बारह वर्ष की थी शांति जब उसका विवाह चंदन से हुआ.... शांति की पैदाइश उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गांव के ब्राह्मण कुल में हुई गांव की पाठशाला में शांति जबरन बाबू जी द्वारा भेजी जाती उस जमाने में ब्राह्मणों में कन्या का विवाह, रजस्वला होने के पूर्व किए जाने का प्रचलन था एवं तीसरे या पांचवें वर्ष में द्विरागमन अर्थात गाना बुलाए जाने का भी...!
शांति के पिता कैलाश चंद्र सगरा ग्राम में जजमानी करते थे संयोगवश पास के ग्राम के रामेश्वर दत्त त्रिपाठी जी की पुत्री शैलजा जो की शांति की कक्षा में पढ़ती थी उसका विवाह उनके जेष्ट पुत्र से तय हो गया शैलजा के विवाह उत्सव में जब वे ,शैलजा की विदाई करा कर ला रहे थे तभी एक सुदर्शन से युवक पर उनकी निगाह पड़ी मन ही मन उन्होंने उस युवक को जामाता बनाने के लिए सोचा ।
पता करने पर ज्ञात हुआ कि,वह कई बीघा जमीन ,खेत बाग-बगीचे और जायदाद का स्वामी और परिवार का एकमात्र पुत्र था ।
खानदान का कुलदीपक था चंदन और अभी-अभी संयोग से कचहरी में पेशकार के पद पर चयनित हो गया था चंदन कैलाश चन्द्र को भा गया।
शैलजा के घर आने के बाद से शांति व उसमे खूब छनती... उनमें 4 या 5 वर्षों का अंतर था किंतु दोनों ही प्यारी सखियां थी ...!
एक दिन रसोई में भोजन करते समय कैलाश जी ने शैलजा से उसके विषय में पूछ लिया ,शैलजा बोली "अरे वो तो हमारे चंदन भैया हैं और अभी तक कुंवारे भी ...' हमारी बिलासपुर वाली मौसी के बेटे हैं..!"
कैलाश ने शैलजा से शांति के विवाह की चर्चा कर दी शांति की मां के गुजर जाने के कारण अब तो मानो शैलजा ही शांति की मां थी, उस ने कहा कि
" किंतु पिताजी ! चंदन एवं शांति की आयु में काफी अंतर है कम से कम 10 वर्ष का तो अवश्य ही...!"
कैलाश चंद ने कहा " बहू इतना अच्छा घर कहां मिलेगा ऊपर से खुद की नौकरी भी करें है वह तो.. तुम बात छेड़ कर तो देखो हम व्याह कर देंगे पर गौना बाद में दे देंगे .."
शैलजा को यह विचार ठीक लगा ''यदि उसकी प्रिय सखी ही भावज बन जाती है तो गलत क्या है?" उसे यह बात सही लगी क्योंकि शांति उसे परम प्रिय थी अब उसने शांति के विषय में मौसी से बातें कर ली मौसी ने उससे कहा कि" तेरा ही भाई है चंदन तू जो ठीक समझे ..यदि शांति योग्य है तो मैं तैयार हूं किंतु हां तू खुद चंदन से बात कर लेना ..!"
कुल मिलाकर शैलजा ने शांति का विवाह चंदन से तय करवा दिया किंतु सभी ओर से बातें करते-कराते 10 माह से अधिक का वक्त लग गया आखिरकार विवाह की शुभ घड़ी आयी और सात फेरे लेकर शांति चंदन की हो गई विवाह तो हो गया था पर उम्रकम होने के कारण शांति की विदाई ना हुई विवाह के समय शांति और चंदन कनखियों से कभी फेरे लेते वक्त एक-दूसरे को देख लेते , रह रह कर भाँवर के समय और लावा के परछन प्रक्रिया में जब पीछे से चंदन बाहों में लेता तो,शांति को उसकी छुअन रोमांचित कर देती ....!
रात दिन शैलजा उसे चंदन के बचपन के किस्से सुनाती और शांति कल्पना जगत में विचरती रहती कभी शैलजा चंदन के लिए पड़ोसी लड़कियों की दीवानगी की बातें बताती और शांति स्त्रीसुलभ ईर्ष्या से उन आसक्त युवतियों के प्रति क्रोध से भर उठती अचानक नन्हीं बालिका से पत्नी बन जाने का भाव उसके भीतर कुछ इस तरह फूट पड़ता था ..जैसे ही किसी कली के पट सूर्य की किरण के प्रथम स्पर्श से खुलकर उस की पंखुड़ियों को अपनी स्वाभाविक महक बिखेरने की ओर अग्रसर कर देते हैं, ठीक उसी प्रकार शांति के किशोर मन ने अचानक ही जीवन की उस विशेष सुगंध का पान कर लिया था ..कैशोर्य त्यागने से पूर्व ,स्वयं के भीतर हो रहे शारीरिक बदलावों से ज्यादा ..वह अपने भीतर होने वाले सांवेगिक परिवर्तनों से अनजान थी किंतु अपने जीवन साथी के प्रति उसकी आत्मा कहीं गहराई तक जुड़ चुकी थी जिसे ही शायद "प्रेम अंकुर" कहते है
रोज सुबह जब वह सिंदूर की रेखा को अपनी मांग में सजाती तो उसे ऐसा लगता मानों चंदन के हाथों का स्पर्श उसकी मांग के सिंदूर को सदा सर्वदा के लिए अमर कर देगा... एवं हाथों की चूड़ियों की खनक सदा उसके दिल के तार को छेड़ देती ,पांवों के बिछुए और पायल की चुभन उसे हमेशा मधुमय लगती जैसे वो दर्द भी वह स्वीकार कर चुकी थी कि सुख हो या दुख चंदन के संग उसे सब कुछ स्वीकार्य कार्य होगा कभी-कभी चंदन के प्रेम में पगे खतों के सहारे,वह पूरा दिन बिता देती... एक एक अक्षर को दिन भर में बीस से पच्चीस बार पढ़ती .. और अपने सीने से लगा कर रखती ..! इसी प्रकार जैसे जैसे दिन बीत रहे थे , वैसे ही वैसे ही शांति के चंदन की संग जीवन की मधुर कल्पनाओं के सपनो को पंख लग रहे थे... वह आए दिन नए सपने बुनती और चिरकाल के लिए अपने जीवनसाथी के अंतर में समा जाना चाहती थी ...!
धीरे-धीरे अब वह 15वें वर्ष में प्रवेश कर चुकी थी एक दिन भोजन भोजन करते वक्त कैलाश चंद्र ने शांति के गौने की बात छेड़ दी , पिता की समक्ष जल का लोटा रखती शांति का मन मयूर नाच उठा एवं उसके कपोल सुर्ख हो उठे, कनेर के फूलों की सी गुलाबी आभा लिए वह न चाहकर भी शैलजा के सीने से लग गई एवं अब उनके विदाई के कार्यक्रम की तैयारियां आरंभ कर दी संदेशा भिजवा दिया गया अभी तीन-चार दिन ही बीते थे कि एक दिन सुबह शैलजा के घर से एक खेतिहर संदेशा लेकर आया और विधाता के क्रूर निर्णय का वज्रपात शांति पर हो जाने की सूचना बता दी..... चंदन के नाम की रुमाल का काढ़ती शांति को ज्यों ही यह समाचार मिला उसकी उंगलियों में वह सुई नश्तर की तरह चुभ गयी और उंगली से मोटी खून की धारा बह निकली..किन्तु यह चुभन उसके दुर्भाग्य की चुभन के आगे कुछ न थी..... वह तो सुहागन होने के पहले ही विधवा हो गई थी..' चंदन की एक सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो गई.. किसी ट्रक के नीचे आने से उसकी स्कूटर दब गई और तत्काल वही उसकी मृत्यु हो गई थी .." ये आघात कैलाश चंद्र जी एवं उनका परिवार सह नहीं सका ....पिता को तो ऐसा सदमा लगा कि बेचारी शांति फूट-फूट कर रो भी न सकी उनके सामने...पुत्री का सूना चेहरा देख कैलाश के सीने के दर्द की पुनरावृत्ति हो जाती... ऊपर से शैलजा पूरे 8 माह की गर्भवती थी ,बड़ा भाई शहर कमाने गया हुआ था अतः शांति को ही ढाल बनकर किसी तरह पिता का इलाज कराना पड़ा और खुद को संभाल कर उसने पुत्री का फर्ज निभाया ...
ठीक बारह दिन बाद शांति आंगन में अनमनयस्क सी बैठी थी इन बारह दिनों में शांति की दुनिया पूरी तरीके से तबाह हो चुकी थी पति के अंतिम दर्शन हेतु वह ससुराल की चौखट पर भी तो नहीं जा सकती थी विधाता ने यह क्या क्रूर नियति लिख रखी थी जिस रिश्ते के खत्म हो जाने का यह समाचार था वह रिश्ता तो अभी ठीक तरह से आरंभ भी नहीं हुआ था चंदन के शरीर को उसकी छवि को अंतिम बार आंखों में भरकर चैन से रो भी नहीं सकी शांति ...वो घर के एक कोने में बैठी रहती कल्पनाओं में बिताए गए चंदन के साथ के क्षणों की स्मृतियों के अलावा उसके पास चंदन को याद करने के लिए कुछ नहीं था... कुछ एक पत्र.. कुछ बातें ...कुछ साथ विवाह के प्रक्रियाओं में बिताया गया वक्त ...बस !
आज भी याद है जब ...सफेद चादर के आवरण में उसकी मांग में चांदी के सिक्के से सिंदूर डालते वक्त चंदन को आंख उठाकर देखने का साहस भी ना कर सकी थी वह , इसी डर से ना देखा कि क्या कहेंगे चंदन...!" किन्तु हा दुर्भाग्य !! काश...' उसने देखा होता ...अपने जीवनसाथी के उस रूप को और उस एक अनमोल क्षण के भरोसे ...वह आज अपना पूरा जीवन व्यतीत कर देती...!"
दिन भर से बैठी शांति आज चिर विरहन और दुखित थी ,अल्पायु में विधवा बन अल्प शिक्षा के बावजूद आज ज्ञान और अनुभव की विदुषी बन बैठी थी... वह बैठी थी और आंगन की सूखी मिट्टी पर नीम के डंठल से कुरेद कुरेद कर 'चंदन' लिख रही थी तभी उसके मन में कुछ उदगार फूट पड़े ...
पतझर यहां पहले आया अनदेखा रहा बसंत
कुछ ऐसी हुई शुरुआत कि पहले आया अंत ..
फिर सोचने लगी कि यह क्या लिख दिया मैंने..? क्या वास्तव में हर चीज़ का अंत हो गया है ? क्या चंदन से मेरा प्रेम उनके शरीर मात्र से था मुझे ? क्या वास्तव में मेरा प्रेम इतना स्वार्थी है ? क्या मेरे भीतर से चंदन का प्रेम समाप्त हो सकता है ? मैंने तो उनकी आत्मा से प्रेम किया था और आत्मा तो अजर अमर है तो फिर प्रेम कैसे मर सकता है और फिर अभी तो मैं जीवित हूं ..मेरा शरीर जीवित है.. ह्रदय धड़क रहा है... हृदय में चंदन रहते थे ..तो फिर जब धड़कन एक जीवित है ..तो चंदन के प्रेम तत्व की मृत्यु कैसे हो सकती है ..? जैसे पन्द्रह सोलह वर्ष की शांति सहसा बहुत बड़ी तत्वज्ञानी एवं दार्शनिकों सी बातें करने लगी...! और अभी वो खोई ही हुई थी कि डाकिए ने घंटी बजाई और एक पत्र फेंक कर चला गया ...शांति अनमने भाव से उठी उसे लगा कि शायद बड़े भाई का पत्र होगा किंतु जब पत्र को उठाया तो उस पर लिखा था
"शांति'( व्यक्तिगत ) -द्वारा चंदन
शांति की आंखें आश्चर्य से चौड़ी हो गई उसने पत्र जल्दी से खोला और धम्म से आंगन में बैठ गई पत्र में तारीख चंदन की मृत्यु के 4 दिन पूर्व की थी चंदन ने गौना तय होने की खुशी में शांति को पत्र लिखा था
प्रिय शांति
सदा खुश रहो
जैसा कि तुम्हें ज्ञात है तुम्हारे द्विरागमन की तिथि निकल आई है ,देखते ही देखते यह तीन वर्ष निकल गए इतने दिनों में मैंने हर पल में उस दिन की प्रतीक्षा थी जब हम दोनों एक साथ रहेंगे वह दुनिया हमारे सपनों की दुनिया होगी और मैंने एक ऐसी दुनिया बनाई है तुम्हारा और हमारा प्यारा सा छोटा सा घर "शांति निकुंज" ... जिसमें मैं और तुम रहेंगे और मां का आशीर्वाद हमारे शांति निकुंज को सदैव पल्लवित पुष्पित करेगा ...।
जानती हो शांति इसका नाम 'शांति निकुंज' इसीलिए रखा है क्योंकि यह सिर्फ और सिर्फ तुम्हारा घर है याद है ना तुम्हें शैलजा चिढ़ाती थी कि तेरा यह घर नहीं और वह हमारे चंदन भैया का घर है तू कहां जाएगी ?तो अब बोल देना उनसे ...कि अब विदा होकर तू किसी और के नहीं ,अपने घर में जाएगी...! यह पत्र इसलिए लिख रहा हूं कि तेरी डोली अब शांति निकुंज में आएगी बस और शांति निकुंज अपनी स्वामिनी की राह देख रहा है ..!
तुम्हारी प्रतीक्षा में ,
तुम्हारा चंदन एवं
शांति निकुंज
पत्र पढ़कर शांति की आंखें आंसुओं की अविरल धारा बहाने लगी, और आंसू के द्वारा मन की सारी व्यथा खींच-खींच कर निकाल रही थी ...विगत बारह दिन की जितनी अधिक दर्दभरी यादें, शांति के शरीर में थी वे बाहर निकल गयी और अब जैसे उसके मन आत्मा में एक नवीन आवेश भर उठा चंदन की उस अंतिम सौगात और अंतिम इच्छा के लिए शांति का मन अनेकों संवेगों और उद्वेगों से भर उठा उसने उसी क्षण संकल्प ले लिया और अपने बाबूजी के समक्ष गई वह पत्र दिखाया और अपना निर्णय सुना दिया कि उसे अब 'शांति निकुंज' ...जाना ही होगा...! चंदन आज भी उसकी वहां प्रतीक्षा कर रहे हैं यह उसका अटल विश्वास था !
सब ने उसे बहुत समझाया कि अभी तेरी उम्र ही क्या है मात्र पन्द्रह की ही है और अभी पूरा जीवन पड़ा है तेरे आगे ! कैसे काटेगी तू बिना अवलंब के सारा जीवन ? बिना किसी उम्मीद के कैसे बिताएगी सारी जिंदगी ? किसी ने कुछ कहा और किसी ने कुछ मगर शांति ने अपना हठ नहीं त्यागा और किसी की एक नहीं मानी ...शैलजा ने भी उसे समझाने की कोशिश की पर उसने कहा कि "शैलजा भाभी अब आप अपना घर संभालो.. मैं अपना घर संभालने जा रही हूं माँ को वहां मेरी आवश्यकता है... चंदन के जाने के बाद अब उनका मेरे सिवा और कोई नहीं..!!
शांति की इस बात का जवाब शैलजा भी ना दे सकी तथा सभी ने हार कर शांति की जिद के आगे घुटने टेक दिए अगली सुबह शांति ने पूर्ण रुप से श्वेत वस्त्र धारण करके विधवा रूप में माथे पर श्वेत चंदन लगाकर शांति निकुंज के लिए प्रस्थान कर दिया
चंदन की बूढ़ी मां को उसके इस अनोखे निर्णय की सूचना दे दी गई ...उन बूढ़ी आंखों में अपनी अबोध बहू के लिए आंसू ,दर्द ,दुआएं, तड़प और चिंताओं जैसे अनेक विरोधाभासी अनुभूतियों ने स्थान बनाया हुआ था किंतु उन्होंने दरवाजे पर खड़ी अपनी बहू .. छोटी वयस में परिपक्वता की गठरी बनी अपनी चंदन की अर्धांगिनी को जब देखा तो भावविह्वल होकर गले लगा लिया ...दोनों फूट-फूट कर रो पड़ी ..कुछ बोल ना सकी ...लोगों ने बहुत तरह की बातें की... किंतु शांति के मन और दृढ़ निश्चय को टिका ना सके...!
सुना है शांति आज भी रहती है "शांति निकुंज'' में और अब भी अकेले में चंदन के संग अपने सपनों की दुनिया में खुश और संतुष्ट हैं.... माँ तो अब जीवित नहीं ..और अब शांति भी वृद्धावस्था की कगार पर है लोग कहते हैं कि.. "यदि आज के युग की मीरा के दर्शन करने हो तो ..'शांति निकुंज' चले जाओ जहां आज भी अपने दिवंगत पति की यादों को जीवंत बनाकर उसे अपना अवलंब बनाकर जी रही है शांति...और शांति के अथाह प्रेम में जिंदा है चन्दन..."
और दोनों के प्रेम की पहचान के रूप में आज भी साक्षात मुस्कुराता खड़ा है 'शांति निकुंज' ...!
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