे बचाने में गिर गई हो.......पर हुआ सब कुछ उस साले तालुकदार की करतूतों से ही है; मेरी चले तो साले को ज़िदगी भर जेल में सडा़उूं। पर इन साले पोलिटिशियन्स की वजह से बदमाशों को कहां सजा़ मिल पाती है?’
‘‘सर, किस वार्ड में चलना है?’’ ड्ाइवर की आवाज़ सुनकर मोहित ने चैंककर देखा कि मेडिकल कालेज आ गया है और सामने सफे़द जैकेट पहने, गले में स्टेथोस्कोप डाले कुछ नवयुवक डाक्टर तेजी़ से चले जा रहे हैं।
‘‘प्रायवेट वार्ड नम्बर पांच।’’ मोहित ने उत्तर दिया।
गाडी़ से उतरकर मोहित ज्यों ही प्रायवेट वार्ड नम्बर पांच के दरवाज़े की ओर बढ़ने लगा, एक मुस्टंडा सा आदमी उसके सामने आ गया। वह मोहित को रोकने के लिये कुछ कडी़ बात कहने वाला था कि मोहित को पहचानकर भीगी बिल्ली बनकर बोला,
‘‘हुजू़र, आप यहां कैसे?’’
मोहित समझ गया कि तालुकदार का कोई आदमी है और बोला,
‘‘सुना है कि छोटी बेग़म छत से गिरकर घायल हो गईं हैं और यहां भर्ती हैं। मैं उन्हें देखने और तालुकदार साहब से अफ़सोस जताने आया हूं।’’
‘‘पर तालुकदार साहब तो यहां हैं नहीं और बेग़म अभी बेहोश हैं।’’ वह आदमी कोई बहाना बनाकर मोहित को कमरे में जाने से रोकना चाहता था परंतु मोहित के पद का ध्यान कर हिम्मत नहीं कर पा रहा था।
उसकी मनोदशा भांपकर मोहित ने कहा,
‘‘कोई बात नहीं। मैं दो मिनट ही देखूंगा’’ और बिना उत्तर की प्रतीक्षा किये कमरे में अंदर घुस गया ।
लोहे के पलंग पर रज़िया बेहोश पडी़ थी- उसके सिर में अस्पताली पट्टी बंधी थी और उसका चेहरा मुर्झाया हुआ और पीला था परंतु उस चेहरे में भी रज़िया के बचपन वाले चेहरे की झलक मोहित को दिखाई दे रही थी। रज़िया की दाहिनी बांह में सुई लगी हुई थी जिससे ग्लूकोज़ की बोतल से टपकता ग्लूकोज़ बूंद बूंद रज़िया के रक्त में प्रवेश कर रहा था। बायें हाथ में पट्टी बंधी थी जो खून से काफी़ लाल थी और पैरों पर चादर पडी़ हुई थी। उस क्लांत शांत चेहरे केा मोहित एकटक देखता रहा और उसका मन हुआ कि वह रज़िया को पुकारे और उसके निकट बैठकर उसका हाथ अपने हाथ में लेकर उसे सांत्वना दे, परंतु उस मुश्टंडे आदमी की उपस्थिति के कारण वह वर्जनाग्रस्त हो गया था। पता नहीं मोहित के अंतर्मन से प्रवाहित तरंगों के स्पर्श से अथवा अन्य किसी कारण से रज़िया ने अपने नेत्रों की पुतलियां कुछ हिलाईं, परंतु फिर वे ऐसे शांत हो गईं जैसे पुतलियों के हिलाने का कष्ट सहा न जा रहा होे। उसकी यह दशा देखकर मोहित अपने नेत्रों में उमड़ते अश्रुओं को रोकने हेतु कमरे से बाहर आ गया और डाक्टर के पास जाकर अपना परिचय देते हुए पूछा,
‘‘ह्वाट इज़ हर कंडीशन? उसकी दशा क्या है?’’
‘‘देयर इज़ डीप ब्रेन इंजरी बिसाइड्स अदर मल्टीपुल फ्रै़क्चर्स। प्रैाग्नौसिस इज़ नौट गुड अन्य हड्डियों के टूटने के अतिरिक्त मस्तिष्क में गहरी चोट है, लक्षण अच्छे नहीं हैं।’’ डाक्टर ने स्पष्टता से उत्तर दिया।
‘‘प्लीज़ डू योर बेस्ट टु सेव हर कृपया उसे बचाने का हर सम्भव प्रयास कीजियेगा।’’
डाक्टर ऐसे अनुरोध प्राय सुनता रहता था और उसने रटा रटाया उत्त्र दे दिया,
‘‘रेस्ट एश्योर्ड, आई शैल डू माइ्र बेस्ट निश्चिंत रहिये, मैं अपनी क्षमता भर पूरा प्रयास करूंगा’’
मोहित जब वापस अपने कार्यालय पहुंचा तो एक नपुंसक ग्लानि एवं क्रोध से ग्रस्त था। वह जानता था कि प्रदेश का कोई भी न्यायतंत्र तालुकदार के विरुद्ध कुछ भी करने वाला नहीं है। अत उसने प्रधानमंत्री के नाम तालुकदार के विरुद्ध एक शिकायती पत्र लिखा जिसमें अल्लाहरक्खी की पुत्री से बलात्कार और हत्या, छोटी बेग़म पर अमानुषिक अत्याचार और जनसाधारण पर निरंकुश शासन की घटनाओं का उल्लेख करते हुए केन्द्रीय एजेंसी को जांच सौंपने का अनुरोध किया गया था। उसमें यह भी लिख दिया था कि अपनी कलेक्टरी के दौरान उसने मुख्यमंत्री महोदय को विश्वास में लेकर तालुकदार के विरुद्ध कार्यवाही की योजना बनाई थी, परंतु मुख्यमंत्री महोदय से बात चलाने पर उसका अविलम्ब स्थानांतरण कर दिया गया था। अत केन्द्र शासन से ही तालुकदार के विरुद्ध कार्यवाही की आशा की जा सकती हे।
दो दिन बाद मोहित पुन अपने को न रोक सका ओर रज़िया को देखने मेडिकल कालेज चला गया, परंतु जब वह वहां पहुंचा तो तालुकदार के उसी मुश्टंडे ने उसे सामने खडे़ होकर रोक दिया और अकड़ से बोला,
‘‘हुजू़र! माफ़ कीजियेगा, तालुकदार साहब किसी भी बाहरी आदमी को बेग़म साहब के कमरे में जाने की सख़्त मुमानियत कर गये हैं।’’
मोहित को क्रोध तो बहुत आया परंतु अपने पास रज़िया को देखने जाने का कोई स्वीकार्य बहाना न होने के कारण वह अपने क्रोध को पी गया था। डाक्टर से मिलने पर उसने बताया था,
‘‘शी इज़ एट दी टर्मिनल स्टेज वह आखिरी सांसें गिन रही है’’
मोहित के मुंह से अनायास उच्छवास निकल गया था।
अगले सप्ताह मोहित को उसका देहली के लिये स्थानांतरण किये जानेे एवं अविलम्ब प्रस्थान करने का आदेश प्राप्त हो गया था।
दिल्ली जाने हेतु रात्रि की गाडी पकड़ने के लिये स्टेषन जाते समय वह एक बार फिर मेडिकल कालेज गया।
उस समय रज़िया का शव वार्ड से बाहर निकाला जा रहा था।
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