1.मन हीं मन मे युद्ध छिड़ा है,
मैं मेरे विरुद्ध खड़ा है।
2.अँधेरा में फैला सबेरा जहाँ पे,
खुदा होता तेरा बसेरा वहां पे।
3.रेत के समंदर सी दुनिया में हम हैं,
पता भी चले कैसे ये कैसा भरम है?
4.नफरतों के दामन में,
जल रहे जो सभी है,
कौन सा है मजहब इनका ,
कौन इनके नबी हैं?
5.ख़ुदा क्या हवा हो दिखते भी नहीं,
मिलते भी नहीं हो मिटते भी नहीं।
प्रभु तेरा दीपक जलाऊँ मैं कैसे,
दिल मे गुनाहों का पानी बहुत है।
6.हाथ झुके दिल झुका नहीं,
प्रेम पुष्प निज फला नही।
ना संशय तूने त्याग किया,
ना मिथ्या का परित्याग किया।
फिर तुझे कैसे प्रभु मिलेंगे,
विष गमलों में फूल खिलेंगे?
7.बात तो है इतनी सी जाने क्यों खल गई,
अहम की राख थी बुझाने पे जल गई।
8.ख़ुदा तेरे सफर में जब एक हो जाता हूँ,
अजीब सा असर हैं अनेक हो जाता हूँ।
9.कैसे करूँ मैं अपनी पहचान तू बता,
मैं हीं नहीं हूँ मुझमें पूरा शहर है शामिल।
10.तूने ही तो अपने शैतान को पुकारा है,
दोष सितारों का नहीं, दोष तुम्हारा है।
11.आसाँ था खरीदना पर बिकना था मुश्किल,
या तो तेरा वादा था , या तो ये मेरा दिल।
12.मेरे हीं हाथों मूझको कायनात दे दिया,
ख़ुदा ने ख़ुद से मूझको निजात दे दिया।
13.ख़ुदा के नेक बंदों का,
शुक्रिया भी कर दो,
गज़ल का काम केवल,
शिकायत नहीं।
14.दिल में है अंधियारा,
आग़ जला लेता हूँ,
थोड़ा जाग लेता हूँ ,
थोड़ा भाग लेता हूँ।
15.काश कि तू बिकता.
दुनिया के बाज़ार में ,
ख़ुदा तुझको लाता,
थोड़ा मैं भी उधार में।
16.हवाओं पे कोई कहानी लिखूँ,
क्यों अपनी मैं जिंदगानी लिखूँ?
17.हिजाब-ए-दहर भी रहने दो,अच्छा है,
भरम जो बचा है, रहने दो अच्छा है।
हिजाब-ए-दहर:Curtain of World
18.सबक तो है छोटी क्यों याद नहीं होती,
सच्चाई के मार की आवाज नहीं होती।
19.यथार्थ है या भ्रम है?
जीवन क्या स्वप्न है?
20.शैतानों का खौफ़ नहीं होता यकीनन,
ख़ुदाओं से मूझको बचा लो तो अच्छा।
21.जो तेरा है सच सच्चाई है वो,
जरूरी नहीं कि अच्छाई है वो।
22.भोग पिपासु जन के मन मे,
योग कदाचित हीं फलते,
जिन्हें प्रियकर नृत्य गोपियाँ,
कृष्ण कदाचित हीं मिलते।
23.जिंदगी का लहजा,
अजीब जरा सख्त है,
सपनों की दौड़ है,
ना अपनों पे वक्त है।
24.रिश्तों के समंदर में गला नहीं,
मंजिल करीब थी तू चला नहीं।
25.दिन रात चाहे बदले ,
एक बात ना बदलती।
ये आदमी क्या चीज है ,
कि जात ना बदलती।
26.अन्धकार के राही ओ,
सपनों पे ना आघात करो।
तिमिर घनेरा भागेगा तुम,
लक्ष्यसिद्ध संघात करो।
27.ढूंढ़ता हूँ शहर में कोई तो बाशिंदा हो,
जो जगा हुआ भी हो और जिन्दा हो।
28.जुबान का फिसलना भी चर्चा सरेआम है,
और बेचते रहे वो ईमान कहाँ कहाँ तक।
29.भावों के धुंधीयारे बादल ,
घन तम के उस सागर पार।
स्वप्नदृष्ट मय मिथ्या जग से.
छिपे हुए जगतारणहार ।
30.बातें ख़ुदा की यूँ करने से क्या,
लड़ने से क्या , झगड़ने से क्या?
जो चलते नही तू खुदा की डगर,
यूँ चलकर गिरने संभलने से क्या?
31.मृगतृष्णा के आँगरों से,
व्याकुल मन अकुलित हो जाऊँ।
बुद्धि शुद्धि के तम घन ओझल.
दग्ध मन है मैं ललचाऊँ।
32.हक़ीक़ते जीवन की,
हिजाब कर गई।
बचपन में जो उम्मीदे थी,
ख्वाब कर गई।
33.करके गुनाह धुल जाता हूँ,
मंदिर जाके भूल जाता हूँ।
34.क्यों बांधे बुत में तू उसको
जो फैला है यहीं कहीं,
क्या तेरे मस्जिद से पहले,
ये ईश्वर था कहीं नहीं?
35.कह गए अनगिनत सन्तन है,
चित संलिप्त नित चिंतन है।
स्थितप्रज्ञ उपरत अविकल जो,
अरिहत चिरंतन है।
अजय अमिताभ सुमन:सर्वाधिकार सुरक्षित