Laut aao Deepshikha - 9 in Hindi Fiction Stories by Santosh Srivastav books and stories PDF | लौट आओ दीपशिखा - 9

Featured Books
  • तुझी माझी रेशीमगाठ..... भाग 2

    रुद्र अणि श्रेयाचच लग्न झालं होत.... लग्नाला आलेल्या सर्व पा...

  • नियती - भाग 34

    भाग 34बाबाराव....."हे आईचं मंगळसूत्र आहे... तिची फार पूर्वीप...

  • एक अनोखी भेट

     नात्यात भेट होण गरजेच आहे हे मला त्या वेळी समजल.भेटुन बोलता...

  • बांडगूळ

    बांडगूळ                गडमठ पंचक्रोशी शिक्षण प्रसारण मंडळाची...

  • जर ती असती - 2

    स्वरा समारला खूप संजवण्याचं प्रयत्न करत होती, पण समर ला काही...

Categories
Share

लौट आओ दीपशिखा - 9

लौट आओ दीपशिखा

उपन्यास

संतोष श्रीवास्तव

अध्याय नौ

जैसे ही गेट के सामने गाड़ी रुकी उसने गौतम को खड़े पाया- “अरे..... तुम अभी आये?”

“नहीं..... फोन लगा-लगा कर थक गया| तुम्हारे घर जाना मैंने उचित नहीं समझा| तब से यहीं खड़ा हूँ|”

जाने क्या हुआ..... किस लम्हे ने कहाँ छुआ उसे कि वह बेक़रार हो गौतम से लिपट गई| दोनों की ख़ामोशी सूनी सड़क पर बहुत कुछ कहती हुई फूलों की खुशबू और हवाओं के संग बहती हुई बार-बार दोनों से लिपटती रही..... रात ढलती रही|

तय हुआ कि शेफ़ाली उसे लेकर पूना जायेगी और वहीं एबॉर्शन होगा|

“दाई माँ को क्या बताना है और गौतम जो हर पल मेरे साथ रहता है| पता है कल वह मेरे घर के सामने तब तक खड़ा रहा जब तक मैं लौट नहीं आई|”

“लगता है तेरी भटकन अब समाप्त हुई और तुझे सच्चा जीवन साथी मिल गया| उसे सच बता दे| वह तुझे प्यार करता है| अगर उसे कहीं और से पता चला तो वह टूट जायेगा| दाईमाँ को प्रदर्शनी का बताओ|”

दीपशिखा खुद को तैयार करने लगी| गौतम को सच बताना ज़रूरी है| धीरे-धीरे उम्र की परिपक्वता से दीपशिखा ने महसूस कर लिया था कि गौतम अंत तक उसका साथ देगा| मुकेश उसे प्यार नहीं करता था बल्कि वह कच्ची उम्र का जुनूनथा| जो चढ़ा और उतर गया| नीलकांत के प्यारमें वासना थी| वासना ही प्यार में प्रतिशोध पैदा करती है|नीलकांत का ताज होटल में जो आक्रामक रवैया था वह दीपशिखा के द्वारा ठुकराए जाने और हताशा की वजह से था जिसने नीलकांत को जानवर बना दिया था| शायद इतनी प्रख्यात कुशल चित्रकार को अपने प्रेम के जाल में फँसाकर उसे एक वस्तु की तरह इस्तेमाल करने में नीलकांत का कुंठित मन संतुष्ट हुआ हो| यह बात पहले क्यों नहीं समझ पाई दीपशिखा| नीलकांत के बरक़्स गौतम ने उसकी हर चोट को सहलाया है..... दीपशिखा की तरफ़ से उसके प्रति उचाट, ठंडा व्यवहार भी गौतम को डिगा नहीं सका| अभी भी नहीं डिगेगा गौतम..... जानती है वह|

उसने गौतम को फोन लगाया- “तबीयत ठीक नहीं है गौतम|”

“घर पे हो न..... आता हूँ|”

आधे घंटे में पहुँच गया वह- “तो तुम्हारे घर आने का आज मुहूरत निकला?” वह हँसते हुए बैठ गया- “कैसी हो, क्या हुआ?”

दाई माँ की वजह से बताना मुमकिन नहीं था- “वो तो तुम्हें बुलाने का बहाना था| एक खुशखबरी सुनानी थी| मेरे और शेफ़ाली के चित्रों की प्रदर्शनी पूना में लग रही है| तुम चलोगे?”

“क्यों नहीं? तैयारी हो गई?”

“आज सुबह ही फोन आया कि दो दिन बाद पहुँचना है| चित्र तो तैयार हैं..... बस, रीटच देना होगा| आज घर पर ही आराम करूँगी| कल स्टूडियो जाऊँगी|” और अपने इस झूठ पर वह ग्लानि से भर उठी|गौतम ने इस सवाल को अंदर ही दबोच लिया कि..... ‘तुम जो कह रही हो..... वजह वो नहीं लग रही है मुझे|’ दीपशिखा उठकर देख आई..... दाई माँ रसोई में सब्ज़ी काट रही थीं- “गौतम के लिए भी खाना बनेगा दाई माँ|”

और वह गौतम को लेकर बाल्कनी में आ गई| बादलों की वजह से धूप नहीं थी, मौसम सुहावना लग रहा था| समुद्र में दूर एक जहाज की चिमनी धुँआ उगल रही थी| उसने धीरे-धीरे सब कुछ बताया, बताकररीएक्शन देखने के लिये उसने गौतम की ओर देखा..... एक देवत्व नज़र आया वहाँ| एक ऐसी गहराई जहाँ खुद को खँगाल सकती है वह..... सिर्फ आज ही नहीं, बल्कि हमेशा|

पूना में एक दिन पहले जाकर गौतम ने डॉक्टर से अपॉइंटमेंट और होटल बुक किया| दाई माँ को बताना पड़ा कि सामान ज़्यादा होने के कारण बड़ी गाड़ी किराये से ली है| वैसे भी दाई माँ ज़्यादादख़लंदाज़ी नहीं करतीं लेकिनअपने मन में अपराधबोध होने के कारण दीपशिखा सतर्क थी| जब वह शेफ़ाली के साथ पूना पहुँची तो गौतम एक ज़िम्मेवार युवक सा होटल के रिसेप्शन में उनका इंतज़ार कर रहा था| बारह बजे का अपॉइंटमेंट था| फ्रेश होकर दीपशिखा को छोड़कर दोनों ने नाश्ता किया| दीपशिखाको नाश्ता नहीं करना है डॉक्टर की हिदायत थी| एनस्थीशिया के लिये कुछ भी न खाना बेहतर है वरना उल्टियाँ होने लगती हैं| जब वेमेटरनिटी होम पहुँचे, डॉ. उन्हीं का इंतज़ार कर रही थीं| दो बजे तक सब कुछ सहूलियत से निपट गया था| ऑपरेशन रूम से जब नर्स दीपशिखा को लेकर बाहर आई तो वह बहुत कुम्हलाई और बीमार नज़र आ रही थी| दवाईयाँ, प्रीकॉशन समझाते हुए डॉक्टर ने गौतम से कहा- “आपकी वाइफ़ बहुत वीक़ हैं| इन्हें ख़ास देखभाल की ज़रुरत है| टेंशन से इन्हें दूर रखें वरना डिप्रेशन भी हो सकता है| ओ.के.|”

डॉक्टर के वाइफ़ कहने पर दीपशिखा चौंकी थी पर शेफ़ाली ने उसका कंधा दबाया| बाहर निकलते हुएआहिस्ते से कहा- “और क्या कहता गौतम कि तुम कुँवारी हो?”

हलका फुलका खाकर दीपशिखा सोना चाहती थी| शेफ़ाली और गौतम ने उसे आराम करने दिया और खुद कमरे से बाहर चले गये|

“दीपशिखा बहुत बीमार दिख रही है| दाई माँ से क्या कहेंगे? कहीं शक न हो जाए|”

शेफ़ाली की चिन्ता सही थी लेकिन गौतम सहज था- “हमारे मन में दुविधा है इसलिए हम ऐसा सोचते हैं..... कहीं जाकर क्या कोई बीमार नहीं पड़ता?”

शेफ़ाली को गौतम बेहद सुलझा हुआ लगा|

“दीपू ने बहुत सहा है गौतम| अगर तुम उसके साथी बन जाओ तो वह जी उठेगी|”

“साथी हूँ न, अभी तक तुमने मुझे पहचाना नहीं? मैं उसे प्यर करता हूँ, उसकी केयर करता हूँ, उसके लिए हमेशा हाज़िर हूँ|”

शेफ़ाली आश्वस्त हुई| रातदबे पाँव आ चुकी थी|

“एक बात मानोगे गौतम? मैं चाहती हूँ तुम दीपू के कमरे में ही रुको, मैं तुम्हारे कमरे में सोऊँगी| अभी तुषार का फोन आ जायेगा, नाहक डिस्टर्ब होगी दीपू|”

गौतम ने कमरे की चाबी उसकी ओर बढ़ा दी| दीपशिखा के कमरे में रखा शेफ़ाली का बैग भी वहाँ पहुँचा दिया|

करीब एक बजे दीपशिखा ने कराहते हुए करवट ली| गौतम ने लाइट जलाई| उसके पास जाकर पूछा- “क्या हुआ दीपशिखा, कुछ चाहिए?”

वह उठने की कोशिश करने लगी परउठा नहीं गया| ब्लीडिंग बहुत अधिक हो रही थी- “शेफ़ाली?”

“वो मेरे कमरे में सो रही है, कुछ चाहिए?”

उसने बाथरूम जाना चाहा| गौतम उसे बाथरूम तक पहुँचा आया| उसका गाउन खून से खराब हो चुका था| गाउन बदल कर वह पलंग तक आई| गौतम ने सहारा दिया| पानी पिलाया| घंटे भर बाद फिर वही हाल| अब की बार गौतम ने उसे उठने नहीं दिया| उसी ने नर्स बनकर सब कुछ चेंज किया| रात भर जागता रहा| सुबह तक दीपशिखा की तबीयत में सुधार था|

“मैं सोचता हूँ कल सुबह हम लोग मुम्बई लौटें| दीपशिखा के लिये ये सही होगा|” गौतम ने रात की बात शेफ़ाली को नहीं बताई लेकिन दीपशिखा और शेफ़ाली का रिश्ता पारदर्शी था| गौतमजबनहाने गया उसनेसब कुछ बता दिया|

“ग्रेट..... मैं कहती थी न दीपू कि तुझे अब सच्चा जीवन साथी मिल गया है|”

“रात भर उसने मेरे पैड बदले, मेरा नरक ढोया|”

“अब नरक ख़त्म| अब धरती पर ही स्वर्ग के दरवाज़े खुल गये हैं तेरे लिये|”

दीपशिखा शेफ़ाली के कंधे पर सिर रखकर रो पड़ी| शेफ़ाली ने उसे रो लेने दिया| वह अपनी सखी को बेइन्तहा प्यार करती है और जानती है कि दीपशिखा अब और भी अधिक मज़बूत हो गई है| मुश्किलें इंसान को मज़बूत बना देती हैं फिर इससे क्या कि वह पराए बदन से गुज़रकर मज़बूत बनी है| अब तो उसे अपना साथी मिल ही गया है|

पूना से लौटकर दीपशिखा ज़्यादातर समय स्टूडियो में गुज़ारने लगी| वह काम के प्रति बेहद गंभीर होती जा रही थी| इस साल बेंग्लोर, कोलकाताऔर मॉरीशस में प्रदर्शनी आयोजित करने का बुलावा विभिन्न संस्थाओं द्वारा आया था जिसे अपनी कला की सफलता मान दीपशिखा की टीम कमर कस कर जुट गई थी| शेफ़ाली उतना समय तो नहीं दे पाती थी लेकिन इन प्रदर्शनियों में उसकी भी पेंटिंग्स होंगी यह तय था| शामें गौतम के साथ गुज़ारकर दीपशिखा ऊर्जा से भर उठती थी..... दीपशिखा के साथ गौतम भी जो नौकरी कीतलाश में दिन भर भागदौड़ में रहता था|

जाड़े के शुरूआती दिनों में दो खुशखबरियों ने दीपशिखा के दरवाज़े पर दस्तक दी| पहली तो ये कि बेंग्लोर और कोलकाता की चित्र प्रदर्शनियों की सफलता से जहाँ एक ओर ‘अंकुर ग्रुप ऑफ़ आर्ट’ ने यश और धनएक साथ प्राप्त किया था वहीं मॉरीशसके साथ-साथ उन्हें फ़ीज़ीमें भी आमंत्रित किया गया था| दीपशिखारातों रात सेलेब्रिटीहो गई थी क्योंकि उसके चित्र ही सबसे ज़्यादा बीके थे और दूसरी खुशखबरी थी गौतम की विदेशी कम्पनी में पी आर ओ की नौकरी पाने की| अब दोनों इतने अधिक व्यस्त हो गये थे कि एक दूसरे के लिए समय कम ही निकाल पाते|गौतम सुबह से रात तक व्यस्त रहता| रात ग्यारह बजे ही फोन पर बात हो पाती| हालाँकिइस बात से दीपशिखा डिस्टर्ब नहीं थी लेकिन गौतम था| वह अब दीपशिखा के साथ ही रहना चाहता था| ओशीवारा में गौतमके बड़े भाई का बंगला था जो बंद पड़ा था| वे दुबई में सैटिल हो गये थे और गौतम से उनका आग्रह था कि वह बंगला या तो खुद ख़रीद ले या बिकवा दे| खुद ख़रीदना चाहता है तो बस ज़मीन की कीमत दे दे| बाज़ार भाव से उन्हें कुछ लेना देना नहीं था| काफी सोच विचार के बाद गौतम और दीपशिखा ने मिलकर बंगला मुनासिब दाम में ख़रीद लिया| तय हुआ कि वे बंगले में दीपशिखा की विदेश यात्रा के बाद ही शिफ़्टहोंगे वरना दीपशिखा डिस्टर्ब हो जाएगी| वैसे भी इस बार उसने काफी कठिन थीम चुनी है| वह कालिदास के सम्पूर्ण लेखन की सीरीज़ चित्रित कर रही है जो अपने आप में अनोखा और अद्भुत काम है|इन चित्रों में वह तमाम चटख़ रंगों का इस्तेमाल कर रही है और हर चित्र के नीचे कालिदास रचित काव्य की दो पंक्तियाँ चमकीले रंगों से उकेर रही है| शेफ़ालीग्रीकमिथक कथाओं की श्रृंखला बना रही है बल्कि ‘अंकुर ग्रुप ऑफ़ आर्ट’ के सभी चित्रकार इस बार मिथकों और पुराकथाओंपर ही काम कर रहे हैं|

विदेश यात्रा पर जाने से पहले दीपशिखा पीपलवाली कोठी केवल दो दिनों के लिये गई| सुलोचना ने बताया था कि यूसुफ़ ख़ानएंजाइना की बीमारी से पीड़ित हैं|

“ये क्या रोग पाल लिया आपने पापा| मैं मॉरीशस और फ़ीज़ी से लौटते हुए आपको मुम्बई बुला लूँगी| वहाँ बेहतर इलाज की संभावना है.....और अब तो रहने के लिए शानदार बंगला भी है|”

“बंगला..... किसका?” सुलोचना ने आश्चर्य से पूछा|

“हमारा..... मैंने जुहू वाला फ़्लैटभी बेच दिया है| विदेश से लौटते ही हम ओशीवारा शिफ़्ट हो जायेंगे|”

“हम कौन?” पापा की त्यौरियाँ चढ़ चुकी थीं|

खामोश रही दीपशिखा| यह मौका गौतम के बारेमें कुछकहनेका नहीं है| पापा का तनाव बढ़ सकता है जो एंजाइना की बीमारी में ख़तरनाक है| लेकिन बात तो दाई माँ ने उनतक पहुँचा दी थी|

“तुम क्या गौतम की बात कर रही थीं? आजकल उसी से तुम्हारी दोस्ती चल रही है न?” सुलोचना ने दीपशिखा का मन टटोलना चाहा|

“हाँ..... तो क्या हुआ..... हम सब कलाकार हैं| प्रोफ़ेशन ही ऐसा है कि दोस्त बन जाते हैं| माँ..... पापा की रिपोर्ट्स मुझे दे दो| मैं तुषार को दे दूँगी ताकि वह डॉक्टरोंसे कंसल्ट कर सके|”

फिर देर तक दीपशिखा प्रदर्शनियों के क़िस्से सुनाकर दोनों का दिल बहलातीरही| मुम्बई वापिसी के दौरान दोनों को ही उतना खुश नहीं देखा दीपशिखा ने जितना यूरोप जाते समय देखा था| वह दाई माँ को लेकर भी उलझन में पड़ गई थी|

एक महीनेमॉरीशस और फीज़ी में चर्चा का विषय बना ‘अंकुर ग्रुप ऑफ़ आर्ट’ जब भारत लौटा तो अख़बारों के सेलेब्रिटी पेज में ख़ासकर दीपशिखा और शेफ़ाली रंगीन चित्रों सहित छपीथीं|कई चैनलों ने उनके साक्षात्कार भी लिये थे| आते ही तुषार ने शेफ़ाली को पब्लिक स्कूल में आर्ट टीचर की उसकी नियुक्ति का पत्र उसे थमाया तो खुशी से चहक उठी शेफ़ाली| उसने तुरन्त दीपशिखा को खुशखबरी सुनाई- “आज का दिन तो सेलिब्रेट करने का है|”

“बुध को गृहप्रवेश का मुहूर्त निकला है| क्यों न हम अपने बंगले में ही इसे सेलिब्रेट करें|तू अभी आजा| बंगला देखने चलते हैं|” दीपशिखा ने बेहद खुशी से भरकर कहा|

“आती हूँ चार बजे शाम को|” फोन रखते ही सुलोचना का फोन- “कैसा रहा सफ़र?”

“शानदार..... माँ अब आपकी बेटी प्रतिष्ठित चित्रकारों की श्रेणी में आ गई है| औरबंगले में गृहप्रवेश का मुहूर्त भी बुधवार का निकला है| क्या आप आ सकेंगी?”

तभी गौतम ने पीछे से आकर उसके गले में बाहें डाल दीं| उसकी आवाज़ पल भर को लड़खड़ाई फिर सहज हो गई|

“नहीं दीपू..... तुम्हारे पापा के लिए सफ़र करना ठीक नहीं है और मैं नौकरोंके भरोसे उन्हें नहीं छोड़ सकती|”

“माँ..... मैं दाई माँ और महेश काका को वापिस भेज रही हूँ| मैं अधिकतर टूर पे रहती हूँ, या स्टूडियो में| खाना पीना भी घर पे नहीं के बराबर होता है| वहाँ रहकर वो दोनों पापा की देखभाल करें ये बात इंपॉर्टेंटहै|” सुलोचना समझ गईं..... दीपशिखा अब अपनी ज़िन्दग़ी में किसी की दख़लंदाज़ी नहीं चाहती| वेजानते हैं गौतम और दीपशिखा ने मिलकर बंगला ख़रीदा है और वे दोनों अब साथ रहेंगे|

बंगला बेहद शानदार था| गुलमोहर के पेड़ों से घिरा, बड़े बड़े कमरों वाला| खूबसूरत बगीचा, लम्बा चौड़ा लॉन..... गृहप्रवेश के दिन दीपशिखा ने कड़ी मेहनत से बंगला दुल्हन की तरह सजाया था| शेफ़ाली का परिवार,सभी चित्रकार दोस्त और चार पाँच गौतम के दोस्त..... कुलमिलाकर बीस लोगों के लिए दाई माँ ने लज़ीज़ भोजन बनाया था| हवन के सुगंधित धुएँ ने बंगले को मानो आध्यात्मिक स्थल सा बना दिया था| पंडितजी को जिमाकर, दक्षिणा आदि देकर बिदा कर दिया गया था और सभी मिलकर अब पार्टी का लुत्फ़ उठा रहे थे|सना, शादाब झूम झूम कर नाच रही थीं, एंथनी नेशराब का इंतज़ाम भी किया था और दाई माँ अवाक़ खड़ी सारा नज़ारा देख रही थीं| दीपशिखा को लेकर ऐसी ज़िन्दग़ी की कल्पना भी उनके लिए दूभर थी|

दूसरे दिन सुबह दीपशिखा ने एक अटैची भर साड़ियाँ, ब्लाउज़, चादरें वगैरह दाई माँ और महेश काका को थमाते हुए दो एयर टिकटें भीदीं|

“तैयारी कर लो दाई माँ..... अब तुम दोनों की मुझे नहीं बल्कि माँ पापा को ज़रुरत है| पापा बीमार हैं| वहाँ पहुँचकर पल पल की ख़बर मुझे देना| अब तुम लोग एयरपोर्ट के लिए रवाना हो जाओ|”

और वह दाई माँ से लिपटकर रो पड़ी| दाई माँ और महेश काका भी रोने लगे| गौतमउन्हेंएयरपोर्टपर छोड़ते हुए ऑफ़िस चला जायेगा| वह जल्दी-जल्दी तैयार हो रहा था| कार में बैठने से पहले दाई माँ ने धीरे से कहा- “बिटिया रानी, ऐसा कुछ मत करना जिससे पीपलवाली कोठी बदनाम हो|”

दीपशिखापर इस बात का कोई असर नहीं हुआ बल्कि अब वह इंतज़ार कर रही थी कि कब दाई माँ पहुँचे और कब विस्फ़ोट हो|

और हुआ भी यही| फोन पर सुलोचना की आवाज़ विचलित कर देने वाली थी|

“दाई माँ से सारी बातों की जानकारी मिली| गौतम से बात कराओ मेरी|”

दीपशिखा घबराई ज़रूर लेकिन तुरन्त ही उसने खुद पर काबू पा लिया| गौतम ने लाउडस्पीकर ऑन कर लिया- “जी माँ.....”

“माँ कहा है तो बस इतना करो| मंदिर जाकर शादी कर लो| कम से कम समाज थूकेगा तो नहीं हम पे..... यही कहेगा कि बेटी नेबिनाबताए शादीकर ली|”

गौतम और दीपशिखा चुप थे|

“क्यों..... चुप क्यों हो? क्या इतना ही हौसला रखते हो? डरते हो बंधन से? आज़ादी चाहिए न?”

दीपशिखा ने फोन अपनी तरफ़ किया- “हाँ माँ, आज़ादी चाहिए| मैं बंधन में नहीं बँधना चाहती| माँ, मुझे माफ़ करो|”

उसने फोन काट दिया और ख़ामोशी से उठकर लॉन की ओर चली गई| माली ने अभी-अभी लॉन की दूब सींची थी| भीगी दूब पर वह नंगे पाँव चलने लगी| पैरों के संग-संग आँखें भी भीगने लगीं|

वह रात भर माँ के बारे में ही सोचती रही| सच है, उसे लेकर उनके भी कई ख्वाब होंगे| शादी, मंडप, दामाद, बिदाई, जैसे हर माँ का बेटी के लिए सपना होता है उनका भी तो होगा|पर उसने उन्हें सिवा रुसवाई के दिया क्या? पापा से शादी भी उनके लियेएक चुनौती थी और अब वह भी उनके लिये चुनौतीबन गई है|

दीपशिखा के बंगले में शिफ़्टहोने के साल भर के अंदर घटनाओं ने तेज़ी से करवट बदली| सना शादी के बाद रायपुर चली गई और शादाब जबलपुर| जास्मिन ने अचानक चित्रकारी छोड़कर मॉडलिंग का क्षेत्र चुन लिया| आफ़ताब ने फोर्ट में अपना बहुत बड़ा स्टूडियो खोलकर अखबारों, पत्रिकाओं में कार्टून बनाने का काम शुरू कर दिया|एंथनी अब भी दीपशिखा और शेफ़ाली के साथ था लेकिन वह भी अब स्थाई नौकरी की तलाश में था| अखबारों में दक्षिण भारत में प्रति दो वर्ष में आयोजित होने वाले ‘कलाकुंभ’ की खबरें पढ़कर और उससे भी अधिक इस कलाकुंभ में सम्मिलित होने का निमंत्रण पाकर दीपशिखा और शेफ़ाली खुशी से नाच उठीं|यह एक ऐसा अवसर था जिसमें अंतरराष्ट्रीय स्तर के चित्रकार शामिल होते थे| इस बार प्राकृतिक सुषमा से समृद्ध केरल में यह आयोजित हो रहा था| तीन महीने तक चलने वाला इस आयोजन में पूरे विश्व से कई प्रमुख चित्रकार हिस्सा लेंगे| दीपशिखा को अपना बेस्टसाबित करना था| वह पूरी एकाग्रता से कलाकुंभकी तैयारी में जुट जाना चाहती थी| बहुत बड़ी चुनौती है उसके सामने| अपनीखुशियों को शेफ़ाली के संग बाँटते हुए वह जॉगिंग गार्डन में गौतम का इंतज़ारकर रही थी| गौतम के साथ आज की शाम वे तीनों नाटक देखेंगे और चायनीज़ डिनर के बाद घर लौटेंगे|

“थीमक्या सोची है तुमने दीपू?”

“सोच ली है..... मैं‘नृत्य उत्सव’ पर पेंटिंग्स तैयार करूँगी| सेमीरियलिस्टिक स्टाइल में नृत्य का एक संसार ही मैं अपने चित्रों में उतारूँगी| जिसमें अजंता एलोरा के भित्ति चित्रों के लुक में मानव आकृतियाँ नृत्य का उत्सव मनाती नज़र आएँगी, ये परम्परागत नृत्य से अलग हटकर होगा| मैं इनके ज़रिए संगीत के मार्ग से होकर ईश्वर से साक्षात्कार का मिथक तैयार करूँगी|”

“अच्छी थीम है| मैं‘अपराजिता’ चित्र श्रृंखला तैयार करूँगी| मेरे चित्र औरत की तमाम क्षेत्रों में सफलताओं के प्रतीक होंगे जिनमें छिपे होंगे वे बिम्ब जो औरत को सिर्फ भोग की वस्तु समझते हैं|” शेफ़ाली की आँखों में अतीत के कई पन्ने फड़फड़ाये जिसमें दीपशिखा का अतीत भी पलभर को झाँका| गौतम के गेटसे अंदर आते देखदोनों उठकर उसके पास आ गईं- “ठीक वक़्त पर आये|”

“मैंटिकट्स भी ले आया हूँ| अभी प्ले शुरू होने में आधा घंटा है| चलो कॉफ़ी पीते हैं और समोसे खाते हैं|”

“समोसेके साथ कॉफ़ी?”

“तू चाय पी लेना शेफ़ाली|” दीपशिखा ने हँसते हुए कहा|

नाटक बहुत अच्छे से मंचित होने के कारण तीनों ही इस शाम को सार्थक महसूस कर रहे थे| शाम तो वैसे भी सार्थक थी| कलाकुंभ के लिये थीम भी तय हो गई थी और कई महीनों बाद गौतम और शेफ़ाली के साथ कुछ घंटे फुरसत से बिताने का मौका मिला था| यह भी तय हुआ था कि अगले दो महीने केवल जुटकर काम ही होगा| स्टूडियो में दीपशिखा तो लंच के बाद पहुँच जाएगी, शेफ़ाली डेढ़ बजे स्कूल से सीढ़ी स्टूडियो पहुँचेगी और दोनों रात के आठ बजे तक काम करेंगी|

***