Afia Sidiqi ka zihad - 2 in Hindi Fiction Stories by Subhash Neerav books and stories PDF | आफ़िया सिद्दीकी का जिहाद - 2

Featured Books
Categories
Share

आफ़िया सिद्दीकी का जिहाद - 2

आफ़िया सिद्दीकी का जिहाद

हरमहिंदर चहल

अनुवाद : सुभाष नीरव

(2)

इस्मत जेहान का जन्म 1939 में बुलंद शहर में हुआ। यहीं उसने बचपन बिताया। इस्मत ने स्कूल अभी पूरा भी नहीं किया था कि हिंदुस्तान का बंटवारा हो गया। वह परिवार के साथ पाकिस्तान चली आई। यहीं उसका विवाह मुहम्मद सुलेह सद्दीकी के साथ हुआ। सुलेह सद्दीकी पेशे से डॉक्टर था। विवाह के कुछ समय बाद वह इंग्लैंड चले गए। वहाँ वे कई वर्ष रहे। उनके परिवार में पहले बेटे का जन्म हुआ जिसका नाम उन्होंने मुहम्मद अली रखा। फिर 1966 में पहली लड़की फौजिया का जन्म हुआ। इसके बाद वे वापस पाकिस्तान लौट आए। यहीं मार्च, 1972 में उनकी दूसरी बेटी ने जन्म लिया जिसका नाम आफिया रखा गया। इसी साल जुलाई महीने में सुलेह के साले एस.एच. फारूकी का परिवार उनसे मिलने आया। फारूकी परिवार इस्लामाबाद में रहता था। नाश्ता-पानी से फुर्सत पाकर वे ड्राइंग रूम में बैठ गए। बातें चलीं तो शीघ्र ही वे मौजूदा मसले के बारे में बात करने लगे। बात शुरू करते हुए फारूकी बोला, “भाई साहब, भुट्टो ने मुल्क का बेड़ा डुबो कर रख दिया।”

“क्या किया जा सकता है। मगर अकेला वही तो जिम्मेदारी नहीं है। सभी ने मिलकर ही पाकिस्तान के मुँह पर कालिख़ मली है।”

“गर असल में पूछते हो तो यह काम याह्या खां के ज़माने से शुरू हुआ।” फारूकी की बीवी ने बातचीत में हिस्सा लेते हुए अपना विचार रखा।

“फौज तो सारी ही इस बदनामी का कारण बनी है।”

“अगर पहले ही संभलकर चलते तो क्या फर्क़ पड़ता था। आज ये दिन तो न देखने पड़ते।”

“सच बात तो यह है कि इन्होंने पूर्वी पाकिस्तान के लोगों की भावनाओं की कद्र नहीं की। जब मुजीब-उल-रहमान पाटी की पार्टी जीत गई थी तो हुकूमत उसके हवाले कर देते। उसूल तो यही कहता है।”

“उसूल आम लोगों के लिए हैं। इन रजवाड़ों के लिए नहीं। इन्होंने तो उन लोगों को कभी बराबरी का दर्ज़ा भी नहीं दिया था। फिर यह सब तो होना ही था।”

“इंडिया ने पूर्वी पाकिस्तान के लोगों की मदद करके हमारी छाती पर मूंग दली है। इंशा अल्ला कभी मौका मिला तो हमें भी हिसाब बराबर करना चाहिए।” इस बार इस्मत बोली।

“इंडिया ने जो भी किया है, वह अपने हिसाब से सही किया है। उसकी जगह कोई दूसरा देश होता तो वह भी यही करता। राजनीति यही कहती है।” सुलेह सद्दीकी ने अपना विचार प्रकट किया।

“जो भी हुआ, अच्छा या बुरा यह अलग बात है। पर इस कार्रवाई ने कायदे-आज़म, अल्ला उनकी रूह को जन्नत बख्शे, का दो कौमों का सिद्धांत गलत साबित कर दिया है। इस बात ने पाकिस्तान का अस्तित्व ख़तरे में डाल दिया है।”

“और नहीं तो क्या... कितनी हसरतों से इधर आए थे कि मुसलमानों का अपना मुल्क बन गया है। अल्ला की मार पड़े इन लीडरों को जिन्होंने लोगों की भावनाएँ कुचल कर रख दी हैं। यह बंगला देश नहीं बना, यह तो हमारी जम्हूरियत के मुँह पर थप्पड़ है।”

“कौन सा बंगला देश ? मैं नहीं मानती इसको। तुम पूर्वी पाकिस्तान कहो।” इस्मत नफ़रत में बोली।

“आपा, तुम्हारे कहने से क्या होता है। ज़रा गौर फरमाओ कि पिछले हफ़्ते ही तो हमारे वज़ीरे आलम भुट्टो साहिब शिमला समझौते पर दस्तख़त करके आए हैं। उस समझौते की मुख्य मद यही है कि पाकिस्तान बंगला देश के अस्तित्व को मानता है। उस पर दस्तख़त करने का मतलब है कि पाकिस्तान ने बंगला देश को मान्यता दे दी है।”

“यह समझौता भी तो भुट्टो ने अपनी छवि बचाने के लिए ही किया है। अगर उसको मुल्क की फिक्र होती तो वह उन एक लाख फौजियों की रिहाई की बात करनी न भूलता जो इंडिया ने जंगी-क़ैदी बनाए हैं।”

“अगर जनरल नियाज़ी ज़रा हिम्मत से काम लेता तो वह क़ैद ही नहीं होते और शायद बंगला देश भी न बनने देते।” यह विचार फारूकी की बेगम का था।

“बेगम क्या बात करती हो तुम। इसमें नियाज़ी साहब का रत्तीभर भी कसूर नहीं है। वह अपनी सरकार की मदद के बग़ैर कितनी देर लड़ सकता था।”

“अवाम कभी भी भुट्टो को मुआफ़ नहीं करेगी। न ही फौज करेगी। और तो और, उसने कश्मीर मसले को भी दूसरा ही रूप दे दिया। मकबूज़ा(अधिकृत) कश्मीर की हद को ‘लाइन-ऑफ कंट्रोल’ का रूप दे आया। कहता है कि भविष्य में इस मसले का हल बातचीत के जरिये ही निकाला जाएगा। कोई पूछ तो सही कि अगर भविष्य में कभी इंडिया, पाकिस्तान पर हमला कर दे तो उसका हल भी बातचीत से ही निकालना।”

“भाई साहब, यह सब तो होना ही था। और फिर जो हो चुका है, वह बदला नहीं जा सकता। हमें सच्चाई कुबूल करनी ही पड़ेगी।” सुलेह सद्दीकी ने यह बात कही तो सभी चुप हो गए। फारूकी ने बात का रुख बदलते हुए अन्य बात छेड़ दी, “भाई साहब, तुम्हारा अफ्रीका जाने का प्रोग्राम कैसे है ?”

“बस, सब इंतज़ाम मुकम्मल हैं। जैम्बिया की लोअस्का यूनिवर्सिटी की ओर से नौकरी का ख़त भी आ चुका है। अब तो शायद इसी महीने रवाना हो जाएँ।”

फिर वे दूसरी बातें करने लगे। शाम ढले फारूकी परिवार जाने के लिए उठा। उन्होंने सभी बच्चों के सिर पर हाथ रखा। चादर में लिपटी पड़ी छोटी-सी आफिया का मुँह चूमा। फिर कार में बैठकर चले गए। इसके कुछ हफ़्ते बाद ही सद्दीकी परिवार जैम्बिया चला गया।

यहाँ आकर सुलेह सद्दीकी, लोअस्का मेडिकल युनिवर्सिटी में प्रोफेसर की नौकरी करने लगा। इस्मत बच्चों को संभालती थी। वह सारा दिन घर में खाली रहती थी। उसने इस खाली समय को धर्म के कामों में लगाने के विषय में सोचा। धार्मिक कामों में वह प्रारंभ से ही बढ़-चढ़कर भाग लेती थी। इस्लाम पर चर्चा करना उसको बहुत अच्छा लगता था। यहाँ वह पड़ोसी स्त्रियों को दिन के समय एकत्र कर लेती और उनके साथ धार्मिक मसलों पर बातें करती। अच्छा वक्ता होना उसका बड़ा गुण था। शीघ्र ही, उसके घर आने वाली स्त्रियों की संख्या में वृद्धि होने लगी। फिर तो यह गिनती इतनी हो गई कि उसको कहीं बाहर जगह का प्रबंध करना पड़ा। उसने अपने संगठन का नाम भी रख लिया। यू.आई.ए. यानी युनाइटिड इस्लामिक ऑरगनाइजेशन। उसका प्रभाव यहाँ के मुस्लिम समाज में बढ़ने लगा। सारी एशियन कम्युनिटी में सद्दीकी परिवार मशहूर हो गया। इस्मत का नाम दिनों दिन हरेक की जु़बान पर आने लगा। अपने लोगों को धार्मिक शिक्षा देने के अलावा, इस्मत यह भी कोशिश करती थी कि करीबी क्रिश्चियन भाईचारे में से लोगों को अपने धर्म में लाया जाए। इस काम में वह सफल भी हो रही थी। आफिया हालाँकि तब बहुत छोटी थी, पर उसकी माँ उसको हर रोज़ ऐसे जन-समूहों में संग लेकर जाती। आफिया बड़े ध्यान से माँ की बातें सुनती। आफिया यद्यपि पूरी तरह इन बातों को नहीं समझ सकती थी, पर ये बातें उसके अवचेतन पर उतर रही थीं। इस्मत कहीं भी जाती छोटी-सी आफिया उसके साथ होती थी।

आख़िर सुलेह की नौकरी का समय पूरा हो गया। पूरा परिवार पाकिस्तान वापस लौट पड़ा। आफिया उस वक्त सात वर्ष की थी। यह 1980 का वो समय था जब पाकिस्तान के आस-पड़ोस में उथल-पुथल हो रही थी। ईरान में खुमैनी की रिवोलिशनरी इस्लामिक सरकार ने सत्ता संभाल ली थी। हर तरफ खुमैनी की चढ़त थी। पाकिस्तान में वो सबकुछ बदल गया था जो कि उनके अफ्रीका जाने के समय में था। वहाँ फौजी जनरल जियाउल हक़ की कमांड के नीचे डिक्टेटरशिप कायम हो चुकी थी। उससे पहले प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो जो कि बहुत अमीर व्यक्ति था, मुल्क को धार्मिक प्रभाव से ऊपर उठाकर एक शक्तिशाली जनतांत्रिक देश बनाना चाहता था। इससे धार्मिक लोग अर्थात मुल्ला वगैरह उससे बहुत नाराज़ थे। जियाउल हक़ ने मौके की नब्ज़ को पहचानते हुए राज पलट दिया। उसके आते ही मुल्लों की अच्छी सुनवाई होने लगी। जियाउल हक़ ने मुल्क को धार्मिक रंग में रंगना शुरू कर दिया था, क्योंकि वह जानता था कि यदि स्थायी रूप में राज स्थापित करना है तो लोगों को धार्मिक हथियार से काबू में करना पड़ेगा। इसके लिए उसने ज़रूरी काम प्रारंभ किए। उसने धार्मिक उसूलों को लागू करने के लिए कौंसिल आफ इस्लामिक आयडियोलॉजी कामय की। ऐसे धार्मिक संगठनों की मदद से जियाउल हक ने पाकिस्तान को धार्मिक स्टेट बनाने के लिए पूरे यत्न आरंभ कर दिए। उसका पहला कदम था - स्त्रियों को परदे और चारदीवारी में बंद करना। कितने ही नए धार्मिक रंग वाले कानून बनाकर जिया उल हक ने मुल्क के धार्मिक लीडरों का विश्वास जीत लिया। हर तरफ धार्मिक रंग उभर रहा था जो कि पश्चिम के खिलाफ़ था। पश्चिम के खिलाफ़ ज़ोर-शोर से प्रचार हो रहा था। इन्हीं दिनों ईरान में अमेरिकी एम्बेसी के स्टाफ को क़ैद कर लिया गया। सऊदी अरब में उग्र इस्लामिस्टों ने मक्के की पवित्र बड़ी मस्जिद काबा पर कब्ज़ा कर लिया। पाकिस्तान में उग्रवादियों ने अमेरिका की अमेरिका की इस्लामाबाद स्थित एम्बेसी को आग लगाकर जला दिया। पश्चिम के विरुद्ध हर जगह गुस्सा भड़क रहा था। तभी दिसम्बर 1979 में सोवियत यूनियन की फौजें अफ़गानिस्तान में दाखि़ल हो गईं। इस घटना ने सब कुछ बदलकर रख दिया।

अमेरिका जो अब तक जिया उल हक की कार्रवाइयों के कारण बहुत गुस्से में था, उसको अब जिया उल हक की ज़रूरत महसूस हुई। सोवियत यूनियन को टक्कर देने के लिए वह जिस करीबी शक्ति को ढूँढ़ रहा था, जिया उल हक उसके बिल्कुल मुफ़ीद आता था। सऊदी अरब और अमेरिका ने मिलकर अफ़गानिस्तान में सोवियन यूनियन के खिलाफ़ लड़ने की योजना बनाई जिसमें उन्होंने जिया उल हक को आगे लगा लिया। जिया ने पाकिस्तान की खूफ़िया एजेंसी, आई.एस.आई. को इसकी कमांड सौंप दी। उन्हीं दिनों में अफ्रीका से लौटकर डॉक्टर मुहम्मद सुलेह सद्दीकी ने कराची की एक हाई सोसायटी ‘गुलशने इकबाल’ में बंगला खरीद लिया जहाँ कि बड़े-बड़े अफ़सर और अन्य प्रभावशाली लोग रहते थे। जिया उल हक के चीफ़ ऑफ स्टाफ मिर्ज़ा असलम बेग का परिवार, सद्दीकी का पड़ोसी था। इस प्रकार यह परिवार पाकिस्तान पर राज करने वाले ग्रुप के बहुत करीब आ गया।

इस समय आफिया अपने बचपन का आनंद ले रही थी जबकि उसकी माँ अपने धार्मिक संगठन यू.आई.ओ. के लिए अधिक से अधिक काम कर रही थी। इस्मत सद्दीकी दिनों दिन प्रसिद्ध हो रही थी। यहाँ तक कि जिया उल हक की बेगम शैफ़ीक भी उसके प्रभाव के अधीन थी और उसकी धार्मिक कक्षाओं में उपस्थित हो रही थी। उस वक़्त तक इस्मत ऊँची सोसायटी में एक बहुत ही सम्मानजनक मुकाम हासिल कर चुकी थी। जिया उल हक खुद उससे प्रभावित था। जिया, इस्मत से इतना प्रभावित हुआ कि उसने उसको उस बोर्ड का मेंबर बना दिया जो कि कुरान के अनुसार ज़कात अर्थात चैरिटी एकत्र करने और उसको खर्च करने का प्रबंध करता था। इस बोर्ड में आते ही इस्मत का अन्य बहुत बडे बड़े संगठनों से सम्पर्क हुआ जो कि किसी न किसी ढंग से अफ़गानिस्तान में चल रहे जिहाद के जुड़ी हुई थीं। अफ़गानिस्तान के लिए जाने वाला प्रथम लड़ाकू जिहादी दल, सद्दीकी परिवार के घर से कुछ ही दूर स्थिति बिनूरी कस्बे की मस्जिद से रवाना होने लगा तो लोगों ने उन्हें बहुत ही मान-सम्मान से विदा किया। इसके साथ ही लोगों की नज़रों में सद्दीकी परिवार विशेष तौर पर इस्मत के प्रति इज्ज़त और बढ़ गई। उस दिन आफिया भी दीवार से लगी खड़ी जाते हुए जिहादियों को देखती रही। इस प्रकार छोटी उम्र में ही आफिया जिहाद के बारे में सुनने लगी थी। इतना ही नहीं, बल्कि उसका जिहाद के प्रति लगाव बढ़ने लगा। आफिया तब ‘गुलशने इकबाल’ में लोकल इंग्लिश की छात्रा थी। वह स्कूल में इंग्लिश, मैथ, साइंस, कुरान और सुन्ना पढ़ रही थी। आफिया उस वक़्त बहुत ही मासूम थी। उसकी रुचियाँ भी मासूमों वाली थीं। वह घर में पंछियों को हर रोज़ दाना डालती। इसके अलावा उसने घर में कुत्ते, बिल्ली, बत्तख, मछलियाँ और तोते वगैरह पालतू जानवर रखे हुए थे। फुर्सत का समय वह इनके साथ खेलते हुए बिताती।

अपनी माँ के प्रभाव तले वह भी बहुत धार्मिक होती जा रही थी। माँ को देखकर उसने भी स्कूल में छोटे छोटे बच्चों को लेक्चर देने प्रारंभ कर दिए थे। सद्दीकी परिवार में हर वक़्त अफ़गानिस्तान के अंदर चल रहे जिहाद की बातें चलती रहती थीं। यद्यपि सुलेहे सद्दीकी की इन बातों में अधिक दिलचस्पी नहीं होती थी, पर उसकी पत्नी दिलोजान से जिहादियों की मदद करती थी। उसके लिए उस वक़्त इससे बड़ा कोई दूसरा काम नहीं था कि इस्लाम की धरती से कम्युनिस्टों का सफाया किया जाए और वहाँ सच्चा इस्लामिक राज्य कायम हो। आफिया माँ की इन कार्रवाइयों को बहुत ही ध्यान से देखती थी। उसका मन करता कि वह इन जिहादियों की दिलोजान से सेवा करे जो कि अपने धर्म के लिए शहीद हो रहे थे। वह जिहादियों के बहादुरी भरे कारनामे सुनती तो उसको लगता कि यही धर्म के असली हीरो हैं। थोड़े-से लड़ाकुओं की मदद से शुरू किया गया जिहाद आखि़र उनके हक में होने लगा। बड़ा कारण अमेरिका था जो कि परदे के पीछे रहता, जिया उल हक को आगे रख कर सारी लड़ाई आप लड़ रहा था। आखि़र जिहादियों का पलड़ा भारी पड़ने लगा। आहिस्ता आहिस्ता उन्होंने सोवियत यूनियन को अफ़गानिस्तान में से खदेड़ दिया। फिर समझौता हुआ जिस के अनुसार सोवियत यूनियन वहाँ से अपनी फौजें निकालने के लिए राजी हो गया। जब सोवियत यूनियन की फौजें अफ़गानिस्तान में से गर्दन झुकाकर निकलनी प्रारंभ हुई तो आफिया ने भी अन्य लोगों की तरह जश्न के कार्यक्रमों में बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया। उस वक़्त हर तरफ खुशी का आलम था। ख़ास तौर पर सद्दीकी परिवार के घर में। उनके अनुसार अल्ला की पार्टी की जीत हो चुकी थी। उनका विचार था कि यह जिहाद ही था जिसने अफ़गानिस्तान को कम्युनिस्टों से आज़ाद करवाया। इस विजय को हर एक ने अपने नुक्ते से देखा। अमेरिका को लगा कि उसने काफी अरसे से चल रहे शीतयुद्ध में रशिया का सिर कुचल दिया है। अफ़गानिस्तान के लोगों को लगा कि उन्होंने जिहाद की राह पर चलकर अपना मुल्क आज़ाद करवा लिया है। पर जनरल जिया उल हक और उसकी सरकार ने सोवियत यूनियन की हार को किसी दूसरे रूप में देखा। जिया ने यह भ्रम पाल लिया कि यह सब कुछ पाकिस्तान की वजह से हुआ है। उसका विचार था कि इस वक़्त पाकिस्तान कुछ भी कर सकता है। उसके अनुसार आहिस्ता आहिस्ता पाकिस्तान, पूरे मध्य एशिया में अपना दबदबा कायम कर लेगा। उसने अफ़गानिस्तान से फुर्सत पाकर दूसरे हिस्सों की तरफ देखना शुरू कर दिया। सबसे पहले उसने अपना मुख्य एजेंडा चालू करने की विचार बनाया। वह था- इंडिया की ओर कश्मीर की आज़ादी (पाकिस्तानी इसको मकबूज़ा अर्थात पाक-अधिकृत कश्मीर कहते हैं जब कि पाकिस्तान की ओर के कश्मीर को आज़ाद कश्मीर कहा जाता है)। जिया ने अपने लोगों को कश्मीर आज़ाद करवाने का नारा दिया। इसके लिए उसने वही तरीका चुना जो कभी अमेरिका ने अफ़गानिस्तान के लिए चुना था। अर्थात पाकिस्तान परदे के पीछे रहकर सारी लड़ाई लड़ेगा जब कि कश्मीर में तैयार किए गए जिहादी असली लड़ाई लड़ेंगे। इसके लिए उसने एक्शन शुरू किया तो शांत पड़े जम्मू-कश्मीर में भूचाल आ गया। जगह-जगह जिहादी पैदा हो गए। इस खेल में जिया उल हक दो मोर्चे मारना चाहता था। एक तो था इंडिया से कश्मीर छीनना और दूसरा था, बंगला देश वाला हिसाब चुकता करना। वह यहाँ तक आत्मविश्वास से भर गया कि उसने सोचा कि कश्मीर के आज़ाद होने के पश्चात वह इस प्रॉक्सी वार को भारत के अन्य हिस्सों में फैला देगा और देश के टुकड़े-टुकड़े कर देगा। कश्मीर के साथ ही उसने पंजाब पर भी आँख रख ली। अपना अलग देश बनाने के लिए वह सिक्खों को भड़काने लगा। उसका कहना था कि असली लड़ाई तुम लड़ोगे और सारी मदद वह करेगा। जिया उल हक उस वक़्त बहुत ऊँची उड़ानें भर रहा था। परंतु कुदरत अपना खेल स्वयं खेलती है। एक दिन सद्दीकी परिवार के घर फारूकी का फोन आया। फोन इस्मत ने उठाया तो उधर से वह बोला, “आपा गज़ब हो गया।”

“क्यों क्या हुआ ?”

“जिया साहब नहीं रहे।”

“क्या कहा ?” इस्मत को अपने कानों पर विश्वास न हुआ।

“अभी अभी पता चला है कि जनरल जिया उल हक हवाई हादसे में मारे गए।”

“हाय अल्ला...।”

इस्मत का शरीर सुन्न हो गया। वह कुर्सी के डंडे को पकड़कर वहीं गिर पड़ी। उधर से दो चार बार आवाज़ आई तो वह अपने आप को संभालती हुई बोली, “भाई जान, यह तो बहुत बड़ा क़हर हो गया। हम तो जीते जी ही मर गए। अपने लिए तो वही सब कुछ थे। अल्लाह ख़ैर करे, पता नहीं इनके बग़ैर मुल्क का क्या होगा। पर यह सब हुआ कैसे ?”

“वो कहीं दौरे पर गए थे। साथ ही, बड़े फौजी अफ़सरों के अलावा अमेरिकी राजदूत भी था। लौटते हुए बहावलपुर से हवाई जहाज से रावलपिंडी आ रहे थे। शायद किसी ने जहाज में बम रखवा दिया। जहाज उड़ने से कुछ समय बाद ही तबाह हो गया। कोई भी सवार नहीं बचा।”

“भाई जान, कौन उनकी जान का दुश्मन बन गया होगा ?”

“आपा, क्या कह सकते हैं। पर लगता है कि या तो अमेरिका ने यह सब करवाया है या फिर रशिया ने।”

“अमेरिका भला ऐसा क्यों करवाएगा ? उसकी तो जिया साहिब ने इतनी मदद की है। रशिया की यहाँ तक पहुँच नहीं हो सकती।”

“और फिर किसने करवाया होगा यह काम ?”

“अल्लाह दोजख की भट्ठी में झोके उसको, यह सब हिंदुस्तानियों का किया करवाया है। इस वक़्त सबसे ज्यादा हिंदुस्तान ही जिया साहब से डरता था।”

“आपा आपने दुरस्त फरमाया है। ख़ैर, धीरे-धीरे पता लग जाएगा। पर हुआ बहुत बुरा।”

“बुरे से भी बुरा। अपना तो सब कुछ ही बर्बाद हो गया। अल्लाह जन्नत बख्शे उनको। हमें तो जिया साहब ने बड़ा आदर-सम्मान दिया था। अब पता नहीं आगे क्या होगा।”

“आपा, एक बार तो सारा मुल्क दहशतज़फा हो गया है। इस्लामाबाद शहर तो इस तरह लगता है मानो वहाँ कोई बसता ही न हो। लोग बहुत ज्यादा उदास है। अल्लाह ख़ैर करे, देखो आगे क्या होता है।” इतना कहते हुए फारूकी ने फोन काट दिया।

इस्मत को इस ख़बर ने तोड़कर रख दिया था। छोटी-सी आफिया माँ को दहाड़ें मारकर रोते देखती रही।

जहाँ जिया के समर्थक लोग इस हादसे से टूटकर बिखर गए थे, वहीं विरोधी इसको अपने लिए एक अच्छा वक़्त मान रहे थे। उनके अनुसार एक ज़ालिम हाकिम से पीछा छुड़वाने में अल्लाह ने उनकी मदद की थी। इन लोगों में सबसे ऊपर बेनज़ीर भुट्टो थी। कुछ वर्ष पहले ही तत्कालीन प्रधान मंत्री और बेनज़ीर के पिता जुल्फकार अली भुट्टो को जिया उल हक ने न सिर्फ़ गद्दी से नीचे उतारा था, बल्कि बाद में फांसी पर भी लटका दिया था। पिता की मौत के बाद अपनी पार्टी को आगे बढ़ाते हुए बेनज़ीर ने बड़ी यातनाएँ सही थीं। जिया उल हक की सरकार ने उसको ख़त्म करने की कोई कसर नहीं छोड़ी थी, पर फिर भी उसने लड़ाई जारी रखी। पिछले कुछ समय से वह पाकिस्तान में रहते हुए, लोगों को लामबंद कर रही थी। यह अवसर उसको बिल्कुल मुफ़ीद बैठ गया। उसने ज़ोर-शोर से लोगों का जम्हूरियत के लिए जागरूक करना शुरू कर दिया। उसकी मेहनत का नतीजा ही था कि कुछ देर बाद हुए चुनाव में उसकी पार्टी बहुमत ले गई और बेनज़ीर भुट्टो किसी इस्लामिक देश की पहले महिला प्रधान मंत्री बन गई। जिया के समय से जो लोग धार्मिक प्रभाव के नीचे दबकर रह गए थे, उन्हें बेनज़ीर के आने से नई उम्मीदें मिल गईं। मुल्लो की जकड़ में आया मुल्क, एकदम घुटन से बाहर आ गया। एकदम सभी हालात बदल गए। इस परिवर्तन को इस्मत ने नए नज़रिये से देखा। उसने सोचा कि यदि बेनज़ीर भुट्टो राजनीति में आगे बढ़ रही है तो आफिया क्यों नही राजनीति कर सकती। उसका विचार था कि आफिया किसी बात में भी बेनज़ीर से कम नहीं है। वह सत्रह वर्ष की हो चुकी थी। उसने प्रारंभिक पढ़ाई पूरी कर ली थी। पढ़ाई भी उसने पाकिस्तान के मशहूर सेंट जॉसिफ कालेज से की थी, जहाँ पर बड़े बड़े लोगों के बच्चे पढ़ते थे। उसने हर विषय में ‘ए’ग्रेड लेते हुए क्लास में टॉप किया था। देखने में भी वह बहुत खूबसूरत थी। कद हालांकि उसका छोटा यानी पाँच फुट दो इंच ही था, पर उसका व्यक्तित्व देखने में बहुत प्रभावशाली था। परंतु इसमें एक अड़चन वह स्पष्ट देख रही थी। वह यह थी कि पाकिस्तान में रहते हुए आफिया की शीघ्र ही शादी हो जानी थी। यहाँ के रिवाज़ के अनुसार उसकी शादी की उम्र हो चुकी थी। उसकी माँ ने सोच-विचार करके यह तय किया कि यदि इसको पढ़ने के लिए विदेश भेज दिया जाए तो यह बहुत आगे बढ़ सकती है और इस प्रकार उसके विवाह वाला मसला भी पीछे रह जाएगा। आफिया का भाई मुहम्मद अली, पहले ही पढ़ाई करने के लिए अमेरिका गया हुआ था। उसने वहाँ पढ़ाई पूरी करने के बाद आर्चीटेक्ट का काम शुरू कर रखा था। आखि़र, इस्मत ने अली के साथ सलाह-मशवरा किया। उसका भी यही कहना था कि आफिया अभी छोटी है और साथ ही पढ़ाई में बहुत होशियार भी है। इसलिए इसको अमेरिका भेज दिया जाए। आफिया के माँ-बाप ने विचार-विमर्श करके आखि़र आफिया को अमेरिका भेजने की तैयारी आरंभ कर दी। ईद के हफ़्ताभर बाद ही वह अमेरिका जाने वो जहाज़ में बैठी हुई थी।

(जारी…)