Bhige Pankh - 8 in Hindi Fiction Stories by Mahesh Dewedy books and stories PDF | भीगे पंख - 8

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भीगे पंख - 8

भीगे पंख

8. सतिया एक

उस होली की रात्रि, जब हल्ला ने मोहित को सतिया के वक्ष पर पिचकारी से रंग मारते और सतिया द्वारा उल्लास से मुस्कराते देख लिया था, और फिर जब कमलिया हल्ला के घर गई तब लौटते समय हल्ला ने उसे बैठक में बुला लिया था। उस दिन उन्होने खूब भंग चढा़ रखी थी और उनसे खडा़ नहीं हुआ जा रहा था। कमलिया के अंदर आते ही लड़खडा़ते पैरों से उठकर उन्होने बैठक का दरवाजा़ बंद करना चाहा परंतु सांकल लगाने के पहले ही वह लड़खड़ाते हुए पलंग पर बैठ गये थे। फिर कमलिया सेे लड़खडा़ती जु़बान से बोले थे,

‘‘अबै तुम जाउ, लेकिन रात मैं सतिया कौ भेज दीजौ।

अभी तुम जाओ, परंतु रात में सतिया को भेज देना।’’

फिर कमलिया के हतप्रभ चेहरे को देखकर कपटमय मुस्कराहट के साथ जोडा़ था, ‘‘अब तौ बछेडी़ जवान हुइ गई है; घोडी़ की सवारी सै बछेडी़ की सवारी मैं जांदां मजा अययै।अब तो बछेड़ी जवान हो गई है; घोड़ी की सवारी से बछेड़ी की सवारी में ज़्यादा मज़ा आयेगा।’’

कमलिया का सम्पूर्ण शरीर सनसना गया था और उसने क्रोध के आवेश में हल्ला का मुंह नोच लिया था। नशे की अधिकता के कारण हल्ला उस समय उसका कुछ न कर पाये थे और क्षण भर में आती और दूसरे क्षण जाती चेतनावस्था, जो भंग के नशे की विशिष्टता होती है, में पलंग पर पडे़ रहे थे। घबराई हुई कमलिया जल्दी से बैठक से निकल कर अपनी झोपडी में चली गई थी। सिसकते हुए जब उसने यह बात पस्सराम को बताई थी तो पस्सराम का कलेजा कांप गया था। सतिया आंखें बंदकर एक कोने में फ़र्श पर बिछी हुई चटाई पर लेटी हुई थी और सब बातें सुन समझ रही थी। आक्रोश से उसका हृदय ज़ोर जो़र से धड़कने लगा था और उसके अंतस्तल मे प्रतिशोध का ऐसा ज्वार उठ रहा था कि उस समय यदि हल्ला उसके सामने पड़ जाते तो उनका गला दबा देती। तभी कमलिया का निश्चयात्मक स्वर सुनाई दिया,

‘‘ हम हिंयां नाईं रहिययैं। अभईं गांव छोड़ दियैं।हम यहां नहीं रहेंगे। अभी गांव छोड़ देंगे।’’

पस्सराम के मुंह से अनायास निकला, ‘‘लेकिन जययैं कहां?’’

इस वाक्य में पस्सराम की समस्या का हल ढूंढने की असमर्थता निहित थी परंतु वह भी समझता था कि हल्ला के होश में आने के बाद उन लोगों की खैर नहीं है और सतिया का भविष्य तो निश्चय ही आपदामय है।

पस्सराम की अनिश्चितता का कमलिया कोई उत्तर देती, उसके पहले ही सतिया अपनी चटाई पर उठकर खडी़ हो गई थी और दृढ़ स्वर में बोली थी,

‘‘हम कहूं चले जययैं, लेकिन हिंयां नाईं रहिययैं। हम कहीं भी चले जायेंगे, परंतु यहां नहीं रहेंगे।’’

सतिया के निश्चयात्मक स्वर ने उन दोनों को न केवल चैंका दिया था, वरन् उनके अंदर उठने वाले द्वंद्व को ऐसे समाप्त कर दिया था जैसे पथरीले किनारे पर टकराने पर समुद्र की लहरें स्वत शांत हो जातीं हैं। पस्सराम के स्वर में भी निर्णयात्मक दृढ़ता आ गई थी और वह बोला था,

‘‘ठीक है अभईं सामान बांध लेउ, और रातईंरात निकर चलौ, जा सै कोइ्र जान ना सकै कि हम कहां चले गये हैं। भगवान ने मुंह चीरो है तौ इत्ती बडी़ दुनियां मैं कहूं न कहूं खइबे भर कौं दइयै दियै। ठीक है, अभी सामान बांध लो और रात ही रात निकल चलो, जिससे कोई जान न पाये कि हम कहां गये हैं। भगवान ने मुंह चीरा है तो इतनी बड़ी दुनिया में कहीं न कहीं खाने भर को दे ही देगा।’’

घंटे भर में कपडे़ टीन के टुटहे बक्से मे ठूंसकर सतिया ने बक्सा अपने हाथ में लटका लिया, बर्तनों को बोरे में भरकर पस्सराम ने ले लिया और बंसखटी को कमलिया ने सिर पर लाद लिया। जब तीनों झोपड़ी से बाहर निकल रहे थे तो कमलिया फफक कर रो पडी़। गांव के लोगों में अपने घर और अपनी भूमि से हार्दिक लगाव होता है क्योंकि वे उन्हें मातृवत सुरक्षा प्रदान करते हैं एवं पालते हैं। इस झोंपड़ी को बनाने और इस घर को बसाने में तो उसने अपनी युवावस्था बिता दी थी- इस गांव में वह विवाह के बाद किशोरवय की उमंगें लेकर आई थी, और आज उसके लिये ‘साजन! मोरा सासुरो छूटो जाय’ चरितार्थ हो रहा था। कमलिया को मुड़मुड़कर अपनी झोपडी़ को देखने पर पस्सराम घबराकर बोला था,

‘‘जल्दी निकर चलौ। कोई देख न लेइ। जल्दी निकल चलो, कोई देख न ले।’’

सतिया भी अंदर से उतनी ही उद्विग्न थी परंतु उूपर से अपने को शांत बनाये हुई थी। उसकी उद्विगनता का एक अन्य कारण भी था- मोहित से चिर-विछोह और वह भी इस प्रकार कि मोहित जान भी न सके कि इस विशाल संसार में सतिया कहां खो गई है। इसकी कल्पना उसके मन में असह्य वेदना उत्पन्न कर रही थी और उसके नेत्र अनायास बार बार मोहित के घर की ओर इस आशा में उठ जाते थे कि अकस्मात मोहित घर से बाहर आ जायेगा और वह उससे अंतिम बिदाई ले लेगी। इस कल्पना के पीछे यह अभिलाषा भी थी कि तब मोहित भविश्य में उसे कहीं न कहीं ढूंढ लेगा एवं मोहित से पुनर्मिलन की सम्भावना बनी रहेगी। पर जब अर्धरात्रि की निस्तब्धता में आगे आगे पस्सराम, बीच में कमलिया और पीछे सतिया का यह कारवां मानिकपुर गांव से बाहर निकला, तब एक दो निंदासे कुत्तेां के भूंकने के अतिरिक्त किसी मनुष्य का ध्यान उनकी ओर नहीं गया था।

सुबह जब हल्ला का नशा टूटा, तो अपने चेहरे में पीडा़ का आभास कर और रात्रि की घटना यादकर उनका पारा आसमान पर चढ़ गया था और वह गाली बकते हुए पस्सराम को झोपडी़ से बाहर बुलाने लगे थे। कोई उत्तर न आने पर उनका क्रोध बेकाबू होने लगा था और वह स्वयं झोपडी़ की ओर चल दिये थे। झोपडी़ खाली देखकर वह समझ गये थे कि पस्सराम भाग गया है और दुमकटे सियार की तरह बोले थे,

‘‘सारे जययौ कहां? घत्ती के छोर लौ तुमें ढूंढ कंे बाई मैं गाड़ दियैं।साले जाओगे कहां? धरती के छोर तक तुम्हें ढूंढ कर उसी में गाड़ देंगे।’’

फिर वापस आकर झोपडी़ पर कब्जा़ करने के उद्देश्य से उसमें अपनी भैंसों के पड़रे बंधवाने भेज दिये थे।

पस्सराम के सपरिवार गांव से भाग जाने पर लोगों में भांति भांति की चर्चा हुई- पर जितने मुंह उतनी बात। हमारे ग्रामवासियों का स्वभाव है एक दूसरे के घरों की अंदर-बाहर की पूरी जानकारी रखना और किसी की उन्नति अथवा प्रसन्नता देखकर उससे ईष्र्या करना तथा उसकी पीठ पीछे बुराई कर उसमें रस लेना। औरतें जब गर्मियों की दोपहरी में भोजन के बाद किसी ‘बडे़’ आदमी के घर पर बतियाने हेतु इकट्ठीं होतीं हैं तो वार्तालाप का विषय प्राय अपनी अथवा किसी अन्य की बहू द्वारा सास या ससुर का अपमान करना और उससे उत्पन्न विवाद ही होता है एवं पुरुष जब सायंकाल की चैपाल पर इकट्ठे होते हैं तो वार्तालाप का विषय प्राय किसी की बेटी-बहू के सच्चे-झूठे छिनाली के किस्से ही होते हैं। हल्ला द्वारा कमलिया को रखैल बनाकर रखने की बात काफी़ पहले से जग-उजागर हो चुकी थी, और चुनाव में पस्सराम द्वारा चुपचाप हल्ला के विरुद्ध प्रचार की बात पुरानी हो चुकी थी, अत अनुभवी लोगों को सही बात की अटकल लगाने में अधिक कठिनाई नहीं हुइ्र्र थी। गांव के कुछ मसखरे व्यक्तियों ने कुछ इस प्रकार से छींटाकशी की थी,

‘बिचारो पस्सराम का कत्तो ? हल्ला बा के लैं कमलिया कौं एकौ रात कौं छोड़त कहां हते? और अब तौ उनकी नजर सतिया की छातिन पर जांदां टिकन लगी हती। बेचारा पस्सराम क्या करता? हल्ला उसके लिये कमलिया को एक भी रात को छोड़ते कहां थे, और अब तो उनकी नज़र सतिया की छातियों पर अधिक टिकने लगी थी।’

अधिकतर ब्राह्मणों एवं अन्य जातियों के लोगों को पस्सराम के परिवार का ब्राह्मणों की बस्ती के बीच रहना प्रारम्भ से खटकता रहा था और उनके मन को उसके चले जाने से आंतरिक प्रसन्नता का अनुभव हुआ था।

पस्सराम की जाति के भी अनेक लोग पस्सराम के ब्राह्मणों के बीच रहने हेतु स्थान पा जाने से उससे ईष्र्या करते थे और उनमें कई औरतों ने अपने मन की भडा़स यह कहकर निकाली थी,

‘‘तब तौ कैसी ठसक सै ब्राह्मनन मैं रहिबे कौं चले गये हते? अब आंटा दार को भाव पता चल गओ। तब तो क्ैसी ठसक से ब्राह्मणों के बीच रहने को चले गये थे। अब आटा दाल का भाव पता चल गया है।’’



‘‘भैया, राम राम। रामआसरे चमार को घर कियैं है?’’

पस्सराम ने गांव के बाहर ‘अछूत’ बस्ती में पहुंचकर एक बूढे़ आदमी से पूछा था। पस्सराम, कमलिया और सतिया का कारवां दिन भर चलते चलते सायंकाल रुरूनगला गांव पहुंचा था। तीनों के बदन पसीने से लथपथ थे और उनका भूख और थकान के मारे बुरा हाल था।

गत रात्रि मानिकपुर से पर्याप्त दूर पहुंचने के बाद जब वे आश्वस्त हो गये थे कि हल्ला के आदमी उन्हें अब नहीं पकड़ पायेंगे, तो बम्बा छोटी नहर के पुल पर बैठकर सुस्ताने लगे थे। तब उनकी दूसरी चिंता प्रमुख हो गई थी कि जायेंगे कहां। पस्सराम ने अपनी चिंता जताते हुए कमलिया से पूछा था,

‘‘ कहां चलो जाय?’’

कमलिया के पास भी इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं था, पर यह सोचकर कि पस्सराम उसके माइके चलने का प्रस्ताव न रख दे, उसने एक निषेधात्मक उत्तर अवश्य दिया था,

‘‘हम अपयें मैके तौ जययैं नाइ्र्रंं। अम्मा और बापू के मरबे के बाद इत्ते साल हुइ गये हैं लेकिन भैया-भौजी नें झूठेउंू मुंह हमाई खबर नाईं लई है। उनके लैं तौ हम मर चुके हैं । मैं अपने माइके तो जाउूंगी नहीं। अम्मा और बापू के मरने के बाद इतने वर्श हो गये हैं, परंतु भैया-भौजी ने झूठे मुंह भी हमारी खबर नहीं ली है। उनके लिये तो हम मर चुके हैं।’’

फिर पस्सराम और कमलिया दोनो विभिन्न सम्भावनाओं को व्यक्त कर एवं उन पर देर तक विचार कर उन्हें स्वयं ही अस्वीकृत करते रहे थे। अंत में कमलिया ने एक नवीन सम्भावना प्रस्तुत की थी और उसमें पस्सराम को भी आशा की किरण दिखी थी। कमलिया ने बताया था,

‘‘हमाये मौसिया रामआसरे जो रुरूनगरा मैं रहत हैं, उनके ढिंगां हम बचपन मैं रहीं हतीं और बे हमैं तब बहुत मानत हते। उनके हियां चलबे सै हुइ सकत है कि रहिबे को कछू ठिकानों हुइ जाय। मेरे मौसा रामआसरे जो रुरूनगला में रहते हैं, के यहां मैं बचपन में रही थी और वह मुझे बहुत मानते थे। उनके यहां चलने से हो सकता है कि रहने का कुछ ठिकाना हो जाये।’’

अन्य सभी सम्भावनाओं के पहले ही अस्वीकृत हो जाने के कारण पस्सराम को यह सुझाव ऐसा लगा था जैसे डूबते को तिनके का सहारा; तीनों अपना अपना बोझ उठाकर उसी गांव की ओर चल दिये थे। उस दिन धूप तेज़ थी और सूर्य भगवान तप रहे थे। बोझ के कारण उन्हें थोडी़ थोडी़ दूर पर सुस्ताना पड़ता था। तीनों भूख प्यास से त्रस्त थे, परंतु अंधेरा होने से पूर्व रुरूनगला पहुंचने की जल्दी के कारण कहीं देर तक विश्राम भी नहीं कर सके थे। फिर भी रुरूनगला पहुंचते पहुंचते अंधेरा घिरने लगा था और रात बिताने हेतु आश्रय मिलने की अनिश्चितता के कारण अंधेरे के साथ ही उन तीनों के हृदय की धड़कन भी बढ़ रही थी। रुरूनगला पहुंचने पर जिस व्यक्ति से पस्सराम ने रामआसरे का घर पूछा था, वह उन तीनों के सिर पर लदे सामान को और उनकी हालत देखकर कुछ देर आश्चर्यचकित सा खड़ा रहा था, पर शीघ्र ही उसने अनुमान लगा लिया था कि ये किसी बडे़ आदमी द्वारा ग्राम से निष्काषित लोग हैं। रामआसरे का मकान पूछने से वह यह भी समझ गया था कि ये उसकी अपनी जाति के लोग है। वह सहानुभूति के स्वर में बोला था,

‘‘राम, राम। रामआसरे कौं गुजरें तौ सालन बीत गये। उनके लड़का बच्चा सब गांव छोड़ कें अंत चले गये हैं। अब तौ उनको घरउू खस गओ है। राम राम। रामआसरे को मरे हुए तो कई वर्श बीत गये हैं। उनके लड़के बच्चे सब गांव छोड़कर चले गये हैं। अब तो उनका घर भी गिर गया है।’’

पस्सराम, कमलिया और सतिया जैसे जैसे उस व्यक्ति के मुख से निकले शब्द सुन रहे थे, वैसे वैसे उनके चेहरे विवर्ण होते जा रहे थे- आस का तिनका भी उनके हाथ से छूटता जा रहा था। उनके चेहरे पर उभरती दयनीयता को वह व्यक्ति लक्ष्य कर रहा था। फिर बोला,

‘‘कौन जात हौ? कहां तै आये हौ? किस जाति के हो? कहां से आये हो?’’

‘‘हम पस्सराम भंगी हैं। मानिकपुर सै आये हें। हुंआं के जिमीदार के डर के मारें गांव छोड़ कें भाज आये हैं। रामआसरे हमायी इनके मौसिया लगत हते, सो सोची हती कि हिययीं सरन मिल जययै। पर अब तो समझ मैं नाईं आत है कि कहां जांय। का आज रात भर कौं हियां कहूं सरन मिल सकत है? मै पस्सराम भंगी हूं। मानिकपुर से आया हूं। वहां के ज़मीदार के डर के मारे हम गांव छोड़कर भाग आये हैं। रामआसरे मेरी पत्नी के मौसा लगते थे, अत सोचा था कि यहीं षरण मिल जायेगी। पर अब तो समझ में नहीं आ रहा है कि कहां जायें। क्या आज रात भर को यहां कहीं षरण मिल सकती है?’’

वह बूढा़ सामने के छप्पर की ओर इंगित कर बोला,

‘‘आज रात तौ तुम तीनौं हमाये मड़हा के सामने बाले छप्पर मैं रुक जाव। कल्ल सबेरें हम राजा साहब सै बात करिययैं। हुइ सकत है कि बे कहूं रहिबे कौं जगह दै देंय। आज रात तो तुम तीनों मेरे मड़हा के सामने वाले छप्पर में रुक जाओ। कल सुबह मैं राजा साहब से बात करूंगा। हो सकता है कि वह कहीं रूकने को जगह दे दें।’’

आसरे का तिनका पुन पस्सराम की पकड़ में आ गया था।

छप्पर के नीचे तीनों ने अपना अपना बोझा उतारा। बूढ़े ने घर से लाकर उन्हें एक बाल्टी, लोटा और रस्सी दे दी और उस हरिजन बस्ती की पानी की कुंइयां का रास्ता बता दिया। तीनों ने कुंइयां पर जाकर पानी पिया, नहाये और बाल्टी में पानी भर लाये। तब तक उस बूढे़ की बहू ने खिचडी़ बना दी थी। तीनों नें भर पेट खायी; उनके मुंह एवं आत्मा दोनों से उस बूढे़ काका के लिये आशीष निकल रहे थे। यद्यपि गांव की रीति के अनुसार उनमें से कोई अपने उद्गार उस बूढे़ काका के समक्ष शब्दों में व्यक्त नहीं कर रहा था, तथापि उनकी कृतज्ञता उनके नेत्रों में झलक रही थी। गांवों में उन दिनों किसी उपकार के लिये धन्यवाद-ज्ञापन उपकार की महत्ता को कम करने के समान समझा जाता था।

दूसरे दिन सबेरे सूरज निकलते ही बूढे़ काका उन तीनों को राजा साहब की कोठी पर ले गये।

राजा रिपुदमनसिंह की कोठी गांव के पूर्वी किनारे पर स्थित एक उूंचे खेडे़ पर बनी हुई थी, जिसकी ककइया ईंट की मोटी मोटी दीवालें दूर से दिखाई देतीं थीं। यद्यपि स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत कोठी के विषय में यह प्रचार किया जा रहा था कि राजा साहब के पूर्वजों ने 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेजों का विरोध किया था, जिसके कारण अंग्रेजों ने उनकी रियासत को हथियाने का असफल प्रयत्न भी किया था, परंतु गांव के बडे़-बूढों़ का कहना है इस कोठी के राजाओं ने अंग्रेजों की चापलूसी करने और अय्याशी में लिप्त रहने में कभी कोई कसर नहीं छोडी़ थी। यद्यपि इस कोठी के ‘राजाओं’ को अंग्रेजों से राजा की उपाधि नहीं मिली थी, परंतु वे बडे़ ज़मीदार थे और अपनी रियाया से अपने को राजा ही कहलवाते थे। स्वतंत्रता से पूर्व राजा रिपुदमनसिंह ने तत्कालीन गवर्नर को इस लालच से अपने यहां आमंत्रित किया था कि उन्हें ‘राजा साहब’ का सरकारी खिताब मिल जावे। उन्होने डी. एम. साहब के यहां कीमती डाली के साथ उपस्थित होकर उन्हें हमवार कर लिया था। डी. एम. की संस्तुति पर गवर्नर ने सपत्नीक आने का निमंत्रण स्वीकार कर लिया था। उनके स्वागत हेतु रिपुदमनसिंह ने अपने ख़जाने की बडी़ धनराशि व्यय कर डाली थी, परंतु गवर्नर साहब बीच रास्ते से वापस लौट गये थे। गांव वालों का कहना है कि जब वह लाट साहब को आमंत्रित करने गवर्नमेंट हाउस, लखनउू गये थे, तब चलते वक्त उनके खा़स चपरासी गुलाम अली को बख़्शीश देना भूल गये थे। अत जब लाट साहब की गाडी़ कच्ची सड़क पर आकर रुकरुककर चलने लगी थी और उनकी मेमसाहब का मेक-अप धूल में खराब होने लगा था तो कार की अगली सीट पर बैठा गुलाम अली बडी़ स्वामिभक्ति की मुद्रा में धीरे से बोल पडा़ था,

‘‘हुजू़र अभी तो शुरुआत है- मैने सुना है कि आगे का रास्ता तो बिल्कुल कच्चा और खराब है।’’

गुलाम अली ने मेमसाहब को पहले से भी राजा रिपुदमनसिंह के एक छोटे मोटे ज़मींदार होने और गवर्नर साहब के उनके यहां जाने से गवर्नर के पद का सम्मान गिरने की बात कहकर उनके खि़लाफ़ भर रखा था। तभी एक जो़र की दौंची लगी और मेम साहब बोल उठी थीं,

‘‘डार्लिंग! आई कांट गो ऐनी फ़र्दर। लेट़स गो बैक। प्रियतम, मैं और आगे नहीं जा सकती हूं। चलिये, वापस चलें।’’

गवर्नर साहब स्वयं भी देर से दुविधाग्रस्त हो रहे थेे कि ऐसी सड़क पर गांव तक जाया जावे या नहीं; मेमसाहब का रुख देखकर उन्होने पूरे काफ़िले को वापिसी का हुक्म दे दिया था। ढेर सारा प्रचार करने और धन व्यय करने के पश्चात भी गवर्नर साहब के न आने पर राजा रिपुदमनसिंह की गांववालों में बडी़ हेटी हुई थी और कुछ मसखरों ने राजा साहव पर एक गाना भी बना लिया था, ‘धोखे में लुट गओ रिपुदमना, लाट नहींे आओ रे।’, जिसे वे राजा साहब की पीठ पीछे सुरताल मिलाकर गाया करते थे। राजा साहब के सामने तो किसी गांववाले की मुंह खोलने की हिम्मत ही नहीं पड़ती थी। वे राजा साहब से आज भी उतना ही डरते थे जैसे अंग्रेज़ी ज़माने में डरते थे- पहले वे राजा साहब की अफ़सरों से निकटता के कारण उनसे भयभीत रहते थे और अब सत्ताधारी नेताओं से निकटता के कारण।

लगभग दो घंटे की प्रतीक्षा के बाद पस्सराम कमलिया और सतिया राजा साहब के समक्ष प्रस्तुत किये गये। सब उनके दरबार वाले कमरे के बाहर मैदान में खडे़ किये गये और सबने कमर तक झुककर उन्हें पालागन किया। बूढे़ काका ने संक्षेप में पस्सराम के परिवार की आपबीती सुनाई और राजा साहब से उन्हें गांव में बसने के लिये जगह दे देने का अनुरोध किया। राजा साहब बिना कुछ बोले पस्सराम, कमलिया और सतिया की ओर देख रहे थे कि पस्सराम के मन में कुलबुलाहट हुई कि राजा साहब कहीं मना करने की न सोच रहे हों और वह बोल पडा़,

‘‘मालिक, हम हल्ला के बडे़ सताये भये हैं। हमाई रच्छा करौ। मालिक हम हल्ला के बड़े सताये हुए हैं, हमारी रक्षा करो।’’

‘‘मानिकपुर के हल्ला?’’ राजा साहब जिज्ञासु हो उठे।

‘‘हां मालिक।’’ पस्सराम हकलाता सा बोला।

राजा रिपुदमनसिंह की कुछ ज़मीदारों से अनबन थी जिनमें हल्ला भी थे। अनबन का कारण यह था कि हल्ला ने ऐलान कर रखा था कि बिना पतुरिया के कोई बारात उनके गांव से होकर न गुज़रे। एक बार राजा रिपुदमनसिंह के रिश्तेदारों की एक बारात को मानिकपुर से होकर आगे जाना था, जिसमें अंतिम समय पर व्यवधान आ जाने के कारण पतुरिया नहीं आ पाई थी। बारात जैसे ही गांव में पहुंची थी हल्ला और उनके लठैतों ने बारात को लाठियों से खदेड़ना प्रारम्भ कर दिया था। राजा के एक रिश्तेदार घोडी़ पर सवार थे और उन्होने हल्ला को लाठी लेकर अपनी ओर आते देखकर कहा था कि वह राजा रिपुदमनसिंह के मामा हैं, तो भी हल्ला ने यह कहते हुए घोडी़ पर लाठी मार दी थी,

‘‘मम्मा हौ, तो पांय उूपर उठाय लेउ। लाठी तौ जमक के परययै। राजा साहब के मामा हो तो पैर उूपर उठा लो, लाठी तो जमक के पडे़गी।’’

पस्सराम के परिवार के सदस्यों को पैनी निगाहों से देखकर वैसे भी राजा साहब उन्हें गांव में बस जाने हेतु ज़मीन दे देने का मन बना रहे थे, परंतु हल्ला द्वारा भगाया हुआ होने की बात जानकर उनकी रही सही द्विविधा भी समाप्त हो गई और वह अविलम्ब बोले,

‘‘ठीक है, तुम रुरूनगला मैं रह सकत हौ। ठीक है, तुम रुरूनगला में रह सकते हो।’’

फिर सतिया पर एक बार फिर भरपूर निगाह डालकर उन्हांेने अपने कारिंदे को आदेश दिया,

‘‘रामधुन! नौकरन बाली कोठरिन में देवी धानुक के बगल की खाली कोठरी मैं इन्हें टिकाय देउ। इन्हैं कामउू समझाइ दीजौ। पस्सराम खेत मैं काम करयै और जाकी मिहरिया और बिटिया कोठी के बाहर की झाडू़ बुहारू को काम करियै। रामधुन! नौकरों वाली कोठरियों में देवी धानुक के बगल की खाली कोठरी में इन्हें टिका दो। इन्हें काम भी समझा देना। पस्सराम खेत में काम करेगा ओर इसकी औरत और बिटिया कोठी के बाहरी हिस्से में सफा़ई-लिपाई का काम करेंगे।’’

राजा रिपुदमनसिंह की बात सुनकर पस्सराम को ऐसा लगा कि साक्षात भगवान उस पर कृपा बरसा रहेे हैं। उसने तीन बार झुककर मिट्टी उठाकर माथे में लगाते हुए राजा के प्रति कृतज्ञता व्यक्त की। वे तीनों कुछ ही देर में अपने नये घर में आ गये एवं एक नये जीवन के सपने संजोने लगे।

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पस्सराम की नई ग्रहस्थी धीरे धीरे राह पर आ गई थी। उसकी यहां की कोठरी मानिकपुर वाली झोपड़ी से कुछ बडी़ थी और इसके बाहर एक छोटा सा आंगन भी था। कमलिया और सतिया अंदर लेटते थे और पस्सराम बाहर आंगन में लेटता था, और यदा कदा यह आंगन पस्सराम और कमलिया को रात्रि में आवष्यक एकांत भी उपलब्ध करा देता था। पस्सराम को खेत में काम करने के बदले फसल पैदा होने पर और तीज-त्योहार पर इतना अनाज मिल जाता था कि घर का खाने पीने का काम चल सके। कमलिया और सतिया द्वारा कोठी की झाडू़ बुहारू करने के बदले उन्हें पुराने कपडे़-लत्ते और प्राय बचा खुचा भोजन भी मिल जाता था। कमलिया और पस्सराम अपनी नई परिस्थिति से प्रसन्न थे; यहां पर उन्हें पिछले दिनों की तरह रोज़ रोज़ हल्ला की गालियां भी नहीं खानी पड़तीं थीं। राजा साहब के तो उन्हें दर्शन ही नहीं होते थे, वह तो इस परिवार के लिये भगवान के समान हो गये थे जिनकी कृपा लगातार प्राप्त हो रही थी पर दर्शन दुर्लभ थे। बस कभी कभी उनके कारिंदे की डांट फटकार सुननी पड़ती थी, परंतु वह भी राजा साहब की इन लोगों पर विशेष कृपा भांपकर इन पर अधिक सख़्ती नहीं करता था।

सतिया न तो पुरानी बातों को भूली थी और न वर्तमान से संतुष्ट थी। मानिकपुर छोड़ने की विवशता का कारण स्मृतिपटल पर आने पर उसके हृदय में हल्ला के प्रति एक ज्वालामुखी प्रज्वलित हो जाता था, और प्रतिकार की अदम्य लालसा उदय होती थी; परंतु हल्ला से प्रतिकार लेने की सम्भावना उसकी कल्पना के बाहर की बात थी। उसके हृदय में प्रतिशोध हेतु जितनी जलन हल्ला के प्रति होती थी, उतनी ही अधिक तीक्ष्णता से मोहित की याद आती थी। मोहित से चिर-विछोह का कारण भी हल्ला ही तो थे। मोहित अब दिन अथवा रात्रि का प्रतिबंध तोड़कर उसके सपनों में आता रहता था क्योंकि अब मोहित के प्रति उसके आकर्षण ने एक किशोरी के कल्पनालोक के प्रथम प्रेम का रूप ले लिया था। यह ध्यान आने पर कि पता नहीं इस जन्म में वह मोहित से पुन मिल भी पायेगी या नहीं, उसे हल्ला पर अनियंत्रित आक्रोश उभरता था। कभी कभी वह सोचती रहती कि पता नहीं उनके इस तरह से गांव छोड़ देने के विषय में मोहित क्या सोचता होगा और पता नहीं अब मोहित उसे याद करता भी होगा या नहीं? और फिर स्वयं ही अपने को आश्वस्त कर लेती कि मोहित तो धवल चंद्र के समान स्वच्छ और सुंदर हृदय वाला है, वह अवश्य अपनी सतिया को याद करता होगा।

सतिया का चंद्र घटाटोप बदली में छिप गया था, और उसे पकड़ने की उसकी लालसा दिन प्रतिदिन तीक्ष्णतर होती जा रही थी।

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कहते हैं कि मनुष्य चाहे ईश्वर को देख पाये या न देख पाये परंतु उूपर बैठा ईश्वर सब पर अपनी नज़र रखता है- पस्सराम के ईश्वर राजा साहब भी उूंचाई पर बनी अपनी कोठी की बैठक में आराम कुर्सी पर दोनों पैर फैलाकर पसरे हुए दूर दूर तक अपनी नज़र रखते थे। यद्यपि बैठक के नीचे सफा़ई करने वाली कमलिया और सतिया उन्हें नहीं देख पातीं थीं, परंतु हुक्का गुड़गुड़ाते हुए वह कई बार यह भांप चुके थे कि सतिया के बदन के उभार दिनोंदिन निखर रहे थे। उसी अनुपात में राजा साहब का मन उन उभारों से खेलने हेतु विचलित हो रहा था।

राजा साहब ब्लाक प्रमुख का चुनाव लडे़ थे और जीत गये थे जिसकी खुशी में तमाम मददगार अफ़सरों, प्रधानों, और अन्य प्रकार से प्रभावशाली सहयोगियों के लिये शानदार दावत का आयोजन किया जा रहा था। और क्यों न होती दावत? ब्लाक प्रमुख के पद को जीतने के लिये राजा साहब ने क्या क्या पापड़ नहीं बेले थे? अधिकतर प्रधानों को चुनाव के पंद्रह दिन पहले से बुलवाकर अथवा उनका अपहरण कराकर राजा साहब ने अपनी कोठी के विशाल हाल में बंद करवा दिया था। हाल के फ़र्श पर मोटे मोटे गद्दे बिछवा दिये गये थे और लेटने और सोने का आरामदायक प्रबंध करा दिया गया था। पीने के लिये देशी शराब और खाने के लिये पूडी़-आलू से मुर्ग-मुसल्लम तक सब कुछ उपलब्ध रहता था। बैटरी चालित रेडियो से विविध भारती स्टेशन से प्रसारित होने वाले फ़िल्मी गाने सुनाये जाते थे। ताश खेलने वालों के लिये ताश की गड्डियां उपलब्ध रहतीं थीं तो पूजा करने वालों के लिये पूजा की सामग्री। प्रधानों के घर वालों की खोज खबर लेने और उनकी हारी बीमारी का समुचित प्रबंध करने के लिये राजा साहब के विश्वसनीय कारिंदे लगे रहते थे। उनके घरवालों का हाल चाल बताने राजा साहब स्वयं सायंकाल को आते थे। चुनाव के एक दिन पहले सायंकाल राजा साहब ने उस हाल में पतुरिया के नाच का प्रबंध भी किया था जिसे देखने तहसील मुख्यालय से परगनाधिकारी और थानेदार भी आये थे। अधिकतर प्रधानों ने अपने जीवन में इतना सुख प्राप्त करने की कल्पना भी नहीं की थी, अत अनिच्छा से बंद किये जाने वाले प्रधान भी राजा साहब के कृतज्ञ हो गये थे। फिर अब जब वे राजा साहब का नमक खा रहे थे, तो किसी अन्य को वोट देकर पाप के भागीदार भी तो नहीं बन सकते थे? पाप की भागीदारी की आस्था को ओैर दृढ़ कर देने के लिये वोट डालने हेतु जाने के ठीक पहले राजा साहब ने एक पंडित जी को बुला लिया था, जिन्होंने सभी प्रधानों के हाथ पर गंगाजल का लोटा रखकर शपथ दिलवा दी थी,

‘‘हम गंगा जी की किसम खात हैं कि हमने राजा साहब को नून खाओ है सो बोट राजा साहबई कौ दियैं।मैं गंगा जी की कसम खाता हूं कि मैने राजा साहब का नमक खाया है, अत वोट राजा साहब को ही दूंगा।’’

अब राजा साहब का नमक खाकर, उनके आतंक का भय खाकर और गंगा की कसम खाकर प्रधानों को अपना वोट राजा साहब को तो देना ही था, अत राजा साहब भारी मतों से विजयी घोषित हुए थे। उसी जीत के जश्न में आज दावत दी गई थी। अफ़सरों और कुछ खास व्यक्तियों हेतु राजा साहब ने अलग एक कमरे में पीने का भी प्रबंध किया था- शहर से अंग्रेजी़ शराब मंगाई थी। जाडे़ की अंधेरी ठंडी रात्रि थी पर राजा साहब द्वारा चढा़ये गये जाम उनके बदन में ताप भर रहे थे। जब सब लोग खा पीकर चले गये तो फ़र्श की सफा़ई करने हेतु आने को पस्सराम के यहां कहलाया गया। उस दिन बूढे़ काका के नाती की बारात में पस्सराम गया हुआ था और कमलिया को जाडा़ देकर तेज़ बुखार हो गया था। कमलिया तब भी ज्वर से अर्धमूर्छित सी हो रही थी, अत उसके जा पाने का तो प्रश्न ही नहीं था। उसने सतिया को कोठी पर जाकर जल्दी से काम निबटाने को कहा। मां की दषा का ध्यान कर आज सतिया का मन कोठी पर जाने को बिल्कुल नहींे हो रहा था, परंतु दूसरा कोई उपाय न देखकर वह अनमनी सी चली गई थी।

सतिया फ़र्श पर बैठी बैठी झाडू़ लगा रही थी और राजा साहब अपनी बैठक में रखे हंडे पेट्ोमैक्स के प्रकाश में उसे हिलते डुलते देख रहे थे। कभी वह सतिया के पृष्ठभाग को हिलते डुलते देखते और उसके मुड़कर सामने आने पर उसके वक्ष के अग्रभाग को। दोनो ही दृश्य उनमें असहनीय कामोद्दीपन कर रहे थे। सतिया षीघ्रता से काम निबटाकर अम्मा के पास जाना चाहती थी और अपने कार्य में पूर्णत निमग्न थी। तभी राजा साहब ने उठकर हंडा बुझा दिया और सतिया कुछ समझ पाती, उसके पहले ही किसी ने पीछे से आकर उसका मुंह दबा लिया था और उसे एक गट्ठर सा उठाकर बैठक में ले जाकर उतारा था। फिर बाहर जाकर बैठक का दरवाजा़ बाहर से बंद कर दिया था। कमरे में सतिया ने राजा साहब को कुटिलता से मुस्कराते हुए अपनी ओर आते देखा तो भयवश उसकी घिग्घी बंध गई थी। वह आत्मरक्षा का कोई उपाय सोच पाती, उसके पूर्व ही सतिया राजा साहब की बलिष्ठ भुजाओं में कैद थी। राजा साहब ने उसे ऐसे जकड़ रखा था कि उसका दम घुटने लगा था। फिर उसके कपड़े फाड़ते हुए राजा साहब ने उसे पलंग पर लिटा दिया था। सतिया ने जैसे ही उठने का प्रयत्न किया, उसने पाया कि उसके शरीर के अंग-प्रत्यंग के साथ बलात्कार किया जा रहा था। वह जितना अधिक प्रतिरोध करती थी, राजा साहब उतनी ही अधिक निर्दयता से उसके शरीर के अंगों को नोच खसोट रहे थे। फिर सतिया का प्रतिरोध उसके चीत्कार में बदल गया था और जब सतिया का मानस इस अमानुषी अत्याचार को झेलने में असमर्थ हो गया, तो वह मूर्छित हो गई थी।

फिर भी देर तक राजा साहब उसके शरीर से खेलते रहे थे एवं उसके उपरांत उसे मूर्छित अवस्था में ही राजा साहब के आदमी हाथों में लादकर उसकी कोठरी के दरवाजे़ पर ठंडी ज़मीन पर छोड़ गये थे। उसकी कराह सुनकर कमलिया बडी़ कठिनाई से पलंग से उठकर बाहर आई थी और उसके फटे वस्त्र और लहूलुहान बदन को देखकर समझ गई थी कि सतिया नाम देकर भी कोई ग़रीब के सतीत्व की रक्षा नहीं कर सकता है। कमलिया का हृदय दुख और क्षोभ से दग्ध हो रहा था। वह किसी तरह सहारा देकर सतिया को अपनी चारपाई तक ले आई थी और उसके घावेंा को पानी से साफ़ करने लगी थी। रो-चिल्ला कर अपना दुख जताने की उसमें न तो सामथ्र्य थी और न साहस था। वह जानती थी कि सतिया के साथ हुए दुराचार की बात दूसरों के जान जाने से सतिया की ही बदनामी होगी ओर भविष्य में उसे कोई व्यक्ति विवाह में स्वीकार भी नहीं करेगा; राजा का तो कुछ भी बिगड़ना नहीं था। अपनी बेबसी में वह बस अपने मुंह से राजा के लिये शाप बुदबुदा रही थी

‘‘तुम्हायें कीरा परैं....तुम्हाओ बंस नास हुइ जाइ.......हत्यारे कहूं के हमाई बिटिया पै नेकउूं दया नाईं आइ्र्र.......तुम्हाई बिटिया बहुअन के संगउूं ऐसोई होइ..... तुम्हारे कीड़े पड़ें......तुम्हारा बंस नश्ट हो जाय......हत्यारे कहीं के मेरी बेटी पर ज़रा भी दया नहीं आई.....तुम्हारी बिटिया बहू के साथ भी ऐसा ही हो।’’

सतिया स्वयं अपनी परिस्थिति से अनभिज्ञ लेटी हुई थी- बीच बीच में उसके मुंह से एक कराह मात्र निकल जाती थी। एक बार कराह निकलने के समय उसने अपने नेत्र खोलने का प्रयत्न किया और उसे अपनी पीडा़ का कुछ आभास सा हुआ। फिर उसके नेत्र पुन बंद हो गये और वह स्वप्नलोक में विचरण करने लगी।

‘‘वह लू भरी दोपहरी में भैंस चराने बाग में गई है.....भैंस बाग के किनारे की खाई पर घास चर रही है।.......सतिया को आम के पेड़ पर एक बहुत बडा़ बंदर दिखाई पड़ता है......सतिया उससे डर कर भागना चाहती है परंतु वह उसे घेर लेता है और सतिया उससे भागने का जितना प्रयत्न करती है बंदर उस पर उतना ही अधिक आक्रामक होने लगता है ....... बंदर उस पर झपटने लगता है और सतिया चिल्ला उठती है, ‘मोहित बचाओ, बचाओ......मो..हि..त.....’, पर मोहित कहीं दिखाई नहीं देता है और वह भय से कांपने लगती है......’’

सतिया को कांपते हुए देखकर कमलिया घबरा उठी और पुकारने लगी,

‘‘सतिया.......मेरी बिटिया.......मेरी लाल...’’ और सतिया ने आंखे खेाल दीं। वह अचकचाकर माॅ की ओर देखने लगी। फिर उसे याद आया कि मोहित तो उससे सदा के लिये बिछुड़ गया है और एक उच्छवास उसके मुंह से निकल गई। अब शनै शनै उसे यथार्थ का भान हो रहा था और उसके नेत्रों से दो बडे़ बडे़ अश्रु छलक पडे़ थे। पूर्ण चेतना में आने पर वह माॅ के चेहरे के दयनीय भाव को पढ़ने लगी थी और अपना हाथ उठाकर उसने अपनी आंखों के आंसू पोंछ लिये थे। फिर उन आंसुओं के स्थान पर उनमें भरने लगा था उच्चवर्ग के प्रति एक विष और उनसे बदला लेने की अदम्य उत्कंठा - उस समय एक नई सतिया का जन्म हो रहा था।

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गांधी, अम्बेडकर आदि समाजसुधारकों के प्रयत्न एवं सम्विधान द्वारा प्रदत्त समानता के अधिकार के फलस्वरूप स्वतंत्रता के उपरांत समाज के दबे कुचले वर्ग में जाग्रति आने लगी थी और उसके साथ ही यदा कदा उनके प्रति किये जाने वाले अत्याचारों के विरुद्ध किसी किसी की आवाज़ भी सुनाई देने लगी थी। राजनीतिक दल इस वर्ग के हितैषी बनकर अथवा कम से कम ऐसा दिखावाकर चुनाव में इस वर्ग के मत अपने अपने पक्ष में डलवाने के यत्न में जुट गये थे। ऐसे में इस वर्ग का विमलसिंह नाम का एक युवा नेता इस वर्ग को राजनैतिक रूप से संगठित करने मे जुट गया था। यद्यपि वह दिल्ली में रहता था परंतु दूरस्थ ग्रामीण इलाकों में भी दलितों को संगठित करने के प्रयत्न में जाया करता था। वह रुरूनगला में दलित वर्ग में राजनैतिक चेतना जगाने हेतु आया हुआ था और उसने वहां मीटिंग बुला रखी थी। राजा साहब ने अपने कारिंदों से गांव में खबर करवा दी थी कि राजा साहब मीटिंग से प्रसन्न नहीं हैं। अत मीटिंग असफल हो गइ्र्र थी क्योंकि राजा साहब की मर्जी़ के विरुद्ध होने वाली मीटिंग में भाग लेना गांव वालों के लिये निरापद नहीं था। इससे दिल्ली से आये इस युवा नेता को बडी़ निराशा हुई थी, परंतु वह यह भी समझ गया था कि हो न हो यहां के दलित किसी के भय के कारण ही मीटिंग में नहीं आये हैं। वह हार मानने वाला नहीं था और उसने वापस लौटने से पहले कई दलितों से अकेले में उनकी सामाजिक दशा के विषय में बात की थी। कुरेदने पर बूढे़ काका ने दबी ज़बान से कह दिया था,

‘‘हिंया तौ हर अछूत कौं एकई मनई को डर रहत है। बे हैं राजा साहब। यहां तो हर अछूत को एक ही व्यक्ति का डर रहता है। वह हैं राजा साहब’’

‘‘राजा साहब ऐसा क्या करते हैं जिससे लोग उनसे डरते हैं?’’

बूढ़े काका ने सोचा कि जब ओखली में सिर दे ही दिया है, तो मूसलों से क्या डर? और आगे बताने लगे,

‘‘अब का का बतांय? अबै हालई को किस्सा सुन लेउ। उडती़ भई खबर है कि पस्सराम की बिटिया के संग राजा साहब ने जबरजत्ती करी है। अब क्या क्या बतावें? अभी हाल का ही किस्सा सुन लो। उड़ती हुई खबर है कि पस्सराम की बेटी के साथ राजा साहब ने ज़बरदस्ती की है।’’

फिर बूढ़े काका ने विमलसिंह से अनुनय की थी कि यह खबर देने में उनका नाम किसी को कानोंकान पता नहीं चलना चाहिये। विमलसिंह ने उन्हें आष्वस्त कर दिया था।

विमलसिंह उसी रात अंधेरा होने पर चुपचाप सतिया के घर पहुंच गया था। उस समय घर पर केवल सतिया और उसकी माॅ उपस्थित थीं। विमलसिंह के गांव में मीटिंग हेतु आगमन के विषय में ये दोनों पहले ही सुन चुकीं थीं। विमलसिंह ने बडे़ आत्मीय एवं आश्वस्त करने वाले ढंग से बात प्रारम्भ की थी, परंतु जब वह सतिया के साथ घटित घटना की जानकारी करने और बदले हेतु कानूनी कार्यवाही कराने की बात पर आया तो कमलिया एकदम चुप हो गइ्र्र थी। कमलिया ने सतिया को भी चुप रहने का संकेत किया था, परंतु सतिया तो भरी बैठी थी। वह एकदम फूट पडी़,

‘‘हम सब बतैययैं। चाहें जो हुइ जाय हम बदला ज़रूर लियैं। हम हर तरह की कोरट कचहरी को तैयार हैं।मैं सब बताउूंगी। मैं बदला अवष्य लूंगी। मैं हर तरह की कोर्ट कचहरी को तैयार हूं।’’

कमलिया मन ही मन बडी़ भयभीत हो रही थी परंतु सतिया का निश्चयात्मक दृढ़भाव देखकर वह उसे रोक न सकी थी। सतिया ने घटना संक्षेप में बता दी और विमलसिंह ने उसे एक परिवाद के रूप में लिखकर उस पर सतिया का हस्ताक्षर करा लिया।

विमलसिंह ने चलते चलते पुन सतिया को उसके साथ हुए अत्याचार का बदला दिलाने हेुत आश्वस्त किया था। सतिया तो पहले से ही प्रतिकार की अग्नि में जल रही थी, परंतु उसे इसका कोई मार्ग नहीें सूझता था, अत विमलसिंह द्वारा दी गई आश्वस्ति से सतिया के नेत्रों में उसके प्रति कृतज्ञता के अश्रु छलक आये थे। विमलसिंह ने उसे अपना दिल्ली का पता भी लिखकर दे दिया था, जिससे आगे कोई घटना होने पर उसे पत्र के माध्यम से सूचित कर सके। दिल्ली में विमलसिंह ने सतिया द्वारा लिखे परिवाद की एक-एक प्रति समाचार पत्रों में छपवा दी थी, और एक प्रति उत्तर प्रदेश के गृहमंत्री को अभियुक्त के विरुद्ध कार्यवाही हेतु प्रेषित कर दी थी। चूंकि चुनाव निकट थे, अत दलित के विरुद्ध अत्याचार की घटना के प्रकाशन से शासन में खलबली उत्पन्न हुई थी और रुरूनगला के थानाध्यक्ष का पुलिस लाइन में स्थानांतरण करने एवं राजपत्रित पुलिस अधिकारी द्वारा जांच किये जाने के आदेश निर्गत हो गये थे।

‘‘राजा साहब मुझे लाइनहाज़िर कर दिया गया है। मेरी क्या खता हैं? मैने तो हमेशा आप का साथ दिया है?’’- थानाध्यक्ष ने आदेश मिलते ही राजा साहब के यहां उपस्थित होकर कहा था। रुरूनगला में दिल्ली में प्रकाशित समाचार का ज्ञान किसी को नहीं था अत राजा साहब ने थानेदार को आश्वस्त करते हुए कह दिया था,

‘‘अरे ऐसा कैसे हो गया? मैं आज ही शहर जाकर एस. पी. साहब से मिलता हूं। आप निश्चिंत रहें।’’

परंतु शहर जाकर जब राजा साहब को ज्ञात हुआ कि स्थानांतरण गृहमंत्री के आदेश से हुआ है और राजा साहब के विरुद्ध सतिया की शिकायत पर हुआ है, तब उनके माथे पर क्रेाधमिश्रित चिंता की रेखायें उभर आईं थीं। पर राजा साहब इन खेलों के मंजे खिलाडी़ थे; गांव लौटकर उन्होने थानाध्यक्ष से बीमारी के आधार पर लम्बी छुट्टी का प्रार्थना-पत्र प्रेषित कर देने को कह दिया था। फिर सायंकाल पस्सराम को बुला भेजा था। बैठक में राजा साहब आराम कुर्सी पर विराजमान थे और सामने पस्सराम को घेरकर तीन लठैत खडे़ थे; उनकी मुद्रा से पस्सराम समझ गया था कि आज भगवान ही उसे बचा सकता है। तभी राजा साहब का धीर गम्भीर स्वर निकला था

‘‘सुना है अब तुम हमारा मुकाबला करोगे?’’

राजा साहब साधारणत गांव की भाशा में ही बोलते थे परंतु क्रोध मंे आने पर वह खड़ी बोलीेे में बोलने लगते थे। पस्सराम की भय के मारे घिग्घी बंध गई थी। इससे राजा साहब का क्रोध और भड़क उठा था,

‘‘साले बोलता है कि अभी उठवा के मंगा लें तेरी लांैड़िया को?’’

आसन्न विपत्ति से बचने हेतु पस्सराम गिड़गिड़ाने लगा था,

‘‘मालिक, माफ़ी देउ। हम आप सै अलग्ग हुइ कें कहां जययैं।मालिक माफ़ी दो। हम आप से अलग होकर कहां जायेंगे।’’

तब राजा साहब अपने स्वर को और कठोर बनाकर बोले थे,

‘‘हां, उसी में तुम्हारी खैर है।’’

फिर एक सादा कागज़ दिखाते हुए आगे बोले थेे,

‘‘अभी इस पर अपना अंगूठा निशान लगाओ और सतिया और कमलिया का भी लगवा लाओ; और रात में ही किसी को अपना पता बताये बिना गांव छोड़ दो। आज के बाद किसी को इस गांव में तुम्हारी किसी की शकल दिखाई दी या तुम्हारे नये पते के बारे में पता चला, तो तुम लोगों की लाश तक का पता नहीं चलेगा। तुम्हारे सबके रास्ता के किराये और खर्च-पानी के लिये तुम्हें रुपये दे दिये जायेंगे।’’

कारिंदे के साथ अपनी कोठरी पर वापस आकर पस्सराम ने कमलिया और सतिया से सादा कागज़ पर अंगूठा निषान लगाने और तुरंत सामान बांधकर गांव से भाग चलने को कहा, तो सतिया बिफर गई और अपने पिता पर ही बकने झकने लगी। इस पर पस्सराम ने उस सादे कागज़ पर कमलिया का निशान-अंगूठा लगवाने के पश्चात बलपूर्वक सतिया का भी अंगूठा निशान लगाकर कारिंदे को दे दिया और कारिंदे ने उसे सौ रुपये दे दिये। फिर कमलिया और पस्सराम सामान बांधने लगे और सतिया रोती रही। कमलिया बीच बीच में सतिया को वहां रुकने के भयावह परिणामों को बता कर समझाती भी जा रही थी। सामान बंध जाने पर सतिया के फिर भी टस्स से मस्स न होने पर पस्सराम क्रोधित होकर बोल पडा़ था,

‘‘तौ हम तो जात हैं। तुम अकेले रह कें भुगतौ। तो हम तो जाते हैं। तुम अकेले रहकर भुगतो।’’

तब सतिया समझ गई थी कि उसके पास माॅ-बाप के साथ चल देने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं था और हृदय पर पत्थर रखकर वह भी उनके पीछे पीछे चल दी थी। गांव से निकलकर जब यह प्रश्न उठा कि कहां जाया जाये, तब सतिया ने याद दिलाया कि चलते समय विमलसिंह ने उसे अपना पता देकर कहा था कि कोई और घटना होने पर उसे बताना। कमलिया को भी उस युवक के व्यक्तित्व में एक सम्बल सा प्रतीत हुआ था और उसने भी उसी के पास दिल्ली चलने की बात का अनुमोदन कर दिया था।

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दो दिन बाद पुलिस उपाधीक्षक सतिया के परिवाद की जांच करने रुरूनगला आये थे। रुरूनगला में रुकने के लिये राजा साहब की कोठी में बने मेहमान कमरों के अतिरिक्त कोई डाकबंगला या होटल नहीं था। पक्षपात के आरोप से बचने हेतु उपाधीक्षक थाने के ही एक कमरे मे रुके थे; परंतु फिर भी उनके अनजाने ही राजा साहब ने थाने वालों के माध्यम से यह सुनिश्चित कर लिया था कि उपाधीक्षक के खाने हेतु काजू, अंडा, मुर्गा, मेवा और दूध आदि की आपूर्ति राजा साहब की कोठी से ही हो। राजा साहब का विश्वास था कि नमक अपना प्रभाव अवश्य दिखाता है - चाहे अनजाने में ही खाया जाये।

उपाधीक्षक ने जब पहले दिन थाने पर घटना के विषय में पूछताछ की तो पता चला कि थाने पर घटना की कोई रिपोर्ट दर्ज नहीं है और सतिया का डाक्टरी मुआइना भी नहीं हुआ है। परंतु उन्हें एक दो पुलिसवालों, जो थानाध्यक्ष से किसी कारणवश अप्रसन्न रहते थे, ने दबी ज़ु़बान से घटना की सत्यता बता दी थी और हाजी-नमाजी़ होने के कारण उपाधीक्षक ने राजा साहब के विरुद्ध कार्यवाही का मन भी बना लिया था। परंतु दूसरे दिन जब उपाधीक्षक ने सतिया और उसके परिवार वालों का बयान लेने हेतु उन्हें बुलाया तो उनमें से कोई नहीं मिल पाया और न उनके विषय में कोई यह बता पाया कि वे कहां चले गये हैं। बस इतना पता चला कि वे गांव छोड़कर रातोरात कहीं चले गये हैं और अपने जाने का स्थान किसी को नहीं बता गये हैं। गांव के जिन लोगों से पुलिस उपाध्ीाक्षक ने पूछताछ की, उन्होने या तो बलात्कार की घटना के विषय में पूर्ण अनभिज्ञता प्रकट की अथवा ऐसा भाव दिखाया जैसे किसी फ्रांसीसी से कोई अंग्रेजी़ में सवाल कर रहा हो। उपाधीक्षक ने जब राजा साहब से पूछताछ की तो उन्होने ऐसा चेहरा बनाया जैसे कोई स्वयं ईश्वर पर निर्दयी होने का आरोप लगा रहा हो। पस्सराम के अचानक गांव छोड़ जाने के विषय में राजा साहब ने बताया कि वह दूसरे गांव से कुछ दिन को आ गया था और अपनी इच्छानुसार चला गया है। राजा साहब ने पस्सराम के परिवार के अंगूठा निशान वाला वह कागज़ भी प्रस्तुत किया जिसमें उन्होने किसी से कोई शिकायत न होने और स्वेच्छा से अपने गांव वापस जाने की बात लिखवा दी थी। बाद में पस्सराम के गांव में भी जाकर उपाधीक्षक ने जांच की परंतु वहां पता चला कि वह न तो वहां वापस गया है और न उसके विषय में किसी को कुछ पता है।

विवश होकर उपाधीक्षक ने अपनी जांच आख्या प्रेषित कर दी कि सतिया और उसका परिवार गांव छोड़कर किसी अनजाने स्थान पर चले गये हैं और उसके परिवाद की पुष्टि हेतु किसी प्रकार की कोई साक्ष्य उपलब्ध नहीं है। सतिया के साथ बलात्कार की कोई रिपोर्ट थाने पर दर्ज़ नहीं हैं और सतिया का डाक्टरी मुआइना भी नहीं हुआ है एवं प्रयत्न करने पर भी ऐसी कोई मौखिक साक्ष्य नहीं मिली जिससे बलात्कार की घटना की पुष्टि हो। अत आरोप अप्रमाणित रहा। इस बीच चुनाव हो गया और राजनैतिक दलों की बलात्कार प्रकरण में रुचि भी समाप्त हो गई। उपाधीक्षक की रिपोर्ट को बिना ना-नुकुर के स्वीकार कर ‘सीन फा़इल’ कर दिया गया क्योंकि एक तो वह नियम के अनुसार वैध थी और दूसरे वह राजा साहब को दण्ड से बचाकर सत्ता की निरंकुशता के सिद्धांत की वैधता को स्थापित करती थी।

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‘‘बापू! आओ, उूपर बैठो।’’

सीट पर जगह होने पर भी कमलिया और पस्सराम रेलगाड़ी के डिब्बे में सीट पर बैठने का साहस नहीं कर पाये थे और नीचे ही बैठ गये थे। सतिया यह देखकर बिफर गई थी और स्वयं एक सीट पर बैठकर अपने स्वर में अवज्ञा का भाव भरकर माॅ और बापू को बुला रही थी। पस्सराम अपनी आत्मा के दैन्य को छिपाने हेतु खींसें निपोरते हुए बोला था,

‘‘हिंयां ठंडी हवा आय रही है। हम हिंयईं ठीक हैं। तुम बैठौ।’’

सतिया वास्तविक कारण समझ रही थी कि बापू को डर है कि सीट पर बैठने पर कोई उनसे उनकी जाति न पूछ ले और उन्हें अपमानित न कर दे। सतिया को बापू के इस दैन्यभाव पर क्रोध आ रहा था, परंतु परिस्थिति भांपकर वह चुपचाप बैठकर चलती ट्ेन से पीछे छूटते हुए गंाव, खेत और वृक्ष देख रही थी। जीवन में पहली बार उसने एक रेलवे स्टेशन एवं ट्ेन को देखा था और उसने पहली बार ऐसे लोगों को एक साथ एक प्लेटफा़र्म पर और फिर एक डिब्बे में बैठे हुए देखा था जिन्हें परस्पर एक दूसरे की जाति अथवा सामाजिक स्थिति का ज्ञान नहीं था। यह देखकर उसे लग रहा था कि ग्रामीण मान्यताओं के बंधनों से मुक्त जीवन का अस्तित्व भी है। उसके मन में स्वतंत्रता एवं स्वच्छंदता का प्रादुर्भाव एवं प्रस्फुटन हो रहा था- सुदूर आकाश में उड़ते पक्षियों के झुंड को देखकर उसे लग रहा था कि इस संसार में कहीं न कहीं ऐसे आकाश भी अवश्य हैं जहां वह पंख फैलाकर उड़ सकती है। प्रत्येक पीछे छूटती वस्तु के साथ सतिया अपने भूत की अवांछनीय स्मृतियों, अत्याचार सहने की प्रवृत्तियों और सवर्णााें की श्रेष्ठता को स्वीकार करने के संस्कार को पीछे छोड़ती जा रही थी। इस समय वह सभी प्रकार के बंधनों एवं भयों से मुक्त होकर सामाजिक मान्यताओं और प्रथाओं में निहित बडा़ें के स्वार्थ को स्पष्ट रूप से देख पा रही थी और उन्हें तथा उनके पोषक वर्ग को उखाड़ फेंकने की बात अपने मन में ठान रही थी।

दिल्ली जैसे अनजाने अनदेखे महानगर में आने वाले अनिश्चित भविष्य की कल्पना मात्र से सतिया के माॅ और बापू चिंताग्रस्त थे और वह चिंता उनके मौन में मुखर हो रही थी, परंतु सतिया के मन ने यह यथार्थ स्वीकार कर लिया था कि उनके साथ जो घटित हो चुका है उससे अधिक बुरा घटित नहीं हो सकता है- इसलिये चिंता किस बात की? आज यह विचार भी उसके मन में घर कर रहा था सामाजिक नियम एवं कानून केवल बडे़ लोगों के हितसाधन हेतु बने हैं और इन बुरे लोगों से बदला उनसे अधिक शक्तिशाली बनकर ही लिया जा सकता है, उसके लिये चाहे समस्त सामाजिक मान्यताओं एवं नियम-कानूनों को तोड़ना पडे़।

बस एक बात सतिया पीछे नहीं छोड़ पा रही थी और वह थी मोहित की याद। प्रत्येक पीछे छूटते दृश्य के साथ उसे लगता था कि वह मोहित से और अधिक दूर होती जा रही है और अब तो आकस्मिक मिलन की सम्भावना भी समाप्त होती जा रही थी। फिर यह विचार आते ही सतिया के नेत्रों में अश्रु भर आये थे कि उसके एकदम अदृश्य हो जाने पर मोहित कितना बेचैन होगा और अकेले में उसे यादकर कितना रोता होगा? फिर वह सोचने लगती कि मोहित भला उसे क्यों याद करने लगा- वह तो कालेज में पढ़ता है जहां अनेक लड़कियां होंगीं? पर तभी उसे उसके वक्ष पर पिचकारी से रंग डालते हुए मोहित के प्यार भरे नेत्र याद आ जाते और फिर उसकी पलकें भीगने लगतीं। फिर यह सोचकर वह सिहर उठी कि हो सकता है कि रुरूनगला में हुई उसकी दुर्दशा की कहानी मोहित जान गया हो और वह भी उसे अस्पृश्य मानने लगा हो।

‘‘अरे! आप लोग कब आ गये ?‘‘

काम से वापस लौटकर अपने घर आने पर दरवाजे़ के बाहर पस्सराम, कमलिया और सतिया को सूखे मुंह उकडू़ं बैठा देखकर विमलसिंह आश्चर्यचकित था। उसकी ‘अरे’ में आश्चर्य, स्वागत अथवा अनावश्यक झमेले में पड़ने की आशंका में से क्या छिपा था, यह बैठे हुए तीनों लोगों में से कोई नहीं समझ पाया। विमलसिंह को दिल्ली मंे ‘पालिटिक्स’ करते करते 7-8 साल बीत चुके थे और उसने अपने हाव-भावों, स्वरों एवं वाक्यों को ऐसे ढालने की कला का अभ्यास कर लिया था कि परिस्थिति के अनुसार आगे उनका कोई भी अर्थ निकाला जा सके। भूख-प्यास से सूखे-सिकुडे़ उन तीनों जीवों पर विमलसिंह द्वारा पहिचान लिये जाने की स्वीकार्यता ने ही अमृतवर्षा का प्रभाव डाला था। यद्यपि पस्सराम की जेब में राजा साहब द्वारा दिये हुए रुपयों में से आराम से खाने-पीने हेतु पर्याप्त रुपये बचे थे, परंतु उसमंे से मात्र आठ आने की मूंगफली लेकर ही तीनों ने खाई थी- सदियों से आर्थिक असुरक्षा झेल रहे ग्रामीण प्राय इतने कृपण होते हैं कि उनके जीने का उद्देश्य ही येन केन प्रकारेण धन संचित करना हो जाता है, और इस समय तो पस्सराम का परिवार हर प्रकार की अनिश्चितता की स्थिति में था।

दयनीय नेत्रों से विमलसिंह की ओर देखते हुए पस्सराम बोला था,

‘‘साहब! गांव मैं पुलिस के एक अफ़सर जांच के लैं अइबे बाले हैं, जा बात जानकें राजा साहब ने हमसै जबरजस्ती एक सादे कागज़ पै अंगूठा लगबाइ कें हमैं गांव सै निकार दओ है। हमाओ और कहूं ठिकाना नाईं हतो, सो सिर छिपये भर के सहारा की भीख मंगबे कौं आप के पास चले आये हैं। आप सिर छिपये की जगह दिबाय देव, तौ हम तीनौं कहूं मेहनत मजूरी करकें गुजर-बसर कर लियैं। साहब! गंाव में एक पुलिस अफ़सर जांच के लिये आने वाले हैं, यह बात जानकर राजा साहब ने हमसे एक सादा कागज़ पर ज़बरदस्ती अंगूठा लगवाकर हमें गांव से निकाल दिया है। हमारा और कहीं ठिकाना नहीं था, अत सिर छिपाने भर के सहारा की भीख मांगने हम आप के पास चले आये हैं। आप सिर छिपाने भर की जगह दिला दो, तो हम तीनों कहीं मेहनत मजदूरी करके गुज़र कर लेंगे।’’

विमलसिंह ने इस बीच तीनों व्यक्तियों की परिस्थिति एवं उपयोगिता का अनुमान लगा लिया था- उसे सतिया कुछ अधिक ही उपयोगी लगी थी। उसने अपनी आवाज़ में मिठास लाकर कहा,

‘‘काका, अच्छा किया जो ऐसे में आप लोग मेरे पास चले आये। मेरे पास दो कोठरी हैं- एक में मैं रहता हूं और दूसरी खाली पडी़ रहती है। जब तक और कहीं इंतजा़म न हो जाय, आप लोग उसी में रहे। यहां पास ही एक बडी़ बिल्डिंग बन रही है, आप लोगों को उसमें काम भी दिलवा दूंगा।’’

अंधा क्या चाहे? दो आंखें। तीनों व्यक्ति विमलसिंह के प्रति कृतज्ञता से भर गये थे- कमलिया उसे आशीष देते नहीं अघा रही थी और पस्सराम की आंखों में कृतज्ञता के आंसू छलक आये थे। विमलसिंह ने इन तीनों के लिये कमरे का ताला खोल दिया और पास में लगे ठेले से पूडी़ सब्जी़ लाकर खाने का प्रबंध कर दिया। दूसरे दिन उन्हें मज़दूरी का काम दिला दिया।

विमलसिंह प्रतिदिन सबेरे काम पर निकल जाता था और शाम को ही लौटता था। अभी तक उसका खाना पीना बाहर ही किसी ढाबे पर होता था, परंतु अब कमलिया के कहने और जो़र देने पर उसने घर में ही खाना प्रारम्भ कर दिया था। कमलिया और सतिया मिलकर विमलसिंह के काम पर जाने के पहले उसके लिये खाना बना देतीं थीं और शाम को उसके लौटने पर उसे गरम रोटी खिलातीं थीं।

विमलसिंह का व्यवहार उन लोगों के प्रति बडा़ संयत एवं सम्मानपूर्ण था- वह पस्सराम को काका और कमलिया को काकी कहने लगा था। घर में रहने पर ऐसे व्यवहार करता था कि जैसे सतिया से निगाह चुरा रहा हो और अपरिहार्य होने पर ही उसका नाम पुकारता था। परंतु सतिया को यह भान था कि वह चोरी छिपे उसे देख लेता था। सतिया इसका बुरा नहीं मानती थी, वरन् इससे यदा कदा उसे गुदगुदी ही होती थी। एक शाम खाना खाते समय पस्सराम के बात चलाने पर विमलसिंह जब दिल्ली में अपने राजनैतिक कार्यों के उद्देश्य के विषय में बता रहा था, तो उसने कहा था,

‘‘मैं अभी तक दलित स्त्रियों को अपने काम में साथ नहीं जोड़ पाया हूं क्योंकि उनमें ऐसी पढ़ी लिखी स्त्रियां जो अपने अधिकारों को समझ सकें और उनके हेतु झंडा उठा सकें, हैं ही नहीं।.......मुझे सतिया में ऐसा साहस दिखाई देता है और वह कुछ पढ़ी लिखी भी है। पर सब बातें समझने के लिये और पढ़ने की आवश्यकता है। अगर आप कहें तो मैं सतिया को शाम को पढा़ दिया करूं? मुझे लगता हैै कि एक दिन वह उूंची जातियों से बदला लेने हेतु हमारे आंदोलन का झंडा उठा सकती है।’’

यह सुनकर पस्सराम और कमलिया फिक्क से हंस दिये थे। सतिया द्वारा झंडा उठाना उनके लिये कल्पनातीत हास्य का विषय था। हंसी रुकने पर कमलिया बोली,

‘‘बेटा कहूं लड़किनी झंडा उठाय कें नेता बनतीं हैं? बेटा! कहीं लड़कीं झंडा उठाकर नेता बनती हैं?’’

विमलसिंह कुछ बोलता उसके पहले ही सब लोग सतिया का स्वर सुनकर आश्चर्यचकित हो गये थे। वह बीच में बोल पडी़ थी,

‘‘अम्मा, तौ का भओ? हम तौ झंडा उठययंै। अम्मा, तो क्या हुआ? मैं तो झंडा उठाउूंगी।’’

यह सुनकर विमलसिंह के मुख पर हल्की सी स्मितरेखा उभर आई थी। सतिया के स्वर में अटूट दृढ़ता पाकर और साथ ही विमलसिंह के प्रति अपार कृतज्ञता होने के कारण पस्सराम और कमलिया आगे प्रतिरोध न कर सके थे- बस अवाक होकर सतिया को देखते रह गये थे। दूसरे दिन विमलसिंह सतिया को पढा़ने के लिये हिंदी एवं अंग्रेजी की पुस्तकें ले आया और विमलसिंह के कमरे में प्रत्येक रात्रि भोजनोपरांत सतिया का अध्यापन कार्य प्रारम्भ हो गया। विमलसिंह सतिया को पढा़ने केे अतिरिक्त खडी़ बोली बोलना भी सिखाने लगा और शीघ्र ही सतिया की बोली में सुधार होने लगा। शीघ्र ही अपने गांव की बोली से मिश्रित खडी़ बोली बोलने लगी थी।

विमलसिंह सतिया के रूप से जितना आकर्षित हुआ था, उससे कहीं अधिक उसकी बुद्धि से प्रभावित हुआ। वह एक शाम में सतिया को जितना पढा़ता, सतिया उससे अधिक रात में गुन लेती थी। पहले चाहे विमलसिंह का लक्ष्य सतिया का मांसल शरीर मात्र रहा हो, परंतु अब उसे लगने लगा था कि सतिया उसकी अंकशायिनी होने के अतिरिक्त उसकी प्रभावशाली राजनैतिक सहयोगिनी भी बन सकती है। इसलिये एक सायं जब पस्सराम ने कहा,

‘‘साहब, आप ने हमायी मुसीबत मैं हमैं बहुत सहारा दओ है, सो हम जिंदगी भर उऋण नाईं हुइ पययैं। कल्ल हमाये संग काम करबे बाले एक मजूर ने हमैं एक कुठरिया दिखाई है, जाको किराओ दस रुपया महीना हैै। पहली तारीख सै हम बाई मैं चले जययैं। साहब, आप ने हमारी मुसीबत में हमें बहुत सहारा दिया है, जिससे हम कभी उऋण नहीं हो पायेंगे। कल मेरे साथ काम करने वाले एक मजदूर ने मुझे एक कोठरी दिखाई है जिसका किराया दस रुपया महीना है। पहली तारीख से हम उसी में चले जायेंगे।’’, तो विमलसिंह तपाक से बोल पडा़ था,

‘‘काका कैसी बात करते हो? यह घर क्या पराया है? और फिर काकी की वजह से मुझे ंिसंकी सिंकाई रोटी भी मिल जाती है। आप को कहीं मकान किराये पर लेने की ज़रूरत नहीं हैं।’’

एक तो विमलसिंर ने यह बात बडे़ अधिकारपूर्वक कही थी और दूसरे दस रुपये महीने बच जाने का लालच भी कम नहीं था, अत पस्सराम ने कृतज्ञतापूर्ण भाव से इस बात पर अपनी मौन स्वीकृति दे दी थी।

महानगर में जीवन जीने और दूसरों को रौंदकर आगे बढ़ जाने के लिये जिस कला एवं चतुराई की आवश्यकता होती है, विमलसिंह उसमें तो अभ्यस्त था ही; राजनीति में रहकर वह दूसरों के मन को पढ़ लेने और अवसर मिलते ही उसका निज-स्वार्थ हेतु उपयोग कर लेने में भी सिद्धहस्त हो गया था। विमलसिंह की दलित चेतना का साध्य समाज सुधार नहीं था वरन् साम, दाम, दंड, भेद का प्रयोग कर जन और धन की शक्ति अर्जित करना और सवर्णों से प्रतिकार लेना था। शक्ति अर्जन के इस प्रयास में वह समस्त मानवीय मूल्यों को ताक पर रख सकता था। यथार्थ में वह उसी प्रकार की ब्राह्मणवादी मानसिकता से ग्रसित था जिसका वह खुलेआम विरोध काता था। उसने देख लिया था कि सतिया के मानस से सरसता निचोड़ ली गई है और वह बदले की आग में जलती रहती है- अत विमलसिंह इस आग को भड़काये रखकर अपने राजनैतिक हित में उपयोग करने के प्रयास में जुट गया था। वह सतिया को पुस्तकें पढा़ने के अतिरिक्त राजनैतिक ज्ञान भी दे रहा था। ऐसे ही वार्तालाप के दौरान एक रात्रि विमलसिंह ने उचित अवसर देखकर सतिया की आंखों में झांकते हुए उसके हाथ पर हाथ रख कर कहा,

‘‘सतिया! कल मेरे साथ सभा में तुम भी चलो।’’

सतिया ने अपना हाथ छुडा़या नहीं क्योंकि उसका चेतन उस समय विमलसिंह के प्रस्ताव पर अमल करने का साहस उत्पन्न करने में व्यस्त था। फिर सतिया के मुख से बेझिझक शब्द निकले, ‘‘चलूंगी, लेकिन हमैं अपयंे संग रखियेैा।’’

विमलसिंह को उसके उत्तर से हर्षमिश्रित आश्चर्य हुआ था और उसने भावातिरेक में सतिया का हाथ दबा दिया था। सतिया को तब ध्यान आया था कि विमलसिंह देर से उसके हाथ पर हाथ रखे हुए है; और उसने सकुचाकर अपना हाथ खींच लिया था।

उस रात सतिया को देर तक नींद नहीं आई थी। उसे देर तक मोहित की याद आती रही थी। उसकी छवि मस्तिष्क में आने पर सतिया को लगता कि विमलसिंह अपने व्यक्तित्व के प्रभाव से उसे बलात मोहित से दूर खींच रहा है और वह स्वयं भी अपने प्रथम प्रेम मोहित के साथ धोखा कर रही है। फिर इस अंतद्र्वंद्व का शमन उसने इस निश्चय के साथ किया था कि मोहित उसका भूत है जिससे पुनर्मिलन की कोई सम्भावना न के बराबर है, ऐसे में वह अनिश्चित भूत के मोहपाश में फंसे रहने के बजाय अपने वर्तमान को सुदृढ़ करेगी। सतिया के मन में बलात्कार की घटना के उपरांत कोमल भावना केवल मोहित के प्रति ही शेष बची थी और उस रात्रि उसने उस कोमलता को भी अपने मन के कोने में दफ़ना देने का निश्चय कर लिया था। इसके लिये उसके मन ने शीघ्र कुछ ऐसा कर डालने की सोची कि उसके मन में मोहित के लिये षेश मोह भी सदैव के लिये समाप्त हो जाये।

‘‘अम्मा, आज हम इनकी मीटिंग मैं इनके संग जययैं।’’

दूसरे दिन सबेरे सतिया ने विमलसिंह को इंगित करते हुए अपनी माॅ को अपना निर्णय सुना दिया था। माॅ और बापू आश्चर्यचकित होकर बोले थे,

‘‘का?’’

विमलसिंह ने स्पष्ट किया कि आज उसकी राजनैतिक सभा है और वह सतिया को उसमें ले जायेगा। दोनों के स्वर की दृढ़ता को भांपकर माॅ और बापू कुछ भी न बोल सके थे। मीटिंग में विमलसिंह ने सतिया को दल की नई सदस्य के रूप में परिचय कराया। यद्यपि सतिया के लिये ऐसी सभा में भाग लेना एक अनोखा अनुभव था, तथापि विमलसिंह के प्रोत्साहित करने पर वह अपनी भाषा में बोली थी,

‘‘आप लोगों जितनेे पढे़ लिखे तौ हम हैं नाईं, लेकिन हमने ब्राह्मणन-ठाकुरन के अत्याचार खुद देखे और सहे हैं और उनसे बदला लीबे के लैं हम कछू करने को तैयार हैं।’’

सतिया के मुख से निकले शब्दों में उसकी दृढ़ता झलकती थी और इन्हें सुनकर सबने खूब तालियां बजाईं थीं। कुछ लोलुप भौंरे भी उससे बात करने का बहाना निकालने हेतु बाद में उसकी प्रशंसा करने हेतु उसके पास आये थे। इससे सतिया का न केवल साहस और आत्मविश्वास द्विगुणित हो गया था वरन् विगत रात्रि में उसके द्वारा किये गये निश्चय पर अनुमोदन की मुहर भी लग गई थी।



उस शाम जब सतिया घर आई, वह कुछ कर गुज़रने के उत्साह से भरी हुई थी, और रात्रि में पढ़ने हेतु विमलसिंह के कमरे में जाने से पहले उसने मुंह धोकर शीशा देखा और अपने बाल भी संवारे। विमलसिंह की पैनी निगाहों ने सतिया के कमरे में घुसते ही यह परिवर्तन भांप लिया था और उसका मन भी बढ़ गया था। आज किताब पढा़ने के बजाय वह अम्बेडकर के दलित दर्शन के विषय में सतिया को बताने लगा था और इसके दौरान एकटक सतिया के नेत्रों में झांक रहा था। सतिया भी किसी प्रकार की सकुचाहट प्रदर्शित करने के बजाय उसके नेत्रों से प्रवाहित आवेग को आत्मसात करते हुए उसका प्रतिदान कर रही थी। जब दोनों में निकटता की कामना असह्य होने लगी, तो विमलसिंह ने अपना हाथ बढा़कर सतिया के हाथ पर रख दिया था। सतिया के हाथ में हल्का सा कम्पन अवश्य हुआ था, परंतु उसने अपना हाथ हटाया नहीं था। विमलसिंह के मन में इस क्षण की प्रतीक्षा तब से रही थी जब से उसने सतिया को प्रथम बार अपने घर के सामने सिकुडे़-सिमटे बैठे देखा था। सतिया भी विमलसिंह के ज्ञान, बुद्धिमत्ता, सवर्णों के प्रति आक्रोश और अपने प्रति आकर्षण से अत्यंत प्रभावित थी और आज विमलसिंह के स्पर्श से उसके तन के तार ऐसे झनझना उठे थे जैसे कोई सितार के तार छेड़कर उसको द्रुतगति से बजाने लगा हो। विमलसिंह ने हल्के से उठकर दरवाजे़ में सिटकनी लगाई और सतिया को अपनी बाहों में भर लिया था। उसके जलते होंठ और गर्म सांसों के स्पर्श से सतिया का अंग अंग पिघलने लगा था। एक कुशल कलाकार की तरह विमलसिंह सतिया के वक्ष, नाभि और जंघाओं को सहलाकर और उनका चुम्बन लेकर उसेे उत्तेजित कर रहा था। सतिया जितनी रति-सुख से अभिभूत हो रही थी, उससे अधिक गत रात्रि अपने द्वारा लिये गये कुछ अघटनीय कर गुज़रने के निर्णय की सफलता से अभिभूत हो रही थी। षनै षनै वह निसंकोच विमलसिंह की काम-कीड़ाओं का प्रतिदान करने लगी थी। चरमोत्कर्ष के उपरांत विमलसिंह ने सतिया के कामोत्साह की प्रशंसा की तो सतिया और फूली नहीं समाई थी। कुछ देर पष्चात देर होती देख सतिया नेे विमलसिंह को शुभरात्रि का गहरा सा चुम्बन दिया और उठकर अपने कपडे़ ठीकठाक किये। फिर धीरे से दरवाजे़ की कुंडी खोलकर ऐसे आत्मविश्वास के साथ अपने कमरे में आ गई थी जैसे कुछ अघटनीय घटा ही न हो- अघटनीय को अनदेखाकर आगे बढ़ जाने के सोपान पर उसकी यह प्रथम सफलता थी।

आज सतिया ने मोहित को अपने मन के किसी ऐसे कोने में छिपा दिया था कि वह उसके स्वप्नों में भी न आ पाया था और बडे़ दिन बाद सतिया आज गहरी नींद सोई थी।

दूसरे दिन दलित कालोनी में आयोजित एक सफा़ई अभियान में भाग लेने हेतु विमलसिंह सतिया को अपने साथ ले गया था, जिसमें सतिया ने अनथक कार्य किया था। शनै शनै सतिया की सम्पूर्ण दिनचर्या ही राजनैतिक एवं सामाजिक कार्यों की हो गई थी। जिस दिन कोई अन्य कार्यक्रम न होता, उस दिन सतिया विमलसिंह द्वारा लाई हुई पुस्तकें, जिनमें दलित साहित्य प्रमुख होता था, को पढ़ती और समझने का प्रयत्न करती थी। इससे उसे देश के विभिन्न भागों में सामाजिक संरचना एवं सामाजिक यांत्रिकी का गूढ़ ज्ञान प्राप्त हो रहा था, परंतु उसका मन राजनैतिक व्यक्तियों द्वारा स्वहित में किये गये राजनैतिक जोड़तोड़ के प्रकरणों में सबसे अधिक रमता था। विमलसिंह आवश्यकतानुसार उसकी आर्थिक सहायता भी कर देता था। अब दोनों के बीच घनिष्ठता इतनी बढ़ गई थी और रात्रि में सतिया स्वयं विमलसिंह की बांहों में आ जाती थी।

यद्यपि विमलसिंह पस्सराम से उन लोगों के मानिकपुर गांव छोड़ने का कारण संक्षेप में जान चुका था, परंतु सतिया के मुख से विस्तार से सुनने के प्रयोजन से विमलसिंह ने एक दिन कामोद्वेग शांत होने पर सतिया की आंखों में झांकते हुए उससे पूछा था,

‘‘तुम लोग मानिकपुर छोड़कर रुरूनगला क्यांे आ गये थे?’’

बचपन चाहेे कितना भी कष्टप्रद एवं अपमानजनक रहा हो, उसके दौरान प्राप्त किये गये स्पर्श, श्रवण, गंध, दृश्य आदि के प्रथम अनुभव एवं खडे़ होने, चलने-फिरने, कूदने-फांदने की सफलताओं के आह्लाद मन में ऐसे बैठे रहते हैं कि जीपनपर्यंत मीठे ही लगते हैं; फिर सतिया के मन के एक कोने में तो मोहित की मीठी यादें भी छिपी हुईं थी। विमलसिंह के प्रश्न से वे यादें एक झटके से सतिया के चेतन मन में उभर आईं एवं अकस्मात उसे लगा कि जैसे मोहित उसे विमलसिंह की बांहों में देखकर कुढ़ रहा हो और वह उसकी बांहों से अविलम्ब अलग हो गई थी। फिर कुछ क्षण में अपने को सप्रयत्न सहज करके बोली थी,

‘‘मेरे बापू को उनके चाचा ने पाला था। बापू बचपन से हल्ला जमी़दार की सेवा करते रहे थे। जब बापू का ब्याह हुआ तो कुछ दिन बाद उनके चाचा ने उनको घर से अलग हो जाने को कहा था, क्योंकि चाचा के घर में उन्हें रखने की जगह नहीं थी। तब मेरे बापू हल्ला ज़मीदार से कहीं कुछ जगह देने की बिनती करने गये थे और हल्ला ने अपनी कोठी से सटी जगह पर मड़हा बनाने की इजाजत दे दी थी। गांव में इस पर सबको अचरज हुआ था और वह इस मेहरबानी में हल्ला का कोई खास मतलब ढूंढ रहे थे। जल्दी मेरी अम्मा को हल्ला की मेहरबानी की कीमत चुकानी पडी़ थी और वह यह कीमत तब तक चुकाती रही थीं जब तक उस गांव में रही थीं।

मैं जब 12-13 साल की हो गइ्र्र थी तो एक दिन ज़मीदार ने नशे में धुत होकर अम्मा को हुकुम दिया था कि रात में तुम मत आना, अपनी बेटी को भेजना। माॅ ने गुस्से में नशे से बेहोश जमीदार का मुंह नोच लिया था और जब अपने मड़हे में आकर हमें यह बात बताई थी तो हम सबका कलेजा कांप गया था और तभी बापू ने तुरंत सामान बांधकर रातोंरात गांव छोड़ने का फैसला ले लिया था। दिन भर की गर्मी के मारे भूखे प्यासे हम शाम को रुरूनगला पहुंचे थे जहां हमारी जाति के एक बूढे़ काका ने हमें रात में सहारा दिया था और दूसरे दिन राजा साहब के सामने ले गये थे। राजा साहब ने हमें रहने को मकान दिया था, पर उसकी जो कीमत मैने चुकाई वह आप जानते ही हैं।’’

विमलसिंह ने देखा कि यह कहते कहते सतिया का शरीर क्रोध से कांपने लगा था और उसका मुंह तमतमा रहा था। वह उस समय घायल बाघिन के समान दिख रही थी। फिर उसके मुंह से शब्द ऐसे निकलने लगे थे जैसे बाघिन हुंकार मार रही हो- उसके मुॅह से निकल रहा था,

‘‘मैं सत्यानाश करके छो़डूंगी इन ब्राह्मण-ठाकुरों का। इसके लिये चाहे मुझे कुछ भी करना पडे़।’’

विमलसिंह सतिया के मुख से निकलने वाले शब्दों को ध्यान से सुनकर आत्मसात कर रहा था एवं उनमें निहित प्रतिशोध की तीक्ष्णता का अनुभव कर रहा था। उसे अपने संगठन में ऐसे ही कार्यकर्ताओं की आवश्यकता थी जो किसी भी मूल्य पर कुछ कर गुज़रने को उद्यत हों।

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