सड़कछाप
(३)
अमरेश की पढ़ाई ना के बराबर चल रही थी। दुख और संवेदना का समय बीत चुका था। लल्लन की मौत बेशक एक स्थायी दुख था लेकिन उसकी मृत्यु से उपजी सहानुभूति अब समाप्त हो चुकी थी। जिंदगी की कड़वी सच्चाइयों से अब सामना था। जिंदगी के अभाव रोज के रोज डसते थे। पुलिस की रिपोर्ट भी मख़ौल उड़ाने में काफी कारगर थी। तो गालिबन अब मसला ये था कि लल्लन शुक्ला ने अपनी मौत को खुद दावत दी थी। उन्होंने लालच में मुखबिरी की और फिर हथियार लेकर भुर्रे से निपटने चले थे सो उन्हें उनका अंजाम मिला। ये भी खबर अब आम थी कि लल्लन शुक्ला पहले से पुलिस के मुखबिर थे। गांव उन्हें नचनिया पहले से कहता था ऊपर से मुखबिरी की बात ने मृत्यु के बाद भी उनके दोषों का बढ़ा दिया था। और जब दोषी खुद भगवान को प्यारा हो जाये तो पृथ्वी पर लोग उनके अपनों से इस बात का बदला ले रहा था। अमरेश और सरोजा के हिस्से में अब कोई सहानभूति ना थी। अलबत्ता मुखबिर, नचनिया और हथियार बन्द अपराधी और ना जाने क्या-क्या। सरोजा को लल्लन शुक्ला का नौटंकी में नाचना बहुत अखरता था। उसे बहुत शर्मिंदगी होती थी जब उसकी बहनें उसके पति के नाचने का मजाक उड़ाती थीं। बेटा जब तक ना हुआ तब तक वो लोगों की शंका में रही। एक बार तो उसकी माँ ने भी पूछा था कि कहीं लल्लन नामर्द तो नहीं है । सरोजा ने बहुत दबाव डाला कि लल्लन नाचना छोड़ दे उसे बहुत शर्मिंदगी होती है। लेकिन लल्लन नहीं माने। इसी विवाद से उन दोनों में पति-पत्नी का कोई रिश्ता ना रह गया। वो बस साथ रहते थे और अगर अमरेश ना पैदा हो गया होता तो वे शायद साथ भी ना रहते। इसीलिये लल्लन शुक्ला महीनों गजराज सिंह के बंगले पर पड़े रहते। जल्दी गांव ना आते। सरोजा भी अभाव में अपने दिन काट लेती । मगर कभी किसी से कुछ ना माँगती।
सरोजा मायके भी जाती तो वहां भी चैन ना था। उसकी दोनों बहनें पहले से ही बारी बारी
मायके में रह रही थीं। एक जाती तो दूसरी आ जाती । अलबत्ता दूसरी पता लगाती रहती थी कि पहली कब जायेगी । कभी -कभी दोनों साथ ही आ जातीं थी। दोनो के पति कुछ नही करते धरते थे । दोनों अपनी पत्नियों के पल्लू में बंधे ससुराल में ही पड़े रहते। सरोजा के अलावा उन दोनों बहनों और दोनों दामादों में एक होड़ मची थी कि कौन अपने बाप के धन को ज्यादा से ज्यादा हथिया सके।
अमरेश के नाना लोकपाल तिवारी के अथक प्रयासों के बावजूद भी लल्लन शुक्ला की मौत का मुवावजा मिल ना सका। वो जानते थे कि रामजस को धन का लालच नहीं था लेकिन नशे की तलब इंसान से कुछ भी करवा सकती है इसलिये वो इस बात को लेकर काफी सचेत थे। उन्होंने दौड़ धूप करके कचहरी में साझे नंबर होने के बावजूद खतौनी में लल्लन शुक्ला की बेवा और परिवार रजिस्टर में भी उन दोनों का नाम दर्ज करा दिया। ताकि ज़मीन जोते -बोए चाहे जो लेकिन रामजस और हनुमन्त सिर्फ आपने हिस्से की जमीन ही बेच सकते हैं । अमरेश का तीसरा हिस्सा महफूज रहेगा। उधर रामजस को जो थोड़ा बहुत लिहाज था वो भी जाता रहा। काम-धाम कुछ नहीं करते थे। सिरवारी रही नहीं बस उसकी बातें रह गयी थी।
सरोजा इधर-उधर मिन्नत करके खेती बुआती थी। फसल खेत-और खलिहान से कोई और काट ले जाता था रामजस की उधारी के एवज में। रामजस से पूछती तो कहते कि लल्लन की कर्माही में जो रुपये खर्च हुए थे, उसी का कर्जा पाट रहे हैं। वो जानती थी कि रामजस से कुछ कहेगी तो पिटेगी, बेइज़्ज़त होगी । फिर मैना को बचाने वाला तो उसका पति था उसे रामजस के कहर से कौन बचायेगा। लोकपाल तिवारी जब -तब आते जो होता मदद करते मगर वो भी ज्यादा मदद कर पाने की स्थिति में नहीं थे। क्योंकि अपनी बाकी की दो बेटियों उनके बच्चों और दामाद को अप्रत्यक्ष रूप से वही पाल रहे थे। लोकपाल तिवारी जूट मिल में नौकरी करते रहे थे जिंदगी भर कलकत्ता में। परमानेंट थे मगर जब मिल ही बंद हो गयी तो कैसी नौकरी?कुछ पैसे देकर कंपनी ने उनको भी विदा कर दिया। लोकपाल तिवारी ने बहुत प्रयास किया मगर उनको दूसरी ठीक-ठाक नौकरी मिल ना सकी। साठ साल की लगभग उम्र हो चुकी थी। वैसे भी छंटनी के दौर में जब जूट मिलें धड़ाधड़ बंद हो रही थीं। पढ़े-लिखे और फिट नौजवानों को नौकरी के लाले थे। उस दौर में उनके जैसे अल्प शिक्षित और बूढ़े व्यक्ति को नौकरी कौन देता। सो वो अपना सब कुछ बटोरकर गांव लौट आये । उनका घर भी रायबरेली में था मगर अमरेश के घर से आठ कोस दूर था। वो लौट आये । दो एकड़ की खेती थी मगर बेटी -दामाद मुस्तक़िल घर पर जुटे रहते थे तो जमा रकम और छमाही की खेती से खर्चा संभल नहीं रह था। सो उन्होंने दूध बेचने का काम शुरू किया। अपनी जमा पूंजी से दो भैंस और दो गायें ले आये। उसी का दूध सुबह शाम गांव में ही बिक जाता । जिससे रोजमर्रा के खर्च निकल जाते थे। उन्होंने जब अमरेश और उसकी मां को खाने-पीने के लाले देखे तो वो उसे अपने पास लिवा लाये।
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