सड़कछाप
(10)
लड़ते-झगड़ते चाचा-भतीजा घर लौटे। उस रात खाना भी नहीं बना, रामजस चिलम फूंककर और अमरेश ने दालमोठ खाकर काटी। वो सुबह उठा तो दरवाजे पर आकर उसने देखा दोनों गायों का स्थान खाली था। उसे अपने नाना की बात याद आयी कि रामजस सब बेच डालेंगे और अंत में भूखा मारेंगे उसको । उसकी गायें भी गयीं और वो कल भूखा भी सोया। नाना तो बात ठीक कही थी मगर आदमी ठीक नहीं थे, झूठे थे इसीलिए तो दुबारा उसकी हाल-खबर नहीं ली।
उसने खाना बनाया, खुद खाकर चला गया और पूरा दिन, ताश, रेडियो में बिता दिया। शाम को घर लौट रहा था तो उसे गांव के कुछ लोग देख-देखकर मुस्करा रहे थे। उसका एक साथी मिला प्रमोद उसने कहा कि “ तुम्हारी मम्मी जिस गांव में हैं वहां वीडियो लगा है, तीन -चार कैसेट चलेंगे। चलोगे देखने”।
अमरेश ने उसे गाली देते हुए कहा”यहाँ तुम्हरी मम्मी को मैं नाच देख लूंगा”।
दोनों में पटका-पटकाई हो गयी। हाथ मुँह छिल गया दोनों का। लोगों ने उन्हें अलग किया।
उसी बातकहनी के दरम्यान अमरेश को पता लगा कि उसकी माँ को लड़का पैदा हुआ है। उसी लड़के की आज बरही है, उसी खुशी में आज गाँव के कई लोगों के घरों में दावत भी है। दावत के बाद वीडिओ भी लगेगा जिसे देखने आस-पास के गाँवों के लोग भी जुटेंगे।
अमरेश को इस खबर से शर्मिंदगी हुई वो वहाँ से हट गया और अपने घर लौट आया।
उसका खाना खाने का मन नहीं था उसने देखा दिन का खाना बचा था। उसने सोचा ये खाना दादा खा लेंगे। उसने बिना दूध के चाय बनायी, बगल की दुकान से डबल रोटी ले आया और वही खाकर लेट गया। वो बड़ी देर तक अपने हालात और किस्मत पर सोचता रहा, रोता, सुबकता रहा।
इसका मतलब कि दादा कोई मुकदमा नहीं लड़ रहे थे खाली ठग रहे थे उसको। किसी दिन उसको मारकर उसका घर-खेत भी बेच डालेंगे। मम्मी ने दूसरा लड़का पैदा कर लिया इसका मतलब अब वो नहीं लौटेंगी। एक लड़के के लिये वो अपने पति और लड़के को छोड़कर नहीं आ सकतीं। वो अभागा ना होता तो उसके बाप जिंदा होते। उसे अब अपनी ज़िन्दगी खुद देखनी है इसलिये उसे सबसे पहले रामजस दादा से बंटवारा करना पड़ेगा। क्योंकि जब वो अलग हो जायेगा तब दादा उसके हिस्से की फसल नहीं बेच सकेंगे। इसीलिए चाचा इनसे अलग हो गये। अब मैं भी अलग हो जाऊंगा। विचारों के इसी भँवर में वो डूबते-उतराते सो गया।
रामजस अगले सोमवार को सुबह ही कहीं निकल गये उन्हें गाय खरीदने नहीं जाना था। पूरा दिन अमरेश ने उनको खोजा मगर रामजस ना मिले। अमरेश खा -पीकर सो गया तब रामजस रात के किसी वक्त आये। अमरेश ने पक्का कर लिया था कि अब वो रामजस से अलग हो जायेगा।
अगली सुबह उसने रामजस से बात नहीं की और एक ट्रैक्टर वाले को बुला लिया। ट्रैक्टर खेत में पहुंचा और एक भी लाइन की एक ताव जुताई ना हुई थी। वैसे ही हौसिला मिसिर पहुंच गए। वो उसी के टोले में रहते थे और पांच हट्टे-कट्टे लड़कों के बाप थे। हौसिला ने ट्रैक्टर को रोक दिया।
अमरेश ने हैरानी से पूछा”काका, काहे रुकवा दिये। तुमको भी अपना खेत जुतवाना है का?हमारा हो जाये तो तुम भी जुतवा लेना”।
हौसिला मिसिर ने कहा”बेटा, अब ये खेत हमारा है । साल भर के लिये तुम्हारे चाचा-भतीजा का खेत हम ले लिये हैं”।
अमरेश ने हैरानी से पूछा”तुम ले लिये हव, खरीदे हो का”
हौसिला ने कहा”खरीदे नहीं है साल भर का ठेका पर लिये हैं। तुम्हारे दादा सारा खेत हमको कूत पर दिए हैं । तुम्हारा और तुम्हारे दादा का बारह बीघे दस हजार पर साल भर के लिये हमको तुम्हरे दादा दिये हैं। एक महीना हो गया। अब साल भर बाद ही इसको तुम जुतवा सकते हो। ना तुम, ना तुम्हारे दादा”।
अमरेश ने प्रतिवाद से कहा”दादा हमारे हिस्से के मालिक नहीं हैं। वो अपना दे सकते हैं हमारा नहीं। हम अपना जोतवाएँगे। हमको ना रोको। “
हौसिला मिसिर नाराज होते बोले”झापड़ मार देब, पेशाब कर देबो, कौन मालिक है अपने घर में निपटाओ। खबरदार जाओ यहाँ से”।
विवाद बढ़ता देख चार लोग और जुट गये। रामजस को बुलवाया गया। सबके सामने रामजस ने हौसिला से पैसा लेने की बात मानी।
अमरेश ने कहा”मुझसे पूछे बिना कैसे तुमने दे दिया । और दे दिया तो जो पैसा है उसमें आधा मुझे दो। “
रामजस ने कहा”रुपये सब वकील को दे दिये। तुमने ही तो कहा था कि जुग्गीलाल को जेल भिजवाना था तो उसी में सब खर्च हो गये। अब कुछ नहीं बचा”।
अमरेश भन्ना गया “साल भर से जुग्गीलाल का जेल भेज रहे हव। दो फसल, दो गाय, घर धन सब गंवा दिये और उखाड़ क्या पाये जुग्गीलाल का। तुम्हारे कारन ही मम्मी चली गयी। सुरसा के मुँह की तरह सब लील गये। डाकू से भी......”।
अमरेश की बात पूरी ना हुई कि रामजस उस पर पिल पड़े उसे उठाकर पटक दिया और लात-घूंसे से मारते हुए उसकी माँ को गालियां देने लगे। रामजस के वज्र प्रहारों से अमरेश दर्द से बिलबिला उठा । उसके हाथ मे एक ईंट का बड़ा टुकड़ा आ गया। उसने रामजस को खींचकर उस ईंट के टुकड़े से मारा, रामजस के सर से ख़ून बहने लगा। खून देखकर लोग सकपका गये। लोगों ने मुश्किल से रामजस को अमरेश से अलग किया। रामजस खौल रहे थे वो अमरेश को और मारना चाहते थे। अमरेश को वहां जान का खतरा महसूस हुआ। उसे लगा कि अगर रामजस बच गये तो वो उसे मार डालेंगे और रामजस मर गए तो पुलिस उसे पकड़ ले जाएगी। इसलिये वो
वहाँ से भागा। वो दौड़कर अपने घर गया । एक झोले में अपने कुछ कपड़े भरे अपनी जमा पूँजी बटोरी जो कि आठ -दस रुपये से ज्यादा ना थी क्योंकि पैसे तो उसने ट्रैक्टर वाले को दे दिये थे। वो भागकर रामजस के कमरे में गया। उनका बक्सा खोला एक रुमाल में कुछ रुपये और सिक्के थे। उसने उनको अपने पैंट में डाला और वहाँ से सरपट भागा। उसको भागते देखा तो कौतूहल में लोग उसके पीछे”रुको, रुको कहते हुए दौड़े। अमरेश को लगा लोग उसको पकड़ने के लिये दौड़े आ रहे हैं। वो सिर पर पांव रखकर भागा। उसके एक पैर की चप्पल टूट कर पैरों से निकल गयी। वो भागता ही रहा जब तक वो गाँव से एक कोस दूर नहीं निकल गया। उसने पलट कर देखा उसके पीछे अब कोई नहीं आ रहा था तब उसने दम लिया । उसे बहुत डर लग रहा था वो एक पोखर के पास छिप गया। वहाँ उसने पूरा दिन इस ताड़ में बिताया कि कहीं कोई उसे पकड़ने तो नहीं आ रहा है। पूरी दोपहरी वो बाग में रहा और बंदरों की उछल-कूद में को देखता रहा। भूख लगने पर उसने आँवले और बढ़हल के फल तोड़ कर खाये। एक खेत से मूली उखाड़ी और पोखर का पानी पीकर दिन काटा। वहाँ दिन तो काटा जा सकता था पर रात नहीं इसलिये सूर्य के अस्त होने की गति देखकर वो पास के बाजार मुर्तिहा में आ गया। वो सीधे छंगा आढ़ती की दुकान पर गया।
अमरेश ने छंगा बनिया से कहा”कुछ पैसा हमको दे दो, रामजस दादा की दवाई ले जाना है। कसम से वही हमको भेजे हैं”।
छंगा ने कोई प्रतिक्रिया दी उसने सामान समेट लिया और सब साइकिल पर सब रख दिया। अमरेश हताश नजरों से उसे देखने लगा। छंगा बनिया ये जान रहा था कि लड़का झूठ बोल रहा है और शुकुल पंडित आकर बहुत बवाल करेंगे। छंगा किसी जमाने में लल्लन शुकुल की नौटंकी का बहुत मुरीद रहा था मगर शौक अपनी जगह, व्यापार अपनी जगह। वो चल पड़ा तो अमरेश हताश हो गया।
छंगा चल पड़ा तो अमरेश पीछे से बोला”बनिया हमको स्टेशन तक साईकल से छोड़ दो। तुम्हारा गाँव तो स्टेशन के उस पार है”।
छंगा रुक गया और शंकित स्वर में बोला”पंडित स्टेशन का करने जाओगे”?
अमरेश को मानो काठ मार गया वो चुप ही रहा।
छंगा फिर बोला “अच्छा तो झोली भी लिये हो, परदेस भाग कर जा रहे हो”।
अमरेश ने नजरें नीची कर ली, लेकिन फिर नजर उठाकर छंगा को कातर दृष्टि से देखा।
छंगा ने कहा”चप्पल तक नहीं है पैर में। परदेस कैसे जाओगे?यहाँ रहोगे बेटवा तो भी जीना मुश्किल है । महतारी उस गति गयी और रामजस सब घर-धन चरस-गांजा में उड़ाये देत हैं”।
अब तक अमरेश का चेहरा आँसुओं से तर-ब-तर हो चुका था। छंगा असमंजस में पड़ गया कि ये लड़का उसके बेटे रासबिहारी के साथ पढ़ा भी है और बिना माँ-बाप के भी है।
छंगा ने कहा”पंडित तुमको पैसा देंगे तो शुकुल हमको फरसा से काट देंगे। हम जान रहे हैं कि फसल तुम्हारी भी है । फिर भी तुम्हारा हिस्सा तुमको हम नगद नहीं दे सकते। नहीं तो बामन भर मिलके हमको उजाड़ देंगे”।
अमरेश चुप ही रहा, छंगा ने बीड़ी सुलगा ली। कॉफी देर तक उनके बीच शांति बनी रही। छंगा ने अपनी जेब से सौ का एक नोट निकाला और अमरेश को देते हुए बोला”पंडित जाओ इस पैसे से पहले एक जोड़ी चप्पल खरीद लेना। ये रुपया तुम्हारे हिसाब में नहीं जोड़ेंगे। जाओ जहां मन हो जाओ। परदेस जाना और ज़िंदा जिउमान लौटना तो हमारा पैसा लौट देना, बाकी तुम्हारा धरम-इमान जाने। तुमने लौटा दिया तो ठीक नाहीं हम समझेंगे कि बाभन को दान दिया। कसम है तुमको तुम्हारे मरे बाप की जो ये बात किसी को बताये कि हम तुमको पैसा दिये थे। नाहीं तो बाभन लोग हमको बहुत तंग-तराश करेंगे कि हम उनका लड़का परदेस भगा दिये”।
अमरेश के चेहरे पर रौनक लौट आयी। उसने आँसू पोछ लिये।
छंगा ने कहा”सुनो, मैं तुमको अपनी सायकिल पर बैठाकर स्टेशन नहीं छोड़ सकता। कोई देख लिया तो सब हमको मार डालेंगे। रात होने वाली है। आगे-आगे हम पैदल सायकिल से चलते हैं। हमसे सौ कदम पीछे तुम चलना। अकेले जाओगे तो कटहा सियार, भेड़िया कुछ भी मिल सकता है”ये कहकर छंगा पैदल ही अपनी साइकिल लेकर चल दिया। तीन किलोमीटर का सफर गन्ने के खेतों के बीच बनी पगडंडियों पर उन दोनों ने एक निश्चित दूरी बनाये हुए तय किया। जब तक वो स्टेशन पहुंचे तब तक पूरी तरह अँधेरा घिर चुका था।
स्टेशन पहुंचने पर छंगा ने अमरेश को दस का एक नोट और देते हुए कहा”ये लो पंडित रास्ते मे कुछ खा-पी लेना भगवान तुम्हारी मदद करें बेटा”। ये कहकर छंगा स्टेशन के उस पार चला गया। छंगा चला गया तो अमरेश ने अपने पैसों की पोटली निकाली और गिना अब उसके पास दो सौ सत्त्तावन रुपये हो गये थे। उसने सुन रखा था कि एक जगह पैसे रखने से चोरी हो जाते हैं। सो उसने पहले टिकट लेने को सोचा। लेकिन कहाँ का टिकट ले ये तो उसने सोचा ही नहीं था। कहाँ जाये वो उन्नाव, बुआ के घर जाये, नहीं वहां तो रामजस और पुलिस दोनों पहुंच सकती है। तो फिर फूफा के पास जाये, दिल्ली, हाँ दिल्ली ही ठीक होगा । सुना है बहुत बड़ा शहर है, पुलिस उसे वहां ढूँढ नहीं पाएगी। उसने पक्का कर लिया कि वो दिल्ली ही जायेगा।
अमरेश ने टिकट काउंटर पर पूछा”भाई साहब, दिल्ली का एक हाफ टिकट मिलेगा”।
भाई साहब, और हाफ टिकट सुनकर टिकट बाबू चौंका । उसने अमरेश को नीचे से ऊपर तक निहारा और पूछा”किसका हाफ टिकट चाहिये”?
हमारा और किसका “?
“तुम चौदह-पंद्रह साल के लगते हो तुम्हारा आधा नहीं, पूरा टिकट लगेगा”टिकट बाबू ने कहा।
अमरेश के पास पैसे थे अब वो निडर था। उसने ढिठाई से कहा”चूतिया ना बनाओ, बस में अमेठी सुल्तानपुर तक गया हूँ। दादा ने हमेशा हाफ टिकट ही लिया। अभी कल ही गया हूँ। आधा ही लगेगा, हाफ टिकट दो एक”।
टिकट बाबू भन्ना गया। उसने कहा “ज्यादा अकड़ो मत। तुम्हारे जैसे लौंडो को जेब में धरे घूमते हैं। ज्यादा फन्ने खां बनोगे तो पुलिस बुलवाकर पिटवाएँगे और जेल भी भिजवाएंगे। “
उसका तेवर देखकर अमरेश वहाँ से खिसक लिया। उसने पता लगा लिया था कि गाड़ी अभी चार घंटे लेट है। उसे भूख लगी तो उसने मूंगफली खाकर और स्टेशन के लंबे प्लेटफॉर्म पर घूम-फिरकर वक्त काटा। काफी देर गुजर जाने के बाद उसने अनुमान लगाया कि अब टिकट बाबू की ड्यूटी बदल गयी होगी ये सोचकर वो टिकट खिड़की पर गया। उसका अंदाज़ा सही निकला। काउंटर पर एक बुजुर्ग आदमी थे। उसने फिर से टोह लेते हुए कहा”अंकल जी दिल्ली का एक हाफ टिकट देना”।
टिकट बाबू ने कहा “अकेले का हाफ टिकट “।
अमरेश ने जल्दी से कहा”हाँ, बाकी और लोग साथ हैं। एक टिकट छूट गया था अब वो दे दीजिये”।
टिकट बाबू हंसते हुए बोला”अभी लौंडे हो बेटा, पहले वाले बाबू से लफड़ा किये थे ना। तब मैं यहीं लेटा था। पूरा टिकट ले लो बेटा, नहीं आगे फंस जाओगे। “झक मारकर अमरेश ने पूरे टिकट के लिए सहमति दी
नब्बे रूपये’कहते हुए जब टिकट बाबू ने टिकट दिया तो अमरेश की आँखे चमक उठीं। उसे इतने सस्ते टिकट की उम्मीद नहीं थी। टिकट लेकर वो ट्रेन का इंतजार करने लगा। ट्रेन आयी तो जनरल के तीनों डिब्बे बंद थे। बहुत प्रयास करने के बावजूद अंदर से उन डिब्बों की चिटकनी नहीं खुली। अंततः ट्रेन चल दी। दौड़कर वो टीसी के पीछे -पीछे एक डिब्बे में घुस गया। ट्रेन ने जब रॉयबरेली स्टेशन पार किया तो वो खुद टीसी के पास जाकर बोला”अंकल, मेरे काका जनरल डिब्बे में हैं। स्टेशन पर मैं उनसे छूट गया था फिर सबने दरवाजा बंद कर लिया । आप मेरी कुछ मदद कीजए”।
टीसी रुखाई से बोला”टिकट है उनके पास या तुम्हारे पास”।
अमरेश ने मासूमियत से कहा”मेरा तो मेरे पास, ये देखिये”ये कहकर उसने अपना टिकट दिखाया और आगे बोला”वो सगे काका नहीं हैं, साथ में हैं”।
“तो वो तुमको अकेले काहे छोड़ दिये लौंडा-लपाड़ी को”टीसी ने अपनी शंका प्रकट की?
अमरेश ने फिर उसी मासूमियत से कहा”वो हमको तम्बाकू लाने भेज दिये थे और कहे कि तंबाकू ले आओ तब तक मैं सीट छकाता हूँ। जब मैं लौटा तो दरवाजा बंद हो चुका था। “
“तब तम्बाकू का क्या किये”टीसी ने चुहल करते हुए पूछा, फिर बोला”वो तुम्हारी सीट रख लिये तुम उनकी तम्बाकू रख लो। हिसाब बराबर हो गया”ये कहकर वो हँसने लगा।
अमरेश सतर्क हो गया कि कहीं ये तम्बाकू के बारे में और भी दरयाफ्त ना करें और उसकी सच्चाई पकड़ लें । टीसी ने फिर पूछा”वैसे कौन सी तंबाकू थी, चुनहीँ, जर्दा या बत्तीस?”
अमरेश ने बड़े आत्मविश्वास से कहा”साहब, खिड़की खुली थी वो तम्बाकू का पैकेट ले लिये, चुनहीँ थी। काका तो दरवाजा भी खोलना चाहते थे मगर बाकी लोग उनको दरवाजा खोलने ही नहीं दिये तब तक गाड़ी चल दी। “
टीसी ने लंबी साँस ली फिर मुस्कराते हुए बोला”तो तुम तम्बाकू भी गंवाये और सीट भी । अच्छा ठीक है यहीं पड़े रहो। सुबह तक मेरी ही ड्यूटी है, बाद में देखेंगे। “
टीसी ने उसे एक सीट दे दी। अमरेश थोड़ी देर बैठा रहा फिर लेट गया और लेटते ही उसकी आँख लग गयी।
शोरगुल से अमरेश की आँख खुली तो उसने देखा कि लोग डिब्बे से उतर रहे थे। उसने एक आदमी से पूछा”अंकल कहाँ पहुंचे हम लोग”?
“दिल्ली, अब क्या यार्ड में जायेगा ट्रेन के साथ”वो आदमी रुखाई से बोला।
अमरेश ने शंकित स्वर में पूछा”यार्ड क्या”?
वो आदमी उसी रुखाई से बोला”भई गोदाम में जायेगा तू, दिल्ली की ट्रेन है दिल्ली आ गया और क्या’?
स्टेशन से अमरेश बाहर निकला तो जुबान पर सिर्फ यही शब्द रटे थे, चर्च रोड, नबी करीम, मोंटी ट्रांसपोर्ट। उसे लगा था कि दिल्ली उसके गाँव के पुरवों जैसी होगी कि किसी का भी नाम बताओ लोग तुरंत पता बता देंगे। नाम भी ना पता तो सिर्फ कुछ प्रमुख लक्षण और पहचान चिन्ह बता देने पर लोग घर का पता लग जाता था। मगर यहां तो कीड़ों -मकोड़ों के झुंड की तरह आदमी ही आदमी, चीख़ते-चिल्लाते, भागते-दौड़ते हांफते लोग। पता ही नहीं चलता कि कोई कहीं से आ रहा है या कोई कहीं जा रहा है । हर कोई किसी -किसी ना किसी हड़बड़ी में है कि कुछ छूट ना जाये । चालीस से अधिक लोगों से चर्च रोड, नबी करीम पूछने के बाद भी अमरेश को कुछ पता नहीं लगा। वो थककर बैठ गया । उसने सोचा कि घर से भागकर उसने कोई गलती तो नहीं की, क्योंकि यहाँ उसकी बुद्धि बिल्कुल काम नहीं कर रही थी। दिन चढ़ते-चढ़ते दोपहर हो गयी। भूख से अंतड़ियां ऐंठने लगीं तो उसकी रही -सही बुद्धि ने भी काम करना बंद कर दिया। उसने अपने गाँव वालों से सुन रखा था कि दिल्ली में सरदारों के होटल पर खाना सस्ता और ज्यादा मात्रा में मिलता है वो लोग खाने-पीने की चीजों में कटौती नहीं करते। स्टेशन के इर्द -गिर्द खोजने पर उसे किसी सरदार का होटल ना मिला। वो स्टेशन से बाहर आया और थोड़ी दूर तक चलने के बाद उसे एक सरदारजी का छोले-भटूरे का ठेला नजर आया। सरदारजी को देखकर उसे तसल्ली हुई और छह रुपये में मोटी रोटी की तरह तीन भटूरे और छोले खाकर वो तृप्त हो गया। पेट में दाने गये तो दिमाग ने भी काम करना शुरू कर दिया। उसे याद आया कि मोंटी ट्रांसपोर्ट का मालिक भी सरदार है। उसने अंदाजा लगाया कि जैसे उसके गांव-जंवार का हर ब्राम्हण, दूसरे ब्राम्हण को जानता है वैसे ही एक सरदार दूसरे सरदार को ज़रूर जानता होगा। उसने ठेले वाले सरदार से चर्च रोड, नबी करीम, मोंटी ट्रांसपोर्ट जैसा रटा-रटाया ब्रहमवाक्य पूछा मगर सरदारजी की दुकान पर काफी माथापच्ची और दरयाफ्त के बावजूद उसे उस ठिकाने का पता मालूम ना चल सका। सरदार जी झल्लाकर पूछ बैठे “अबे भइये, कोई फ़ोन नंबर ना है तेरे पास। ऐसे ही मुंह उठाकर चला आया दिल्ली में मरने”। अमरेश को सरदारजी की बात तो तल्ख लगी मगर भइया कहना अच्छा लगा उसे नहीं पता था कि भैया उसे आदर से नहीं बल्कि उसके जन्मस्थान के कारण कहा जा रहा है। । अमरेश को याद आया कि उसे जहां जाना है वहाँ का तो नहीं मगर वहाँ से थोड़ी दूर उसके फूफा कहीं काम करते हैं उस जगह का नंबर है । उसके गांँव वाले बताया करते थे कि उसके फूफा जयनारायण सुबह -शाम मिल जाया करते थे। उझने अपने स्कूल की कॉपी निकाली जो वो अपने साथ लेकर भागा था। उसी में पीछे उसके फूफा जय नारायण के नौकरी वाली जगह के दुकान का फोन नंबर लिखा था और गुरुनानक मेडिकल्स लिखा था। उसने सरदारजी को वो नंबर दिया और बोला”ये दुकान जहां पर है उसी के आस पास रहते हैं मेरे गॉंव वाले”।
सरदारजी की खीझ जाती रही कि ये लड़का उतना भी बेवकूफ नहीं है जितना वो समझ रहे हैं। उन्होंने अमरेश ने नंबर लिया और बगल के पीसीओ पे जाकर कहीं फोन मिलाया और थोड़ी देर बाद लौट कर बोले”ऐसा कर पुत्तर तेरे गाँव के लोग तो आसफ अली रोड पर हैं । वहीं का टेलीफोन नंबर था। तू आसफ अली रोड के नाके पर उतर जइयो । वहीं गुरु महराज का सुमिरन करके अपने गाँव वालों को खोज लेना। यहीं सामने से आठ सौ बत्तीस नंबर की बस ले लो”।
उनके हाथ में फ़ोन का बिल था। अमरेश को देखकर सरदारजी बोले”सात रुपये लग गये फ़ोन में । छह रुपये का धंधा किया और सात जेब से लगाया, वाहे गुरु”।
आमरेश ने झेंपते हुए कहा “सरदारजी, फोन का पैसा मैं दे दूं”।
“पैसे हैं तेरे पास “सरदारजी ने अविश्वास से कहा, फिर बात को आगे बढ़ाते हुए बोले”ओए किराया-भाड़ा है तेरे पास बस का या उसका भी इन्तजाम नहीं है, कौन बिरादर है तू”?
“जी पंडित हूँ, बामन “अमरेश धीरे से बोला।
“हां तो पंडित, पैसे कुछ हैं तेरे पास, या ऐसे ही दिल्ली में आ टपका है”सरदार जी ने कहा।
अमरेश ने कहा “हैं सरदार जी काम भर के हैं । पंद्रह-बीस रुपये हैं । जी वो फ़ोन का पैसा”।
“रहन दे पंडित, समझ ले मैंने बामन को दान दे दिया। जा भई तेरी बस उधर मिलेगी, आठ सौ बत्तीस नंबर आसफ अली रोड नाके पर उतर जाना”ये कहकर सरदारजी अपने काम में मशगूल हो गये। चलते-चलते अमरेश ने सरदारजी का चरण स्पर्श करना चाहा तो वे चिंहुक उठे वो हटते हुये बोले”ओए पंडित क्यों पाप लगाता है । बामन होकर मेरे पाँव छूता है । जा भई वाहे गुरु तुझ पर मेहर करे। और अगर तेरे लोग ना मिलें तो उसी नाके से आठ सौ इकतालीस नंबर की बस पकड़ कर सीधे यहीं चले आना। देखेंगे कि गुरु महाराज ने क्या हुक्म दिया है मुझे तेरे वास्ते। अतर सिंह तो गुरु का सेवक है जो हुक्म होगा वो करेगा”।
अमरेश मुड़ कर थोड़ी दूर चला तो सरदारजी ने फिर उसे पुकारा”ओय पंडित, इधर आ”।
अमरेश संशकित हो गया कि अब सरदारजी उससे फ़ोन का बाकी सात रुपया मांगेंगे। उसने मन बना लिया कि वो पैसे दे देगा फ़ोन के, परदेस में कौन अपना होता है जो अपने थे वो अपने ही नहीं रहे। अतर सिंह के पास वो पहुँचा तो पैंट में हाथ डालकर वो खड़ा हो गया।
सरदारजी ने उससे पूछा”क्यों तेरे पास जूता-चप्पल ना है, पाँव नहीं जलते तेरे”?
अमरेश ने सोचा कि कुछ बोलूंगा या एक चप्पल वाली कहानी बताऊंगा तो मामला बिगड़ सकता है और सरदारजी की सहानभूति जाती रहेगी सो वो चुप रहा। उसे अपने विद्यालय के गुरु रण विजय सिंह की शिक्षा याद आ गयी जो दूसरों को तो हमेशा चुप रहने की सलाह दिया करते थे और खुद दिन भर बक-बक करते रहते थे कि एक चुप सौ सुख। सरदारजी ने अपनी दुकान में कुछ दरयाफ्त की फिर एक जोड़ी पुरानी चप्पल अमरेश को दे दी। अमरेश को जो चप्पल मिली थी वो खासी लंबी थी मगर पैरों की तकलीफ तो कम कर रही थी। अमरेश ने दुबारा अभिवादन करके सरदारजी से विदा ली और आठ सौ बत्तीस नंबर की बस पकड़ ली।
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