सड़कछाप
(६)
एक रोज रामजस आये तो उनके हाथ मे बाज़ार की कई किस्म की साग-सब्ज़ियां थीं। उन्होंने सरोजा को पुकारा वो आयी तो रामजस ने कहा - ‘’ये सब ले जा खाना बना डाल, मीठा और खीर का भी इन्तेजाम कर ले, कुछ मेहमान आएंगे आज रात । ”
सरोजा ने कहा “क्या जिज्जी, जीजा आएंगे” उसका मतलब उसके ननद-ननदोई से था
रामजस ने कहा”नहीं नाकोड़ा आयेगा और उसके कुछ साथी। वो सब इनामी बदमाश हैं, वो हमारे लल्लन की मौत का बदला लेंगे। भुर्रे इसी इलाके में है शायद। ये सब पहले भुर्रे के साथी थे। अब दुश्मनी हो गयी है । उसको मारकर यही लोग सरदार बनेंगे । इनका भी काम हो जायेगा और हमारे लल्लन का बदला भी पूरा हो जायेगा, आज खूब सेवा कर दो इनकी””।
सरोजा ने रामजस के शेखचिल्ली के सपने सुने तो वो कांप गयी। ऐसी ही बेवकूफी लल्लन ने की थी और अब रामजस फिर अमरेश भी। वो भी छूरी रखकर भुर्रे को मारने का सपना देखता है । रात-रात भर वीडियो और नौटंकी देखता है, नचनिया का लड़का नचनिया बनेगा क्या। और फिर रामजस ने घर मे ही बदमाश बुला लिए, भुर्रे को पता लगेगा तो वो कुल का नाश कर देगा।
उसने रामजस के हाथ जोड़ते हुए कहा- “दादा, ये सब ना करो। यही गलती अमरेश के पापा भी किये थे, देखो क्या हुआ। हम लोग बामन हैं। खून-कत्ल हमारे खून में नहीं है। ठाकुर लोग जिनके पास ताकत बंदूक सब है उनकी हिम्मत ही नहीं होती । हम लोग कौन खेत की मूली हैं। पूरे शुकुल में एक भी बंदूक या दुनाली नहीं है, दो-चार ठो कट्टा चाहे हो। भुर्रे सनीमा का डाकू नहीं है, असली डाकू है। सत्तर-अस्सी लोगों की भीड़ में चार-पाँच डाकू बीच सड़क पर अमरेश के पापा को मार डाले कोई चूँ तक ना किया। जो गया वो गया अमरेश की सोचो, ये सब ना करो दादा। “
“चुप कर रांड, तेरा क्या तू तो दूसरा मरद कर लेगी । क्या पता कोई मरद किये बैठी हो। ऐसे नहीं कट रहा है तेरा रंडापा। किसी से फंसी जरूर होगी। भाई तो मेरा मरा है। खाना-वाना बना देना नहीं तो फरसे से काटूंगा तुझे और नकोड़ें से कह दूंगा लूट ले तेरी इज़्ज़त, हरामिन ससुरी। मैं बाजार जा रहा हूँ दारू लाने। तू सारा इन्तेजाम कर” ये कहकर रामजस चले गए।
अमरेश रोज रात को गांव में या तो वीडियो, नौटंकी में रहता या आल्हा, कीर्तन या गप्पबाज़ी। कुछ नहीं होता तो इधर उधर टोला-पड़ोस में के घर गाने सुनता रहता था। उसका मतलब सिर्फ खाने से होता था। रात को भी घर खाने पर आता और खा-पीकर सो जाता। सरोजा कुछ बोलती तो उससे लड़ने को आमादा हो जाता। सरोजा भी सोचती कि चलो बच्चों की ही संगत में तो है, उसके घर में ना रेडियो है ना कुछ। फिर वो कैसे रोके उसे। ये दीगर था कि वो ये सुनिश्चित करती थी कि वो गांव की हद से बाहर ना जाये। कभी कभी वो सोचती कि जैसे लल्लन ने कभी उसकी परवाह नहीं की वैसे ही अमरेश भी तो उसी का खून है। वो मर -मर के नरेश को जिंदा रखने का यत्न कर रही है और ये लड़का बाप की मृत्यु को भुना रहा है कि उसके ऊपर कोई पाबंदी रखने वाला ही नहीं रहा।
अमरेश गांव से घूम -फिरकर आया, उसने देखा कि कई किस्म का खाना बना है। वो निहाल हो गया। वो चौंका कि उसकी मां रात को सिर्फ रोटी-भुर्ता ही बनाती है, दूध भी उसे नहीं देती कि खोया चलाना है वो आज इतने किस्म का खाना बनाये बैठी है। उसे हैरानी तो हुई मगर उसने कुछ पूछा नहीं क्योंकि माँ-बेटे में जब बात होती थी तब झगड़ा ही होता था। सरोजा चाहती थी कि खा-पीकर वहां से टल जाए ताकि जो लोग आ रहे हैं वो ना जान सकें और ना देख सकें अमरेश को और अमरेश भी उन्हें ना देख सके। अमरेश खा पीकर सोने चला गया, तो सरोजा ने चैन की सांस ली, उसने अमरेश के सो जाने के बाद बाहर कुंडी लगा दी।
रामजस आमतौर पर ही दिन ढलते ही खाना मांग लिया करते थे, लेकिन उस दिन वो खाने का नाम नहीं ले रहे थेlसरोजा भी सारा खाना बनाये बैठी थी बस पूरी बाकी थी कि वो लोग आएं तो पूरियां तले। एक घड़ी रात बीत गयी। अंधेरी रात थी, माघ का महीना, सर्दी का सितम जारी था। तीन बन्दूकधारी कंबल से खुद को पूरी तरह ढके एक ही मोटरसायकिल पर वहां पहुंचे। सरोजा ने खिड़की से उन्हे देखा । उनमें जिसका नाम नकोड़ें था वो अपने विशेष आकर से पहचान में आ रहा था। उसके ऊपर का होंठ था ही नहीं । उसके नाक के बाद ना मूंछो की जगह त्वचा थी ना ऊपरी होंठ बस नीचे के दोनों होंठो में दंतपंक्ति झिलमिला रही थी। वो मिनमिना कर बोलता था। उसके बाकी दो साथियों के नाम पूसे और जोखन था। वे आते ही रामजस की कमरे में घुस गए। एक बाहर मोटरसायकिल के पास बंदूक लेकर बैठा और बाकी दो खाते रहे। उसके बाद दूसरा खाकर निकल आया तब पहला खाने अंदर गया। रामजस उन सबकी आवभगत करते रहे, अंदर से खाना लाकर खिलाते रहे। रामजस का घर गांव के एक कोने में था । वहां से बँसवारी शुरू होती थी। सुबह-शाम टोले भर की औरतें उसी में शौच हेतु जाती थीं। इसीलिए जोखन ने ले जाकर अपनी मोटरसायकिल छिपा दी। वे सब कमरे में थे और कमरा बाहर से बंद था। सरोजा ने बहुत सोचा कि वो सुन ले मगर वो कुछ सुन ना पायी। डाकुओं के सामने जाने की उसकी हिम्मत ना पड़ी। वो ठहरी औरत, कब डाकुओं का मन बदल जाये और उसी को लूट लें, औरत की अस्मत ही धन है और डाकू तो डाकू, हर धन लूट लेते हैं।
उसने रामजस को खिलाने के बाद खुद खाना नहीं खाया और दुनिया भर के विचारों में उलझी अमरेश को अपने अंक में लिये पड़ी रही। घर में डाकू हों तो चैन कहाँ, वो हाथ में हंसिया और छुरी छिपाए रात भर टोह लेती रही। भोर के करीब 4 बजे वो लोग अपनी मोटरसाइकिल पर चले गये। मोटरसाइकिल वे लोग पैदल बड़ी दूर तक खींच कर ले गए थे, शायद इसलिये कि मोटरसाइकिल स्टार्ट करने से आवाज़ ना आये और किसी को उनके आमद की इत्तला ना हो। सरोजा ने जाते हुए देखा तीनों पैंट-शर्ट पहने थे और पैरों में बूट जूते थे। वे डाकू ना होकर पाहुन जैसे लग रहे थे।
अगली सुबह सब सामान्य था किसी को कानोंकान खबर नहीं हुई कि क्या हुआ था। लेकिन अगले कुछ दिनों में उस घर में एक अजीब परिवर्तन आया था। अब रामजस की कोठरी पूरे-पूरे दिन बंद रहती थी । खुद रामजस घर पर होते तो भी कोठरी बंद ही रखते थे अंदर से। दिशा-मैदान जाते तो भी ताला भरे रहते । नहाते भी तो नजर कोठरी पर लगी रहती थी और अमरेश को भी अपनी कोठरी में हर्गिज़ नहीं जाने देते थे। मज़दूरी देने में झिकझिक नहीं करते थे। उन्होंने एक नई साईकल खरीद ली थी। जुबान के खुद तो चटोर थे ही अमरेश को भी बना दिया था। रोज शाम को अमरेश को सायकिल पर बैठा कर बाजार जाते और छोला, समोसा, मिठाई खाते। इसी दरम्यान रामजस की बहन के घर विवाह पड़ा। वो न्योता देने आई तो साथ में अमरेश और हनुमन्त के पुत्र अखिलेश्वर को भी उन्नाव ले गई। सरोजा की इच्छा तो नहीं थी मगर अमरेश कहीं तो नहीं जाता था ये सोच कर भेज दिया और फिर रामजस की संगत से भी कुछ दिन की छुट्टी मिलेगी उसे, यही सोच कर भेज दिया उसने। उसकी ननद ने बड़ा इसरार किया था कि वो भी चले और तिलक से विवाह तक रहकर आये। लेकिन सरोजा ने बताया कि इधर वो गयी तो उधर रामजस गायों को बेच ना लें।
सरोजा ये बात छिपा ले गयी थी कि आजकल वो एक कांटे से कांटा निकलने की फिराक में है। उसे लगने लगा था कि सच में नकोड़ें भुर्रे को मार देगा और नकोड़ें की सेवा करना उसके लिये बहुत जरूरी है । कभी-कभी तो उसके दिल में आता है कि वो खाने में जहर मिला दे और सब मर जाएं साथ में ये रामजस भी लेकिन वो जानती थी कि डाकू तो मर जायेंगे मगर उसके लोग बदला लेने ज़रूर आएंगे, इसलिए अपनी योजना को वो मुल्तवी कर दिया था। जहर देना तो अंतिम विकल्प है वो देख ले, इन्तेजार कर ले क्या पता नकोड़ें मार ही दे । इसी वजह से वो उन्नाव नहीं गयी थी। वो इसलिये भी नहीं जाना चाहती थी कि विधवा होने की वजह से उसे शादी-ब्याह में अपशकुन के तौर पर देखा जाएगा और कदम कदम पर उसे दिखने से ज्यादा छुपना पड़ेगा। लेकिन सगी ननद के घर शादी में ना जाती तो रिश्तेदारी छूट जाती।
इसलिये वो मैना और हनुमन्त के साथ रात भर के लिए शादी में गयी और अगली सुबह लौट पड़ी हनुमन्त के साथ। रामजस शादी में नहीं गए थे इसलिये वो रास्ते भर देवता-पितरों का सुमिरन करती रही कि उसकी गायें और माल-असबाब सुरक्षित रहे। घर पहुंच कर उसने अपनी कोठरी का सामान चेक किया और गायों को सुरक्षित देखकर उसकी जान में जान आयी। हनुमन्त अकेले लौटे थे उनके बाल-बच्चे अभी नहीं लौटे थे वो एक शिशु मंदिर में आचार्य थे। उनकी नौकरी में बमुश्किल दो दिन के लिये उन्हें छुट्टी मिली थी। अमरेश की बुआ ने अमरेश और उसके चचेरे भाई-बहनों को भी रोक लिया था कि उन्हें मैना के साथ विदा करेंगी कपड़ों और मिठाइयों के साथ। सरोजा को इस बात से कोई उज्र ना था, अमरेश जितने दिन भी इस गांव से दूर रहे उतना बेहतर।
अभी मैना के आने की संभावना दो -तीन दिन बाद थी। तब तक सरोजा ने कह दिया था कि हनुमन्त को सुबह -शाम का खाना वो दे दिया करेगी। हनुमन्त पहले तो राजी ना हुआ वो रामजस को लेकर आतंकित था। लेकिन जब सरोजा ने कहा कि उसे घर तक आने की जरूरत नहीं है वो खाना खुद पहुंचा दिया करेगी तब हनुमन्त मान गया। ऐसा दो तीन दिन चलता रहा । रामजस को ये पता लगा तो उसने कोई प्रतिवाद ना किया आखिर हनुमंत था तो उसका सगा भाई। जो कुछ भी हुआ था मैना की वजह से हुआ था वरना उस एक घटना के पहले और बाद में भी हनुमन्त ने उससे ऊंची आवाज में बात नहीं की थी।
इस लेन देन के दो दिन ही बीते थे, आधी रात का वक्त रहा होगा। सरोजा के दरवाजे पर दस्तक हुई। वो चौंक कर उठ बैठी उसने पूछा”कौन, दादा…..?”
“हां, उठ जा, बाहर आ, नकोड़ें आया है, ज़रूरी काम है निकल तो सही”रामजस ने कहा।
सरोजा उठ कर बाहर आई, उसने चिर्री वाली छुरी पल्लू में छुपा ली वो बाहर आयी उसने धीरे से पूछा “का बात है दादा, इस वक्त कौनो खास बात है का?अच्छी मुसीबत पाल लिये तुम, किसी दिन हम सब जान से जाएंगे”।
रामजस ने उसे डपटा- “चुप रह, सब मुसीबत दूर हो गयी। नकोड़ें कह रहा है कि उसने अभी कुछ देर पहले भुर्रे को गोली मार दी है । ये लोग उसे गोली मारकर भागे हैं । हमारा ही काम किये हैं । ऐसा कर थोड़ा सा नमक-मिर्च पीस दे। इन लोगों को बहुत ठंड लग गयी है । दारू -शराब पी लेंगे तो उनको कुछ राहत मिल जायेगी । खाना-वाना नहीं खाएंगे ये लोग । थोड़ी देर रुक कर चले जायेंगे और आज के बाद नहीं आएंगे लोग कहते हैं काम पूरा हो गया है अब आकर क्या करेंगे। थोड़ा चटनी-अचार भी दे देना”ये कहकर रामजस चले गये।
सरोजा नमक मिर्च पीसने में जुट गई उसने खड़ा नमक निकाला उसे सिल पर रखकर हरे मिर्च के साथ पीसना शुरू किया। पीसते -पीसते उसने आसमान की तरफ देखा वैसे कोहरे के कारण कुछ दिखायी नहीं पड़ता था फिर भी उसने अंदाज़ा लगाया कि आधी रात से ज्यादा का वक्त है । नमक -मिर्च पीसने के बाद उसने चटनी-अचार निकालकर एक प्लेट में रखा और दरवाजे के पास आकर कुंडी खतकाई। बड़ी देर तक कोई जवाब नहीं आया। थोड़े-थोड़े अंतराल पर दो-तीन बार उसने ऐसा किया लेकिन बाहर से कोई प्रतिक्रिया ना आयी। हारकर उसने पुकारा”दादा, …..दादा, ले लो इसको चटनी अचार अपना”।
फिर कोई जवाब नही आया वो कुछ सोच पाती तब तक एक आदमी दरवाजे के अंदर आ गया। लालटेन की रोशनी में उसने देखा कि ये जोखन था। वो डर के मारे सर्द हो गयी। उसे कुछ नहीं सूझा उसने हकलाते हुये पूछा-
”दादा, कहाँ हैं, चटनी -अचार मांगे थे”
जोखन ने सर्द स्वर में कहा “वो नहीं हम मांगे थे, उनको नशा ज्यादा चढ़ गया है, उठ ही नहीं पा रहे थे । पहले से भांग खाये थे अब दारू भी पी लिये तो नशा डबल होकर दिमाग तक चढ़ गया है। लेटे हैं खटिया पर। अब कुछ नहीं चाहिये हम सबको। तुम भी पल्ला बंद कर लो और जाओ सो जाओ”। ये कहते हुये उसने प्लेट सरोजा के हाथ से ले लिया औऱ मुस्कराते हुए चला गया।
सरोजा डर से इतना सिहर गयी थी कि उसे कुछ सूझा ही नहीं। उसने झट से किवाड़ बंद किया फिर आंगन पार कर भागी और अपनी कोठरी का किवाड़ बंद किया। उसका दिल डर से बेकाबू हो रहा था । अंधेरे में वो छुरी पकड़े बैठी रही और काफी देर बाद खुद को संयत कर सकी। उसे लगता था कि अभी दरवाजा तोड़कर डाकू भीतर आ जाएंगे और उसको तहस-नहस कर देंगे। अंधेरे में वो दीदे फाड़े देखती रही और अपने बारे में भयानक कल्पनाएं करती रही।
इसी उहापोह में करीब तीन घंटे बीत गये। नींद उसकी आंखों से कोसों दूर थी। अचानक बाहर के दरवाजे पर रह रह कर दो तीन बार दस्तक हुई । वो जानती थी कि मिट्टी की कोठरी उसकी हिफाजत नहीं कर सकती। फिर भी वो अपना दरवाजा खोलकर आंगन में आ गयी। अंधेरे में छुरी लिए वो सांस रोके खड़ी रही । दस्तक फिर हुई।
उसने जी कड़ा कर के पूछा”कौन”?
हमलोग हैं”उधर से आवाज आई
“क्या चाहिये”?सरोजा ने पूछा।
“चाहिये कुछ नहीं, हम लोग जा रहे हैं । यही बताना था कि रामजस पंडित कई घंटे से बेहोश है । उसकी हालत बड़ी खराब है, शायद बचेगा नहीं, देख लेना कहीं मर-मरा ना जाये। “ये जोखन का स्वर था।
सरोजा ने जी कड़ा करके कहा “ठीक है, वो मरे या जिये हमसे मतलब नहीं है, हमसे पूछ के नशा किये रहे। तुम लोग जाओ”
“ठीक है, तुम्हारा परिवार है हमसे क्या? तुम जानो, तुम्हारा काम जाने, हम जाते हैं” जोखन फिर धीरे से बोला।
सरोजा खिड़की की झिर्री से देखती रही । आम दिनों के विपरीत उनलोगों ने इस बार दरवाजे पर ही मोटरसायकिल स्टार्ट की और चले गये। वो लोग चले तो गये मगर अपने पीछे तमाम प्रश्न छोड़ गये जिसमें किसी का भी जवाब सरोजा के पास नहीं था। वो खिड़की की झिर्री से झांककर करीब बीस मिनट तक आहट लेती रही कि डाकू आसपास तो नहीं हैं। वो बड़े असमंजस में थी कि डाकू आसपास तो नहीं हैं। उसने उन लोगों को अपनी आंखों के सामने जाते देखा था फिर भी उसे डर लग रहा था कि अगर वो लोग लौट आये तो। और रामजस के बारे में जो वो लोग कह रहे हैं अगर वो बात सच है तो, , नहीं, नहीं वो रामजस को मरने नहीं दे सकती । लेकिन वो उन्हें बचाये कैसे, बाहर क्या पता डाकू छिपे हों या फिर वो हनुमन्त को बुलाये । लेकिन वो अगर आया तो उसे आधी रात की पूरी तफसील बतानी पड़ सकती है जो कि उसे हर्गिज़ गवारा नहीं था। आखिर वो भी तो उसका अनभला ही चाहता है कैसे जमीन हथियाने के लिए उसने उसके भाग जाने का झूठा प्रपंच रचा था। नहीं उसे बुलाना ठीक नहीं होगा । पहले वो खुद देख ले हो सकता है नशा ही ज्यादा चढ़ गया हो तो वो नींबू चटाकर नशा उतारेगी और बाद में जरूरत पड़ी तो हनुमन्त को बुला लेगी। फिर क्या करे वो?
उसने सोचा रामजस की कोठरी बरामदे में है उसके घर का दरवाजा बरामदे में ही खुलता है। अगर कोई उसके दरवाजा खोलने को ताड़ भी रहा होगा तो बरामदे में। तो क्यों ना वो किसी और रास्ते से रामजस के कमरे तक पहुंचे। वो आंगन में आई । उसकी रसोई के पीछे गुसलखाना था जो कि बाहर से नहीं दिखता था। वो गुसलखाने की छत पर चढ़ गई और पीछे झाड़ियों में कूद गयी। उस जगह पर वो जानती थी कि पुआल रखा है सो उसे चोट नहीं लगेगी। ये उसके घर का पिछला हिस्सा था जहाँ सिर्फ झाड़-झंखाड़ था। बाहर का व्यक्ति ये हर्गिज़ नहीं जान सकता था कि इस रास्ते घर मे घुस और निकला भी जा सकता है। कूदने के बाद उसने खुद को संयत किया और एक हाथ मे छूरी और दूसरे में टॉर्च लेकर बेआवाज़ वो पीछे से रामजस के कमरे के पास पहुंची। उसने बरामदे में जाने से पहले टोह ली । रामजस की खिड़की की झिरी में टॉर्च की रोशनी फेंकी। रामजस मुंह खोले छत की तरफ देख रहे थे उनकी आंखे खुली थीं। खिड़की की झिर्री से ये अंदाज़ा लगाना मुश्किल था कि उनकी सांस चल रही है या नहीं। लेक़िन बेहोश तो वे शर्तिया थे। यानी डाकुओं की बात सही थी। सरोजा वहीं खड़ी होकर कुछ सोचने लगी कि वो बरामदे से रामजस की कोठरी में अंदर जाए या किसी को बुलाये। वो कुछ सोच पाती उससे पहले छह मजबूत हाथों ने उसे जकड़ लिया। उसकी टॉर्च और छुरी छीन ली गयी। उसके मुंह में दो मजबूत हाथों ने कपड़ा ठूंस दिया और कसके उसका मुंह दबा लिया। वो बस गों-गों करती रही। तीनों डाकू उसे उठा लाये और रामजस की कोठरी में उसको पटक दिया। रामजस को खींच कर उनलोगों ने बरामदे की नंगी फर्श पर डाल दिया। रामजस ने हद से ज्यादा नशा कर रखा था। उसके पूरे बदन में उल्टी, कै और पेशाब लिथड़ी हुई थी। लेकिन वो जिंदा था। सरोजा को कमरे में पहुंचाने के बाद ना तो वो फरियाद कर सकती थी और ना कोई वार। तीन डाकू एक औरत। एक ने मुंह मे कपड़ा ठूंस रखा था और बराबर मुंह को दबाये हुए था और दूसरे ने उसके पैर पकड़ रखे थे ताकि तीसरे जिनां करने वाले शख्स को सहूलियत रहे। उन तीनों ने बारी-बारी से अपनी पालियाँ बदली। कभी कोई मुंह पर, कभी किसी ने पैरों को काबू कर रखा था और कभी कोई जिनां कर रहा था। एक बार, दो बार, कई बार जब तक उनके शरीर ने उनकी दिमागी हवस का साथ दिया तब तक वो ये गुनाहे अज़ीम करते रहे। फिर उस बेबस रूह को उसी हाल में छोड़कर वो सब चले गये।
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