Bhige Pankh - 10 in Hindi Fiction Stories by Mahesh Dewedy books and stories PDF | भीगे पंख - 10

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भीगे पंख - 10

भीगे पंख

10. मोहित-2

इंटरमीडिएट की परीक्षा प्रथम श्रणी में उत्तीर्ण कर लेने के पश्चात मोहित दिल्ली विश्वविद्यालय में बी. एस. सी. में प्रवेश लेने हेतु आया हुआ था- विश्वविद्यालय के भव्य भवन, वहां पर छात्र-छात्राओं की भीड़, उनके द्वारा पहने हुए आधुनिक परिधान आदि देखकर मोहित एक प्रकार से आतंकित सा था। वह रजिस्ट्ार आफ़िस, जहां ऐडमीशन फा़र्म बांटे जा रहे थे, पहुंचकर कांउंटर के सामने खडा़ हो गया था। वहां प्रवेशार्थियों की भीड़ देखकर मोहित घबरा गया था। फिर साहस कर उसने धीरे से फा़र्म बांटने वाले बाबू से फा़र्म मंागा, परंतु उसने सुनी अनसुनी कर दी और ज़ोर जो़र से चिल्लाकर फ़ार्म मांगने वाले छात्रों को फा़र्म बांटता रहा। मोहित जो़र से अपनी बात कहने में अपने को असमर्थ पा रहा था और इस कारण हीनता का अनुभव कर आत्म-ग्लानि से ग्रस्त हो रहा था कि तभी पुराने छात्र जैसे दिखने वाले एक व्यक्ति ने उससे पूछा,

‘‘किस कक्षा के लिये फा़र्म चाहिये?’’

मोहित के द्वारा बी. एस. सी. कहने पर उसने न केवल फार्म लाकर दिया, वरन् उसे भरने में मोहित की सहायता भी की थी। मोहित को इससे बडी़ राहत मिली थी और वह उस छात्र का कृतज्ञ हो गया था- कालांतर में वह छात्र यूनिवर्सिटी यूनियन के चुनाव में लडा़ और मोहित जैसे नवीन प्रवेश लेने वाले छात्रों के वोटों केा प्राप्त कर विजयी भी हुआ था। उसको वोट देने वालों में मोहित भी था।

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भरतपुर में रहते हुए मोहित इंटर कालेज की कक्षाओं में पढ़ने के लिये जाने पर कमीज़ और पाजामा पहनता था, क्योंकि उन दिनों वहां पैंट पहिनने का रिवाज़ नहीं के समान था। उसके गांव मानिकपुर में तो पैंट पहिनने वालों की हंसी उडा़ई जाती थी- कढ़ो़रे कक्का तो पाजामा तक से चिढ़ते थे और उसे सूथना कहते थे। उनकी समझ में धोती और उूपर कुर्ता या कमीज़ ही आदर्श पोशाक थी। वह किसी लड़के को पैंट अथवा पाजामा पहिने देख लेने पर कहते थे,

‘‘बू का पढ़िययै? पहिलें फैसन तौ कर लेइ।वह क्या पढ़ेगा? पहले फै़शन तो कर ले।’’

इसी प्रकार सिर घुटाये रखना और बडी़ सी चोटी रखना आदर्श समझा जाता था। थोड़े भी लम्बे बालों को कुल्लियां कहकर उनको रखने वालों का मजा़क उडा़या जाता था। मेाहित इंच-दो इंच के बाल रखता था, और बडो़ं द्वारा अच्छा समझे जाने के लोभ में चोटी भी रखता था। वह जब विश्वविद्यालय जा रहा था तो कसी ने कह दिया था,

‘‘दिल्ली में छात्र कमीज़ पाजामा नहीं पहिनते हैं- अधिकांश पैंट-कमीज़ पहिनते हैं और जो प्राचीन सभ्यता के पुजारी हैं, वे अच्छी सी धोती-कुर्ता पहिनते हैं।’’

मोहित को लगा कि जब कमीज़-पाजामा छोड़कर कुछ अन्य ही पहिनना है, तो क्यों न धोती कुर्ता पहिना जाये। अत उसने एक अच्छा सा धोती-कुर्ता सिलवाया और वह उन्हें पहिनकर विश्वविद्यालय की कक्षा में चला गया। उसका परिधान और चोटी देखकर अन्य छात्रों को खूब मज़ा़ आया और वे उसे पंडितजी कहने लगे। मोहित को यह सम्बोधन चिढ़ाने वाला लगा, परंतु वह स्वयं फंस गया था। उसने शीघ्र ही अपना परिधान बदल दिया परंतु पंडितजी का सम्बोधन उसके पीछे प्रथम वर्ष में चिपका रहा। अकड़कर विरोध करने अथवा हंसकर टाल देने की अपनी अक्षमता के कारण वह चिढ़ता रहा। जब प्रथम वर्ष का परीक्षा परिणाम आया, तब उसके अंक देखकर अन्य छात्रों का भाव उसके प्रति बदलने लगा था।



असुरक्षा की भावना किसी न किसी अंश तक प्रत्येक मनुष्य में व्याप्त रहती है, परंतु जिन व्यक्तियों में यह अधिक होती है, वे प्राय ऐसे साथियों की तलाश में रहते हैं जो उनके व्यक्तित्व को चोट न पहुंचायें, चाहे उनके व्यक्तित्व के विकास में सहायक हों अथवा बाधक। मोहित भी विश्वविद्यालय में एक ऐसे ही समूह का सदस्य बन गया था। इस समूह के सदस्यों को पारस्परिक निकटता में रहकर आनंद आता था, परंतु नवीन सम्पर्कों के अभाव में उनके सांसारिक ज्ञान का विस्तार अवरुद्ध सा हो गया था। उनके बातचीत के विषय भी सीमित थे जो मुख्यत कक्षा में हुई पढ़ाई, दूसरों का पीठ पीछे छिद्रान्वेषण कर उनकी हंसी उड़ाना, एवं नवयौवन में उठने वाले काम-ज्वार से सम्बंधित रहते थे। समूह के सभी सदस्य मोहित के छात्रावास के थे, जहां केवल विज्ञान के विद्यार्थी रहते थे जिनकी पढा़ई के विषयों में समाज शास्त्र, राजनीतिशास्त्र, इतिहास जैसे मानवीय व्यवहार से सम्बंधित विषय सम्मिलित नहीं थे- मोहित भी मानवीय मन की अपेक्षाओं, आकांक्षाओं, और अपने व्यवहार की अन्यों पर प्रतिक्रिया से सम्बंधित ज्ञान से वंचित रह रहा था। वह कभी कभी छात्रावास के पुस्तकालय से शरत चंद्र चैटर्जी के चरित्रहीन, देवदास, धर्मवीर भारती का गुनाहों का देवता, फणीश्वरनाथ रेणु की परती परिकथा, इलाचंद्र जोशी की जिप्सी, रबीन्द्रनाथ टैगोर की गीतांजलि जैसी पुस्तकें अवश्य लाकर पढ़ता था पर वे उसकी रूमानी क्षुधा को ही प्रज्वलित करतीं थीं, व्यवहारिक ज्ञान नहीं देतीं थीं। उसे फ्ऱायड के ‘सेक्स के समस्त मानवीय व्यवहारों का प्रेरक होने’ के सिद्धांत के विषय में पढ़ने में भी रूमानी आनंद आता था परंतु यह ज्ञान उसमें केवल रूमानियत उत्पन्न करता था, उसे व्यवहारिकता नहंी सिखाता था। खगोलीय भौतिकी एवं विश्व की संरचना जैसे विषयों में भी उसका मन रमता था, परंतु ये भी दिन प्रतिदिन के सहज पारस्परिक आचरण के ज्ञान एवं उसके अभ्यास में उसकी सहायता नहीं करते थे। किसी कक्षा में कभी कोई लड़की उसकी सहपाठिनी नहीं रही थी, इस कारण भी वह नवयौवना लड़कियों की सोच, उनकी चाहतों, एवं पुरुषों के प्रति उनकी भावनाओं की वास्तविकता के ज्ञान से वंचित रह रहा था- बचपन में उसका साथ केवल सतिया से रहा था जिससे निकटता का निषेध था और रज़िया से रहा था जो वर्ष में केवल कुछ दिनों के लिये ही उसे मिलती थी। परिणामत उसका दृष्टिकोण लड़कियों के प्रति उपन्यासी अथवा फ़िल्मी हो गया था- उसकी समझ में वे उसकी तरह हाड़-मांस की बनी मानवी न होकर देवी जैसीं थीं- दूर रहकर पूजा करने की पाशाणमूर्तियां जिनके आदर्शवादी सिद्धांत भी पाषाणवत अविचल एवं दृढ़ होते हैंे। मोहित अपनी रूमानी दुनिया में तो लड़कियों में खो सकता था जैसे वह सतिया एवं रज़िया की स्मृतियों में खोया रहता था, परंतु यथार्थ में उनका सम्पर्क होने पर वह दिग्भ्रमित हो जाता था; उसका चिरअतृप्त मन असंतुलित हो जाता था और वह उनसे सहज व्यवहार नहीं कर पाता था। उनकी निकटता की असीम चाह होते हुए भी उनकी निकटता प्राप्त करने का प्रयत्न करना मोहित के लिये आकाष के तारे तोड़ लाने के समान हो जाता था।

पुरुष के जीवन में नारी का सहज सम्पर्क कोमल एवं सरस भावनायें उत्पन्न करता है- उसकी निकटता उसके संतृप्त मन में वर्षा की फुहार सम आती है जो उसकी उूष्मा को सोखकर उसे सहज एवं आनंदमय बना देती है। इस सहज निकटता के अभाव में मोहित का मन शुष्क एवं असहज हो रहा था। सम्वेदनशीलता तो उसमें प्रकृति-प्रदत्त थी, परंतु वह सम्वेदनशीलता तभी उजागर होती थी जब कोई उसे उस परिस्थिति में सम्वेदनशीलता की आवश्कता से अवगत करा दे, अन्यथा उसके मन की शुष्कता उसकी सम्वेदनशीलता को सोखे रहती थी। इस कारण सभी के प्रति उसका व्यवहार शुष्क एवं आत्ममुग्ध सा रहता था और प्राय दूसरों पर उसका प्रभाव उसके वास्तविक व्यक्तित्व के प्रतिकूल पड़ता था। अपने हृदय में सबका बन जाने की उग्र चाह होते हुए भी वह वास्तविकता में किसी का नहीं हो पाता था- विशेषत लड़कियों का तो कतई नहीं। यद्यपि कोई लड़की उसकी सहपाठिनी नहीं थी, परंतु कुछ दिनों के लिये उसकी कक्षा में गणित की पढ़ाई एक अन्य ग्रुप के छात्रों के साथ हुई थी और उन दिनों एक बंगाली लड़की उसकी कक्षा में पढ़ने आई थी। अन्य छात्रों की भांति मोहित का मन भी उसके साहचर्य को ललक उठा था, परंतु मोहित कभी भी सप्रयत्न उसके निकट बैठने अथवा उससे बात करने का साहस नहीं कर सका था। एक दिन जब मोहित अपनी कक्षा में घुसा, तो केवल उस लड़की के बगल की सीट खाली बची थी और मोहित आंखें चुराते हुए उसके निकट की सीट पर बैठ गया था। कुछ देर मंे किसी कारणवष उस लड़की के दूसरे ओर बैठा छात्र कक्षा छोड़कर चला गया था और चूंकि उस सीट के उूपर ही पंखा था, अत पंखे की हवा खाने के उद्देष्य से वह लड़की खिसककर उस लड़के वाली सीट पर बैठ गई थी। मोहित को अपने स्वभाव में व्याप्त हीनता के कारण भ्रम हुआ कि वह लड़की मोहित से दूर बैठने के उद्देष्य से खिसक कर बैठ गई है और उसका मुंह विवर्ण हो गया। लड़की ने सम्भवत स्थिति भांप ली थी क्योंकि वह अपने द्वारा छोड़ी हुई सीट को इंगित कर मोहित से बोली थी,

‘‘ह्वाई डोंट यू कम हियर?’’ तुम यहां क्यों नहीं आ जाते हो?

परंतु उसके द्वारा मोहित के बगल की सीट छोड़ देने से बुरा मान जाने के कारण मोहित उसके आमंत्रण को अस्वीकार कर अपनी सीट पर बैठा रहा था, यद्यपि कक्षा समाप्त होने पर उसे आत्मग्लानि भी हुई थी कि उसने मात्र एक काल्पनिक कारण पर उस लड़की का पास बैठने का निमंत्रण अस्वीकार कर दिया था। फिर कुछ दिनों पष्चात उस लड़की की गणित की कक्षा कहीं और लगने लगी थी।

वार्शिक परीक्षाओं में उत्कृष्ट सफलता के कारण मोहित को विश्वविद्यालय में काफी़ छात्र छात्रायें जानने लगे थे। एक दिन एक सिनेमा-हाल में वह पिक्चर देखने गया था। उसके ठीक पीछे विश्वविद्यालय की दो छात्रायें बैठी हुईं थीं, जिनमें एक वह बंगाली लड़की थी। पिक्चर प्रारम्भ होने के पूर्व मोहित उनकी खुसर-पुसर को कान लगाकर सुन रहा था। बंगाली लड़की से दूसरी लड़की बोली थी,

‘‘जानती हो, यह मोहित है?’’

इस पर बंगाली लड़की ने उत्तर दिया था,

‘‘ओह यस! बट आई डिसओन हिम।’’

यह सुनकर मोहित के हृदय में टीस हुई थी क्योंकि उसे यह समझ में आ गया था कि उस दिन कक्षा में बंगाली लड़की द्वारा अपने पास बुलाने पर खिसककर उसके निकट न बैठने की यह प्रतिक्रिया है। मोहित को अब इस बात की ग्लानि हो रही थी कि वह कितना नादान एवं भीरु है कि उस लड़की के आमंत्रण को अकारण ठुकरा दिया था। उसने न केवल लड़की से निकटता के आमंत्रण-प्रदत्त अवसर को व्यर्थ गंवा दिया था वरन् उस लड़की का मन भी दुखाया था। यह बात समझ में आ जाने पर भी अपने मन में गहराई से जमी कुंठाओं के कारण मोहित लड़कियों के विशय में अव्यवहारिक ही रहा।

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