सड़कछाप
(८)
विधाता किसी की सारी प्रार्थनाएं नहीं सुनता। ईश्वर ने भी सरोजा की आधी बात ही सुनी थी। लड़का निष्कंटक हुआ तो रामजस बच गए। अगले दिन सारे रिश्तेदारों की आमद हुई। सुरसता के घर से सारे लोग वापस आ चुके थे । साथ में सुरसता और उसके पति जगराम भी आये थे। लोकपाल तिवारी भी आये। रामजस को जो चोट आयी थी वो गहरी तो थी मगर गंभीर नहीं। थाना-पुलिस के डर से हनुमन्त उसे अस्पताल नहीं ले गया था। पास के बाज़ार के एक झोला छाप डॉक्टर के घर दिन भर भर्ती रखा। वहीं टांके लगवाये और दो-तीन बोतल ग्लूकोज चढ़ाकर शाम को घर भेज दिया। वो माथे पर पट्टी बांधे मगर चिन्तामुक्त थे। उनके थोड़े बहुत पैसे ही तो गये थे बाकी तो डाकू सब अपना माल ही ले गये थे। सरोजा के कमरे में तोड़-फोड़ नहीं हुई थी तो इसका मतलब डाका सिर्फ रामजस के हिस्से पर पड़ा था। सरोज पर क्या डाका पड़ा था ये तो वही जानती थी और डाका उसके मोह पर भी पड़ा था। उसका मन इस घर से, इस गांव से विरत हो गया था। अब भुर्रे का डर भी नहीं रहा सो अमरेश से भी निश्चिन्त थी। दुनिया को भले ही पता ना हो मगर लाज तो लुट ही चुकी थी सो अब उसे मर्यादा का भी कुछ खास भय ना रहा। उसे अब ये घर डाकुओं का बसेरा लगता था वो पक्का इरादा कर चुकी थी कि चाहे जो हो जाये वो इस घर में हर्गिज़ नहीं रहेगी। वो रामजस को रोटियां नहीं देगी। मायके लौटने का सवाल ही नहीं था तो फिर क्या करे, कहाँ जाये वो किसके पास। थाने में उसने जो कहा है वो बात देर सबेर गांव तक पहुंचेगी ज़रूर फिर कब तक ये पर्दा रहेगा ?इसलिये उसे या तो अभी कुछ करना है या कभी कुछ नहीं करना है । अमरेश भी अब बारह बरस का है, रामजस का पिट्ठू। पांच-छह सालों में वो भी जवान हो जायेगा। क्या पता वो डाकुओं से कैसा रिश्ता रखे।
इस घर से निकलने की वो जुगत करने लगी वो इस घर से जायेगी ज़रूर। इस बात को उसने अपने पिता से बताया, बेबस पिता कलप कर रह गये। उन्होंने ने भी कहा कि बेटी जो भी करे, जैसे चाहे अपना जीवन बनाये।
सरोजा को विधवा हुऐ छह वर्ष बीत चुके थे । इस दौरान एक भी दिन ऐसा नहीं था जब लोकपाल तिवारी को अपनी बेटी की चिंता ना हुई हो। उनकी हिम्मत नहीं पड़ी कि वो अपनी बेटी से कहें कि वो दूसरा विवाह कर ले। लेकिन जो दुर्गति रामजस के कारण उनकी बेटी की हुई है उनका खून खौलता था लेकिन बूढ़ा और बेबस खून कर भी क्या सकता था?
बात निकली तो राह निकलनी ही थी । और उसी गांव से दो किलोमीटर दूर उन्हें मंज़िल मिल गयी। जुग्गीलाल, पैंतीस के करीब आयु, विधुर, संतानहीन, बहुत कम जमीन और बहुत बड़ा परिवार। सब किसी ना किसी काम-धंधे में लगे हुए। वो खुद एक कोयला कंपनी में । साल भर में सात-आठ महीने सात-आठ महीने कोलकत्ता में नौकरी रहती थी और बाकी के महीने में बिहार के झरिया में। इकहरा बदन, झक काला रंग और चेहरा चेचक के दागों से पटा हुआ। पूरे साल बाहर ही रहता था। पत्नी बच्चे को जन्म देते हुए मर गयी, और कुछ रोज बाद बच्चा भी। गृहस्थी से ऐसा मन खिन्न हुआ कि उसने दुबारा घर बसाने की तलब ना हुई। कुछ रूप-रंग का भी तकाजा था और कुछ विधुर होने का सामाजिक अभिशाप था कि दुबारा जुग्गीलाल के विवाह की बात बन ना सकी। वो कलकत्ता में रहता था जाति का ब्राम्हण था लेकिन ऐसा कोई परहेज नहीं रखता था। गांव में तो हर मर्यादा का पालन होता था मगर कलकत्ते में वो दारू भी पीता था, मछली भी खाता था और कभी -कभी तन की प्यास बुझाने जिस्मफरोशी के अड्डों पर भी जाता था। पूरे शुकल से उसका गांव तिवारीडीह दो किलोमीटर दूर ही था और वो पूरा गांव तिवारी ब्राम्हणों का था। लोकपाल तिवारी ने जुग्गीलाल से बात की और फिर सरोजा से बात की । सरोजा असमंजस में थी। उसे यहां से निकलना तो था मगर इस तरह निकलने की सूरत बनेगी उसने हर्गिज़ नहीं सोचा था। लोकपाल तिवारी के बताए समय पर इलाज कराने के बहाने वो अस्पताल में जुग्गीलाल से मिली। उसके साथ अमरेश भी था।
सरोजा ने अमरेश को छोड़कर थोड़ी देर तक जुग्गीलाल से अकेले में बात की। फिर लौट कर अमरेश के पास आयी। अमरेश को उस काले बदसूरत आदमी से वितृष्णा हुई। उसे अपनी माँ का उससे अकेले में बात करना बहुत खटका। अंत मे उससे रहा ना गया।
उसने पूछा”मम्मी कौन है ये, अकेले इससे क्या बात कर रही थी। मुझे ये आदमी गुंडा लगता है”।
सरोजा ने शब्दों को चबाते हुए कहा”पास के गांव के तिवारी हैं, कलकत्ता में रहते हैं”।
अमरेश ने कुछ समझते हुए कहा”अच्छा, कलकत्ता तो नाना भी रहते थे, वहीं मिले थे क्या उनको। मगर वो नाना को छोड़कर तुमसे अकेले क्या बात कर रहे थे। मुझे तो उसकी शक्ल देखकर ही घिन आती है, तुम्हें नहीं आती क्या”?
सरोजा ने क्रोधित होते हुए कहा”चुप कर नालायक, तेरा खानदान कौन सा बड़ा उजला है, खबरदार जो उनको कुछ कहा। वो बहुत अच्छे आदमी हैं। अब ना कुछ पूछना और ना कुछ कहना”।
अमरेश अपनी माँ के साथ गांव लौट आया उसे सब बहुत अजीब लगा । उसने ये बात अपने दादा को बतायी लेकिन रामजस अब सरोजा की किसी बात पर नहीं बोलते थे। फिर जब अमरेश ने बताया कि लोकपाल तिवारी भी वहां मौजूद थे तो उन्हें इस बात में कोई विशेष घटना नजर नहीं आयी।
उधर सरोजा के मन में उथल पुथल तो थी कि उसका अगला कदम क्या उचित होगा। लेकिन उसे इस बात की तसल्ली थी कि उसने जुग्गीलाल को उस रात की सारी बात बता दी थी कि रामजस की जान बचाने के चक्कर में कैसे उसकी इज़्ज़त तार-तार हुई थी। जुग्गीलाल ने उसकी बात को ध्यान से सुना था और फिर धीरे से बोला”, इसमें तुम्हारा क्या दोष, तुम अपने तरफ से तो गलत नहीं थी, उन लोगों ने पाप किया तब तुम्हारा क्या दोष”?
सरोजा ने फिर अपने बेटे की तरफ इशारा करते हुए कहा था”मेरा बेटा है, इसको मैं छोड़ नहीं सकती”।
जुग्गीलाल ने फिर धीरे से कहा”अबोध बालक को मां से अलग करने का पाप कम से कम मुझसे तो नहीं होगा”। सरोजा को उसके सारे जवाब मिल चुके थे।
पूरा हफ्ता सरोजा का कश्मकश में बीता और अंततः वो नतीजे पर पहुंच गयी। कि वो इस घर से निकलेगी और हर हाल में निकलेगी। उसे इस बात का पक्का यकीन था कि रामजस को पहले से पता था कि इन चोरों को भुर्रे से कोई लेना-देना नहीं था और सिर्फ चोरी का माल छिपाने के लिये उसने झूठ का सारा कुचक्र रचा था। पूरे हफ्ते उसने अमरेश को मनाया कि वो रामजस से बंटवारा करने जा रही है और अब उसे रामजस से अलग रहना पड़ेगा। मगर किसी दम अमरेश राजी ना हुआ, उसने हर बार यही रट लगाई कि रामजस दादा बहुत अच्छे हैं, वो उन्हें छोड़कर कहीं नही जायेगा और अगर बंटवारा हो गया तो वो रामजस के ही हिस्से में रहेगा अपनी माँ के साथ नहीं। उसने बंटवारे का कारण पूछा, जो सरोजा उसे बता नहीं सकती थी और जो कारण सरोजा ने बताये उससे अमरेश संतुष्ट ना हुआ।
अमरेश ने ये बात रामजस को बतायी कि उसकी माँ बंटवारा करना चाहती है आखिर क्या बात है। तब रामजस ने सरोजा को एक गंदी सी गाली देते हुए कहा”वो रांड जवानी संभाल नहीं पा रही है। तुझे बेदखल करके तेरी जायदाद पर अपने किसी यार को बैठाना चाहती है। आये तो कोई मेरे भाई और तेरे धन पर, इस घर में, मैं उसे फरसे से काट दूंगा”।
अमरेश को अपने माँ की गाली तो बुरी लगी मगर अपने दादा की बात भली लगी कि उनके फरसे के तले उसका घर, धन सुरक्षित है और बंटवारे के पीछे जरूर उसके मां के मन में अब कोई खोट आ गया है क्योंकि दादा तो हमेशा से ही ऐसे थे तो अब कौन सी आफत आ गयी।
उसने रामजस के उद्गार अपनी माँ को बता दिये और फरसे की धमकी भी बताई। सरोजा अपना सर पकड़ कर बैठ गयी और उसे बड़ी कोफ्त हुई कि इसमें भी अपने खानदान का ही रक्त है और ये इसी तरह रहेगा। वो जान चुकी थी कि अमरेश हर्गिज़ नहीं मानेगा तो क्या अमरेश के बिना भी, , , ?ये सोच कर उसकी रूह कांप जाती थी।
हफ्ता बीतते ही सुबह -सुबह लोकपाल तिवारी गांव में आये। उन्होंने थोड़ी देर सरोजा से बातचीत की फिर वो चले गये। उनके जाने के बाद सरोजा नहा-धोकर तैयार हो गयी। उसने लोकपाल की लाई नई साड़ी पहनी और अमरेश को भी वही वही नए कपड़े पहनाए जो सुबह उसके नाना लाये थे। उसने अमरेश से चलने को कहा तो उसने रॉयबरेली जाने की वजह पूछी। तो उसने बताया कि उसको सुई लगवानी है अस्पताल में इसीलिये। अमरेश को कुछ अजीब लगा मगर फिर भी वो तैयार हो गया। सड़क पर आकर उनलोगों ने बस पकड़ी और शहर पहुंच गए।
शहर अमरेश अक्सर आता-जाता रहता था, उसे रास्ते भी जाने पहचाने थे। लेकिन ये रास्ते नये थे, अस्पताल पीछे छूट गया था। वे एक बड़े से भवन में पहुंचे जहां उसके रिक्शा से उतरते ही उस दिन वाला काला तिवारी दिखा। उसे देखते ही अमरेश का मन खट्टा हो गया। तब तक उसने देखा कि उसके नाना, दोनों मौसियां और दोनों मौसा भी मौजूद हैं । उसका माथा ठनका गया उसने देखा तो वहां काले कोट पहने तमाम वकील भी मौजूद थे। लेकिन ये कचहरी नहीं लगती थी क्योंकि कचहरी एक बार वो रामजस के साथ गया था फिर ये जगह कौन सी है ?जगह को ताड़ने समझने के चक्कर में उसने कार्यालय का बोर्ड पढ़ा। निबंधक और ना जाने क्या क्या उसे कुछ समझ ना आया। उसने सोचना छोड़ दिया इस जगह के बारे में, जो भी होगा उसकी मम्मी बताएगी। उसे बस काला तिवारी बार-बार खटक रहा था कि ये बार बार क्यों उसकी माँ से मिलता है । आखिर उसे रामजस दादा की बात आयी”माँ का यार”तो क्या ये काला तिवारी उसकी माँ का यार है। हाँ शायद, बात उसे खटक गयी, आज वो घर जाकर अपनी माँ से पुछेगा कि ये काला तिवारी क्या उसका यार है?अगर बात सही हुई तो वो और रामजस दादा मिलकर इस आदमी को फरसे से काट डालेंगे। अचानक उसे याद आया कि उसके पास भी तो चिर्री की छूरी है, नहीं तो वो भी काट देगा इसको। अब तो भुर्रे भी नहीं है किसका डर?
इसी सब उधेड़बुन में अमरेश के कई घंटे आये। उसने देखा कि उसके नाना रामजस तिवारी कहीं चले गये हैं और कुछ घंटे बाद लौटे तो उनके पास एक बड़ा सा झोला था। जो सामानों से भरा था। वहीं आफिस के पास ही एक सपेरा सांप दिखा रहा था वो गेट के बाहर निकल कर सांप देखने में व्यस्त हो गया। काफी देर बाद लोकपाल तिवारी उसे खोजते हुए आये और अपने साथ बुला ले गए। उसने देखा कि उसकी माँ काले तिवारी के साथ आये लोगोँ के पांव छू रही थी। फ़िर सरोजा ने काले तिवारी के भी पाँव छुए और अपने बाप के भी, हालांकि लोकपाल तिवारी पीछे हट गये उन्होंने अपने पांव बेटी को छूने नहीं दिया। सरोजा ने अपनी बहनों की अंकवार की और फिर अंत में अमरेश के सिर पर हाथ फेर कर गले लगा लिया।
अमरेश कुछ भी समझ नहीं पा रहा था। उसकी माँ ने उसे जुग्गीलाल के सामने खड़े करते हुए कहा”बेटा, इनके पाँव छुओ”।
अमरेश रुखाई से बोला”क्यों, कौन हैं ये मेरे, और तुम्हारे कौन हैं?
सरोजा ने मुस्कराते हुए कहा”ये मेरे पति हैं अब और तुम्हारे बाप हैं। मैंने आज यहां इनसे शादी कर ली है”।
अमरेश के चेहरे पर तनाव उभर आया वो तल्खी से बोला”पति नहीं तुम्हारा यार है”।
जुग्गीलाल ने हंसते हुए कहा”हां, मैं इनका यार हूँ। नहीं पहले इनका ही यार था, अब तुम्हारा भी यार हूँ बेटे और तुम मुझे अपना पापा समझो”।
“पापा-वापा ना कहना तिवारी, नहीं फरसा से काटेंगे तुमको। आगे से डालकर छुरी पीछे से निकलेंगे तुम्हारे। चलो तो हमारे गांव की ओर”अमरेश ने ताव में आते हुए कहा।
तड़ाक से सरोजा ने एक थप्पड़ अमरेश की गाल पे जड़ा। दूसरा भी जड़ने का प्रयास किया तब तक लोकपाल तिवारी ने उसका हाथ पकड़ लिया और खींच कर दूर खड़ा किया सरोजा को।
थप्पड़ इतना तेज था कि अमरेश की आंखे छलछला आयीं उसने फिर चिल्लाते हुए कहा”रामजस दादा सही कहते हैं कि हमारी महतारी ही गलत है। दादा की हर बात सही है तिवारी तुम्हारे तो कुछ खेत-पात हैं नहीं तुम्हारी नजर हमारे औ दादा के हिस्से की खेती पर है। लाश गिर जायी तिवारी लेकिन एकौ बीघा जमीन तुमको हम लोग ना देंगे । कत्ल हो जाई तिवारी कत्ल, चाहे तुम नाही या हम नाही”।
जुग्गीलाल और उनके साथ आये लोग अमरेश की धमकी और वाचालता से बहुत नाखुश हुए। उसे लड़का समझकर उन लोगों ने मारपीट नहीं की वरना पांच तिवारी एक अदने से लड़के की गाली ना सुनते। कोई कुछ कह सुन पाता इससे पहले सरोजा ने रोना शुरू कर दिया”ई दाढ़ीजार रामजस का नाश हो। पहले हमारी इज्जत खराब कराई और अब हमारे बेटे को हमारे खिलाफ कर दिया। वही इसके दिमाग मे सब जहर भरे हैं। बेटा अमरेश हम तुम्हारे लिए ही तो ई सब किये हैं नाहीं तो हमका अब का पड़ी थी। जैसे सब कट गया वैसे और दिन कट जाता। इनके साथ रहोगे तो आदमी बन जाओगे पढ़ लिख के। और रामजस के साथ रहकर या तो डाकू के मुखबिर बनोगे या डाकू। वो चरसी अपने फायदे के लिये गाय का गला काट दे, तुम्हारा क्या भला करेगा”?
अमरेश ने सरोजा को अविश्वास से देखा और कहा”तुमको हमसे मतलब होता तो ई काम ना करती। तुम हो ही ऐसी, दादा सही कहत हैं”
सरोजा ने रोते हुए कहा “बेटा, इतना लांछन अपनी महतारी पे ना लगाओ। तुम्हारा ही मुंह देखकर जीती आयी हूँ और तुम्हारे ही कारण आज तक जिंदा हूँ वरना कब की मर गयी होती। अब जब तुम ही नहीं समझ रही हो तो मैं जी कर क्या करूंगी। आज ही जाके किसी कुआँ-ताल में समा जाती हूँ।
अमरेश ने और तल्खी से कहा”ई तिरिया चरित्तर हमको ना दिखाओ मम्मी, जाके मर जाओ तो अच्छा है नाहीं तो हम ही तुमको चिर्री वाली छुरी से काट देंगे, कुलबोरन कहीं की”?
सरोजा अपने बेटे का ये रूप देखकर अवाक थी । उसे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि ये उसी की कोख से जन्मा है उसके ऐसे वचन। जिसे वो अपने कलेजे में रख लेना चाहती थी वही उसका कलेजा निकाल लेना चाहता था। उस जगह का माहौल बहुत तनावग्रस्त हो गया ।
लोकपाल तिवारी एक टेम्पो ले आये। वहां लोगों में ये तय हुआ कि तिवारी लोग अपने गांव लौट जाएं और वे पूरे शुकुल ना जाएं वरना मामला दो परिवारों का नहीं दो गांवों का बन सकता है और लाठी चल सकती है तो खून -खराबा हो सकता है। इसलिये यहां से तिवारी लोग अपने गांव जायें और सरोजा के बहन-बहनोई इमलिया लौट जायें। लोकपाल तिवारी, सरोजा के साथ उसके गांव जायेंगे और सरोजा का सामान और अमरेश को समझा बुझा कर ले आयेंगे।
सबको लोकपाल तिवारी की योजना मुफीद लगी और सबने वहां से विदा ली। हालांकि आशंका सभी को थी कि अब आगे क्या होगा?
अमरेश ने लोकपाल और सरोजा के साथ टेम्पो में बैठने से इनकार कर दिया मगर लोकपाल तिवारी ने कहा कि “ बेटे;गांव चलो, वहीं बात होगी और जैसा तुम कहोगे वैसा ही होगा”।
अमरेश ने सोचा ठीक है, यहां उसकी बात का वजन कम है क्योंकि वो अकेला है। गांव चलते हैं वहां दादा भी हैं और बाकी पट्टीदार भी वहां इन सबसे अपनी बात मनवाऊंगा।
रास्ते भर सरोजा फफक -फफक कर रोती रही और अमरेश का अपने पास लाने की कोशिश करती रही। लेकिन अमरेश गुस्से से तना बैठा रहा और हर बार उसे झटक देता था।
टेम्पो रुका तो सरोजा घर के भीतर चली गयी । रामजस घर पर नहीं थे। सरोजा ने अपना पूरा सामान बंधा और दूसरे होल्डाल में अमरेश का पुरा सामान-कॉपी किताब भी बांध लिया। सामान लाकर उसने बाहर रखा तब तक देखा, रामजस आ गये । दूसरी तरफ से मैना, हनुमन्त और बाकी पट्टीदार भी थे। उसकी मांग में सिंदूर और साड़ी कपड़े देखकर सबको सब समझ आ रहा था।
गांव में गोहार हो गयी, मिनटों में पूरा गांव जुट गया। इत्तेफाक से गांव का चौकीदार भी मौजूद था और गांव का एक व्यक्ति होमगार्ड था । वो दोनों भी बावर्दी उपस्थित थे। रामजस ताबड़तोड़ गालियां बक रहे थे और हाथ में फरसा भी लिये लहरा रहे थे। वो गांव के पट्टीदारों और औरतों को उकसा रहे थे कि वो सब सरोजा पर हमला करें, उसे मारे-पीटे। लेकिन कोई उनके झांसे में नहीं आया। उन्होंने तिवारी के गांव पर हमला करने का प्रस्ताव दिया लेकिन कोई तैयार ना हुआ। उन्होंने लोकपाल पर भी हमलावर होने की कोशिश की लेकिन गांव के बड़े-बूढ़ों ने रामजस को सख्ती से रोक लिया कि रिश्तेदार पर हमला मर्यादा के खिलाफ है। कुछ नौजवानों ने थोड़ा तैश-तेवर दिखाया लेकिन लोगों ने उन्हें भी डपट दिया कि खाकी वर्दी के दो नुमाइंदे मौजूद हैं ।
अलबत्ता टेंपो वाले को लोगों ने बहुत हूल दी वो डर कर भागने लगा तो लोकपाल तिवारी ने उसे रोका। माहौल की तल्खी बढ़ती जा रही थी। टेम्पो वाला किसी भी दम रुकने को तैयार नहीं था। लोग बात-बे-बात मार पीट और टेम्पो फूंक देने की बातें कर रहे थे। लोकपाल ने सरोजा की तरफ देखा और सरोजा खड़ी हो गयी चलने को।
उसने अमरेश से कहा”अमरेश चलो बेटा, मैं जा रही हूँ। चलो, चलें यहाँ से”।
रामजस दहाड़े”तू यहां से जिंदा नहीं जा सकती छिनाल, अमरेश काट डाल इस कुलटा को तेरे बाप की आत्मा बैकुंठ में जुड़ा जायेगी। मार, मार, मार डाल, दौड़, मार “
रामजस के कहने पर अमरेश छुरी लेकर दौड़ा उसने चिर्री वाली छुरी से सरोजा पर वार किया लेकिन वार उसके सरोजा के हाथ के बजाय उसके हाथ की डोलची पर लगा और प्लास्टिक की डोलची को काटते हुए छुरी डोलची में अटक गयी। तब तक लोगों ने दौड़कर अमरेश को पकड़ लिया जबकि रामजस को कुछ लोग पहले से जकड़े हुए थे। रामजस और अमरेश दोनों के सर पर खून सवार था, दोनों अंट-शंट बके जा रहे थे।
सरोजा को गांव के लोगों ने कहा कि वो जाना चाहती है तो तुरंत जाये वरना अनर्थ हो जायेगा।
उसने अपनी अटैची और डोलची उठायी और रोते हुए बोली”अमरेश, बेटा तुम अपनी माँ पर छुरी चलाये इनके कहने पर। समझो मैं मर ही गयी। वाकई आज मैं मर गयी। अपने दादा के कहने पर, अब रहो इनके साथ, राज रजो। मैं जा रही हूँ। तुम्हारी छुरी तो नहीं लगी लेक़िन अब तुम्हारी महतारी मर गयी तुम्हारे लिये। रामजस दादा तुम हमारा सब कुछ छीन लिए, पहले इज़्ज़त और अब बेटा। खूब पढ़ाये तुम, तुम्हारे सिखाये पूत -महतारी को मारे। इस घर से कुछ नहीं ले जा रही हूँ। अब तन का कपड़ा भी नहीं ले जाऊँगी। इस अटैची में कुछ जेवर और रुपया है। रुपया अमरेश की पढ़ाई के लिये जोड़ा था और जेवर अमरेश की दुल्हन के लिये बचाया था। सब छोड़े जा रही हूँ। अमरेश मेरे लाल, बगल की गांव में हूँ । तुम चले आना चाहे जब, चाहे महतारी की गर्दन काट लेना, और चाहे महतारी के गले लग जाना। अगर कहीं दैव हैं तो रामजस दादा तुम इस अबला की औलाद और इज़्ज़त छीने हो तो विधाता न्याय करेंगे, तड़प-तड़प के मरोगे, चैन ना मिलेगा तुमको। ये श्राप है हमारा। जाती है महतारी तुम्हारी अमरेश लाल हमार”। ये कहते हुए सरोजा रोते-बिलखते टेम्पो में बैठ गयी और तब तक अमरेश को देखती रही जब तक अमरेश टेम्पो से दिखना बंद नहीं हो गया।
टेम्पो के जाते ही लोगों ने अमरेश और रामजस को छोड़ दिया और लोग अपने घरों को लौट गये। भीड़ छंट गयी तो अमरेश और रामजस भी ठंडे पड़ गये।
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