सड़कछाप
(७)
काफी देर बाद सरोजा के होशोहवास काबू में आये। उसे लगता था कि उसका सारा शरीर किसी ने आरी से टुकड़े-टुकड़े कर दिया हो। पूरे बदन के पोर-पोर से बेपनाह दर्द उठ रहा था। पूरा मुंह नोचा-सूजा हुआ था। वक्ष पर नाखूनों से नोचे और दांत से काटे जाने की अनगिनत निशानियां मौजूद थीं। जननांगों से काफी खून गिरा था और रिस भी रहा था। तन के कपड़े फटे थे। वो बमुश्किल उठी और बाहर आयी। बाहर अभी भी अंधेरा और कोहरा था । रामजस वैसे ही बरामदे की फर्श पर पड़े थे। उसके घर का मुख्य दरवाजा बंद था। उसे घर के अंदर उसी रास्ते से जाना था जिस रास्ते से वो वापस आयी थी। वो बमुश्किल चलते हुऐ उस जगह पहुंची जहां उससे टार्च और छूरी छीनी गयी थी। टॉर्च जमीन पर जलती हुई ही पड़ी मिली। उसकी बैटरी मद्धिम पड़ गयी थी। थोड़ा सा तलाश करने पर छूरी भी मिल गयी। वो घर के पिछवाड़े गयी, दीवार पर से कूदना तो आसान होता है पर चढ़ना मुश्किल जब बदन साथ ना दे रहा हो तो तकरीबन असंभव। उसने आस-पास से लकड़ी के टुकड़े, ईंट और पत्थर इकठ्ठा किया उसी पर पैर रखकर जगह कुछ ऊंची की और चढ़ने से पहले छूरी और टार्च को साड़ी में खोंसा और दीवार पर चढ़ने का उपक्रम किया, मगर वो गिर पड़ी, गिरने से उसके शरीर का दर्द और बढ़ गया। किंतु हे धन्य मानव, अदम्य है तेरी जिजीविषा। कई बार के असफल प्रयासों के बाद वो दीवार पर चढ़ने में सफल हो गयी। वो अपने कमरे में गयी अपने शरीर की हालत को सुधारने का उसने कोई उपक्रम नहीं किया। क्योंकि इसी हालत में उसे पुलिस के पास जाना था। किसी घाव को पर उसने कुछ भी नहीं लगाया। बस जननांगो से रिसते हुए खून को रोकने की जुगत की । उसने सोचा कि यदि खून रिसता रहा और वो इस हाल में बाहर गयी और किसी ने देख लिया तो उसकी बड़ी फ़ज़ीहत होगी। लाज लुट चुकी थी फिर भी नारी सुलभ लज्जा तो नारी के प्राणों के साथ ही जाएगी। स्त्री को रक्तस्राव से निपटना और उसके दर्द से पार पाना कुदरत अल्पायु में ही सिखा देती है सो उसने अपने माहवारी के दौरान के उपायों को अपनाया और फिर लालटेन जलायी।
उसने छुरी कमरे में ही रख दी अब कुछ भी लुटने का भय ना था। उसने मुख्य दरवाज़ा खोला और रामजस के पास आयी वो अभी भी उसी हाल में पड़े थे। उसने तस्दीक की, उनकी सांसे चल रही थी। उनका माथा फूटा था और बहुत गहरे घाव से काफी ख़ून बहकर उनके चेहरे और माथे पर लिथड़ा हुआ था। वो शायद इस चोट से ही बेहोश हुए थे ना कि नशे की अधिकता से। सरोजा ने सोचा कि जेठ हैं इन्हें छूना उचित नहीं होगा तो फिर उन्हें उठाये कैसे?वैसे भी वो कृशकाय रामजस को उठा नहीं सकती थी ये फिलहाल मर्यादा से ज्यादा उसके कमजोर शरीर का तकाजा था और इस हाल में तो बिल्कुल नहीं।
तब क्या करे वो?उसने सोचा कि वो तब तक ला कर एक कंबल रामजस के बदन पर डाल दे और फिर हनुमन्त को बुलाये। वो कमरे में गयी और उसने लालटेन की रोशनी में कमरा देखा तो वो हैरान रह गयी। पूरा कमरा खोदा पड़ा था, कम से कम हाथ भर की गहराई तक खोदा गया था। कमरे में जेवरों के कई खाली डिब्बे और कपड़े के बटुए पड़े थे। रामजस के बक्से का ताला भी टूटा था। उसे पूरी कहानी समझते देर ना लगी तो ये वजह थी कि रामजस अपने कमरे में ताला भरे रहते थे और किसी को अपने कमरे में नहीं आने देते थे क्योंकि डाकुओं के लूट का माल वो अपने कमरे में छुपाते रहे थे वरना इस चिलमची के पास फांके चलते हैं इसके पास क्या रखा था। डाकू इसे कुछ हिस्सा भी देते थे तभी पिछले कुछ दिनों से मिठाई-समोसे के गुलछर्रे उड़ रहे थे। लेकिन जाते-जाते डाकू रामजस की भी जमा-पूंजी ले गये थे क्योंकि उनका बक्सा भी खाली था।
सरोजा कमरे से बाहर आयी उसने रामजस को देखा और बुदबुदाई - “एक भाई डाकुओं का मुखबिर बन कर मरा और दूसरा डाकुओं का साथी बनकर मर रहा है”। उसके दिल में आया कि वो रामजस की गर्दन दबा दे, उसने रामजस की गर्दन पकड़ ली कि उसी की वजह से आज उसकी ये दुर्दशा हुई है, लेकिन तभी उसने सोचा डाकुओं ने रामजस को भी तो ठगा है । उसे भी तो लूटकर, मारकर गये हैं। इसलिये उसने रामजस को मारने का विचार त्याग दिया। उसे थाने जाना था और भुर्रे की मौत की भी तस्दीक करनी थी अगर भुर्रे मर गया तो उसके अमरेश का जीवन निष्कंटक हो जाएगा।
मुंह अंधेरे ही उसने हनुमन्त को जगाया और बताया कि घर मे डाका पड़ गया है, दादा पर हमला हुआ है वो जाए और उनकी दवा-दारू कराएं और वो थाने जा रही रपट लिखाने। हनुमन्त कुछ समझ पाता उससे पहले वो मुड़ी और थाने की तरफ चल दी। मुख्य सड़क पर आकर उसने देखा कोई वाहन नहीं था। रात की पाली की चौकीदारी करके कुछ लोग लौट रहे थे। एक अकेली औरत देखकर वो लोग रुक गये।
उनमें से एक ने पूछा”इतनी सुबह, पैदल ही, का मुसीबत आयी है, कौन हो तुम”
सरोजा ने अपनी रामकहानी बतायी, परिचय भी दिया। बटोही रात भर के थके थे, लेकिन इस औरत की पीड़ा के सामने उन्हें अपनी थकान मामूली जान पड़ी। उनमें से हर एक मदद को तैयार था मगर किसी एक का ही साथ जाना काफी था। एक नौजवान चौकीदार ने उसे अपनी साईकल पर बैठा कर थाने पहुंचा दिया।
क्या रंग दिखा रही थी ज़िन्दगी, कुछ घंटे पहले वो डाकुओं के सामने थी अब पुलिस के सामने थे। एक आम आदमी डाकू और पुलिस दोनों से सिहरता है। थाने के गेट पर ही उस मददगार शख्स ने उसे उतार दिया। थाने का गेट वो दहलीज है जहाँ जाते हुए हर इंसान एक बार ठिठकता है उसका दिल धक से रह जाता है कि इससे आगे उसके साथ क्या होगा। मददगार लौट पड़ा, उसी पीड़ित अवस्था में सरोजा थाने के भीतर गयी। सुबह का वक्त था, अभी कोहरा छंटा नहीं था लेकिन रोशनी फैल रही थी। उसने थाने के मुंशी को अपने घर पड़े डाके की तफसील बताई। मुंशी अनुभवी पुलिसिया था उसे समझते देर ना लगी कि डाका सिर्फ उसके घर पे नहीं बल्कि सरोजा की अस्मत पर पड़ा है।
हालात की नजाकत को भांपते हुए उसने थानाध्यक्ष को जगाया। ऊंघते हुए वो भी आये। सरोजा ने उन दोनों के सामने अपना दुखड़ा फिर से कहा। मुंशी पुराने सारे मामलात जानता था उसने लल्लन शुक्ला के मर्डर से लेकर आजतक का हाल कह सुनाया वो भी पुलिस की जानकारी के आधार पर।
थानाध्यक्ष ने उस हल्के के सिपाही को बुलाया। उसने बताया कि कुछ लोग पहले से सरोजा के घर आते जाते रहे हैं जो अपराधी किस्म के लोग हैं। सरोजा भी संदिग्ध हो गई। थानाध्यक्ष ने सख्ती से पूछा तो सरोजा ने शुरू से रामजस की योजना बता दी कि ये सब भुर्रे को मरवाने के लिये था।
फिर अंत में उसने पूछा”साहब, भुर्रे को कल रात नकोड़ें ने गोली मारी थी, भुर्रे बचा कि मर गया?”
* थानाध्यक्ष पारसनाथ उपाध्याय ने सरोजा को हैरानी से देखते हुए कहा, ”तुझे खबर नहीं है क्या, भुर्रे डेढ़ साल से जेल में है। वो उम्रकैद की सजा काट रहा है। उसका सारा गिरोह खत्म हो गया।, ”
* सरोजा को विश्वास ना हुआ उसने उसने पारसनाथ से चिरौरी की वो पता लगा लें कि भुर्रे वाकई जेल में है या उसे कल रात गोली मारी गई है या नहीं । मामला डाके और गोलबारी का था। पारसनाथ को भी खटका हो गया कि ऐसा ना हुआ हो कि भुर्रे को जमानत या पैरोल मिली हो वो आया हो और उसे किसी ने गोली मार दी हो। या फिर उनके इलाके में कोई और गोलीबारी की वारदात हो गयी हो जिसका उनको पता ना चला हो और जब तक पता चले तब तक उनकी खासी फजीहत हो जाये।
करीब एक घंटे तक फ़ोन, वायरलेस होता रहा । तस्कीन हो जाने के बाद पारसनाथ ने सरोजा को बुलाया और कहा, ”भुर्रे जेल में ही है, इस वक्त बनारस में है, कल रात को वो बनारस में था पुलिस के साथ एक मुकदमे में उसे पुलिस पेश करने ले गयी है। और पूरे रायबरेली में किसी थाने में किसी को गोली नहीं मारी गयी है”।
सरोजा को ये खबर सुनकर बहुत इत्मीनान हुआ कि भुर्रे जेल में है और उसे उम्रकैद हो गयी है। उसका गिरोह खत्म हो गया इस बात से उसे अमरेश के जीवन के खतरे का अंदेशा जाता दिखा। स्त्री जो अभी अस्मत के हमले से घायल थी, अब माँ बनकर उसने एक खबर सुनी तो उसकी ममता ने उसके नारीत्व की पीड़ा हर ली”
सरोजा ने धीरे से पूछा”फिर नकोड़ें ने किसको मारा साहब। आप कहते हैं कि भुर्रे का गिरोह खत्म हो गया मगर नकोड़ें और जोखन भी तो उसी के साथी हैं वो तो आज़ाद हैं साहब”?
पारसनाथ ने भी धीरे से कहा “, तुम इतनी बेवकूफ हो, मुझे पता नहीं था। वो तीनों डाकू नहीं उठाईगीर हैं, चोर हैं, राहजनी करते हैं । भुर्रे से उनका कोई वास्ता नहीं। दोंनो सुल्तानपुर जिले से जिलाबदर हैं, सो इस जिले में चोरी-चकारी करते हैं । तुम्हारा जेठ उनसे मिला था । जल्द ही पकड़ लेंगे उन सालों को । लेकिन तुम्हारे जेठ को भी अंदर करेंगे और उनको पनाह देने के जुर्म में तुम्हे भी जेल जाना पड़ सकता है। वो सब तो ठीक है जो तुम्हारे साथ उन तीनों ने किया उसका मुकदमा लिखाओगी तो इतनी बेइज़्ज़ती होगी कि ज़िंदा नहीं रह पाओगी पंडिताइन, सोच लो, फिर तुम्हारे लड़के ने कोई ऐसा-वैसा कदम उठा लिया तो?”
पुलिस वाले ने अपना मास्टरस्ट्रोक चल दिया, शब्द तो उसने सहानभूति के कहे थे लेकिन वो जानता था कि अगर डकैती और गैंगरेप का मुकदमा उसे लिखना पड़ा तो उसकी थानेदारी जा सकती है क्योंकि सदर-ए-मुल्क का संसदीय क्षेत्र था। पारसनाथ ये भी जानता था कि वे तीनों डाकू ही थे और इस महीने में पांच वारदात करके उन्होंने पुलिस की साख पर सवाल खड़े कर दिये थे और आसमानी-सुल्तानी करने के बावजूद पुलिस उन्हें गिरफ्तार नहीं कर सकी थी।
सरोजा ने पुलिसिया थ्योरी पर यकीन कर लिया वो पुलिस के झांसे में आ गयी और बिना मुकदमा लिखाये लौट गयी। उसने एक मेडिकल स्टोर से दर्द की दवाये और मलहम खरीदा और दोपहर तक गांव लौट गयी। गांव पहुंचकर उसे पता लगा कि रामजस को हनुमन्त रायबरेली ले गए हैं उन्हें बहुत खून बह गया है और उनकी हालत नाजुक है। उसने विधाता से प्रार्थना की, कि जो गलती उसने सुबह रामजस को ज़िंदा छोड़कर की थी उसे ईश्वर सुधार ले और रामजस को मौत दे वो इस घर में दुबारा लौट कर ना आये।
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