VO MERA SHAHAR.... in Hindi Magazine by Neelima Kumar books and stories PDF | वो मेरा शहर....

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वो मेरा शहर....

   सुना है दिल के दो हिस्से होते हैं। मेरे दिल में भी एक हिस्से में हिन्दी बसती है, तो दूसरे हिस्से में उर्दू ने भी अपनी जगह मुकम्मल कर रक्खी है। हिन्दी के हिस्से में अगर हरदुआगंज है तो वहीं दूसरे हिस्से में कासिमपुर भी है, पर उस ऊपर वाले ने भी शायद एक गलती कर ही दी। एक बड़ी ही प्यारी सी गलती। वो मेरे दिल के दोनों हिस्सों के बीच दीवार बनाना तो भूल ही गया। सम्भवतः इसीलिए मुझे महसूस होता है कि मेरे दिल की गहराइयों में जैसे दो बहनें बराबर अठखेलियाँ कर रही हैं, और शायद यही वजह है कि मेरी जुबाँ पर कभी झूमते गाते एक बहन हिन्दी चली आती है तो अल्फाजों में लिपटकर कभी बहन उर्दू कुछ बयां कर जाती है।
    हिंदुस्तान के नक्शे में उत्तर प्रदेश का अलीगढ़ शहर तो सभी जानते होंगे जो धर्म के नाम पर जलने का प्रतीक है लेकिन उसके बहुत नजदीक यानी कि कुल 32 किलोमीटर की दूरी पर एक छोटा सा कस्बा था जो आज भी मौजूद है। ये कस्बा हिन्दू भी था और मुसलमान भी था। नहीं समझे आप ? उस ऊपर वाले की कृति जिसे हम इंसान कहते हैं उनमें तो आपने सुना होगा कि एक घर में दो धर्मों के लोग पति-पत्नी के किरदार में हैं, मगर आपने यह नहीं सुना होगा कि ज़मीन का टुकड़ा एक हो पर उसका वज़ूद दो धर्मों से हो। जी हाँ ! मैं बात कर रही हूँ उस छोटे से कस्बे की जो हरदुआगंज भी था और कासिमपुर भी। धर्म दो, नाम दो मगर आत्मा/रूह एक।  यह बात दावे से इसलिए कह रही हूँ कि सन्  1981 तक की बात करूं तो बगल में अलीगढ़ शहर जब जब भी जला उसकी आँच तक हमारे कस्बे में नहीं पहुँची। एक ऐसा छोटा सा कस्बा जहाँ ना तो पिक्चर हॉल था, ना काॅलेज और अस्पताल के नाम पर बस एक छोटी सी डिस्पेन्सरी हुआ करती थी। जहाँ रोज का सामान लेने भी इतवार के इतवार अलीगढ़ जाना होता था क्यों कि दुकानों के नाम पर वहाँ  बमुश्किल 5-6 दुकानें ही हुआ करती थीं। वो मेरा प्यारा सा कस्बा, उसके लोग आज भी मेरे दिल की गहराइयों में बसे हुए हैं। बस समय की गर्त ने मेरे उन जज़्बातों को अपने अंदर ढक लिया था। गुज़रे जमाने के घाव हों या सुनहरी यादें, कभी ना कभी तो समय की गर्त में ढके होने के बावजूद, दिल की गहराइयों से बाहर निकल झांक ही लेती हैं। बस वजह ही तो चाहिए होती है।
     ऐसी ही एक वजह मुझे भी मिली सन्  2002  में कानपुर जाकर। डॉक्टर असलम जो दातों के डॉक्टर थे और मेरी सास को देखने मेरे घर आए थे। बहुत अरसे के बाद कुछ इत्मीनान से गुफ्तुगू हुई। बहुत सारी बातें हुईं, बस कुछ अपनी हुईं और कुछ उनकी हुईं लेकिन जो भी हुईं, वो मेरे दिल पर पड़े उस ग़र्त को हटाने में कामयाब हुई। दरअसल डॉक्टर असलम की साठ पार कर गई उम्र का तज़ुर्बा था और मैं बमुश्किल उनकी आधी उम्र की भी नहीं थी। उस वक्त उनकी मुकम्मल बातों ने मुझे दिल तक छू लिया और यह दोनों बहनें एक बार फिर मेरी जुबां पर आ गईं और लफ्ज़ों में ढ़लकर मेरी लेखनी पन्नों पर फिसलती चली गई। बस यूँ  ही आज दिल किया कि कुछ पुरानी तस्वीरों को आपके सामने रक्खें।  दिल को छुए तो हौसला अफज़ाई जरूर कीजिएगा----

आप से रूबरू हो याद आया
हाँ ! वो मेरा शहर था....
ज़हन से भूलते वो पल
कभी मेरे थे,
उँगली पकड़ सरमाएदारों की
कदम रखना सीखा था,
बचपन से गुज़र जवानी में दखल
कुछ बहका, कुछ हल्का-हल्का
यूँ दोस्तों की सोहबत
कुछ उम्र का सुरूर
मोहब्बतों के पालने में
झूलते इतराते
जन्नत के दरवाजे से हसीन मंजर देखा था।
हाँ..... वो मेरा शहर था.....
वक्त का अँदाज था
रुकना आसान न था
नज़ाकत नफ़ासत का वह शहर छूटा
आबोहवा भी छूटी
फासलों की रानियाँ बढ़ती गईं ( कुछ यूँ बढ़ी  )
और ज़हन से मिटती गईं वह नफीस इमारतें।
 कि वो मेरा शहर था......
आज फिर याद हो आए
वो ख़ूबसूरत हसीन लम्हें,
बरसों पहले का सुरूर
जवान दिल और दीवानगी
वह मैं हम मोहब्बत
उस शहर की गली से आती दस्तकें
यूँ गुज़रे पल
वाबस्ता हो रहे हैं एक धुंधली नज़र से।
हाँ... वो मेरा शहर था।
किन लफ़्ज़ों में अदा करूं, कैसे नवाजूं आपको
शुक्रिया तो महज़ रस्म अदायगी है
ये सिला खत्म करते हैं कुछ यूँ कहकर
कि उस शहर से तारूफ फिर हुआ
हाँ....वो मेरा शहर था।
हाँ... वो मेरा शहर था।
                                    नीलिमा कुमार